जूम इन

आक्रमकता राष्ट्रीय अस्मिता की भाषा है

 

सितारों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है। नालिश की है। न्याय के लिए गुहार लगाई है। सुशान्त के मामले में जब तक एम्स की रपट न आई थी,  बोलती बन्द थी सितारों की। जैसे साँप सूँघ गया हो।

मजेदार यह है कि साँप किसने सुंघाया?  साँप सूँघ जाने की स्थिति बनाई बिल्ली ने। गुस्सा आना ही था। क्योंकि  हमारी बिल्ली हमीं से  म्यांउँ का मामला था। मीडिया बॉलीवुड की बिल्ली है।

बॉलीवुड शाही टुकड़ा नाम की  मिठाई खिलात रहता है मीडिया को। अगर शाही टुकड़ा खाती बिल्ली कुत्ते की तरह भौंकने लग जाए तो किसे अच्छा लगेगा? सबक सिखाना पड़ेगा। सबक से बात न बने तो ठिकाने लगाओ। ठिकाने लगाने के हिसाब से सितारे अपने दलबल के साथ दिल्ली उच्च न्यायालय गए हैं।

वे दिल्ली क्यों गए? वे महाराष्ट्र पुलिस के यहां एफआईआर कर सकते थे। मुम्बई हाईकोर्ट जा सकते थे। लगता है उन्हें भी कंगना रनौत की तरह  भरोसा न रहा मुम्बई पुलिस पर।

सम्भवतः बॉलीवुड ने मुबंई पुलिस को अपने घर की  मुर्गी बना रखा है,  ऐसा कि दाल बराबर हो गया है। ऐसी दाल कि वह न्याय दे भी दे तो भरोसा किसे? सुशान्त की मौत के बाद मुंबई पुलिस और बॉलीवुड दोनों के लिए ही विश्वसनीयता का टोटा पड़ गया है। दोनों के गलबहियों के विजुअल हम देखते रहते हैं।

बॉलीवुड के सितारों और उनके दलबल की शिकायत यह है कि  मीडिया के एक हिस्से ने उनके लिए ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल किया है जिसने उनकी मान-मर्यादा की वाट लगाई है। सच यह भी है कि बॉलीवुड पूरे भारतीय समाज और भाषाओं की वाट लगाता रहा है। शालीनता में बॉलीवुड अपनी भाषा से पलीता लगाता रहता है।

बॉलीवुड की भाषा ने भाषा का संस्कार मिट्टी में मिला दिया है। बॉलीवुड की भाषा बलात भाषा है।  टीवी चैनलों पर हो रहे अवार्ड शो और कई कामेडी शो से अशोभनीय भाषा का उदाहरण दिया जा सकता है।  हमेशा इनकी भाषा बिछावन के इर्दगिर्द घूमती रहती है। लंगोट के भीतर गुदगुदाती रहती है। वेब सीरीज की भाषा तो  शालीनता की भाषा को रोज नंगा नचाती है। यह किसी औरत को निर्वस्त्र करके गली मुहल्ले में घुमाने जैसा संगीन मामला है।

मीडिया  यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी भाषा और अभिव्यक्ति का स्तर वहाँ पहुंचा दिया है,  जहां से नरक की सीमा रेखा शुरू होती है। इसमें किसी एक चैनल का अकेला योगदान नहीं है। सभी चैनलों ने मिल कर यह काम गर्व से किया है।

भाषा में आक्रामकता सभी चैनलों के प्रोडक्ट की शोभा है। प्रोडक्ट यानी कार्यक्रम। आक्रामकता के स्वाद अलग अलग हैं। रवीश कुमार से अर्णब तक सभी आक्रामक हैं। बड़े शालीन दिखने वाले रजत शर्मा भी। ऐंकरों की आक्रमकता देखकर गली मुहल्ले के छिछोरों की याद आती है। आक्रामकता एक ऐसा इंग्रीडिएंट है कि जिस प्रोडक्ट में मिला दो वह नशीला हो जाता है। ड्रग की तरह। सभी उसे चाटने और सूंघने के लिए उतावले हो जाते हैं। उतावले अब हुए हैं,  पहले सबने मिलकर चस्का लगाया है।

बॉलीवुड हो या मीडिया चौबीसों घंटे खुले आम ड्रग बनाते और बेचते हैं। इन पर किसी की पकड़ नहीं है। ये बेलगाम हैं।

आज राजनीति की  भाषा भी आक्रामक है। जो शालीन है वह आक्रामक राजनीति की खुराक है। राजनीतिक नेता या प्रवक्ता जब भी मुंह खोलते हैं,  खौलता हुआ बोलते हैं। इसकी उसकी खटिया खड़ी करने वाली भाषा बोलते हैं। घर में घुस कर मारेंगे यह आज राष्ट्रीय अस्मिता की भाषा है। कंगना रनौत राष्ट्रीय अस्मिता की भाषा में ही बोल रही थी। अर्णब उसी भाषा को उत्कर्ष दे रहे थे। जिधर देखिए जिधर सुनिए वही भाषा हमारा हाजमा खराब कर रही है। हम किस अदालत में जाएं?

आज राजनेता हों या मीडिया या बॉलीवुड सभी कोरस में एक सुर में गा रहे हैं,  हम नायक नहीं खलनायक हैं। गाते गाते गैंग वार का दृश्य आ गया है। हम हर हाल में गैंग की पकड़ में हैं।

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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