पर्यावरण विमर्श में नदी और पानी
अब इस सिद्धान्त की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है कि प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व से इतर प्रकृति पर भोगवादी वर्चस्व की भावना ने मानव समाज को प्रकृति से तो दूर किया ही है, जगत के जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों और नदी-तालाबों की मुश्किलों को भी बढ़ा दिया है। इसमें कोई दोमत नहीं कि पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी असन्तुलन के कारण पूरी दुनिया सभ्यता-संकट से जूझ रही है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने हमारी सोच और दृष्टि में जो तब्दीली लायी है, वह प्रकृति के तीन तत्त्वों – हवा, पानी और धरती पर प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित हो रही है, चाहे वह बढ़ता वायु प्रदूषण हो या घट रहा भूजल स्तर, प्रदूषित होती नदियों की बढ़ती संख्या हो या भूमि की घटती उर्वरा शक्ति। पर्यावरण के संरक्षण में राज्य और विज्ञान की भूमिका से लेकर अपने दैनिक जीवन में बदलाव लाने की जरूरतों की बातें हम आये दिन सुनते रहते हैं। विगत दशक में पर्यावरण शिक्षा का अनिवार्य किया जाना इसके बढ़ते संकट की ओर इंगित करता है। हालाँकि, पर्यावरण हमारे लिए एक अलग विषय ना होकर हमारी सोच-समझ और व्यवहार का हिस्सा होना चाहिए।
विगत कुछ दशकों में आधुनिकता के नाम पर विलासितापूर्ण जीवन की पैरवी ने निश्चय ही हमारे सरोकार बदल दिये हैं। कैंसर, मधुमेह, बढ़ता वजन और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों की बढती संख्या ने एक बार फिर से स्वच्छ पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ने के महत्त्व को रेखांकित किया है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों के बीच विकसित और विकासशील देशों के वैचारिक संघर्ष उभर कर सामने आये हैं। ये बहसें हमें अक्सर द्वंद्व की ओर ले जाती हैं मसलन -– विकास बनाम पर्यावरण, बाँध बनाम बाँध विरोधी आन्दोलन, जल संरक्षण के पारम्परिक तरीके बनाम आधुनिक तरीके, इत्यादि।
2004 में मध्य प्रदेश में शिवनाथ नदी के 22.6 किमी लम्बे हिस्से को रेडियस वाटर लिमिटेड नामक निजी कम्पनी को दे दिए जाने पर गौतम बंदोपाध्याय एवं उनकी संस्था नदी घाटी मोर्चा ने जन जागरूकता लाने और इसका विरोध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाईI यह अपने तरह की एक अनूठी घटना थी पर सोचने के लिए कई सवाल छोड़ गयीI मुझे लगता है कि नदी और मानव जीवन के अस्तित्त्व के अविभाज्य होने से हमें नदियों की दावेदारी को भागीदारी पर आधारित बनाने के बारे में फिर से गौर करने की जरूरत हैI नदी और मनुष्य का सम्बन्ध एक का दूसरे पर विजय की बजाय परस्पर आश्रित होने के दृष्टिकोण से समझना होगाI जैव विवधता को सुरक्षित करने में नदियों को राज्य की सम्पत्ति या फिर निजी सम्पत्ति के इतर साझा संपत्ति के तौर पर देखने से ही नदी विमर्श समग्र होगाI
2010 में बोलीविया में राइट टू मदर अर्थ (पृथ्वी माँ के अधिकार) से शुरू होकर 2017 में न्यूजीलैंड में वान्गानुई नदी के लिए वहां के स्थानीय समुदाय को संरक्षण के दृष्टिकोण से नदी के अधिकार दिए जाने के तुरंत बाद भारत में उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दियाI हालाँकि भारत में इसे प्रयोग में लाने को लेकर समस्याओं और इसके विरोध के मद्देनज़र फ़िलहाल यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैI आधुनिकता के विकास के साथ ही अधिकारों का विमर्श दुनिया भर में मजबूत हुआ हैI देशों को स्वतन्त्र होने के अधिकार से अधिकारों का विमर्श मानव अधिकार, पशुओं के अधिकार आदि से होकर प्रकृति के अधिकार तक पहुँच चुका है। ऐसे में जब नदियों का अस्तित्त्व कई बार संकट में जान पड़ता है तो सवाल उठता है कि नदी किसकी है– एक जीवित इकाई के तौर पर स्वयं खुद की या लोगों की या राज्य की या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की?
1982 में भागलपुर (बिहार) के कहलगाँव में मछुआरों की बस्ती से शुरू हुआ गंगा मुक्ति आन्दोलन मुख्य रूप से सत्तर के दशक में हुए जे पी आन्दोलन से प्रभावित थाI यह आन्दोलन 300 सालों से इस क्षेत्र में (सुल्तानगंज से पीरपैंती तक का 80 किमी गंगा क्षेत्र) चले आ रहे पानीदारी कर के विरोध में हुआ था। 1991 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से इस कर का उन्मूलन संभव हुआI इसे एक तरह आन्दोलन की बड़ी जीत मानी जाती है पर साथ ही नदी-केन्द्रित इस जन-आन्दोलन ने मछुआरों की आजीविका तथा पर्यावरणीय मुद्दों की जटिलता को समझने में भी सहायक हैI गौरतलब है कि जिस साल कर उन्मूलन के बाद नदी को फ्री फिशिंग या निर्बाध मछली मरने का क्षेत्र घोषित कर दिया गया पर कुछ ही महीनों बाद सुल्तानगंज से कहलगाँव तक का 60 किमी लम्बा हिस्सा विक्रमशिला डॉल्फिन अभ्यारण्य क्षेत्र घोषित कर दिया गयाI ऐसे में डॉल्फिन संरक्षण के नाम पर मछली मरने पर पाबन्दी लग गयी जिसके कारण गंगा मुक्ति आन्दोलन समाप्त ना होकर जल श्रमिक संघ नामक संस्था के रूप में मछुआरों की समस्याओं के समाधान हेतु प्रयासरत हैI हालाँकि जन आन्दोलनों के संस्थाओं में परिवर्तित होने की अपनी जटिलताएं हैं और यहाँ इनके विस्तार में जा पाना सम्भव नहीं हैI
हाल के दिनों में भागलपुर जिले में नमामि गंगे मिशन के तहत रिवरफ्रंट डेवलपमेंट का काम जोरों पर हैI बीच में पर्यावरण विभाग द्वारा कुछ आपत्ति जाहिर करने पर कुछ दिनों के लिए यह काम बाधित जरूर हुआ था पर अब फिर से नदी की काया-पलट कमोबेश जारी हैI इस क्रम में नदियों के आस पास रह रहे या इन पर आश्रित लोग, वन्य-जीव, पेड़-पौधे, आदि किस तरह प्रभावित हो रहे हैं, यह एक अलग ही विमर्श का विषय हैI समुदाय विकास योजना या कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के नाम पर कुछेक जगह पर पौधारोपण, स्त्रियों को हुनरमंद बनाने के प्रयास जैसा कुछ भी केंद्र द्वारा निर्देशित नमामि गंगे परियोजना के तहत किया जा रहा हैI शहर में सीवेज की समस्या को लेकर ना केवल गंगा बल्कि छोटी नदियाँ भी गन्दगी ढोने को बाध्य हैंI पूरे शहर का गन्दा पानी नदियों में प्रवाहित किया जाता है, साथ ही नदी के किनारे का क्षेत्र कूड़ा फेंकने के काम आता हैI
आज से तीस-चालीस वर्ष पहले शायद ही किसी ने सोचा हो कि पानी बाज़ार में बिकने वाली चीज हो जाएगीI पांच साल पहले संगम विहार (नई दिल्ली का एक मोहल्ला) में बातचीत के क्रम में एक महिला ने कहा ‘पानी है तो सबकुछ है, नहीं है तो कुछ भी नहीं है’I उसी मोहल्ले में दूसरी महिला ने कहा कि ‘पानी के पीछे हम पागल हुए पड़े हैं’I साथ ही वह दूसरी महिला याद कर रही थी अपने मायके को जहाँ पानी की आफ़ियत (प्रचुर मात्रा में उपलब्धता) थी I इन दोनों पंक्तियों ने न केवल मुझे कई बार पानी के बदलते परिदृश्य के बारे में सोचने को मजबूर किया बल्कि पानी को सहेजने में स्त्रियों और समाज की भूमिका पर गौर करने भीI हालिया सर्वेक्षणों के अनुसार भारत में महिलाओं और लड़कियों के जीवन के कई घंटे पानी भरने, रखने, आदि में खर्च होते हैंI कई बार लड़कियों द्वारा स्कूल छोड़ने का एक कारण घर में पानी बटोरने के लिए उनके रहने की अनिवार्यता भी होती हैI
अगर वैश्विक सन्दर्भ की बात करें तो जहाँ एक तरफ़ बोतलबंद पानी का बाज़ार पिछले साल 325 बिलियन डॉलर पर पहुँच चुका हैI वहीँ दूसरी तरफ जरूरत भर पानी के बिना रह रहे लोगों की संख्या में भी भारी इजाफ़ा (बढ़ोतरी) हुआ हैI संयुक्त राष्ट्र के अनुसार करीब दो बिलियन आबादी के पास पीने के लिए साफ़ पानी उपलब्ध नहीं हैI जलवायु परिवर्तन के विमर्श में पानी की समस्या सबसे प्रमुख हैI बाढ़ और सुखाड़ की बढ़ती संख्या ने कई देशों में नीति निर्माण की प्रक्रिया को अधिक जटिल बना दिया हैI ऐसे में पानी की उपलब्धता के आधार पर इसके वितरण सम्बन्धी प्रणालियों को लेकर नए नए प्रयोग (वाटर यूजर असोशियेशन, वाटर एटीएम, इत्यादि) हो रहे हैं जिसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ रही हैI इसे वैश्वीकरण के दौर में राज्य के इतर बाजार की बढती भूमिका के दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता हैI
मनुष्य का जीवन जो कभी नदी-केन्द्रित हुआ करता था अब नदी को अपनी गंदगी निष्पादन का क्षेत्र जान पड़ता हैI इस पूरे बदलाव में मनुष्य और प्रकृति के बीच सम्बन्ध में आये बदलाव और संस्था के रूप में राज्य की भूमिका पर गौर करने की जरूरत हैI प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व से आगे बढ़कर पर्यावरण में मानव जीवन की सहभागिता और सहचारिता के महत्त्व का प्रयास व्यक्तिगत वैचारिक समझ से शुरु होकर सामूहिक सरोकार की तरफ बढ़ने का भी होना चाहिए। ऐसे में, स्थानीय ज्ञान परम्परा और सामूहिक बौद्धिकता को सम्मान देते हुए पर्यावरण के क्षेत्र में लम्बे समय से जुड़े हुए पर्यावरण प्रहरियों से संवाद एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता हैI