उत्तराखंड

असंतुलित विकास के अराजक नतीजे

 

कोई तीन वर्ष पहले मैं अपनी नौकरी के दौरान उत्तराखंड के एक मशहूर पर्यटन स्थल मुक्तेश्वर के नजदीक रहा। नैनीताल के आस-पास जिन जगहों को पर्यटन के लिहाज से खास माना जाता है उन में मुक्तेश्वर भी है। यह 7500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है और मौसम साफ होने पर यहां से हिमालय की पंचाचूली श्रृंखला को साफ देखा जा सकता है। मुक्तेश्वर देवदार के जंगलों तथा फलों के बगीचों से घिरा है। यहां आईवीआरआई का 1893 में स्थित पशु अनुसंधान केंद्र है। कुल मिलाकर यह छोटा सा पहाड़ी गांव अपनी सुंदरता की वजह से पर्यटकों को खूब आकर्षित करता है। परिणामस्वरूप यहां खूब सारे रिजॉर्ट, गेस्ट हाउस व होटल बन गए हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि इस छोटी सी जगह में क्षमता से अधिक लोगों के होने की वजह से पेयजल का संकट उत्पन्न हो गया है। पानी के स्थानीय स्त्रोत व पेयजल परियोजनाएं नाकाफी साबित हो रही हैं। टैंकरों से पानी लाया जाता है।

पर्यटन का कारोबार करने वालों तथा विभाग के लोगों के बीच गठजोड़ हो गया है, जिसके कारण वे आस-पास की ग्रामीण आबादी के पानी को इन रिजॉर्ट्स को बेच देते हैं। यहाँ तक कि स्कूलों में बच्चों के मिड डे मील के लिए पानी की उपलब्धता नहीं होती। 2011 की जनगणना के हिसाब से मुक्तेश्वर में 267 परिवार तथा कुल आबादी 812 है। स्पष्ट है, मुक्तेश्वर की क्षमता बहुत कम लोगों को थामने की है। इसके कारण भीड़भाड़ और शोरशराबा बढ़ा है। अमूमन पहाड़ के सभी पर्यटन स्थलों की स्थिति यही है, वे अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों तथा वाहनों को झेल रहे हैं।

पहाड़ के गाँवों में लोग मुख्य रूप से पशुपालन, छोटी जोत की खेती तथा बाहर जाकर की जाने वाली नौकरियों पर निर्भर रहते हैं। इसमें फौज की नौकरी का स्थान सबसे ऊपर आता है। सत्तर से अस्सी फीसदी खेती वर्षा जल पर निर्भर है। इस कारण लोग खेती के भरोसे नहीं रह सकते। ऊपर से बन्दर, सूअर आदि ने खेती को बुरी तरह से तहस-नहस किया है। पहाड़ के गाँवों में परिवार के कुछ सदस्य खेती-बाड़ी और पशुपालन करते हैं तथा एक या दो सदस्य नौकरी करते हुए परिवार की आर्थिक जरूरत को पूरा करते हैं। इस प्रकार हर परिवार के साथ पलायन अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है। 

तराई भाबर में बड़ी जोत की खेती है। सिंचाई की उपलब्धता रहती है। इसलिए खेती अच्छी है। आम, लीची, चावल की अच्छी फसलें होती हैं। पशुपालन डेयरी कई लोगों का मुख्य पेशा है। सिडकुल बनने से बड़ी आबादी को रोजगार का विकल्प मिला है, हालाँकि यह भी सच है कि सभी लोगों के पास खेती और रोजगार के मौके उपलब्ध नहीं हैं। खेती में बड़े किसानों का कब्जा है। बड़ी आबादी मजदूरी तथा खेतों में साझे पर काम करती है।

मुक्तेश्वर

उत्तराखण्ड राज्य की माँग के पीछे लोगों की यही आकाँक्षा थी कि विकास का ऐसा मॉडल सामने आए जिससे पहाड़ की विशिष्टता के बने रहने के साथ अनिवार्य रूप से होने वाले पलायन से मुक्ति मिल सके। राज्य के नौजवान स्थानीय स्तर पर काम के मौके पा सकें। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या उत्तराखण्ड में राज्य निर्माण के बाद ऐसा कोई मॉडल बन पाया जो स्थानीय पर्यावरण व पारिस्थिकी की बनाते हुए लोगों की आकाँक्षाओं को पूरा कर पाता?

पूर्व मुख्यमन्त्री नारायण दत्त तिवारी ने अपने कार्यकाल के दौरान विकास का एक मॉडल अवश्य तैयार किया। उन्होंने उत्तराखण्ड के तराई भाबर की पूरी बेल्ट मैं स्पेशल इकोनामिक जोन (सिडकुल) के तहत उद्योग धन्धों की स्थापना की। यह विस्तार राज्य के नेपाल से सटे हुए सितारगंज व रुद्रपुर से होते हुए हरिद्वार तक जाता है। सिडकुल के अन्तर्गत देश की सभी नामी-गिरामी कम्पनियों ने यहाँ अपने उद्योग स्थापित किये। हालाँकि इसमें भावर की बेशकीमती कृषि जमीन उद्योगों की बलि चढ़ गयी। उद्योगों के लिए यह प्रावधान किया गया कि वे अपने यहाँ 70% नियुक्तियाँ स्थानीय लोगों से करेंगे।

विकास के इस मॉडल से कम से कम इतनी तो उम्मीद की जा सकती थी कि राज्य के जिन बेरोजगार नौजवानों को नौकरी के लिए दिल्ली, हरियाणा व देश के अन्य हिस्सों में जाना पड़ता था, अब उन्हें घर के पास नौकरी मिल जाती, मगर ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं देता। वजह यह है कि उद्योगों में बड़े पैमाने पर ऑटोमोशन हुआ है, जिससे रोजगार के मौके कम हुए हैं। साथ ही कामगारों की नौकरी पूर्णतया ठेके पर आधारित हो गयी है, जिसमें उन्हें तनख्वाह के रूप में पन्द्रह से बीस हजार रुपये तक का वेतन मिलता है।

उत्तराखण्ड में चार धाम होने के कारण धार्मिक पर्यटन को भी उत्तराखण्ड की आर्थिकी में एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। वर्षों से उत्तराखण्ड में नैनीताल मसूरी, कौसानी जैसे स्थान पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र रहे हैं। इसके साथ ही हरिद्वार, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री जागेश्वर धाम आदि स्थानों के लिए धार्मिक पर्यटन के लिए लोग आते हैं। इधर के कुछ वर्षों में होम स्टे के नाम से पर्यटन में एक नयी अवधारणा आयी है जिसमें लोग पर्यटन के नाम से मशहूर जगहों के बजाय पहाड़ के गाँवों तथा कम चर्चित स्थानों की ओर जा रहे हैं। यह पर्यटन का एक बेहतर स्वरूप है जिससे गाँव के लोगों को भी लाभ हो रहा है।

पहाड़ से पलायन मुख्य रूप से रोजगार तथा बच्चों को अच्छी शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए हो रहा है। ग्रामीण विकास एवं पलायन निवारण आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि 2018 से 2022 की 4 वर्ष की अवधि में 3.3 लाख लोगों ने उत्तराखण्ड से पलायन किया है। इस पलायन के फलस्वरुप कई गाँव घोस्ट विलेज के रूप में बदल गये हैं। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2011 तक जहाँ राज्य में 1034 घोस्ट विलेज थे, 2018 में उनकी संख्या 1792 हो गयी।

पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखण्ड के गाँव ही नहीं शहरों में भी गुलदारों की उपस्थिति काफी बढ़ी है। कई जगह बच्चे तथा स्त्रियाँ इनके शिकार बने हैं। 2014 को केन्द्र में आई नयी सरकार तथा राज्य की डबल इंजन की सरकार धार्मिक पर्यटन को लेकर अधिक सक्रिय है। इसके तहत देश भर के लोगों को चार धाम तक सुविधाजनक रूप से पहुँचाने के लिए ऋषिकेश कर्ण प्रयाग रेल लाइन पर जोर-शोर से कार्य चल रहा है। इसके साथ ही राष्ट्रीय हाईवे से पहाड़ों को जोड़ने के लिए ऑल वेदर रोड पर भी कार्य चल रहा है।

उत्तराखण्ड के गढ़वाल में चार धाम यात्रा तो पहले से ही चली आ रही है। अब कुमाऊं क्षेत्र में जागेश्वर धाम को केन्द्र में रखते हुए मानस खण्ड मन्दिर माला मिशन पर कार्य आगे बढ़ रहा है। इसके तहत 18 पौराणिक मन्दिरों को जोड़ते हुए धार्मिक पर्यटन की योजना बनाई जा रही है। हाल के दिनों में नीब करोली बाबा की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण नैनीताल जिले के भवाली के पास कैंची नामक स्थान पर श्रद्धालुओं की आवाजाही अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। इससे राजमार्ग पर आए दिन जाम की स्थिति बनी रहती है।

धार्मिक पर्यटन हो या आम पर्यटन इससे स्थानीय लोगों का जीवन काफी प्रभावित हो रहा है। इससे स्थानीय लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाने पर भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जून के महीने में हरिद्वार-ऋषिकेश तथा काठगोदाम के पास लगातार जाम की स्थिति रहती है। 5-6 किलोमीटर जाने में औसतन 3 से 4 घंटे लग जाते हैं। पहाड़ के दूर-दराज क्षेत्रों से देश के विभिन्न हिस्सों को जाने वाले लोगों की ट्रेन छूटती है। गम्भीर बीमारी की स्थिति में हल्द्वानी या दिल्ली की ओर जा रहे मरीजों को मुसीबत का सामना करना पड़ता है। कुछ लोगों को तो जान भी गँवानी पड़ी है।

पर्यटन को मौज-मस्ती समझने वाले लोग शराब पीकर हुड़दंग मचाते हैं और इधर-उधर गन्दगी फैलाते हैं। ऐसे लोगों से आए दिन स्थानीय लोगों का टकराव होता है। समाधान यही है कि अपनी गाड़ियों से आकर भीड़ बढ़ाने के बजाय स्थानीय टैक्सी या यातायात के साधनों का प्रयोग किया जाए। इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल नैनीताल में की जा रही है। काठगोदाम रेलवे स्टेशन से नैनीताल के लिए रोप वे बनाने का प्रस्ताव है। इसके तहत गाड़ियों को काठगोदाम में ही पार्क किया जाएगा। लोग रोप वे से नैनीताल जाएँगे। इससे नैनीताल को पार्किंग की समस्या से निजात मिलेगी। पहाड़ी कस्बों  तथा शहरों में पार्किंग के लिए जगह निकालना अपने आप में चुनौतीपूर्ण है।  गाड़ियों को शहर के बाहर पार्क करना तथा लोगों को छोटे वाहनों से शहर में ले जाना ही इसका उपाय है।

खुशगवार मौसम तथा प्रकृति के अनूठेपन के लिए लोग पहाड़ आना चाहते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि पहाड़ में भी सड़कें मैदानों की तरह हों। उत्तराखण्ड के पहाड़ भूगर्भीय दृष्टि से काफी संवेदनशील हैं तथा निर्माण की प्रक्रिया में हैं। चौड़ी सड़कों के लिए जब पहाड़ को काटा जाता है तो उसकी संरचना गड़बड़ा जाती है और उसे व्यवस्थित होने में वर्षों लग जाते हैं। इसी कारण हाल में बनाए गये फोरलेन, ऑल वेदर रोड तथा हाईवे बरसातों में भूस्खलन के कारण अवरुद्ध हो जाते हैं, जबकि पुरानी तथा छोटी सड़कों में उतनी समस्या नहीं होती। सड़कों तथा हाईवे के निर्माण से हम पहाड़ में आसान तथा तेज पहुँच बनाना चाहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि तमाम प्राकृतिक बाधाओं के होते हुए भी आज तकनीक इतनी आगे बढ़ चुकी है कि हम ऐसा कर सकते हैं। सवाल यही है कि क्या हम पहाड़ को भी मैदानी शहरों जैसा बना देना चाहते हैं। वैसी ही भीड़-भाड़ वैसा ही कोलाहल। पहाड़ कैसे पहाड़ बने रहें, इस बारे में सोचना होगा? उनके साथ संवेदनशीलता के साथ पेश आना होगा वरना पहाड़ पहाड़ नहीं रह जाएँगे

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दिनेश कर्नाटक

लेखक प्राध्यापक हैं और साहित्य की विभिन्न विधाओं में इनकी दस पुस्तकें प्रकाशित हैं। सम्पर्क +919411793190, dineshkarnatak12@gmail.com
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