लोकसभा चुनाव 2024 में राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के सामने कड़ी चुनौती पेश करते हुए इंडिया गठबंधन ने 11 सीटें हासिल कर लीं। उल्लेखनीय है कि पिछले 2014 और 2019 के दोनों लोकसभा चुनावों में भाजपा ने सभी 25 सीटें जीत कर प्रदेश से कांग्रेस का सफाया कर दिया था। स्वाभाविक ही भाजपा ने तीसरी बार भी राज्य की सभी सीटों को जीतने का लक्ष्य रखकर अपने चुनाव अभियान को नियोजित किया था। लेकिन पड़ोसी राज्यों- मध्य प्रदेश और गुजरात के विपरीत राजस्थान से उसे कड़ी चुनौती मिली। राजस्थान में कांग्रेस को 8 संसदीय क्षेत्रों में सफलता मिली और तीन सीटों पर उसके गठबंधन सहयोगी रालोपा, बीएपी और माकपा को जीत मिली। कांग्रेस के वोट शेयर में करीबन दस प्रतिशत की वृद्धि हुई।
राजस्थान में पांच महीने पहले ही विधान सभा चुनाव हुए थे जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत से अपनी सरकार बनायी थी। इससे उत्साहित भाजपा ने लगभग तभी से संसद के चुनावों की तैयारी शुरू कर दी थी। विधान सभा में भी कोई मुख्यमंत्री का चेहरा आगे नहीं किया था बल्कि मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा गया था। चुनाव बाद, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह ही यहाँ भी राजनाथ सिंह जेब में एक पर्ची लेकर आये थे जिसे खोलते ही दो बार मुख्यमंत्री रही वसुंधरा राजे का चेहरा उतर गया था। भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री बनाये गये भजनलाल शर्मा इससे पूर्व संघ से पार्टी में आये ऐसे अनाम से कार्यकर्ता थे जो प्रायः पृष्ठभूमि में रहकर कार्य करते हैं। उनके मुख्यमन्त्री बनने ने वसुंधरा ही नहीं बल्कि पार्टी में उनके प्रतिद्वंदियों को भी स्थायी तौर पर हाशियाकृत कर दिया हालांकि इसकी प्रक्रिया तो विधान सभा चुनाव के आरम्भ में ही मोदी-शाह द्वारा शुरू कर दी गयी थी। यह अलग बात है कि पर्ची के मार्फत मुख्यमंत्री तय करने की इस रीत ने भाजपा को ही नहीं बल्कि प्रदेश की आम जनता को भी स्तब्ध और आहत किया।
ऐसा नहीं है कि जो सीटें भाजपा ने खोयी हैं उन पर पहले वह कोई बहुत अच्छी स्थिति में थी। इनमें से लगभग सभी पर वह विधान सभा चुनावों में भी पिछड़ी थी। महत्वपूर्ण यह है कि लोक सभा चुनाव के दौरान नये मुख्यमंत्री ने प्रदेश के सभी 25 संसदीय क्षेत्रों का दौरा किया और यह करीब-करीब बेअसर रहा। मोदी-शाह सहित भाजपा के दिग्गज नेताओं ने पूरा प्रदेश रौंद डाला। पहले चरण के मतदान में पांच प्रतिशत से अधिक की गिरावट रही। इसी चरण की 92 में से आठ सीटें कांग्रेस ने जीती हैं। इसके तत्काल बाद भाजपा ने अपनी चुनाव अभियान रणनीति में व्यापक बदलाव किया और उसके नतीजे भी मिले। भाजपा ने अपने 99 सांसदों के टिकट काटे थे लेकिन इसका कोई निर्णायक प्रभाव नहीं पडा। प्रदेश स्तर के सभी शीर्ष भाजपा नेता कहीं न कहीं फंस कर रह गये थे, वे वहाँ से निकल ही नहीं पाये।
सच्चाई तो यह है कि कांग्रेस की उपलब्धि कुछ और बेहतर हो सकती थी जो कि हो न सकी। ऐसा भाजपा के कारण नहीं हुआ बल्कि उस ख्यात कहावत के अनुरूप हुआ कि कांग्रेस तो अपनी दुश्मन खुद है। जयपुर ग्रामीण सीट मात्र 1615 वोटों से कांग्रेस ने खोयी, जबकि अलवर और कोटा में हार-जीत का अंतर पचास हजार से कम वोटों का रहा। लोगों में आम चर्चा है कि जयपुर ग्रामीण में अशोक गहलोत के लोगों ने प्रत्याशी को सहयोग नहीं किया क्योंकि वह सचिन पायलट का नजदीकी था। अलवर में भाजपा के दिग्गज भूपेन्द्र यादव को हराया जा सकता था, यदि भंवर जितेन्द्र सिंह और उनके समर्थकों ने सक्रियता दिखाई होती। कोटा में भाजपा से कांग्रेस में आये प्रत्याशी प्रहलाद गुंजल को हराने में गहलोत के नजदीकी रहे कांग्रेस के नेता शांति धारीवाल की भूमिका तो लगभग साफ नज़र आती थी।
राजस्थान में कांग्रेस संगठन को कमजोर करने में सबसे बड़ी भूमिका अशोक गहलोत की रही है। वे तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे लेकिन तीनों ही बार कांग्रेस आलाकमान ने उनकी नियुक्ति की थी। उन्हें विधायकों का बहुमत कम से कम उस समय तो हासिल नहीं था। पहली बार जब वे मुख्यमंत्री बने तब विधायकों का बहुमत परसराम मदेरणा के साथ था। दूसरी बार कहा जाता है कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीपी जोशी के एक वोट से चुनाव हार जाने के कारण उन्हें यह अवसर मिला। लेकिन असल कारण कांग्रेस आलाकमान की उनके प्रति अनुकंपा ही थी, अन्यथा गिरिजा व्यास उनसे वरिष्ठता में कहीं पीछे नहीं थीं। तीसरी बार वे सचिन पायलट को किनारे करके मुख्यमंत्री बने जबकि वह चुनाव कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की अगुवाई में लड़ा गया था। उस समय ज्यादातर विधायकों का समर्थन भी सचिन के पक्ष में था। इसका एक नतीजा यह रहा कि गहलोत ने संगठन को हमेशा भिन्न नजरिये से देखा और उसे लगातार कमजोर करने की कोशिश की।
शक्ति की केन्द्रीयता के लिए जिस नरेन्द्र मोदी की आलोचना की जाती है, अशोक गहलोत मुख्यमंत्री के रूप में उसी नीति पर चलते रहे हैं। राजनीति में उनके जादूगर होने की जो चर्चाएँ की जाती हैं, वास्तव में वे सत्ता के सहारे अपने विरोधियों को निपटाने की घटिया छल-प्रपंच की रणनीतियां हैं। हाल के विधान सभा चुनाव में उनकी हार के बाद उनके सीएमओ में सबसे प्रभावशाली रहे व्यक्ति ने उजागर किया है कि कैसे वे अपने विरोधियों के फोन टेप करते थे और किस तरह उन्होंने सचिन पायलट के राजनीतिक भविष्य को खत्म करने की साजिश रची थी। विधान सभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने यह तय किया था कि अशोक गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाये और राज्य का नेतृत्व सचिन को सौंप दिया जाये। तब उन्होंने न केवल कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से मना कर दिया बल्कि यहां विधायक दल की मीटिंग ही नहीं होने दी जिसके लिए तत्कालीन पर्यवेक्षक मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था कि उनका ऐसा अपमान जीवन में कभी नहीं हुआ। इस तरह गहलोत ने कांग्रेस आलाकमान को उनकी अनुकंपाओं का प्रतिदान दिया और देश भर में कांग्रेस आलाकमान के कमजोर होने का संदेश गया। वह भी ऐसे समय में जब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा चल रही थी।
उसी कमजोर आलाकमान ने प्रदेश में कांग्रेस संगठन को पूरी तरह से खत्म होने से बचाने के लिए उन्हें विधान सभा चुनाव की पूरी बागडोर सौंप दी। सचिन पायलट को कांग्रेस वर्किंग कमेटी में लेकर किसी प्रकार मनाया गया। अशोक गहलोत ने अपनी मर्जी से टिकट बांटे और वे लगभग सभी विधायक टिकट पा गये जिनकी करतूतों से जनता भारी खफा थी। सच तो यह है कि अशोक गहलोत एक असफल प्रशासक रहे हैं। इसका ठोस प्रमाण उनके मुख्यमंत्रित्व काल के बाद तीनों बार राज्य में कांग्रेस को मिली पराजय है। अपने हर कार्यकाल के आखिर में वे कुछ कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करते हैं। चूंकि वे अपने मंत्रिमंडल और नौकरशाहों की टीम में कमजोरों का चयन करते रहे हैं ताकि उनका वर्चस्व बना रहे लेकिन इसका दुष्परिणाम यह होता है कि उनकी कल्याणकारी योजनाएं ठीक से धरातल को नहीं छू पातीं। दूसरे, यह योजनाएं कार्यकाल के अंत में घोषित होती हैं तो जनता इन्हें उनको बरगलाने की कोशिश के रूप में लेती है।
अशोक गहलोत ने अपने विधान सभा चुनाव को भी केन्द्रीकृत कर लिया था। उनके चुनावी वार रूम पर पूरा नियंत्रण उनके द्वारा हायर की गयी चुनाव प्रचार एजेंसी का था। इस एजेंसी ने प्रचार सामग्री से कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविन्द सिंह डोटासरा का ही नाम और फोटो गायब कर दिया। इसके चलते डोटासरा ने सार्वजनिक रूप से एजेंसी के संचालक नरेन्द्र अरोड़ा के प्रति नाराजगी जाहिर की। लेकिन एजेंसी की यह प्रवृत्ति जारी रही और जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे जयपुर में रोड शो करने आये तो उनका फोटो भी पोस्टरों से गायब था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार में इसे मुद्दा बनाया। गहलोत अपने प्रतिद्वंद्वी से शत्रु- भाव को भी छुपा नहीं पाते हैं। सचिन पायलट के बारे में उनके द्वारा जो कहा गया वह समय- समय पर सार्वजनिक होता रहा है। यह चुनाव गहलोत के नेतृत्व में था तो स्वाभाविक था कि सचिन पायलट के समर्थकों में मायूसी होती। मोदी ने अपने भाषणों में इसे भी हवा दी और सचिन समर्थकों ने करीबन तय कर लिया कि गहलोत समर्थकों को हराना है और इस तरह राजस्थान की सरकार भाजपा को प्लेट में रखकर सौंप दी गयी। जो जादूगर कहते थे कुर्सी मुझे नहीं छोड़ती उनका जादू ही साथ छोड़ गया।
लोकसभा चुनाव में गहलोत अपने बेटे को टिकट दिलाने के साथ ही गठबंधन से संबंधित समिति में शामिल होने में कामयाब हो गये। वहाँ उन्होंने गठबंधन की रणनीतियों को भी अपने बेटे के पक्ष में मोड़ने का प्रयास किया। हनुमान बेनीवाल से गठबंधन के पक्ष में उस क्षेत्र का कांग्रेस संगठन नहीं था और वह अंत तक इसके विरोध में रहा। अशोक गहलोत ने ज्योति मिर्धा और दिव्या मदेरणा के विरुद्ध हनुमान बेनीवाल को हमेशा शह दी। अब अपने बेटे के चुनाव में वे हनुमान की मदद लेना चाहते थे। अन्यथा संगठन को उसकी कोई जरूरत नहीं थी बल्कि उसे तो उनके साथ आने से भविष्य में नुकसान ही होना था। हनुमान की ही पार्टी से कांग्रेस में आये उम्मेदाराम विश्नोई ने बाड़मेर से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि गहलोत समर्थक एक मुस्लिम नेता ने बाड़मेर से चर्चित निर्दलीय प्रत्याशी रवीन्द्र भाटी का खुलकर समर्थन किया जिसके चलते उन्हें कांग्रेस से निकाला गया। स्वयं गहलोत वहाँ भाटी की गाड़ी में घूमते देखे गये और यह भी उन्होंने अपने बेटे के लिए भाटी के प्रभाव का लाभ लेने के लिए किया। लेकिन अब अपनी छोड़ी खींबसर विधान सभा सीट हनुमान किसी और के लिए छोड़ने वाले नहीं हैं।
राजस्थान में विधान सभा चुनाव के बाद कांग्रेस के एक आदिवासी नेता महेन्द्र जीत मालवीय भाजपा में चले गये और भाजपा ने उन्हें बांसवाड़ा से लोकसभा का टिकट भी दे दिया। उस इलाके में सक्रिय बीटीपी से तीन विधायकों का गहलोत ने अपनी सरकार के लिए समर्थन लिया था। बीटीपी अब बीएपी हो गयी और गहलोत अपने बेटे के लिए इसका समर्थन लेना चाहते थे। दूसरी ओर कांग्रेस का स्थानीय संगठन इसके लिए तैयार नहीं था। संगठन का मानना था कि अगर एक बार जमीन छोड़ दी गयी तो उसे फिर से पाना मुश्किल है। गहलोत मालवीय को हराने के लिए गठबंधन चाहते थे, जबकि लोगों का मानना था कि मालवीय को कांग्रेस ने सीवीसी का सदस्य बनाया, तब भी उसने पार्टी छोड़ी, इसे लेकर लोगों में भारी रोष है। कांग्रेस ने वहाँ से प्रत्याशी घोषित कर दिया, नाम वापसी की तारीख के बाद बीएपी से गठबंधन करके बांसवाड़ा सीट उसे दे दी गयी। कांग्रेस प्रत्याशी ने गुस्से में चुनाव लड़ने का तय किया और हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष और राज्य प्रभारी को अपने ही प्रत्याशी को वोट न देने की अपील करनी पड़ी। बदले में बीएपी ने उदयपुर और वैभव गहलोत के क्षेत्र से अपने प्रत्याशी भी वापस नहीं लिये। नतीजतन दोनों जगह कांग्रेस हार गयी। उदयपुर में बीएपी उम्मीदवार को मिले मतों की संख्या कांग्रेस की हार के अंतर से ज्यादा है। ऊपर से बीएपी नेता अब कह रहे हैं कि वे इंडिया गठबंधन से स्वतंत्र हैं।
लोकसभा के इस चुनाव की एक दिलचस्प परिघटना यह रही कि दो पूर्व मुख्यमंत्री अपने-अपने बेटों को चुनाव जिताने के लिए ही समर्पित रहे। किन्तु इसमें अंतर यह है कि वसुंधरा राजे ने अपने बेटे के लिए जीत हासिल कर ली, वहीं गहलोत अपने बेटे को जिताने में असफल रहे। लोग इसे उनकी राजनीति का अंत मान रहे हैं। कांग्रेस ने भरतपुर संभाग और शेखावाटी क्षेत्र में विशेष उपलब्धि हासिल की है और ये सचिन पायलट के प्रभाव क्षेत्र हैं। उनके अनुमोदन पर मिले टिकटों के नतीजे बेहतर रहे हैं। उनके विरुद्ध भाजपा ने किरोड़ीलाल मीणा को प्रचार में उतारा था। उन्होंने दावा किया था कि वे दौसा और सवाई माधोपुर संसदीय सीटों पर भाजपा को जीत नहीं दिला पाये तो राज्य में अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे। लेकिन वे खुद अपने व अपने भतीजे के चुनाव क्षेत्र से ही भाजपा के उम्मीदवारों को नहीं जितवा सके। लोग उनके इस्तीफे का इंतजार कर रहे हैं। उधर डाक्टर के परामर्श पर बैड रेस्ट कर रहे गहलोत अमेठी की जीत का श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं। मगर लोगों को सोशल मीडिया पर चलने वाला एक संदेश भूला नहीं है। कहा जाता है कि चुनाव अभियान में माहिर अमेठी उम्मीदवार केएल शर्मा ने गहलोत को वहाँ कोई जिम्मेदारी नहीं दी। गहलोत ने इस बात की शिकायत खरगे जी को की तो उन्होंने कहा कि खुद आगे चलकर जिम्मेदारी लो, कांग्रेस की गारंटियों के परचे घर-घर जाकर बांटो। वहाँ कवरेज कर रहे पत्रकारों ने उन्हें यही जिम्मेदारी निभाते देखा था।