पर्यावरण और आधी आबादी
- अमिता
पर्यावरण मनुष्य के जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मनुष्य प्रारम्भ से ही प्रकृति को पूजता रहा है क्योंकि मनुष्य प्रकृति पर पूरी तरह से निर्भर है। कहीं सुहागन अपनी सुहाग की लम्बी उम्र के लिए वट-सावित्री व्रत के रूप में वट वृक्ष की पूजा करती हैं तो कहीं ग्रहों से दूर रहने के लिए पीपल वृक्ष को पूजा जाता है तो कहीं एकादशी (जेठान) व्रत में तुलसी जैसी औषधीय पौधे की पूजा की जाती है। केले के पौधे की बृहस्पतिवार को पूजा की जाती है। सिर्फ यही नहीं हमारे देश में हिन्दुओं के छठ पूजा जैसे कई ऐसे महत्त्वपूर्ण त्योहार हैं, जिसमें बिना नदी की पूजा के त्योहार को पूर्ण नहीं माना जाता है। जल, जंगल, जमीन के प्रति आस्था मनुष्य की भावनाओं से जुड़ी हुई हैं।
यदि इतिहास में जाएँ तो हम पाते हैं कि मिस्त्र, सिन्धु आदि सभ्यताएँ नदी अथवा प्रकृति के कारण ही सबसे समृद्ध सभ्यताओं में गिनी जाती है जिसे नदी की ही देन कहा गया है। यही कारण है कि गंगा जैसी नदियों को चुनावी मुद्दे के रूप में सबसे ज्यादा भुनाया जाता है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, टेहरी बाँध विरोधी आन्दोलन, मूक घाटी, एप्पिको आन्दोलन, विष्णु प्रयाग बाँध, चिलिका आन्दोलन एवं पानी बचाओ आन्दोलन और दिल्ली का वायु प्रदूषण नियन्त्रण आदि कई ऐसे आन्दोलन हमारे सामने हैं जो प्रकृति से मिलने वाले जल, जंगल और जमीन से जुड़े आन्दोलन हैं।
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 में पर्यावरण को पारिभाषित करते हुए कहा गया है – पर्यावरण में एक तरफ पानी, वायु तथा भूमि और उनके मध्य अन्त:सम्बन्ध विद्यमान है, तो दूसरी तरफ मानवीय प्राणी, अन्य जीवित प्राणी, पौधे, सूक्ष्म जीवाणु एवं सम्पत्ति सम्मिलित हैं। भारत में पर्यावरण के संरक्षण के प्रति जागरुकता 321 और 300 ईसा पूर्व के मध्य से देखी जा सकती है। पर्यावरण संरक्षण के लिए कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में भी वर्णन किया था। रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण, कृष्णा और गीता के उपदेशों में भी पर्यावरण संरक्षण की बात की गयी है, जिसे टीवी पर भी दिखाया जा रहा है।
लेकिन पिछले कुछ दशकों से मनुष्य ने जल, जंगल और जमीन अर्थात् प्रकृति का इतना दोहन शुरू कर दिया कि प्राकृतिक आपदाएँ निरन्तर मनुष्य को घेरे हुए है और उत्तराखण्ड, काश्मीर में आयी प्राकृतिक त्रासदियाँ तथा कोरोना जैसी महामारी आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। मनुष्य अपने चन्द स्वार्थों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन कर प्राकृतिक आपदाओं और खतरों को लगातार निमन्त्रण दे रहा है विकास के नाम पर लगातार पर्यावरण का विनाश किया जा रहा है।
मेरा जन्म गया में हुआ। यहाँ एक नदी है फल्गू जिसके किस्से कहानियों को सुनते समय हम पूरी तरह से उनमें खो जाते हैं। लेकिन जब इसके सूखे और बदहाली को देखती हूँ तो मन उतना ही ज्यादा दुखी हो जाता है। इस नदी की बदहाली का मुख्य कारण सीता माता के अभिशाप को माना जाता है। सब को पिण्डदान के माध्यम से मुक्ति देने वाली फल्गू को देखकर ऐसा महसूस होता है, जैसे स्वयं ही आज मुक्ति को तड़प रही हो। फल्गू की बदहाल अवस्था असहनीय सी हो गयी है। कुछ ऐसा ही हाल अरपा नदी का भी देखने को मिलता है। मुझे याद है वे दिन जब सिर्फ फल्गू नदी को देखने के नाम पर स्कूल जाती थी। स्कूल फल्गू नदी के ही किनारे स्थित था।
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स्कूल में एक झूला और एक स्लीपर भी था, जिस पर झूलकर और चढ़कर हम फल्गू के दृश्य को देखकर आनन्द लेते थे। फल्गू के दर्शन मात्र से ही अद्भूत सुकुन की प्राप्ति हो जाती थी। अपने स्कूल के दिनों के लम्बे अरसे के बाद ये सुकुन दोबारा तब मिला, जब मैं श्रीनगर घूमने गयी। कश्मीर को लेकर जिस स्वर्ग की बात सिर्फ सुना था, वह चरितार्थ हो रहा था। वहाँ जाकर एक ऐसे एहसास से गुजर रही थी, जिसे शब्दों में कहना मुश्किल है। नदियों और पेड़-पौधों से निकलने वाले मधुर संगीत से आत्मा मंत्रमुग्ध हो गया था। इस प्रकृति के गोद की एहसास से एक साल बाद भी नहीं निकल पायी हूँ। किन्तु पर्यावरण का यह मनोरम दृश्य मनुष्य के विनाशक रूप के कारण मृतप्राय होता जा रहा है, जिसे समय-समय पर बचाने की पहल भी की जाती रही है।
वर्ष 1730 में जोधपुर के महाराजा को महल बनाने हेतु लकड़ी की आवश्यकता हुई तो राजा के सैनिक खिजड़ी गाँव में पेड़ों को काटने पहुँचे। तब उस गाँव की ‘अमृता देवी’ के नेतृत्व में 84 गाँव के लोगों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया। इसके बावजूद जब सैनिक पेड़ों को काटने लगे तो अमृता देवी पेड़ से चिपक गयीं और कहा कि पेड़ काटने से पहले मुझे काटना होगा। सैनिकों ने अमृता देवी को पेड़ के साथ काट दिया और यहीं से मूल रूप से ‘चिपको आन्दोलन’ की शुरुआत हुई थी।
अमृता देवी के इस बलिदान से प्रेरित होकर अन्य महिला और पुरुष पेड़ों से चिपक गए और लगभग 363 लोग विरोध के दौरान मारे गये। जब राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने पेड़ों को काटने से मना किया। खिजड़ी गाँव की इन महिलाओं ने एक ऐसा इतिहास रचा जो आज भी महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत है।
आजादी के बाद का पहला पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन चिपको आन्दोलन को कहा गया। ‘चिपको’ नाम के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। साइमन कम्पनी के लोग जब गोपेश्वर पेड़ काटने पहुँचे तो चंडी प्रसाद भट्ट जी ने जोर से चिल्लाते हुए कहा कि- “कह दो साइमन वालों से कि हम लोग अंगू के पेड़ नहीं कटने देंगे। वे कुल्हाड़ी चलाएँगे तो हम पेड़ों का ‘अंगवाल्ठा’ कर लेंगे।” इस तरह एक नया शब्द सामने आ गया। ‘अंगवाल्ठा’ का मतलब होता है ‘आलिंगन’। इस तरह 27 मार्च 1973 के दिन गोपेश्वर में ‘चिपको’ आन्दोलन का जन्म हुआ। यों तो इस आन्दोलन का विचार चंडी प्रसाद भट्ट जी के द्वारा दिया गया था, किन्तु जिस दिन यह आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, उस दिन गाँव के सारे पुरुषों को एक साजिश के तहत बरसों से अटके पड़े मुआवजे को लेने के लिए चमोली भेज दिया गया था।
इस मौके का फायदा उठाकर रेणी जंगल काटने के लिए जब ठेकेदार और मजदूर वहाँ पहुँचे तो महिलाओं ने उनका डटकर सामना किया। महिला मण्डल की अध्यक्ष गौरा देवी के नेतृत्व में सारी महिलाएँ वहाँ रात भर डटी रहीं। पहले तो महिलाओं ने उनसे निवेदन करते हुए कहा कि- “भुला (भैया) यह जंगल हमारा है। इससे हमें जड़ी-बूटी मिलती है, सब्जी मिलती है। इस जंगल को मत काटो। जंगल काटोगे तो हमारा यह पहाड़ हमारे गाँव पर गिर पड़ेगा, बाढ़ आएगी, बगड़ जाएँगे, भुला हमारे मायके को मत बर्बाद करो। अभी खाना बना लो, खा लो फिर हमारे साथ नीचे चलना। जब हमारे मर्द वापस आ जाएँगे तब फैसला होगा।” मामला तूल पकड़ चुका था।
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मर्दों ने महिलाओं के साथ बद्तमीजी करनी शुरू कर दी। एक ने गौरा देवी पर निशाना साधा तो गौरादेवी ने अपनी छाती खोल दी और बोलीं, “लो मारो बंदूक और फिर काट ले जाओ हमारा मायका।” इस तरह महिलाओं ने अपना मायका बचाया। और यह आन्दोलन धीरे-धीरे पूरे उत्तराखण्ड में फैल गया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, टेहरी बाँध विरोधी आन्दोलन, मूक घाटी, विष्णु प्रयाग बाँध, चिलिका आन्दोलन एवं पानी बचाओ आन्दोलन आदि कई ऐसे आन्दोलन हमारे सामने हैं जो जल, जंगल और जमीन के संरक्षण से जुड़े हैं।
पर्यावरण को होने वाले नुकसान से यों तो हर वर्ग प्रभावित होती है, किन्तु महिलाओं पर इसका विशेष दुष्प्रभाव देखा जा सकता है। महाराष्ट्रा की ‘वाटर वाईव्स (पानीवाली बाई)’ इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं। महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित इलाके विदर्भ के गाँव देंगमाल के घरों में पिछले कई सालों से एक प्रचलन है, जिसके तहत लोग कई पत्नियाँ रखते हैं। इन पत्नियों को मुख्य रूप से पानी लाने के लिए रखा जाता है। पंचायत ने भी इस चलन को मान्यता दे रखी है। एक को पत्नी का आधिकिक दर्जा हासिल होता है, जबकि बाकी दो कहलाती हैं पानीवाली बाई।
गाँव में ‘पानीवाली बाई’ रखने का चलन पानी की समस्या के चलते बढ़ा है। गाँव में नल नहीं हैं। इसलिए ये पत्नियाँ तीन किमी दूर पैदल चलकर पानी लेने जाती हैं। दूसरी या तीसरी पत्नी वही बनती हैं, जिनके पति की या तो मौत हो चुकी हो या फिर पति ने उन्हें छोड़ दिया हो। गाँव में लड़की के जन्म पर खुशी मनाई जाती है, क्योंकि माना जाता है कि पानी भरने के लिए एक और आ गया। पहली बीवी के बच्चे होते हैं। वहीं 2 पत्नियों से कोई औलाद नहीं होते। ये दोनों औरतें ‘वॉटर वाइव्स’ हैं। यानी वे पत्नियाँ, जो तभी तक पत्नियाँ हैं, जब तक वे पानी लाएँगी।
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इस तरह हम देखते हैं कि सिर्फ पानी के लिए महिलाओं की जिन्दगी कितनी बद्तर अवस्था में चली जाती है। वे अपने जीवन को अपने हिसाब से नहीं जी पाती। अपने वैवाहिक जीवन का भी कोई सुख नहीं भोग पाती हैं। नदियों को जीवनदायिनी माना जाता है। अगर एक दिन भी पानी न मिले तो हमारी पूरी दिनचर्या रुक जाती है। इस महत्त्व को पढ़े-लिखे लोग भले ही न समझें लेकिन पर्यावरण के नजदीक रहने वाले लोग इसे भलीभांति समझते हैं, वशर्तें वे अनपढ़ ही क्यों न हों।
यही कारण है कि छत्तीसगढ़ की केलो नदी पर पम्प हाउस बनाकर जेएसपीएल (जिन्दल उद्योग) को पानी दिए जाने के विरोध में अनशन पर बैठी गाँव की सत्यभामा सौरा नाम की आदिवासी महिला 26 जनवरी 1998 को अनशन के दौरान शहीद हो गयीं। इस तरह वे नदी आन्दोलन का नेतृत्व करने वाली देश की पहली महिला बन गयीं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी के शब्दों में कहें तो- ‘‘जिस तरह द्रौपदी के चीर हरण की बातें थीं, उसी तरह जल हरण की बातें हो रही है। दुर्भाग्य से नदियों से जो जल हरा जा रहा है, उसे पीछे से देने वाला कोई कृष्ण नहीं है।’’
कोई भी दंगा हो या पर्यावरण का विनाश हर हाल में महिलाएँ ही सबसे ज्यादा प्रभावित होती रही हैं। कोरोना काल में भी महिलाओं को ही ज्यादा प्रभावित होते देखा जा रहा है। उनका पूरा जीवन ऐसी संकटों में जिस तरीके से दुष्प्रभावित होता है, उसकी कोई भरपाई नहीं की जा सकती। इस सन्दर्भ में रामचन्द्र गुहा ने कहा है- “पर्यावरण का विनाश साफ तौर पर हाशिये पर रह रही संस्कृतियों और पेशों जैसे- आदिवासी, बंजारे, मछुआरे और कारीगरों पर सबसे बड़ा खतरा है, जो हमेशा से ही अपने अस्तित्व के लिए अपने आस-पास की प्रकृति पर निर्भर रहे हैं।
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लेकिन जैव ईंधन के स्त्रोतों के विनाश का सबसे बड़ा असर महिलाओं पर पड़ा है। एक तरफ तो जंगलों की अनवरत कटाई की जा रही है। वहीं दूसरी ओर उज्जवला योजना चलाकर उन्हें उनके मूल प्रकृति से वंचित किया जा रहा है। जिनकी जो सम्पत्ति है, उसी से छीनकर उन पर ही एहसान जताया जा रहा है।
पर्यावरण से छेड़छाड़ का क्या नतीजा होगा, यह कोरोना जैसी महामारी से स्पष्ट है। इनके विनाश पर विकास करने वाले लोग ये बात भूल जाते हैं कि पर्यावरण के विनाश में आधी आबादी का विनाश भी शामिल हो जाता है। जब आधी आबादी का विनाश होने लगे तो पूरी आबादी समाप्त होने में ज्यादा समय नहीं लगता। महिलाएँ समाज के निर्माण में सबसे बड़ी सहायक होती हैं। यदि वे प्रभावित होंगी तो पूरा समाज प्रभावित होगा। पर्यावरण के विनाश से एक विघटित समाज का जन्म होता है।
कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के लातूर जिले में पानी के लिए जिस तरह से वहाँ के लोगों को जूझते हुए देखा गया था, वह बेहद भयावह था। पहली बार पानी के लिए लोगों को मार-काट करते हुए देखा गया। पानी की चोरी की जा रही थी। पानी खरीदने के लिए पैसे तो लोगों के पास थे लेकिन पानी नहीं था। शायद यही कारण है कि तृतीय विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा, ऐसा कहा जाता है। कोरोना भी पानी के अभाव में बढ़ने की आशंका जताई जा रही है।
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यह बेहद संकट भरा समय है, जो एक बड़ी महामारी के रूप में प्रकट हुआ है। किन्तु यह महामारी पर्यावरण के लिहाज से बहुत ही सकारात्मक साबित हुआ है, जिसका प्रमुख कारण लॉकडाउन को माना जा रहा है। मानव के थोड़े से संयमित जीवन से पूरी पृथ्वी का दृश्य बदल गया है। सदियों से जिन चीजों को करने के लिए लोग प्रयासरत थे, वे चन्द दिनों में पूरा हो गया है। पानी, हवा सबकुछ पहले से स्वच्छ हो गया है। यह बीमारी संयमित जीवन का ही सन्देश देता है, जो पर्यावरण और समाज दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सम्पूर्ण विनाश मानव निर्मित है। इन सबका सबसे बुरा असर अन्तत: महिलाओं पर ही देखा जाएगा क्योंकि उनकी आस्था और संवेदनशीलता प्रकृति से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी रही है।
लेखिका गुरू घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बिलासपुर (छ.ग.) में सहायक प्राध्यापक हैं |
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