जूम इन

खेल बिगाड़ने का खेल

 

खेल बिगाड़ने के खेल पर दुनिया टिकी हुई है। जो जितना माहिर है खेल बिगाड़ने में वह उतना बड़ा उस्ताद है जमाने का। खेल बिगाड़ने के खेल में केवल खिलाड़ियों को ही मजा नहीं आता। भीड़ को भी मजा आता है। तमाशबीनों के तलबे के नीचे दही जम जाता है। जुबान में दही जमने का यह विस्तार है।

राजनीति खेल बिगाड़ने के खेल का दूसरा नाम है। खेलो ऐसे कि दूसरा खेल न पाए। खेल बिगाड़ने के खेल का यह पहला नियम है। सनातन नियम है। जो जितना जल्दी इस नियम को समझ लेता है और साध भी लेता है, वह उतना ही जल्दी मैदान मारता है।

खेल बिगाड़ने का काम एक बौद्धिक काम है। लेकिन केवल बौद्धिक खिलाड़ी बौना खिलाड़ी होता है। छक्का नहीं मार पाता है। छक्का मारने के लिए उसे कलाकार भी होना होता है। यानी ऐसा बुद्धिजीवी जो बौद्धिक भी हो और शिल्पी भी। यह अनमोल मेल है। जब ऐसा मेल हो जाता है तब बड़ी आसानी से ईमान से बिगाड़ कर लेना आसान हो जाता है। तब खेल बिगाड़ा भी जाता है कुशलता से। जिसमें ईमान से बिगाड़ का डर खत्म हो जाए और कुशलता से खेल बिगाड़ने का जज्बा पैदा हो जाए, वह महाबली बन जाता है। महारथी भी। ऐसे महारथी महाबली से राजनीति का अखाड़ा अटा पड़ा है।

महारथी वह है जो हमेशा वर्चस्व के विमान को उड़ाता रहता है। जितना भी अतिरिक्त मिल जाए कम लगता है उसे। उसकी मंशा होती है : आकाश भी अपना पाताल भी अपना। पहाड़ भी अपना जंगल भी अपना। शहर भी अपना नहर भी अपना। बरसाती भी अपनी गराज भी अपना। देवी दासी हों और देवता हों दरवान। वर्चस्व महान !

हर ऐसे महारथियों का अपना वाहन होता है। कोई किसानों को वाहन बनाता है तो कोई मजदूरों को। कोई दलितों को तो पिछड़ों को। कोई आधी आबादी को।

पहले देवी देवताओं के वाहन होते थे। अब देवी देवता वाहन हैं ऐसे महारथियों के। राम का तो कपाल ही खराब है। सतयुग में चौदह साल के लिए जंगल भेजे गए। लौटे तो राम ने अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा था। कलयुग में किसी महारथी ने उनसे ही हँका लिया अपना रथ। जुते रहे पच्चीस साल तक। न जाने उनकी किस्मत में क्या क्या लिखा है? एक मात्र राम ही तो थे जो रामू और राम प्रसाद के भरोसा थे। उनके भरोसे जिन्दगी कटती थी इनकी। राम की फजीहत माने रामू और राम प्रसाद की रीढ़ पर हमला।

सतयुग में केवट ने उन्हें पार उतारा था। कलयुग में उन्होंने पार लगाया है। अभी उन्हें अपने सवार को उतारने का अवसर मिला है। कुछ दिन आराम की साँस ले सकेंगे। अब कृष्ण और शिव की बारी है। वे कब तक बचेंगे या छिपेंगे आखिर? महारथी कब तक शांत बैठेंगे?

महारथियों के काल में शान्ति दुर्लभ स्थिति है। विश्व महारथी दुनिया में कहीं भी शान्ति के दृश्यों को बर्दाश्त नहीं करता। जहाँ दिखी शान्ति, वहाँ भ्रान्ति का ध्वज अपने वाहन पर लेकर पहुँच जाते हैं महारथी।

विश्व महारथी का वाहन है आतंक और युद्ध। महारथी डर का सौदागर होता है। सौदागर शान्ति की बोली लगाता रहता है। तबाही बहाल करता रहता है। तबाही से शक्ति पैदा होती है। वही शक्ति दुनिया में खेल बिगाड़ने के काम आती है। काम तमाम करने के काम आती है। जो महारथी सबसे ज्यादा खेल बिगाड़े, वह बन जाता है महाशक्ति।

महाशक्ति यानी चीता। भारत में चीता युग हर्षद मेहता से आरम्भ होता है। चीता बकरी का शिकार करता है, यह सब जानते हैं। मगर चीता युग में एक बकरी का शिकार की जगह बकरी के झुंड का शिकार आरंभ हो गया। हर्षद मेहता पर वेब सीरीज बना कर हंसल मेहता ने चीता युग की याद ताजा कर दी है। चीता युग का दु:साहस अब संस्कृति में बदल चुका है। अब चीता ही चीता। देश में भी दुनिया में भी। ग्लोबल। सब तरफ।

दुनिया के चीताओं की महासभा की पहली कार्रवाई यह होती है : दुनिया को मूढ़ बनाना। मूढ़ता की वृद्धि के लिए महायज्ञ किए जाते हैं। साधु सन्तों को आगे बैठा कर वातावरण बनाया जाता है। ताकि लोग स्वेच्छा से मति की बलि दे सके। जिनमें बलि की श्रद्धा नहीं उपजे, उनकी बलि देने के लिए महासभा की अपनी व्यवस्था होती है। चीतों की महासभा। इनके अपने सेवक। सड़क किनारे टायर जला कर जिन्दा मांस से होम करते हैं। इससे डर के पर्यावरण का संतुलन बना रहता है। जो डरा डरा रहता है वही बचा बचा रहता है। दुनिया के चीतों ने नया संदेश दिया है : तुम डर डर के जिओ, हम डरा डरा कर राज करेंगे। जो नहीं डरा वह मरा।

मारने की विधि केवल डर नहीं है। भूख से मारने की सुविधा अलग से की जाती है। मरने से पहले अंग दान की व्यवस्था है। अंगदान से पहले रक्तदान की सुविधा दी जाती है। रक्त न बचे तो किडनी दान करे । नेत्रदान भी कर दे। महारथियों को रक्त और मानव अंगों की जरूरत पड़ती है। बनाए तो नहीं जा सकते ये अंग। इसलिए गरीबी बनाए रखनी पड़ती है। गरीबी विवशता नहीं, व्यवस्था है। खेल बिगाड़ कर बनाई गई व्यवस्था। भूखमरी की व्यवस्था।

भूखमरी व्यवस्था के लिए आवश्यक है कि महंगाई में निरन्तर वृद्धि। निरन्तर वृद्धि के लिए परियोजनाएं बनाई जाती हैं। जैसे जैसै महंगाई बढ़ती है, उसी गति से विकास की गति बढ़ती है। महंगाई और विकास में एक जायज सम्बन्ध है। इस जायज सम्बन्ध को स्थायित्व देने के लिए मुलाजिमों की कर दर में वृद्धि की जाती है। नई नौकरियों के लिए अवसर निरन्तर न्यूनतम किए जाते हैं। इस तरह खेल बिगाड़ कर नया देश नई दुनिया बनाई जाती है। बनाई जा रही है।

देश दुनिया में सभी जगह रोजगार कम किए जा रहे हैं। दुनिया में एक ही नारा गूंज रहा है : बेरोजगारी बढ़ाओ आमदनी बढ़ाओ। जिन जिन देशों में लोग बेरोजगार किए जा रहे हैं उन देशों की आमदनी बढ़ रही है। उन देशों में विकास का सालाना बजट बढ़ रहा है। विकास माने युद्ध। विकास माने आतंक। विकास माने डर। विकास माने हड़प। इन सब के लिए चीतों की महासभा निरन्तर युक्तियों का आविष्कार कर रही है। खेल बिगाड़ने के खेल का नया नया करतब।

धर्म और आस्था जीवन बनाने के लिए बने हैं। मेल के लिए बने हैं। लेकिन चीते इनसे खेलते हैं। मेल को मीनमेख का खेल बना देते हैं। इनका खेल बिगाड़ते हैं। इनसे खेल बिगाड़ते हैं। नया देश नई दुनिया धर्मों और आस्थाओं के हाथापाई का करबला बन गया है। गुत्थमगुत्था। दांत कटौवल।

चीतों के हाथ में कैरमबोर्ड के स्ट्राइकर होते हैं या फिर गोल्फ स्टिक। दोनों से हिट करते हैं। गड्ढे में गिराते हैं। सारे खेल गड्ढे में गिराने के लिए हैं। आगे केवल गड्ढा ही गड्ढा है। गिरा कर अपना खेल बनाते हैं। गिरा कर बकरी का शिकार करते हैं। बकरी अब मिमया भी नहीं पा रही है। उनका खेल खत्म कर रहे हैं। सवाल है कब तक?

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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