हर्षद मेहता का भारत
नयी पीढ़ी हर्षद मेहता का नाम नहीं जानती। न उसकी हरकतों को जानती है लेकिन वह जिस हिंदुस्तान में वयस्क हो रही है, उस हिन्दुस्तान को बनाने में हर्षद मेहता के दुस्साहसों का योगदान है। धन्यवाद जाता है हंसल मेहता को, जिन्होंने उसे केन्द्र में रख कर एक वेब सीरीज बनाई है और उसकी याद ताजा कर दी है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक के दर्द का नाम था हर्षद मेहता।
हर्षद मेहता ने इस देश को बहुत कुछ सिखाया। जो सिखाया उस पर देश चल पड़ा। देश प्रगति की राह पर विकास करने लगा। देश ने इन तीस सालों में इतना विकास किया कि हर्षद मेहता की जो जमात पनपी, वह जेल नहीं यूरोप गयी। अमेरिका गयी। दुबई गयी। जहाँ चाहा वहाँ गयी।
भारत में हर्षद मेहता से एक नया युग आरम्भ होता है। हर्षद मेहता ने विकास का वह रास्ता खोला कि वह खुद बर्बाद हुआ। अपना घर परिवार बर्बाद किया। जो उसके भाई बन्धु थे, उनने जितना कमाया उससे ज्यादा डुबोया। जिसने उस पर भरोसा किया, उसने आत्महत्या की। अर्थव्यवस्था ने जितनी ज्यादा ऊँचाई का आभास दिया, उससे ज्यादा धराशायी हुई। हर्षद मेहता ने पहली बार एक आभासी दुनिया से अभिसार किया। मगर हर्षद मेहता का सुझाया रास्ता बन्द नहीं किया गया। देश हर्षद मेहता के उसी विकास के रास्ते चल पड़ा। सोच समझ कर।
हर्षद मेहता का जमाना ऐसा था कि खेत और किसान देश की अर्थव्यवस्था को आभासी ऊँचाई नहीं दे सकते। बीसवीं सदी के आखिरी दशक तक आते आते देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका था। बावजूद इसके अगर इक्कीसवीं सदी में भुखमरी की सूची में भारत का नाम है तो यह अनाज की कमी की विवशता नहीं, व्यवस्था की कृपा है। इक्कीसवीं सदी में किसानों की आत्महत्या की खबर निरन्तर आती रही। लेकिन यह खबर कभी नहीं आई कि मण्डी में अनाज की कमी हो गयी है। अकाल ने दस्तक नहीं दी। इतिहास से कालाहांडी लौट कर नहीं आया। ऐसी स्थितियाँ यह भरोसा देती थीं कि कृषि क्षेत्र में अब कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। पर्याप्त कर लिया गया है। अगर कुछ किया गया तो अर्थव्यवस्था को कई तरह के जोखिमों का सामना करना पड़ सकता था।
हर्षद मेहता ने जिस दौर में अवतार लिया, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का भट्ठा बैठ रहा था। कॉटन मिलें बन्द हो रही थीं। जूट मिलें बन्द हो चुकी थीं। नये कारखाने लगाने के लिए न कोई उत्साह था न प्रेरणा। बल्कि अनुत्साह का वातावरण था। कारण का ठीकरा हमेशा मजदूर आन्दोलन पर फोड़ा गया। ऑटोमोबाइल इन्डस्ट्री का अवश्य नया उदय हुआ। इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में सड़क और पुल का काम जोर पकड़ रहा था। बाकी सभी जरूरी उत्पाद समुद्र पार से आने के लिए लहरें गिन रहे थे। खरीदो – बेचो का व्यापार आकर्षक हो गया व्यापारियों के लिए। मजदूरों से छुटकारे की राह बनने लगी। लुभाने लगी।
ये दो बड़े इलाके थे जहाँ पैसा खटता था। यानी पूँजी लगती थी। पैसा खटाने के नये मौके खटाई में पड़ गये। पैसा बैठे ठाले हो गया। बैंकों में पैसे मक्खियाँ मारने लगे। जब पैसे के मक्खी मारने की नौबत आ जाती है तो आदमी के लिए कहर का प्रहर शुरू हो जाता है। आदमी कुहरने लगता है। निहुर निहुर के चलने लगता है। निहुरे समय में जो तन के चलता है, सब उसी की ओर ताकने लगते हैं उम्मीद से। चलने लगते हैं उसके पीछे पीछे, मानो कोई पैगम्बर आगे आगे चल रहा हो बांसुरी बजाता हुआ। हर्षद मेहता ऐसा ही पैगम्बर होने का अहसास करा रहा था।
हर्षद मेहता यह विश्वास दिला रहा था कि वह नया भारत रच रहा है। उसने नया भारत रच भी दिया। वह लोभ और अपराध के संगम से नया भारत पैदा कर रहा था। इस संगम की संगीन सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ वह सातवें आसमान पर चढ़ गया। भारतीय मध्यवर्ग को लगा कि सातवें आसमान का खजाना उसके लिए खुल जा सिम सिम कह कर उसने खोल दिया है। लेकिन सातवें आसमान पर किसका दिमाग काबू में रहा है? किसके पाँव आसमान पर टिके हैं? वह गिरा खाई में। देश गिरा खाई में। अर्थव्यवस्था गिरी खाई में। मध्य वर्ग गिरा औंधे मुंह। कइयों के प्राण निकल गये। जिनके प्राण नहीं निकले, उनकी कमर टूट गयी।
कमर भले ही टूट गयी हो मध्य वर्ग की, मगर जो चस्का लगा उसे, वह चस्का बना रहा। हर्षद मेहता ने मध्य वर्ग को ईजी मनी का चस्का दिया था। बिना हींग और फिटकिरी लगाए ही इजी मनी से उसकी रोटी पर मस्का लगने लगा। वह उसे रास आ गया। वह उसके इर्दगिर्द मण्डराता रहा। बाजार ने इसे भाँप लिया।
हर्षद मेहता दोनों को चूना लगाता था। मध्य वर्ग को भी और सरकार को भी। दोनों को चूना लगा कर बाजार पर काबिज हुआ था। जब अवसान हुआ हर्षद मेहता का, हर्षद मेहता और उसकी जमात बार बार यह बता कर अपने को बचाती रही कि यह सिस्टम का फेल्योर है, बाजार का नहीं। सिस्टम इस बात से सहमत हो गया। सिस्टम बाजार के अनुकूल बन गया।
सरकार और बाजार की रजामन्दी हो गयी। जब से रजामन्दी हुई, दोनों ने राजीखुशी अपना घर बसा लिया। बाजार की भी जय जय और वित्तीय संस्थानों की भी जय जय।
स्वयं भारत सरकार ऐसे वित्तीय प्रोडक्ट लेकर बाजार में आ गयी, जिसे उसने मार्केट से लिंक कर दिया। मध्य वर्ग को इसकी जानकारी न हर्षद मेहता के जमाने में थी न अब है कि बाजार की साँस कैसे ऊपर चढ़ती है और कैसे नीचे गिरती है। बाजार में ऐसे कई प्रतिष्ठान आ गये जो विशेषज्ञ बताते हुए इंवेस्टर्स के फण्ड का मैनेजमेंट करते हैं। यह भरोसा दिलाते हैं कि आपके पैसे का मैनेजमेन्ट ऐसे किया जाएगा, कि वह बैंक की ब्याज दर से अधिक लाभ देगा। स्वयं बैंक भी अपना मार्केट लिंक्ड प्रोडक्ट बेचने के लिए भी ऐसा ही बताते हैं। लेकिन क्या ऐसा ही है? क्या कोई ऐसी स्टडी की गयी है कि प्रति वर्ष कितने इन्वेस्टर्स का कितना नुकसान हुआ है? हमें केवल कमाने वालों की कहानियाँ सुनाई जाती हैं। गँवाने वालों का दर्द छुपाया जाता है। अपने जमाने में हर्षद मेहता एक व्यक्ति था। वह उसकी निजी यात्रा थी। आज हर्षद मेहता इंस्टीट्यूशन में बदल चुका है।
इसलिए अब शेयर और मनी मार्केट में स्कैम नहीं होता। अर्थशास्त्र की भाषा में यह सुधार है। अर्थव्यवस्था का ही यह दबाव है कि बाजार का प्रबन्धन बाजार के हाथ में होना चाहिए। बाजार का प्रबन्धन जब बाजार के हाथ ही होगा तो नियम कायदे ऐसे ही बनाए जायेंगें जो बाजार की जय बोलें। हर्षद मेहता के जमाने में सरकार का स्वरूप ऐसा हुआ करता कि वह बाजार को अलग कोण से नियन्त्रित करता था। अब वैसी सरकार नहीं है। यह सरकार विकल्पहीन दुनिया की सरकार है। ऐसी सरकार अब खुद ही हर्षद मेहता हुआ करती है। लेकिन इसका अवसान नहीं हो रहा। क्या ट्रम्प का अवसान विकल्पहीन दुनिया का अवसान है?
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