जमानत और बदलते समीकरण
विधानसभा चुनाव के पूर्व झारखण्ड कई तरह की राजनीतिक घटनाक्रमों का साक्षी बन रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे यह राज्य गठन के बाद अपने सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव के दौर से गुजर रहा है। वह दौर, जब विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा अपने अस्तित्व को बचाने में लगी है और इस प्रयास में पूरी ताकत झोंक चुकी है। दूसरी तरफ झारखण्ड आन्दोलन और आदिवासी राजनीति की पार्टी झामुमो अपनी सबसे मजबूत स्थिति में है। इस बीच गैर आदिवासी राजनीति की धाराएँ शुरू हो रही हैं, जिसमें आजसू के बाद जयराम के नेतृत्व में झारखंडी भाषा खतियानी संघर्ष समिति का उदय उल्लेखनीय है। यह वह दौर है जब झारखण्ड में सभी पार्टियों के भीतर नये नेतृत्व का उदय हुआ है और सभी पार्टियों की कोर राजनीति में महत्त्वपूर्ण बदलाव हुए हैं।
झारखण्ड की तात्कालिक राजनीति में हेमंत सोरेन के जेल जाने और फिर बाहर आने का गहरा प्रभाव पड़ा है। उनके जेल जाने के बाद सहानुभूति के कारण झामुमो-काँग्रेस गठबन्धन की अप्रत्याशित जीत हुई है और जेल से बाहर आने के बाद के प्रभाव का विश्लेषण अभी बाकी है। यह विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर किया जाएगा। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के समक्ष झारखण्ड की राजनीति किस तरह से बदली है, उसे गौर से देखना, समझना और उसका विश्लेषण किया जाना बहुत जरूरी है।
हेमंत पर जिस कथित जमीन घोटाले का आरोप ईडी मढ़ रही थी और जिसके कारण उन्हें 147 दिनों तक जेल में रहना पड़ा, कोर्ट ने उस आरोप को ही सिरे से खारिज कर दिया। झारखण्ड उच्च न्यायालय ने 55 पेज के अपने जजमेंट में कहा है कि जमीन घोटाले का कोई भी सीधा लिंक हेमंत सोरेन या उनके परिवार से जुड़ा नहीं है। जमीन का मालिकाना हक भी हेमंत सोरेन के नाम पर नहीं है। ईडी ऐसा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रही है, जो इस प्रकरण में हेमंत सोरेन की संलिप्तता साबित कर सके। अन्य कई टिप्पणियों के साथ कोर्ट ने हेमंत सोरेन को पीएमएलए कोर्ट की धारा 45 के तहत जमानत दी है। इस धारा में दो शर्तें निर्धारित हैं। पहली शर्त है कि कोर्ट को लगता है कि हेमंत सोरेन सम्बन्धित अपराध में संलिप्त नहीं है और दूसरी शर्त है कि कोर्ट को लगता है कि जमानत में बाहर रहने के दौरान हेमंत सोरेन कोई दूसरा अपराध नहीं करेंगे।
कोर्ट के फैसले का विश्लेषण भी कई स्तर पर किया जा रहा है। हेमंत की गिरफ्तारी एक सामान्य प्रक्रिया थी या फिर इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप था, यह सवाल अब भी बना हुआ है। लेकिन हेमंत के बाहर आने के बाद झामुमो के भीतर एक तरह का असन्तोष पैदा हुआ, जिसे बाहर जाहिर होने नहीं दिया गया। यह असन्तोष पूर्व मुख्यमन्त्री चंपाई सोरेन का है, जो उन्हें मुख्यमन्त्री पद से हटाए जाने के बाद हुआ। विधानसभा चुनाव में चार-पाँच महीनों का समय बचा हुआ था, जब हेमंत ने दोबारा मुख्यमन्त्री पद की शपथ ली। चंपाई सोरेन के भीतर का असन्तोष उनके भाषण और उनके चेहरे पर साफ नजर आया। लेकिन मीडिया या अन्य माध्यमों पर इसे जाहिर नहीं होने दिया गया।
दरअसल चंपाई सोरेन की नाराजगी या उनका असन्तोष किसी एक घटना के कारण नहीं है। यह बड़ा ही अजीब था कि मुख्यमन्त्री बनने के बाद भी उन्हें मुख्यमन्त्री आवास नहीं मिला, कई अन्य सुविधाएँ नहीं मिलीं, मीडिया टीम नहीं मिली। वे अपने पूर्व के आवास में पुराने टीम के साथ काम करते रहे। इस बीच कल्पना सोरेन की राजनीति में एँट्री के साथ ही उनकी कुर्सी पर खतरा मँडराने लगा। हालाँकि कल्पना मुख्यमन्त्री नहीं बनी, लेकिन हेमंत के बाहर आते ही चंपाई से मुख्यमन्त्री की कुर्सी ले ली गयी। मुख्यमन्त्री रहते हुए चंपाई सोरेन के कुछ उल्लेखनीय काम रहे। 25 वर्ष से अधिक उम्र की सभी महिलाओं के लिए पेंशन की योजना, 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली की योजना और रोजगार देने की गति में आई तेजी इसमें शामिल है। वे पीजीटी शिक्षकों को नियुक्ति पत्र बाँटने वाले थे, लेकिन उसके ठीक पहले हेमंत सोरेन जेल से बाहर आये और यह कार्यक्रम आगे बढ़ा दिया गया।
यह सच है कि हेमंत के गिरफ्तार होने के बाद ही चंपाई सोरेन को यह स्थान मिला था, लेकिन मुख्यमन्त्री बनने के बाद व्यक्ति की राजनीतिक आकाँक्षाएँ और महत्वाकाँक्षाएँ विकसित हो जाती हैं। सत्ता पर काबिज होने का सुख बहुत अलग है। कभी यही बिहार में जीतनराम मांझी के साथ हुआ था। हालाँकि जीतनराम मांझी वाला किस्सा चंपाई नहीं दोहराएँगे, लेकिन उनकी नाराजगी की चर्चा खूब रही। इस बात में भी कोई शक नहीं है कि चंपाई चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुँचाने का कोई इरादा नहीं रखते हैं। विधानसभा चुनाव में वे पार्टी के साथ हैं और कोल्हान में भाजपा को कड़ी चुनौती देंगे।
हेमंत का बाहर आना झामुमो के लिए नयी ऊर्जा मिलने की तरह है। कार्यकारी अध्यक्ष के नेतृत्व में पार्टी से और बेहतर परफॉर्मेंस की उम्मीद की जा रही है। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में झामुमो का सर्वेश्रेष्ठ प्रदर्शन देखने को मिल सकता है। हालाँकि इसके पीछे की शर्त है कि झामुमो 50 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़े। यह एक पेचीदा विषय है, विशेषकर तब, जब भाकपा माले गठबन्धन में शामिल है और कम से कम दो सीटों की दावेदार है। राजद ने पिछली बार सात सीटों पर चुनाव लड़ा था और काँग्रेस 33 सीटों पर अपना दावा पेश कर रही है। ऐसे में झामुमो के लिए 50 से अधिक सीटें मिलनी मुश्किल लग रही है, लेकिन यदि ऐसा होता है तो झामुमो अपने दम पर भी सरकार बनाने के करीब पहुँच सकती है।
दूसरी तरफ भाजपा अपने लिए सही मुद्दों का चुनाव कर पाने में अक्षम दिख रही है। लोकसभा चुनाव में झारखण्ड के लोगों ने जिन विषयों को नकार दिया था, भाजपा उन्हीं को फिर से उठा रही है। इसमें बदलाव सिर्फ यह आया है कि हेमंत सोरेन का नाम कम लिया जा रहा है। सन्ताल परगना क्षेत्र में कथित रूप से बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण कथित तौर पर सन्ताल की बदलती डेमोग्राफी को लेकर भाजपा एक अभियान छेड़ चुकी है। चुनाव के लिए नियुक्त सह- प्रभारी असम के मुख्यमन्त्री हिमंत बिस्वा सरमा के नेतृत्व में भाजपा इस मुद्दे को हवा दे रही है। जबकि लोकसभा चुनाव में भाजपा को इस विषय से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। जाहिर तौर पर सन्ताल पर भाजपा का विशेष फोकस है। सन्ताल झामुमो का भी गढ़ है, यहीं से पार्टी को सबसे अधिक सीटें आती हैं।
सन्ताल के अलावा जिस क्षेत्र पर सबकी निगाहें टिकी हैं, वह है कोल्हन। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कोल्हान की सभी 14 सीटों पर हार मिली थी। यही भाजपा के सत्ता से बाहर होने की वजह बनी। भाजपा को लोकसभा चुनाव में भी यहाँ से हार का मुँह देखना पड़ा है। इस बार भी भाजपा के लिए ये 14 सीट चुनौतीपूर्ण होंगे।
समीकरण साधारण है। इण्डिया गठबन्धन में अधिकतर आदिवासी और कुड़मी सीटें झामुमो के पास हैं। कुछ आदिवासी सीटों के अलावा काँग्रेस की जिम्मेवारी जेनेरल सीटों की है। दलित सीटों पर झामुमो-काँग्रेस-राजद साझा रूप से लड़ती है। माले के आने से एक-दो सीटों की बढ़ोत्तरी हो सकती है। एनडीए खेमे में आदिवासी और जेनेरल सीटों पर भाजपा का दावा है। कुड़मी सीटों पर भाजपा को आजसू की जरूरत पड़ेगी। इधर कुड़मी बहुल क्षेत्रों में जयराम की लोकप्रियता बढ़ी है। कुड़मी इस बार के चुनाव में अलग पैटर्न पर वोट कर सकते हैं।
अब अगर भाजपा को सत्ता हासिल करनी है, तो उसे आदिवासी सीटों की संख्या बढ़ानी होगी। 2019 में भाजपा 28 में से महज दो आदिवासी आरक्षित सीटें जीत पाने में कामयाब हुई थी। यदि यह आंकड़ा 10 के करीब पहुँचता है, तभी भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में होगी। यही वजह है कि भाजपा की तरफ से चुनाव में दो ऐसे लोगों को प्रभारी और सह-प्रभारी बनाया गया है, जो आदिवासी राज्यों के मुख्यमन्त्री हैं या रहे हैं। मध्यप्रदेश से शिवराज सिंह चौहान और असम से हिमंत बिस्वा सरमा ऐसे नेता हैं, जिनके पास आदिवासी केन्द्रित राजनीति का अनुभव है। लेकिन तब भी सबकुछ इस पर निर्भर करता है कि उनके नेतृत्व में भाजपा किन मुद्दों का चुनाव करती है और उससे कितने आदिवासी मतदाता उन्हें वोट करते हैं।
भाजपा-आजसू के लिए यह अच्छी खबर है कि दोनों इस बार साथ चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में पिछली बार आजसू के कारण त्रिकोणीय रही सीटें एनडीए के खेमे में जा सकती हैं। लेकिन वे सभी ऐसी सीटें हैं, जिसमें कुर्मी प्रभावी संख्या में हैं। जबकि भाजपा का पूरा जोर आदिवासी सीटों पर लगा है। हेमंत के साथ हुए वाकये से भाजपा ने चाहे-अनचाहे ऐसी स्थिति खड़ी कर दी है या ऐसी स्थिति खड़ी हो गयी है कि आदिवासी सीटों की अनदेखी कर राज्य की सत्ता में आना असम्भव सा हो गया है। इतना तो तय है कि यह चुनाव राज्य का राजनीतिक भविष्य तय करेगा।