26 सितंबर, मंगलवार को संध्या पाँच बजे से, भारतीय भाषा परिषद के पुस्तकालय में, साहित्यिकी संस्था की ओर से कवयित्री शांति यादव के खण्डकाव्य ‘वैदेही का अंतर्द्वंद्व’ पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। संस्था की सचिव डॉ. मंजुरानी गुप्ता ने संस्था की गतिविधियों का संक्षिप्त परिचय देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम के प्रारंभ में शांति यादव जी ने आलोच्य खण्डकाव्य के चुनिंदा अंशों का अत्यंत प्रभावशाली पाठ किया जिसे श्रोताओं ने मंत्रमुग्ध होकर सुना।
वाणीश्री बाजोरिया ने कहा कि आठ सर्गों में विभाजित यह खण्डकाव्य अत्यंत रोचक बन पड़ा है। इसमें स्त्री शोषण की पराकाष्ठा से पीड़ित अत्यंत चर्चित मिथकीय पात्र सीता के मानसिक संघर्ष और तनाव का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया गया है। समान्य स्त्री और राजकन्या दोनों की नियति में कहीं कोई पार्थक्य नहीं है। खणडकाव्य का एक-एक शब्द पाठकों के मन में उतर जाता है।
प्रख्यात कवि एवं कहानीकार अभिज्ञात ने अपनी बात रखते हुए कहा कि महिलाओं की लड़ाई अभी बाकी है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के खिलाफ बगावत के स्वर इस खण्डकाव्य में है। तत्कालीन स्त्री किस तरह की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी, उसके प्रतीक चरित्र के रूप में सीता का वर्णन इसमें हुआ है। युद्धकला में पारंगत स्त्री को जब अबला सिद्ध कर दिया गया तो आम स्त्री की बिसात ही क्या है। शांति यादव जी मिथकीय चरित्रों की समस्याओं से गुजरते हुए समकालीन सवालों से मुठभेड़ करती हैं।
अपनी बात रखते हुए कवयित्री शांति जी ने कहा कि महिलाओं का मानस जब तक नहीं बदलेगा तब तक समाज में कोई परिवर्तन आना मुश्किल है। महिलाओं को इस तरह अनुकूलित किया जाता है कि वह पराधीनता की बेड़ियों को त्यागने से हिचकिचाती हैं। वे इस स्थिति का मुकाबला मात्र शिक्षा के माध्यम से ही कर सकती है। मिथकीय चरित्रों पर लिखना बहुत चुनौतीपूर्ण है। मैं वर्षों से इन सवालों से टकरा रही थी जो अंततः इस कृति में सीता के माध्यम से उतर आए।
अध्यक्षीय वक्तव्य में श्रीमती विद्या भंडारी ने कहा कि जो कवयित्री का अंतर्द्वंद्व है उसे सीता के माध्यम से सार्थक अभिव्यक्ति मिली है। सीता की व्यथा के बहाने आम स्त्री की पीड़ा को गहराई से अंकित करने में शांति जी सफल हुई हैं। इस महत्वपूर्ण खण्डकाव्य की रचयिता निस्संदेह बधाई की पात्र हैं।
परिचर्चा में सुषमा हंस, वसुंधरा मिश्र, मंजुरानी गुप्ता, नीतू सिंह आदि ने भी सक्रिय भागीदारी की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए गीता दूबे ने कहा कि सीता के बहाने आम स्त्री के दर्द और नियति को शांति जी ने गहराई से रेखांकित किया है पितृसत्ता के बंधनों में जकड़ी स्त्री शिक्षा और संघर्ष के माध्यम से ही अपने अधिकारों को हासिल कर सकती है। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कवयित्री कुसुम जैन ने शांति जी को इतना रोचक और विचारोत्तेजक खण्डकाव्य लिखने के लिए बधाई दी जिसे पढ़कर आम स्त्री भी अपने अधिकारों के प्रति सचेत होगी।
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