क्या कहा? कान के पर्दे फट रहे हैं?
– सुनना ही क्या है?
क्या कहा? आँखें कड़ुआ रही हैं?
– देखना क्यों?
क्या कहा? साँस लेने में दिक्कत हो रही हैं?
– जी के क्या करोगे?
जिनकी छाती में दर्द होता है वे ही जानते हैं कि ‘दर्द नहीं था सीने में तब खाक मजा था जीने में’ का क्या अर्थ होता है। हम हिन्दुस्तानी बिना दर्द, गर्द और गन्द के जी नहीं सकते। भर जाए सीने में धुआँ, छेद हो जाए फेफड़े में लेकिन हम जो करेंगे चौड़े से।
– क्या करेंगे?
– गन्द और धुआँ
हम हिन्दुस्तानियों के लिए जीने का मतलब साँस लेना भर नहीं है। हम हिन्दुस्तानी साँस बेच कर भी अपनी परम्परा के पेड़ से पत्ते नहीं झरने देते। प्रदूषण हमारी परम्परा है।
प्रदूषण की वजह से पेड़ों का साँस लेना दूभर हो जाये, पेड़ कम हो जायें, हम प्रदूषण कम नहीं करते। बच्चों की आँखें सदैव नम रहें, उनकी आँखें कड़ुवाती रहें, जलती रहें, हम प्रदूषण कम नहीं करते। बुजुर्गों को दमा हो जाए। दमे की वजह से खाँस खाँस कर उनका दम निकल जाए, मगर हम प्रदूषण बनाए रखते हैं।
हम हिन्दुस्तानी हैं। हम हिन्दुस्तानी हम हिन्दू। बलि देना हमारी परम्परा है। हम बकरे से लेकर बच्चे तक की बलि देते आए हैं। हम उनसे महान हैं जो केवल बकरे और गाय की कुरबानी देकर महान बने फिरते हैं।
दीपावली एक महान पर्व है। हम इसका साल भर इन्तजार करते हैं। इस दीपावली के लिए हम सालभर गन्दगी बटोरते हैं। घर के कोने कोने में रखते हैं। गद्दे के नीचे गन्द और प्लास्टिक का बैग सम्भाल कर रखे बिना रात को सुकून की नीन्द नहीं आती है। न ही रोमांस का वातावरण बनता है।
गन्द जो जमा करते हैं हम उसे होली दिवाली निकालते हैं घर से बाहर। सड़क पर बिखेर देते हैं हम। हम सड़क और गंगा में कोई भेद नहीं करते। सड़क पर घर का गन्द और गंगा में कारखाने का गंद बेधड़क डालते हैं। सड़क हमारे बाप की है और गंगा हमारी माँ। हक बनता है हमारा। हक हथियाने में हम कभी हकलाते नहीं है। गन्द हमारे संस्कार में है। हम उसे फैलाते हैं।
फैलाने में हम उस्ताद हैं। प्रदूषण का जहर जब हम फैलाते हैं, जल, थल, नभ किसी को बख्शते नहीं हम। दीपावली आते ही आतिशबाजी के लिए मचलते हैं हम। आसमान धुएँ से भर जाए, अपनी बला से। हमारी इस सोच में इतना बल है कि प्रदूषण चाहे जितना भी बढ़ जाए हमारे जीने के तरीके पर कोई बल नहीं पड़ता। कोरोना आया है तो क्या हुआ? पड़ोस का बन्दा कोरोना से कराह रहा है, तो क्या हुआ? हम तो पटाखे दगायेंगे। नहीं जलायेंगे तो लक्ष्मी लोचा करेंगी। लक्ष्मी को जितनी रोशनी पसन्द है उतना ही कुहासा भी। उन्हें धमाका और धुआँ भी उतना ही धाँसू बनाता है।
हम लक्ष्मी के वाहन हैं। हमारे पूर्वज भी लक्ष्मी के वाहन थे। हम खानदानी वाहन हैं। हमारा काम लक्ष्मी को चंचल बनाए रखना है। वाहन कहने के बजाय अब यह कहना अच्छा लगता है हमें कि लक्ष्मी हमारी सारथी हैं। अब हम लक्ष्मी की गति से उड़ पाते हैं।
हम लक्ष्मी के दास हैं। जब और जहाँ वे हमें बैठाती हैं, हम बैठते हैं। हमारा उड़ना हो या बैठना, लक्ष्यविहीन नहीं होता। हम अकेले भी अगर एक शाख पर बैठ जाते हैं, गुलिस्ताँ उजड़ जाता है। इन दिनों हम हर शाख पर बैठे हैं, अंजामे गुलिस्ताँ क्या होगा यह एक शायर ने लक्ष्य कर लिया था बरसों पहले। मगर शायरों के कहे से सबक कौन लेता है?
गुलिस्ताँ उजड़ता रहता है, मगर सबक से हम सौदा नहीं लेते। सबक अपने रास्ते चलता है। हम अपने रास्ते। हम दीवाने भौंक की परवाह नहीं करते। हम सबक को रास्ता दिखाते हैं और सबक देने वालों को सबक सिखाते हैं। सबक सिखाने के मामले में हम सबके गुरु हैं। विश्वगुरु।
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मृत्युंजय
लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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