महाविनाश के विश्वव्यापी खतरे
इस वर्ष सन 1924 में भारत में भीषण गर्मी आई। तापमान बढ़ कर 48 डिग्री सेल्सियस को भी पार करने लगा। अरब देशों में ही इतनी गर्मी रहती है। बढ़ते तापमान की चपेट में पूरी दुनिया आ गयी। भारत में लू से मरने वालों की संख्या हर साल सैकड़ों में रहती थी। इस बार हजारों- हजार लोग लू से मरे। इंग्लैंड जैसे अत्यधिक ठण्ढे देश में गर्मी के कारण वहाँ के स्कूल बन्द करने पड़े। भारत में अमीरों के बच्चों के लिए जो महँगे स्कूल चलते हैं, उनके क्लासरूम एयरकंडीशन होते हैं। ठण्ढे मुल्क में एयर कंडीशनर की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। भीषण गर्मी से खेती चौपट होती है, पेड़ पौधे मुरझते हैं। जंगलों में आग लगती है। तालाब और नदियाँ सूखने लगती है। इसके साथ ही भू जल स्तर काफी नीचे चला जाता है। कुँए और तालाब सूखने लगते हैं। मनुष्य के साथ साथ तमाम जीव जन्तु, पशु और पक्षियाँ भी मरने लगती है।
एक समय था जब धुआँ को प्रगति और विकास का प्रतीक माना जाता था। अब दुनिया भर कर के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि वातावरण में बढ़ते धुएँ से धरती का सम्पूर्ण वातावरण गर्म होता जा रहा है और यह मानव जीवन और हमारी दुनिया को महाविनाश की ओर ले जा रहा है। दिसम्बर 1997 की शुरुआत में जापान की प्राचीनकालीन राजधानी क्योटो में आयोजित विश्व जलवायु सम्मेलन में अधिकांश राष्ट्रों के सरकारी प्रतिनिधियों ने 11 दिनों तक गम्भीर चर्चा की थी और उस दौरान तय किया था कि वर्ष 1990 में दुनिया में जितना धुआँ कार्बनडाई ऑक्साइड समेत (छह ग्रीन हाउस) वातावरण में छोड़ा जाता था। उस स्तर से 5.2 प्रतिशत की कटौती की जाएगी। कटौती का यह काम सन 2008 से 12 के बीच पूरा कर लेना था। यूरोपीय यूनियन के देश कम से कम 15 प्रतिशत कटौती की मांग कर रहे थे लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका व अन्य देश इसके लिए तैयार नहीं थे।
अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा प्रदूषक है। अकेले वातावरण में लगभग 25 प्रतिशत से ज्यादा धुआँ वातावरण में छोड़ता है। हर साल उसकी मात्रा में 6 प्रतिशत वृद्धि भी होती है। क्योटो में तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति अलगोर भी मौजूद थे और उनकी उपस्थिति में संयुक्त राज्य अमेरिका को इसके लिए राजी होना पड़ा था कि धुआँ छोड़ने में वर्ष 1990 से 7 प्रतिशत की कटौती करेगा। जापान 6 प्रतिशत और यूरोपीय यूनियन 8 प्रतिशत की कटौती के लिए तैयार थे। औद्योगिक रूप से विकसित माने जाने वाले कुल 38 राष्ट्रों को कटौती के दायरे में लाया गया था। उस वक्त चीन, भारत तथा अन्य विकासशील राष्ट्र किसी कटौती के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि उस वक्त इन देशों में प्रति व्यक्ति बहुत कम धुआँ छोड़ा जाता था। जबकि अमेरिकी सीनेट स्पष्ट कर चुका था कि विकासशील देश कटौती नहीं करेंगे तो अमेरिका भी कटौती के लिए तैयार नहीं होगा।
लेकिन यह एक महत्त्वपूर्ण अवसर था, जब अन्तरर्राष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की गर्दन पकड़ी गयी। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका ने बड़ी चतुराई से धुआँ छोड़ने के व्यापार (एमीशन ट्रेड) को उस सम्मेलन में सिद्धान्त रूप में स्वीकार करवा लिया, जिसके तहत वह अन्य राष्ट्रों से उनके धुआँ छोड़ने से वातावरण में धुआँ छोड़ने का अधिकार खरीद सकता है और तकनीकी रूप से अपने द्वारा किए गये वायू प्रदूषण को कम करके दिखा सकता है। परन्तु आज तक संयुक्त राज्य अमेरिका क्योटो सन्धि की पुष्टि करने को तैयार नहीं है। कोई भी अन्तरराष्ट्रीय समझौता तबतक बाध्यकारी नहीं होता जबतक सम्बन्धित राष्ट्र की सरकार उसकी पुष्टि नहीं करता। बाद में कोपेनहेगन सम्मेलन में अमेरिका का अड़ियल रवैया कायम रहा। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग से होने वाले आसन्न खतरे इतने आसपास और स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं कि यदि वातावरण में धुआँ छोड़ने की मात्रा में तेजी से कटौती नहीं की गयी तो मानव जाति और पूरे जीव-जगत का विनाश अवश्यम्भावी है।
वातावरण के गर्म होने से समुद्र का पानी फैलता है। बर्फ के समुद्र तेजी से पिघलने लगे हैं। और पहाड़ों पर जमा बर्फ भी पहले की तुलना में ज्यादा तेजी से पिघलता जा रहा है। परिणामतः समुद्र का तल ऊँचा होता जा रहा है। अंटार्कटिक प्रायद्वीप का लगभग 8 से 10 हजार वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा का बर्फ का पहाड़ पानी बन चुका है। इसी प्रकार भारत के हिमालय फ्रांस के आल्प्स तथा अन्य देशों के बर्फ के पहाड़ तेजी से पिघलने लगे हैं। पिछले 115 साल के दौरान समुद्र का तल 20 सेंटीमीटर बढ़ा है और अभी प्रतिवर्ष .2 से .3 सेंटीमीटर बढ़ रहा है। अगर समुद्र तल का बढ़ना जारी रहा तो अगले 80 साल से भी कम समय में दुनिया भर में 50 लाख वर्ग किलोमीटर तटीय भू क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा। दुनिया भर में समुद्र तट पर बसने वाले 11 करोड़ 80 लाख से भी ज्यादा लोग खतरे में पड़ जाएँगे। बांग्लादेश में सबसे बड़ी मुसीबत आएगी। वहाँ 25 हजार वर्ग किलोमीटर भू क्षेत्र डूब जाएगा। जो इसके कुल भू भाग का 17 प्रतिशत है।
समुद्री तूफान का तेजी से बढ़ता प्रकोप
उष्णकटिबंधीय समुद्री तूफान का बढ़ता प्रकोप समुद्र तटीय इलाके को पहले की तुलना में बहुत ज्यादा तबाह करने लगा है। तूफान की तीव्रता और बारम्बरता लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 1990 से समुद्री तूफानों से बढ़ते प्रकोप से इसका स्पष्ट संकेत मिलना शुरू हो गया है। एक वैज्ञानिक अनुमान के मुताबिक समुद्र की सतह के तापमान में 3 से 4 डिग्री सेल्सियस वृद्धि होने से समुद्री तूफानों की विध्वंसक क्षमता अभी से 50 प्रतिशत ज्यादा बढ़ सकती है। एक अध्ययन के मुताबिक इससे 50 प्रतिशत द्वीप, टापू और समुद्र तटीय इलाके समाप्त हो जाएँगे।
वातावरण के गर्म होने से एक तरफ जल प्रलय का खतरा बढ़ रहा है और दूसरी तरफ दुनिया के बहुत से क्षेत्र सूखे की चपेट में आते जा रहे हैं। मौसम के बदलने के लक्षण भी साफ साफ दिखाई देने और यदि वातावरण का तापमान बढ़ता गया तो फसलों व वनस्पतियों और जीव जन्तुओं को भारी क्षति होगी। इसके साथ ही भुखमरी की समस्या व्यापक होती जा रही है। वातावरण के गर्म होते जाने से कई प्रकार के हानिकारक मच्छरों, कीटों और जीवाणुओं का विस्तार हो सकता है। 50 साल पहले तमाम तरह की महामारियाँ लगभग समाप्तप्राय थीं। लेकिन अब कई प्रकार की महामारियाँ फैल रही हैं। पिछले वर्षों में कोरोना वायरस के कारण दुनिया भर में करोड़ों लोग मारे अन्य प्रकार की महामारियाँ फैलने लगी। हानिकारक कीटों के बढ़ने से फसलों को भी क्षति हो सकती है, होने भी लगी।
वातावरण में धुएँ के कारण कार्बनडाइऑक्साइड बढ़ने का एक खतरा यह है कि यह गैस समुद्री जल में अवसोसित होने लगी है। इसके कारण समुद्री जल में घुले कैल्सियम कार्बोनेट का प्रतिशत घटता जाएगा, जो समुद्री जीवों के हड्डी के निर्माण और विकास के लिए आवश्यक होता है। समुद्र के जल में कार्बनडाइऑक्साइड बढ़ने से शैवल और समुद्री घास तेजी से बढ़ेंगे जो प्रवाल और मूंगों को भी समाप्त कर सकते हैं। जिन समुद्री क्षेत्रों में नाइट्रेट का प्रदूषण हुआ है वहाँ प्रवाल और मूंगे समाप्त हुए। धुएँ का प्रवाह बढ़ने से वातावरण में काले और रंगीन कण बढ़ते हैं। ये काले और रंगीन कण सूर्य से आने वाली प्रकाश किरणों को ताप उर्जा में बदल देते हैं। इसी से धरती का वातावरण गर्म होता जा रहा है। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से समुद्र्तटीय इलाके में कई प्रकार के वृक्ष तेजी से बढ़ते हैं और जल्दी ही काफी ऊँचे हो जाते हैं। इसकी वजह से एक ओर तो पत्तियों, तनों और फलों की पौष्टिकता घटती है और दूसरी ओर तनों, पत्तियों और फलों में नाइट्रोजन के अभाव में उन पर पलने वाले कीट तेजी से बढ़ते हैं। धरती के गर्म होते जाने से जो खतरा आसन्न है उसपर दुनिया भर के वैज्ञानिक शोध में जुटे हैं।
भारत जैसे गरीब देशों को विकास का ऐसा रास्ता खोजना पड़ेगा, जहाँ पर्यावरण को नुकसान न हो, गरीबी और अमीरी की खाई समाप्त हो और रोजगार के अवसर घटने के बजाय बढ़े। विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर बढ़ती जा निर्भरता के रास्ते को बदल कर आत्म निर्भरता का रास्ता चुनना पड़ेगा।
जिस रास्ते पर चल कर अन्य अमीर औधोगिक देश धरती के वातावरण को गर्म करके इसे प्रलय और विनाश के रास्ते पर ले जा रहे हैं, उस रास्ते को अपना कर न तो अपने यहाँ सुख समृद्धि ला सकते हैं और न दुनिया को बचा सकते हैं। वैभव, अत्यधिक उपभोग वाली जीवन पद्धति की नकल करने से गरीब देश बचें। मनुष्य और प्रकृति के मधुर सम्बन्धों पर समतामूलक जनतान्त्रिक समाज का निर्माण ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसी रास्ते से हम मानव जाति को समाप्त होने से बचा सकते हैं।