शख्सियत

हरिशंकर परसाई का व्यंग्य साहित्य : सामाजिक विश्लेषण

 

“सामाजिक विश्लेषण सामाजिक विशेषताओं, जीवन की सामान्य गुणवत्ता, सामाजिक सेवाओं और समाज के सामाजिक न्याय से संबंधित मुद्दों का मूल्याँकन है। विश्लेषण व्यक्तियों, सरकारों, अर्थव्यवस्थाओं, समूहों और परिवेशों को छूता है। यह वर्तमान के संबंध में अतीत का अध्ययन करता है, विशेष रूप से शहरीकरण, जातीय संस्कृतियों, लोगों के प्रवासन और पहचान निर्माण जैसे बड़े पैमाने पर विकास।”[1] इन्ही सामाजिक मुद्दों को हरिशंकर परसाई ने अपने  व्यंग्य ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’, ‘सदाचार की ताबीज़’, ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ किस प्रकार दर्शाया है, इसी का विश्लेषण प्रस्तुत शोध पत्र में किया गया है।

    हरिशंकर परसाई के व्यंग्य साहित्य में समाज के प्रत्येक हिस्से को छूते हैं। समाज के अर्श से लेकर फर्श तक टिप्पणी करते हैं। भारतीय समाज में एक बड़ी आबादी युवाओं की है और किसी भी समाज को वहाँ की राजनीति गहरे से प्रभावित करती है। भारतीय युवाओं के साथ राजनीति क्या कर रही है? परसाई लिखते हैं “दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।”[2]

हरिशंकर परसाई जी ने ये व्यंग्य जून 1991 में लिखा था लेकिन आज इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में भी यह अनुच्छेद कितना यथार्थ पूर्ण लगता है। 22 अगस्त 1924 (कहीं-कहीं यह १९२२ है) में होशंगाबाद में जन्में परसाई ने बीसवीं सदी के पचासवें दशक में लिखना प्रारंभ किया और आज इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में भी उनका लेखन उतना ही अर्थपूर्ण है, उतना ही हमारी बंद आँखों को खोलने वाला है। परसाई के बारे में एक विचारक ने यह टिप्पणी की थी कि स्वतंत्रता के बाद के भारत को अगर जानना हो तो वह परसाई की रचनावली में दिखेगी। परसाई जिन्होने व्यंग्य को हिंदी साहित्य में एक विधा के रूप में स्थापित किया , जिन्हे पढ़कर कभी-कभी लगता है कि जैसे आज ही कल में ये लिखे गये होंगें।

परसाई जैसे रचनाकार आज भी प्रासंगिक हो रहे हैं यानि कि कुछ न कुछ है जो बदल नहीं रहा है। कुछ न कुछ है समाज में जिसे बदलने के पुरजोर प्रयास ये रचनाकार कर थे, चाहे वो कबीर हो या परसाई लेकिन कुछ है जो हमारे समाज में रूढ़ हो चुका है और जब समाज की बात हो तो ये ज्ञातव्य हो कि यह समाज हमसे ही बनता है। परसाई इन बातों की पूरी समझ रखते  कि समाज में क्या हो रहा है और होना क्या चाहिए? परसाई ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’ व्यंग्य में समाज के विभिन्न हिस्सों जैसे नेता, शिक्षक एवं माता-पिता आदि पर व्यंग्य करते हैं और आख़िरी में पूछना चाहते हैं कि ये दिशाहीन युवाओं की भीड़ क्यों सदिश होकर किसी समूह में क्यों नहीं बदल पा रही।

भ्रष्टाचार जो परसाई के समय में था जिसका जिक्र ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ और ‘सदाचार की ताबीज’ जैसे व्यंग्यों में किया गया है, जहाँ इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में उन तमाम पुलिस अधिकारियों की बात की है जो झूठी रिपोर्ट बनाकर बेगुनाहों को सजा दिलवाते हैं, ऐसे कई केस हम और कभी-कभी समाचार पत्रों में या अपने आसपास सुनते ही रहते हैं। जहाँ पुलिस ने किसी विशेष धर्म या जाति से ताल्लुक रखने के कारण उसे सजा दिलवा दी और वर्षों बाद यदि सौभाग्य रहा तो किसी वकील या एनजीओ के सहयोग से वह बाहर आ भी गया तो उसके जीवन के वर्ष वापस नहीं आ पाते।

शासक कभी भ्रष्टाचार ख़त्म करने की सोचते  भी हैं तो अपनी ढिलवही या दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी के चलते एक भ्रष्टाचार तंत्र और खड़ा कर देते हैं। जैसे ‘सदाचार की ताबीज’ के में कहाँ तो था कि ठेकेदारी की व्यवस्था ख़त्म करनी वहाँ अवैज्ञानिक सोच के चलते, ताबीज़ के माध्यम से भ्रष्टाचार ख़त्म करने की सोची और ऊपर से ताबीज़ बनाने का भी ठेका दे डाला। राजा साहब दो तारीख़ को चेक करने गये तो रिजल्ट अच्छा मिला क्योंकि एक तारीख़ को तनख़्वाह मिली थी। इकतीस तारीख़ को निरीक्षण करने पर जब एक कर्मचारी को पकड़ा तो ताबीज़ में से ही आवाज़ आई- “अरे, आज इकतीस है। आज तो ले ले।”[3]

आज भी क्या कुछ बदला है? आजकल तो घूस पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गया है। कभी सौभाग्य से ये संयोग बना कि पुलिस दया के कारण घूस न लेना चाहे तो आम आदमी को विश्वास नहीं होता कि ये मेरा काम करेगा। जबरदस्ती ही कुछ नहीं तो हज़ार-पाँच सौ रूपया दे देता है आम आदमी अपनी तरफ से।

        परसाई विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्रोफेसरों पर भी करारा प्रहार करते हैं, “छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग । छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएं।ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है। वे क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफ़रत करते हैं।”[4] यह स्थिति भी क्या आज भी जस की तस नहीं बनी हुई है। आज छात्र अपने करियर की वजह से बोले भले ही न पर सभी प्रोफेसरों की स्थिति वे जानते हैं।

परसाई इस व्यंग्य के माध्यम से जो सीधी बात कहना चाहते हैं कि एक प्रोफेसर या शिक्षक को कैसा होना चाहिए? गुटबाजी से परे ,ऊँचे आचरण वाला, सभी छात्रों को समान दृष्टि से देखने वाला होना चाहिए। लेकिन आज भी विश्वविद्यालयों गिने चुने ही शिक्षक आपको ऐसे मिल पाएँगें। छात्र बोले भले ही न अपने भविष्य के लोभ में पर वे समझते सब हैं। वैसे ही “बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हज़ार है, पर घर का ठाठ आठ हज़ार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है।”[5] क्या आज ये कथनी और करनी का अंतर ,समाज छोड़िए, क्या हमारे -आपके घरों में मिट गया है? हमारे घर समाज के ज्यादातर सम्मानित जनों ने  सिर्फ बोल-बोल कर बड़ी-बड़ी आदर्शवादी बाते सिखाते हैं, अपने कर्मों से नहीं। जैसे “नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं-युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है-(हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे?”[6]

कुछ एक उदाहरण छोड़ दिए जाए तो हमारी पीढ़ी को ऐसी ही हवाई बातें सुनाकर बड़ी-बड़ी बातें सिखाई गई और हम जो तैयार हुए हैं तो किस चीज़ के लिए सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करने के लिए। ऐसे ही हमारे बातूनी लोगों पर परसाई जी प्रहार करते हैं। हमें अब आश्चर्य भी नहीं होता हमारे नेताओं की बातूनी फितरत पर, क्योंकि  हम सभी एक ही समाज से ताल्लुक रखते हैं और एक-दूसरे की भावना को समझते हैं। जैसा कि अनुराग अनन्त कहते हैं ‘बात के पीछे की बात असली बात होती है। ‘हम समझते हैं कि असली बात क्या है बस बोलते नहीं। इसीलिए ये नेतागण कहते हैं हमारे देश की जनता बहुत समझदार है। तो अचानक से क्षेत्रीय लखैरा सभ्य हो जाए, लोकतंत्र की बातें करने लगे, हम जो  जनता हैं समझ जाते हैं कि भाई साहब के हरकतों के पीछे की बात ये है कि ये चुनाव लड़ना चाहते हैं।

परसाई के व्यंग्य पढ़कर यह समझ और पुष्ट होती है। क्योंकि “इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है,वही उसे नष्ट कर रहा है।”[7] क्या हम आज अपने चारों यह नहीं देख रहे? जो भी कि पंथ, सम्प्रदाय, धर्म की रक्षा की बात करता है, आप देखिए गौर से तो वही उसे सबसे ज़्यादा हानि पहुँचा रहा है। अपना ख़ज़ाना भर की और शक्ति अर्जन की इससे बेहतर तरकीब और क्या होगी?

जैसे “समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा। समाजवाद टीले से चिल्लाता है – ‘मुझे बस्ती में ले चलो।’ मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं – ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’ समाजवाद की घेराबंदी है।”[8]

इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में आते-आते ये घेराबंदी और भी मजबूत हो गई है और ये घेराबंदी हम महसूस भी कर रहे हैं। हम अपने आस-पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की बात सुनते तो हैं पर हम समझते हैं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पर्याप्त घेराबंदी है, कुल मिलाकर कहें तो हम ‘लोकतंत्र’ की बात सुनते तो हैं पर सबसे ज़्यादा उसी की घेराबंदी है।

निष्कर्ष-

कहते हैं “साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं ,वरन् दीपक भी है।”[9] यानी कि अंधकार के समय में हमें दिशा भी देता है। परसाई के व्यंग्य इसका उपयुक्त उदाहरण हैं। परसाई हमें वह दृष्टि देते हैं जिससे हम अपने आस-पास की वास्तविकता, समाज, देश एवं वैश्विक दृश्य के वास्तविक दृश्य को समझ पाते हैं। व्यंग्य के विषय में स्वयं परसाई कहा करते थे कि ‘व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, अत्याचारों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है। ‘इन सब का पर्दाफाश करके परसाई मानव होने को व्याख्यायित करते हैं।

समझा जाए तो परसाई मूलतः मानवतावादी ही हैं। मानव को किस तरीक़े से जीवन जीना चाहिए इसकी पूरी समझ परसाई अपने व्यंग्य के माध्यम से देते हैं। हरिशंकर परसाई का व्यंग्य साहित्य हमारे  सामाज का आइना है। एक ऐसी दृष्टि जिसमें हम देश, काल, परिस्थिति के यथार्थ को देखते हैं। बकौल ज्ञानरंजन-“जब तक परसाई की ग्रिप से निकलकर उन्हें दूर-दूर से न देखा जाए, मतलब एक बड़े डिस्टैंस से तब तक उन्हें मुकम्मल समझना,उन पर टिप्पणी करना कठिन है“[10]

संदर्भ ग्रंथ:-

 1.https://www.reference.com/world-view/social-analysis-a0ddbf5e7c0f5618

  1. आवारा भीड़ के ख़तरे, हरिशंकर परसाई, राजकमल पेपरबैक्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 13

3.सदाचार की ताबीज़, हरिशंकर परसाई, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या 20

4.आवारा भीड़ के ख़तरे, हरिशंकर परसाई, राजकमल पेपरबैक्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 13

5.आवारा भीड़ के ख़तरे, हरिशंकर परसाई, राजकमल पेपरबैक्स, दरियागंज, नई दिल्ली, संख्या 11

6.आवारा भीड़ के ख़तरे, हरिशंकर परसाई, राजकमल पेपरबैक्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 11

7.ठिठुरता हुआ गणतंत्र,हरिशंकर परसाई,राजकमल पेपरबैक्स,दरियागंज,नई दिल्ली,पृष्ठ संख्या 10

8.ठिठुरता हुआ गणतंत्र, हरिशंकर परसाई, राजकमल पेपरबैक्स ,दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 10

9.हिन्दी साहित्य का इतिहास,कुमार सर्वेश,सार्थक प्रकाशन,मुखर्जी नगर,दिल्ली,पृष्ठ संख्या 10

10.प्रेमचंद के फटे जूते, हरिशंकर परसाई, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या 5

.

Show More

अभिषेक सिंह

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी (हिन्दी विभाग) हैं। सम्पर्क- +91 9454504236, abhisheksingh8a8a@gmail.com 
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x