जनता गरम हवा में पकौड़े छानने लगती है, जब राजनेता घोषणाओं के जुमले से हवा गरम कर देते हैं। चुनाव जुमलों की पतंगें उड़ाने का पर्व होता है। घोषणाएँ अब वादा नहीं, बिना हार्डवेयर का कम्प्यूटर हैं।
जब तक कम्प्यूटर नहीं आया था घोषणाओं का अर्थ था। यह अवश्य होता था कि घोषणा ‘गरीबी मिटाओ’ होती थी, मिटाया गरीबों को जाता था। अब तो यह कोई बात ही नहीं है। मारने की अब ऐसी ऐसी विधियाँ हैं कि न आवाज हो न लाठी टूटे। टूटे केवल रीढ़। कमर तोड़ने के लिए बाजार की बहार है ही।
तब भी सरकारें घोषणाओं से बनती थीं। अब भी घोषणाओं के लिए बनती हैं सरकारें। सरकारें घोषणाएँ करती चलती हैं घोषणाओं की खिचड़ी से खबरें पकती हैं।
पकी हुई खबरें प्रसाद हैं। उनके वितरण से लोकतंत्र चमकता रहता है। लोक में संवाद और मवाद बनता रहता है। संवाद से वाद विवाद बनता है। वाद विवाद भी ऐसा कि वह रास्ता रोकता है प्रतिवाद का। अब ‘प्रतिवाद नहीं मांगता’ का दौर है।
खबरों में बना रहना कला है। हर सरकार इस हुनर में हौसले से लगी रहती है। जो सरकार इस कला में जितनी पारंगत होती है, उसका उतना विकास होता है। ‘सबका साथ सबका विकास’ का सूत्र यहीं से निकलता है।साथ और विकास का सम्बन्ध भले ही टूट जाता हो, मगर घोषणाओं और सरकारों का सम्बन्ध नहीं टूटता। वे सरकारें जो साथ और विकास में भरोसा नहीं करतीं, वे भी घोषणाएँ करती हैं। जब सरकारें घोषणाएँ नहीं करती हैं, उनका तेज जाता रहता है।
विपक्षी घोषणाओं के लिए ताक लगा कर बैठे रहते हैं। अन्यथा वे बैठे मक्खी मारते रहते हैं। सरकारें जब जब घोषणाएँ करती हैं, विपक्ष उनका रहस्य खोलते हैं।
सरकारों की घोषणाएँ ही विपक्षियों की सक्रियता का सबब बनती हैं। मन से हो या बेमन से सक्रिय होना पड़ता है। लोकतंत्र में सक्रिय होना बनता है।
घोषणाएँ दिल जीतने की कला हैं। दिल जीतने के लिए घोषणाओं का घमासान बना रहता है। घमासान ऐसा कि घोषणाएँ शहीद होती हैं। कुछ शिलान्यास तक पहुंचती हैं, कुछ शिलान्यास से पहले ही दम तोड़ देती हैं। जिनके दिलों को जीतने के लिए घोषणाएँ होती हैं, उनके दिल ही दर्द से भर जाते हैं जब घोषणाएँ दफन होती हैं। मगर दिल की किसको पड़ी है। दिल तो विश्वासघात सहने के लिए ही है।
विश्वासघात एक ऐसी अदा है जिसके लिए सभी राजनीतिक दलों में क्रेज है। राजनीतिक दल पागल होते रहते हैं इसके लिए। कोई भी मौका नहीं छोड़ते। कभी लोकतंत्र के साथ विश्वासघात। कभी कानून से विश्वासघात। शील से विश्वासघात। विचार से विश्वासघात। धर्म से विश्वासघात।मनुष्यता से विश्वासघात। सभ्यता से विश्वासघात। संस्कृति से विश्वासघात। विश्वासघात का यह सिलसिला इसलिए बना हुआ है कि हम विश्वासघात को हल्के में लेते हैं। विश्वासघात होता रहता है और हम विश्वास करते रहते हैं। विश्वास की लूट मची रहती है।
जीतने वाला वोटर को धोखा देता है। बेचने वाला खरीदार को धोखा देता है। धोखे का जहर पानी में घुल चुका है। मछलियाँ मर रही हैं। धोखे का जहर हवा में मिल गया है। पक्षियों का दम फूल रहा है। जहर जीना मुहाल कर रहा है। हमारी जीने की कला को हमसे जुदा कर रहा है। हमारी संस्कृति को विषैला बना रहा है।
हम मरेंगे या बचेंगे? कुछ उपाय नहीं किया तो मरेंगे। करेंगे तो बचेंगे। तनकर खड़े होंगे तो बचेंगे। लड़ेंगे तो बचेंगे। सहने की सीमा तोड़ दो। झक मारने की बीमा छोड़ दो। सत्ता की संस्कृति पर हल्ला बोल दो। नई संस्कृति की घोषणा कर दो।
यह कैसा समय है कि पूंजी तांडव कर रही है और मेहनतकशों का आन्दोलन सो रहा है। पितृ सत्ता हुंकार भर रही है और अस्मिता सो रही है। यह कैसा समय है कि सामासिकता दम तोड़ रही है और भाईचारा चारा चरने चला गया है। यह कैसा समय है कि जंगल काट कर जंगल राज का विस्तार हो रहा है और नागरिक दर बदर हो रहा है। बाजार कच्छा उतार रहा है और लाख लाख दीये जलाए जा रहे हैं। नौजवान बेरोजगार हो रहे हैं और विकास का पाठ पढ़ रहै हैं।
एक घोषणा इधर से भी हो जाए,” और नहीं बस और नहीं, घोषणाओं के प्याले और नहीं।”
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मृत्युंजय श्रीवास्तव
लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com

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