दीपिका पादुकोण बैडमिंटन की खिलाड़ी रह चुकी हैं। उछल उछल कर मारने का अभ्यास उन्हें होगा। लम्बी भी हैं। टांगें दुरुस्त और मजबूत भी। उछलना और हिट करना, एक अजब तरह का आकर्षण पैदा करता है। देखने वाले रीझ ही जाते हैं।
खिलाड़ियों के प्रति जनता का आकर्षण उनकी फुर्ती को देख कर बनता है। फुर्तीला बने रहने के लिए शरीर को फिट रखना पड़ता है। फिट रहने के लिए शरीर के वजन को नियंत्रित रखना पड़ता है। इसके लिए खाने और पीने से दूर रहना पड़ता है। खाने पीने में कैलोरी इतनी अधिक होती है कि शरीर में कई कई टायर निकल आते हैं।
लेकिन जीवन का आनन्द तो खाने पीने में है। मगर खा पी नहीं सकते। आम आदमी के लिए पार्टियों का आकर्षण खाने, ड्रिंक और सिगरेट में ही होता है। मगर खिलाड़ियों के लिए यह वर्जित है। उनके लिए आनन्द का स्रोत क्या है? ड्रग का सेवन उनकी विवशता है। वह कैलोरीलेस होता है। संभवतः गन्धविहीन भी होता है। मात्रा भी ग्राम या मिली ग्राम में होती होगी। परिणाम भी तुरत मिलता होगा।
यह सब इसलिए बता रहा हूं कि लेने दीजिए न ड्रग उन्हें। अगर नहीं लेंगे तो वे खेल नहीं पाएंगे। खेलेंगे नहीं तो हमारा मनोरंजन कौन करेगा? केवल टीवी चैनलों के भरोसे कैसे चलेगा? हमारा मनोरंजन नहीं होगा तो हम जीवन में संघर्ष कैसे करेंगे? चलिए हम किसी तरह जी लेंगे, मगर देश? देश को मान कौन दिलाएगा? राजनेता तो अपने मान का हिसाब किताब ही ठीक से नहीं रख पाते।
पहले की बात और है। पहले दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले बहुत लोग थे। बानगी के लिहाज से बुद्ध थे। गाँधी ने भी भारत का सर ऊंचा किया। रवींद्र नाथ ने किया। पहले अलग अलग क्षेत्रों से लोग आते थे, मान बढ़ाते थे। अब सूखा पड़ा है।
ऐसे अकाल के काल में खिलाड़ी हैं, जिन्होंने भारत के मान का परचम संभाल रखा है। वे देश के लिए खेलते हैं। देश के लिए कौन खेलता है? हर बन्दी – बन्दा अपने लिए खेलता है। मगर जो देश के लिए खेलेगा, वह देश से भी खेलेगा। जो पत्नी से प्यार करेगा, वह पीटेगा भी। जो टैक्स दे सकता है, वह टैक्स की चोरी भी करता है। जो देश का जीडीपी बढ़ाएगा, वह सरकारी खजाने का गबन नहीं करेगा? खिलाड़ियों के बारे में तार्किक तरीके से सोचने का समय है।
केवल खिलाड़ी क्यों? नहीं, बात केवल खिलाड़ी की नहीं है। हम उस सम्प्रदाय की बात कर रहे हैं जिन्हें हमारे मनोरंजन के लिए अपने शरीर को स्लिम – ट्रिम रखना पड़ता है। सोनाक्षी सिन्हा ने जब हमारे मन बहलाने की जिम्मेवारी नहीं ली थी, मजे से खाती थी। मोटाती थी। सारा अली खान भी। आलिया भट्ट भी।
लेकिन जब ये सब हमारा मन बहलाने के लिए तत्पर हुईं, त्याग किया। वजन का। मोटापे का। ये सभी अपने मोटापे से भी हमारा मनोरंजन कर सकती थीं, मगर हम चिढ़ भी सकते थे।
हम तो हीरो भी स्लिम ट्रिम देखना चाहते हैं। बोनी कपूर या अनुराग कश्यप हीरो बन कर हमारा मनोरंजन करें, तो हम चिढ़ नहीं जाएंगे? हम सब मनोविकार के शिकार हैं, हमारे फिल्मी हीरो हीरोइनें हमारे मनोचिकित्सक।
खिलाड़ियों की तरह ये भी दुनिया में भारत का नाम रौशन करते हैं। इन्हें ड्रग लेने दीजिए। ये किसी भी पार्टी में न खाना खा सकते हैं। न ड्रिंक ले सकते हैं। ड्रग से वंचित न करें। बेचारे जी न पाएंगे। उच्च विचार इनका लक्ष्य नहीं है कि सादा जीवन तक सीमित रहें।
यह वही दीपिका पादुकोण है जिसने हमें सिंदूर का महत्व बताया था। सिंदूर हमारी संस्कृति। सिंदूर के महत्व को भूलना, संस्कृति से दूर जाना है। दीपिका के इस योगदान को नहीं भूलना चाहिए राष्ट्रवादियों या संस्कृतिबाजों को।
अगर दीपिका नहीं होती, आप किसान आंदोलन की हवा कैसे निकालते? जब किसान प्रतिवाद कर रहे थे, दीपिका एनसीबी को पढ़ा रही थी। टीवी वाले दीपिका को चला रहे थे। जनता को किसानों के दुख दर्द से दूर रखा।
दीपिका ने जिस तरह एनसीबी को अपने शब्दकोश के शब्दों और अर्थों से परिचय कराया, वह दूसरों के लिए प्रेरणा और हौसला का स्रोत बनेगा। केवल अपराधियों के ही तो कूट शब्द नहीं होते। अपना अपना शब्दकोश अपना अपना संविधान।
जिनका अपना रुतबा होता है उन्हें कानून का डर नहीं व्यापता। ड्रग के मामले में रुतबेदारों ने ही चैट किए। जाहिर है कि उन्हें कानून से डर नहीं लगता। सलमान जिस आराम से कुचलकर या मारकर चौड़े से जीते हैं, जाहिर है उन्हें कानून से डर नहीं लगता।
कास्टिंग काउच की कथा व्यथा उजागर होती रहती है, मगर सिलसिला थमता नहीं। मी टू अभियान बनता है, मगर दिल है कि मानता नहीं। पायल घोष बोलती है, लेकिन कहीं जूं रेंगती नहीं। चूंकि कानून का डर लगता नहीं, लोग निडर होते जाते हैं। निडरता से निर्भया पैदा होती है।
दिल्ली के निर्भया कांड की इबारत हमारे कपाल पर कलंक की तरह लिखी है, मगर वह आखिरी निर्भया कांड नहीं बना अब तक। एक और निर्भया हाथरस में हो गयी। अपराधी अपराध करता है निडरता से। पुलिस – प्रशासन कानून को रख देता है ताक पर निडरता से।
शान से मस्जिद गिराई गयी, कानून ने कह दिया नहीं गिराई थी। कह नहीं दिया, कहलवा दिया। निडरता का झरना ऊपर से नीचे की ओर बहता है। तभी कानून का डर नहीं डराता है।
कोई सच्चा हिन्दू होता, शान से कहता मस्जिद गिराई थी। सजा दो। हिन्दू में आत्मबल तो होता है।
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मृत्युंजय श्रीवास्तव
लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com

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