जूम इन

थाली के चट्टे बट्टे

 

पहले थैली के चट्टे बट्टे होते थे। अब थाली के। थैली का जमाना जो लद गया। लद गया जो जमाना वह लद्दूओं का था। लद्दूओं की थाली में छेद ही छेद होते थे, जिससे पतली दाल बह जाया करती थी। जिनकी दाल बहती थी, उनकी गृहस्थी ठीक से जमी नहीं होती थी। जमी नहीं होती थी, इसलिए छनती भी नहीं थी। नहीं छनती थी, ऐसा भी नहीं था। छनती थी, मगर मौका अवसर देखकर। तीज त्योहार देखकर। जब छनती थी तब उत्सव ही होता था। मगर बात बात में उत्सव नहीं होता था।

अब एक समुदाय ऐसा है जिनकी हर शाम उत्सव है। हर बात के लिए उत्सव है। बात बनी रहे इसके लिए उत्सव है। बात उड़ती रहे, इसके लिए उत्सव है। बात से बात टकराती रहे, इसके लिए उत्सव है।

उत्सव का मारा यह समुदाय थाली लेकर पैदा होता है। सजी थाली। भरी थाली। खेलता है, सजी थाली से भरी थाली से। गुस्सा हुआ, थाली से मारता है। बात अगर गुस्से से आगे बढ़ी तो सामने वाले की थाली छीन लेता है। अपनी थाली में खाते हुए भी औरों की थाली पर नजर रखता है। अपनी थाली में जूठन छोड़ता है, और दूसरों की थाली साफ करता है। यह दूसरों की थाली साफ करने वालों का महासंघ है।

थाली की तलाश में थान छोड़ कर वे निकल पकड़ते हैं जिन्हें सहज ही थाली नहीं मिलती है। खाली थाली भी। ये जनमते हैं खाली हाथ उंगलियों के साथ। चूसने के काम आती हैं उंगलियां और मलने के काम आते हैं हाथ। ताउम्र। उम्र भर हाथ मलना इनका कर्म होता है। ये ताउम्र काम कर भी लेते हैं तो इनके हाथ मल आता है और उनके हाथ मलमल। वे मलमल से चमकते हैं। ये दलदल में धंसते जाते हैं। इनका मलमल के घिस जाता है। वे मालामाल होते जाते हैं।

अब थाली है। थाली बड़ी है। चट्टे बट्टे की संख्या भी बड़ी है। थाली में एक साथ खाते अवश्य हैं, मगर छेद कभी नहीं करते हैं। चट्टे बट्टे की आपस में लगती रहती है। जब जब लगती है तब तब ये थाली उलट अवश्य सकते हैं। उलटने पलटने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इनकी थाली फिर सज जाती है।

राजनीति हो या व्यापार इसमें दुश्मनी स्थायी नहीं होती। दुश्मनी सामयिक होती है और दोस्ती पक्की। इसे ही कहते हैं थाली महासंघ। थाली महासंघ के सदस्य अक्सर दुश्मनी दुश्मनी खेलते भी हैं। इनके खेल के नियम भी खेल के नियम की तरह होते हैं। खेल के नियम से खेल कर ये उन्हें भरमाते रहते हैं, जिनकी थाली में छेद ही छेद होते हैं। जिनकी थाली से पतली दाल बहती रहती है। ये थाली महासंघ केवल इन्हें ही नहीं भरमाते हैं उन्हें भी भरमाते हैं जिनकी देह में चर्बी भरी होती है। जो केवल दिमाग से काम लेते हैं। दिमाग से काम लेने का दाम पाते हैं।

लगभग सौ दिनों से थाली महासंघ ने सुशान्त सुशान्त खेला। ड्रग ड्रग खेला। रिया रिया खेला। दिशा सालयान दिशा सालयान खेला। कंगना वर्सेज बॉलीवुड खेला। मगर खेल का नतीजा क्या निकला? खेल ड्रा हो गया। थाली महासंघ का हर खेल मेरा भी लाभ तेरा भी लाभ के आदर्श पर समाप्त होता है। अंग्रेजी में इसे विन विन सिचुएशन कहते हैं।

थाली महासंघ की और से अभी दो खेल खेले जा रहे हैं मजे मजे में। एक है, टीआरपी टीआरपी और दूसरा है हाथरस हाथरस।

ऐसे हर खेल से थाली महासंघ की थाली मालामाल होती रहती है। लेकिन हमारा दावानल क्यों दबा रहता है? हम थाली के बैंगन क्यों बने रहते हैं?

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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