आधुनिक कन्नड़ साहित्य की गौरवशाली परम्परा के निर्माण में दो परस्पर विरोधी समानांतर मत साथ सक्रिय रहे हैं- वैज्ञानिक बुद्धिवाद व रहस्यात्मक अंत: प्रज्ञावाद, आक्रामक अतिवाद व मानवतावादी रूढ़िवाद। इन विरोधी दृष्टिकोणों के जटिल सह-अस्तित्व का उदाहरण यू आर अनंतमूर्ति के सृजनात्मक काल में एक बड़ी परम्परा के सार-रूप में देखा जा सकता है। किसी भी परम में विश्वास न करनेवाले अनंतमूर्ति ने इस परम्परा को उसकी पूरी महिमा और तनाव के साथ ग्रहण किया है। अनंतमूर्ति की संपूर्ण सृजनात्मक यात्रा एक क्रुद्ध विद्रोही युवा से प्रारम्भ होकर पारंपरिक रूढ़ियों से मुक्त मानवतावादी लेखक तक की महान रचनात्मक यात्रा है।
कर्नाटक के मेलिज गांव में 1932 में जन्मे डॉ. अनन्तमूर्ति ने अपनी शिक्षा दूरवासपुरा में एक पारंपरिक ‘संस्कृत विद्यालय’ से शुरू की, बाद में उन्होंने अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य की शिक्षा मैसूर, भारत और बर्मिंघम, इंग्लैंड में पूरी की। अनंतमूर्ति के लेखन कार्य को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है- पहला अतिवादी पक्ष, जिसके अंतर्गत उनके दो उपन्यास- संस्कार (1965), भारतीपुर (1973); दो कहानी संग्रह- प्रश्न (1962), मौनी (1972); तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक आलोचना की दो पुस्तकें ‘प्रज्ञे मत्तु परिसर’ (1974) और ‘सन्निवेश’ (1974) आते हैं। इस दौर का उनका लेखक सिद्धांतत: राममनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित रहा, जिसमें जाति और लिंग के आधार पर होने वाले विभाजन की प्रखर आलोचना मुखर है; लेकिन इसी के समानांतर उनके लेखक का सार्त्र और लॉरेंस के सौंदर्यबोध सहित अन्य दर्शनों के साथ भी अद्भुत और दृढ़ सम्बन्ध बना रहा।
उनके लेखन के दूसरे पक्ष को स्व-चिंतन या आत्मान्वेषण कहा जा सकता है। अनुमानत: इसका प्रारम्भ उनके तीसरे उपन्यास- अवस्थ (1978) से हुआ और अपने चरम पर यह सूर्यना कुदुरे (1989) नामक कहानी में पहुँचा। इस अवधि में आधुनिकता को मात्र प्रदर्शन मानने के प्रति अनंतमूर्ति की गंभीर असहमति पूरे वैचारिक साहस के साथ दिखाई पड़ती है और इसके लिए उन्होंने विशेष रूप से गाँधी का सहारा लिया है। अनंतमूर्ति के लिए लेखन कर्म सदैव वास्तविक यथार्थ को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया रहा है। प्रश्नों के घेरे में स्वयं को तलाश करने का भी यही उनका तरीका है। उनके पास जीवन के दुखद एवं त्रासद अनुभवों के माध्यम से रूपक रचने का जादुई कौशल है। सांस्कृतिक विवेचना के दौरान जीवन और दर्शन सम्बन्धी मुद्दों पर उन्होंने अपने विचार बड़ी निर्भीकता और साहस के साथ प्रस्तुत किये हैं।
अपनी सैद्धांतिक हिचकिचाहट के बावजूद उनका सांस्कृतिक आलोचनात्मक लेखन, सुस्पष्टता, सुंदरता और अभिव्यक्ति की गहनता का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन जब वह समस्याओं पर अपने सृजनात्मक कथा साहित्य के माध्यम से विचार करते हैं, तब उनके भीतर के सामाजिक दर्शनशास्त्री का कठोर आग्रह समाप्त हो जाता है और उसकी जगह ज्ञानमीमांसक जटिल और एक बहुआयामी छवि आकार ले लेती है। यही प्रक्रिया उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है। उनका उपन्यास संस्कार भी इसी तरह के अनेकार्थक जटिल रूपकों से परिपूर्ण है, हालांकि इस उपन्यास की संरचना जिस दार्शनिक दृष्टि से की गयी है, वह ब्राह्मणवादी मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की भर्त्सना करती है। अनंतमूर्ति सही अर्थों में एक आधुनिक लेखक रहे हैं, जो विभिन्न विधागत रूढ़ियों को समाप्त करना चाहते थे। यही कारण है कि उनके कथा साहित्य का ‘गद्य’ उनके ‘पद्य’ के साथ घुलमिल जाना चाहता है।
उडिपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति, या सीधे यू आर अनंतमूर्ति कहने पर जो पहली चीज जेहन में आती है वह है एक अनंत विद्रोह की चेतना। वह विद्रोह जो उनके उपन्यास ‘संस्कार’ में चरम पर दिखता है पर जो हकीकत में उनके सारे लेखन और जीवन की अंतर्धारा है। अनंतमूर्ति के लेखन की सबसे ख़ास बात है कि उनके यहाँ विद्रोह सायास लाया हुआ नहीं दिखता। न हीउनके लेखन में यह विद्रोह किसी ट्रोप, या प्रविधि की तरह नहीं आता बल्कि जिए हुए जीवन की सच्चाइयों से निकलता है। अनंतमूर्ति का जिया हुआ जीवन भी बहुत दिलचस्प है। एक अति सांस्कारिक ब्राह्मण परिवार में पीला बढ़े बच्चे से प्रतिगामी मूल्यों के खिलाफ खड़े आधुनिक वैज्ञानिक चेतना से लैस साहित्यकार बनने का उनका सफर एक पूरी पीढ़ी का सफर है। उस पीढ़ी का जिसने औपनिवेशिक भारत के उतार के दौर से जीवन शुरू कर पहले एक बहुलतावादी लोकतान्त्रिक भारत को बनते देखा है और फिर 1980 से उस भारत पर बढ़ते हिन्दूवादी हमले भी।
कहने की जरूरत नहीं कि संकीर्णतावादी और प्रतिगामी चेतना के न केवल खतरे उन्हें साफ़ दिखते थे बल्कि वह उनसे लड़ने को तैयार थे। इसीलिए आशीष नंदी के शब्दों में एक शास्त्रीय फासीवादी नरेंद्र मोदी का प्रधानमन्त्री बना उन्हें अस्वीकार ही नहीं असहनीय भी था और यह उनके ऐसी दशा में भारत छोड़ देने के बयान का कारण था। यहाँ फिर अनंतमूर्ति के जीवन विशिष्टता दिखती है- वह निष्क्रिय आलोचना या विरोध के पक्षधर नहीं बल्कि सक्रिय प्रतिरोध के झंडाबरदार थे, जनता के खेमे में खड़े अवययी बुद्धिजीवी थे। फिर यह प्रतिबद्धता केवल मोदी के प्रधानमन्त्री बनने जैसे ‘बड़े’ सवालों पर नहीं जागती थी बल्कि समसामयिक आन्दोलनों के ऐसे मुद्दों पर भी अनंतमूर्ति पूरी ताकत से जनता खड़े होते थे जिनपर और ‘बुद्धिजीवी’ बचने की कोशिश करते थे। सिर्फ एक उदाहरण लें तो तेलंगाना में छात्रों के बीफ और पोर्क खाने की आजादी की मांग से शुरू होकर पूरे देश में फ़ैल गए भोजन के लोकतान्त्रिक अधिकार के आन्दोलन के पक्ष में खड़े होने वाले गिनेचुने बुद्धिजीवियों में से अनंतमूर्ति एक थे। गौरतलब है कि उन्होंने अपना मत पेजावर मठ के मठाधीश की निर्मम आलोचना के बाद भी नहीं बदला था।
अनंतमूर्ति के जीवन और लेखन दोनों में यह पक्षधरता आयी कहाँ से? इसी सवाल का जवाब हमें उनकी महत्वपूर्ण कहानी घाट श्राद्ध तक ले जाता है। वह कहानी जिसमे वैदिक संस्कृत विद्यालय में पढ़ने वाला एक बच्चा गर्भवती ब्राह्मण विधवा के साथ खड़ा होता है, की कोशिश करता है पर फिर हार जाता है और उस महिला का घाटश्राद्ध (जीवित व्यक्ति कामृत्यु संस्कार) होते हुए देखता है। इस कहानी और बाद में इसके फिल्मांकन ने कन्नड़ भाषा में नव्या आन्दोलन ही नहीं शुरू किया बल्कि कन्नड़ सिनेमा को भी एक नयी चेतना, नयी भाषा दी। शुद्ध-अशुद्ध और ऊँचनीच की अवधारणा पर टिके ब्राह्मणवाद का प्रतिकार उनके लेखन का प्रतिनिधि स्वर बन के उभरता है। उससे भी दिलचस्प यह कि अनंतमूर्ति ब्राह्मणवाद की आलोचना का हथियार अक्सर उसके अंदर की अमानवीयता और अंतर्विरोधों को बनाते हैं, उसकी मूल मान्यताओं पर हमला करते हैं। वे दिखाते हैं कि ब्राह्मणवादी पाखंड अंदर से कितना खोखला है।
उनका प्रसिद्द उपन्यास ‘संस्कार’ उनकी इस विशिष्ट लेखन शैली का उरूज है। इस उपन्यास में वे एक कर्मकांडी ब्राह्मण और मांस मदिरा खाने वाले और एक वेश्या से मित्रता रखने वाले ब्राह्मण के अंतर्संबंधों को आधार बना कर पवित्रता के मिथक को ध्वस्त करते हैं। अनंतमूर्ति के लेखन की यही विशिष्टता उनके गल्प लेखन को सामाजिक विज्ञान पर लाकर खड़ा कर देती है। उनके गांवों, विद्यालयों, परम्पराओं और संस्कारों का वर्णन काल्पनिक नहीं बल्कि समाजशास्त्रीय वर्णन है, ऐसा वर्णन जिसके आधार पर जातीय परम्पराओं पर निर्णायक शोध किये जा सकते हैं। यह एक बात है जो धीरे धीरे समाज से कटते जा रहे हिंदी साहित्य को अनंतमूर्ति सेसीखना चाहिए। दुनिया का कोई भी साहित्य निर्वात में टंगा नहीं हो सकता, उसे अपनी सार्थकता के लिए अपनी जमीन अपनी जड़ों से जुड़ना ही पड़ता है। अनंतमूर्ति का यह चुनाव अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर होने केबाद भी कन्नड़ में लिखने में ही नहीं बल्कि उनकी कहानियों, उपन्यासों और सारे लेखन में दिखता है। यही है शायद जो उनकी सार्वकालिक महानता की एक वजह भी है।
डॉ. अनंतमूर्ति ने अपना साहित्यिक जीवन कथा संग्रह ‘इंडेनढ़िगु मुघियाडा कथे’ से शुरू किया। तब से उनके पांच उपन्यास, एक नाटक, छह कथा संग्रह, चार कविता संग्रह और दस निबंध संग्रह कन्नड़ में प्रकाशित हो चुके हैं और अंग्रेजी साहित्य में भी उन्होंने कुछ काम किया है। उनका साहित्य कई भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में अनूदित हो चुका है। यह बेहद शर्मनाक है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अनंतमूर्ति की मौत की खबर सुनते ही, मैंगलोर में चार जगहों पर और चिकमंगलुर में एक स्थान पर आतिशबाजी की गयी । यूआर अनंतमूर्ति की मौत पर बीजेपी और हिन्दू जागरण वैदिक के कार्यकर्ताओं ने पटाखे फोड़ जश्न मनाया। यह है आज का हमारा हिंदू समाज। बेहद संकीर्ण, असहिष्णु और उन्माद से परिपूर्ण। यह हमें शर्मशार करने के लिए काफी है। जाहिर है इसे हवा देने का काम संघ बखूबी कर रहा है।
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