
चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना के मायने और वर्तमान विश्व
39वां अंतर्राष्ट्रीय चेर्नोबिल आपदा स्मरण दिवस पर विशेष आलेख
पृथ्वी पर मानव के रूप में उत्पत्ति के साथ ही ‘डिजास्टर’ अथवा ‘आपदा’ से मानव को दो-चार होना पड़ता था लेकिन निश्चित ही उन आपदाओं का स्वरूप प्राकृतिक ही रहा होगा क्योंकि दुनिया की आबादी कम ही रही होगी और संसाधनों की होड़ भी बहुत ज़्यादा नहीं थी। गौटनी और हॉलिडे (2015) के अनुसार चौथे हिमयुग (लास्ट ग्लेशियल मक्सिमा) के दौरान प्राचीन दुनिया की जनसंख्या 3 लाख के लगभग ही थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि मानव अपने जीवन में अनेक तरह की प्राकृतिक आपदाओं को झेलते हुए, अनुभवों से सीखते हुए उनसे बचने के प्रयासों में स्वयं ही अनेक मानव-जनित आपदाओं को जन्म देता रहा है। कालांतर में विश्व भर में ऐसी अनेकों दुर्घटनाएं कई बार देखने में आई हैं जिनके केंद्र में मानव क्रियाकलाप ही रहे हैं।
स्कूली शिक्षा के दौरान एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में ऐसी ही एक भयावह और दर्दनाक ‘चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना’ के विषय में पढ़ा तो था लेकिन वहाँ इसका संदर्भ बहुत संकुचित दायरे में था। वर्ष 2023 में आपदा के संदर्भ में एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा ही प्रकाशित एक जागरूकता मैनुअल में बहुत खोजने पर चेर्नोबिल न्यूक्लियर दुर्घटना के केवल नाम मात्र का ही जिक्र है। जबकि यह एक कैटेस्ट्रोफे था जो हिरोशिमा और नागासाकी से चार सौ गुना विध्वंसकारी था और पूरे यूरोप को लीलने की क्षमता रखता था। यह एक ऐसी घटना थी जिसके प्रभाव की चर्चा के दौरान मिखाइल गोर्वाच्योव ने खुद स्वीकार किया था कि यह सोवियत संघ के विघटन का एक प्रमुख कारण थी।
चेर्नोबिल दुर्घटना की तह तक जाने के पहले आइये एक नज़र डालते हैं कि क्या कुछ लिखा गया है दुनियाभर में इस दुर्घटना पर। एडम हिग्गिनबॉथम द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘मिडनाइट इन चेर्नोबिल: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ द वर्ल्डस ग्रेटेस्ट न्यूक्लियर डिजास्टर’ इस घटना का एक विशद वर्णन प्रस्तुत करती है और यह भी बताती है कि कैसे इस घटना के दुष्प्रभावों की रोकथाम का प्रयास किया गया।
‘वॉयसेज फ्रॉम चेर्नोबिल: द ओरल हिस्ट्री ऑफ़ न्यूक्लियर डिजास्टर’ श्वेतलाना एलेक्सीविच द्वारा इस दुर्घटना में प्रभावित लोगों के और उनके परिजनों के कई वर्षों के साक्षात्कार पर आधारित है। मुझे ये पुस्तक अच्छी लगती है क्योंकि यह मानवविज्ञान विषय की ‘क्षेत्रकार्य’/’फ़ील्डवर्क’ विधा के ज़्यादा नज़दीक है। एक मानवविज्ञानी जब किसी भी संस्कृति या समाज के अध्ययन हेतु फ़ील्डवर्क करने जाता है तो वह उनके बीच में जा कर एक लम्बी कालावधि तक रहता है, उनकी भाषा सीखता है ताकि उस समाज द्वारा पालन की जा रही किसी विशेष व्यवस्था, रीति-रिवाज या परम्परा के सन्दर्भ में उनके परिप्रेक्ष्य को समझ सके।
उनकी वंशावली तैयार करता है, ‘अनुसूची’ के माध्यम से उनका साक्षात्कार करता है, विभिन्न परिघटनाओं का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अवलोकन करता है, क्षेत्रकार्य ‘दैनंदिनी’ लिखता है ताकि बिना किसी पूर्वाग्रह के वस्तुनिष्ठता प्राप्त कर विज्ञानों के सामने मज़बूती से खड़ा रह सके और तर्कसंगत विश्लेषण और निष्कर्ष तक पहुँच सके। कुल मिलाकर वो ‘फ़ील्ड को अपनी लैबोरेटरी मानता है’। एलेक्सीविच ने भी नृजातिवृत्तांत विधि, फ़ील्डवर्क और नैरेटिव विधा (यथा लोग सोवियत संघ के बारे में, अपने देश और शहर के बारे में और डिजास्टर रेस्पॉन्स के बारे में क्या सोचते हैं और इस दुर्घटना ने उनके नैरेटिव को कैसे परिवर्तित किया आदि) के द्वारा चेर्नोबिल शहर और वहाँ के लोगों के दर्द को जैसे जीने की कोशिश की है और निश्चित तौर पर उनके इसी तरह के लेखन के लिए ही साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
सेरही प्लॉखी कृत ‘चेर्नोबिल: द हिस्ट्री ऑफ़ न्यूक्लियर कैटास्ट्रोफे’ सोवियत यूनियन के न्यूक्लियर प्रोग्राम के संदर्भ में इस घटना का विश्लेषण करती है।
केट ब्राउन लिखित ‘मैन्युअल फॉर सर्वाइवल: ए चेर्नोबिल गाइड टू द फ्यूचर’ चेर्नोबिल घटना के लॉन्ग टर्म प्रभावों, पर्यावरण पर इसके दुष्प्रभाव और कम्युनिटीज को रीबिल्ड करने, विस्थापन तथा पुनर्वास के प्रयासों की सद्चर्चा करती है।
ओलगा कोचिंसकाया की पुस्तक ‘द पॉलिटिक्स ऑफ़ इनविजिबिलिटी: पब्लिक नॉलेज अबाउट रेडिएशन हेल्थ इफ़ेक्ट्स आफ्टर चेर्नोबिल’ एक महत्वपूर्ण कृति है इस नज़रिये से कि कैसे चेर्नोबिल आपदा के बाद न्यूक्लियर रेडिएशन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में आम जनमानस की धारणा का निर्माण होता है।
पीटर बेकन हेल्स द्वारा लिखित ‘एटॉमिक स्पेसेज: लिविंग ऑन द मैनहैट्टन प्रोजेक्ट’ और सोनजा डी. स्चमिड की ‘प्रोड्यूजिंग पावर: द प्री-चेर्नोबिल हिस्ट्री ऑफ़ द सोवियत न्यूक्लियर इंडस्ट्री’ भी इस कड़ी में महत्वपूर्ण चर्चाओं को जन्म देती हैं साथ ही न्यूक्लियर डिजास्टर के संदर्भ में आपदा प्रबन्धन हेतु महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंभीर विमर्श के लिये प्रेरित करती हैं।
सेरही प्लॉखी की एक अन्य पुस्तक ‘एटम्स एंड ऐशेज: ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ़ न्यूक्लियर डिजास्टर’ न्यूक्लियर डिजास्टर के संदर्भ में एक स्वतन्त्र परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है और चेर्नोबिल दुर्घटना की तुलना अन्य घटनाओं के साथ भी करती है।
द्वितीय विश्व युद्ध के संदर्भ में ‘लिटिल बॉय’ (हिरोशिमा) और ‘फैट मैन’ (नागासाकी) की दर्दनाक घटनाओं ने भी मन को इतना ज्यादा विचलित नहीं किया था जितना एच.बी.ओ. की जोहान रेंक निर्देशित चेर्नोबिल पर बनी मिनी सीरीज़ ने स्पंदित किया। एक मित्र द्वारा निरन्तर यह कहा जाना कि ‘इस सीरीज़ को देखने के बाद और जितनी सीरीज़ देखे हो भूल जाओगे’, इसको देखने की प्रेरणा मिली। सीरीज़ के एक हिस्से में न्यूक्लियर रेडिएशन से बचाव की प्रक्रिया में एक कुत्ते को गोली मारते हुए दिखाया गया है, कुत्ते की आँखें खुली की खुली हैं मानो गोली मारने वाले को लगातार निहार रही हों और पूछ रही हों “मेरा क्या अपराध था जो मुझे मारा”।
अपराधी तो मनुष्य है जिसकी गलती की सजा इन जीवों और समस्त प्रकृति को झेलनी पड़ रही है। मध्य पाषाण काल से ही मानवों को शिकार में साथ देने वाले कुत्तों को चेर्नोबिल की धरती पर बेहिसाब मारा गया, अन्य जीव-जंतुओं की तो कोई गिनती ही नहीं। आपदा प्रबन्धन के अज़ब-गज़ब तरीके अपनाए गए। बीते दिनों आई एक शोध रिपोर्ट तो यहाँ तक कह रही कि चेर्नोबिल के कुत्तों में भी रेडिएशन के प्रभाव से आनुवंशिक परिवर्तन शोधकर्ताओं ने नोटिस किये हैं।
26 अप्रैल 1986 इतिहास के पन्ने में दर्ज एक भीषण त्रासदी:
चेर्नोबिल न्यूक्लियर पावर प्लांट यूरोप के यूक्रेन के उत्तर में सबसे बड़े दलदली क्षेत्र ‘प्रीपियत’ में बना हुआ था। इसकी इकाई 1 और 2 का निर्माण वर्ष 1970 से 1977 के मध्य और इकाई 3 तथा 4 का निर्माण 1983 में पूरा किया गया था। दुर्घटना के समय इसकी दो अन्य इकाइयां अभी निर्माणाधीन थीं। इन रिएक्टरों को पास में स्थित 22 वर्ग किलोमीटर में फैली एक झील से पानी की सप्लाई होती थी।
यहां पर जो रिएक्टर बनाए गए थे वह आर.बी.एम.के. (रिएक्टर बॉलशोय मोशचनोस्ति कनालनी) कैटिगरी के थे। यह बड़े आकार के रिएक्टर होते हैं और इनको ऊर्ध्वाधर न रखकर क्षैतिज अवस्था में रख सकते हैं। यह भूमिगत होते हैं तथा इनका प्रबन्धन भी बहुत आसान होता है। इनको क्रियाशील अवस्था में ही रीफ्यूल किया जा सकता है जिससे संसाधनों की भारी बचत होती है। यह कम खर्चीले होते हैं और इनसे दो उद्देश्य की पूर्ति एक साथ की जा सकती है। आवश्यकतानुसार चाहे बिजली बनाएं या फिर प्लूटोनियम का उत्पादन करें। ऐसा माना जाता है कि 26 अप्रैल 1986 को रूटीन टेस्ट के दौरान इसके कोर में विस्फोट हो गया था। यह भी कहा जाता है कि प्लांट के ऑपरेटर्स ने नियमों को तोड़ा था एवं सुरक्षा मानकों का गंभीर उल्लंघन किया था और इस टेस्ट को करने के दौरान न्यूक्लियर प्रोटोकॉल का भी माखौल उड़ाया गया था।
कुछ एजेंसीज का यह भी दावा है कि इस न्यूक्लियर प्लांट की डिज़ाइन में भी भारी खामियां थी जिसके कारण टेस्ट के दौरान भीषण विस्फोट हुआ और एक बड़े न्यूक्लियर डिजास्टर की नींव पड़ी। स्वीडिश वैज्ञानिकों के दल के अनुसार यह एक ऐसा न्यूक्लियर विस्फोट था जिसके रेडियोएक्टिव तत्व 3000 मीटर से अधिक ऊंचाई तक पहुंचे और काफी दूर तक फैले। रिएक्टर 4 में विस्फोट से भारी मात्रा में जेनॉन गैस (Xe-133), आयोडीन (I-131 & I-133), सीज़ीयम (Cs-134 & Cs-137) तथा क्रिप्टन (Kr- 85) का रिसाव हुआ। प्रभावित लोगों में जब इन रासायनिक पदार्थों की मात्रा 700 मिलीग्रेज से ज्यादा अवशोषित हो गई तब उनमें ‘एक्यूट रेडिएशन सिंड्रोम’ (ए.आर.एस.) के गंभीर लक्षण परिलक्षित होने लगे थे।
कुछ शोध यह भी बताते हैं कि वर्ष 1986 से 2005 के मध्य स्ट्रिक्ट रेडिएशन कंट्रोल ज़ोन के लोगों ने औसतन 31mSv रेडिएशन डोज़ झेला था। ध्यान देने की बात है कि मेडिकल स्रोत बताते हैं कि एक चेस्ट X-ray में एक बार में 0.05 mSv प्रभाव आता है, वहीं 500 mSv पर श्वेत रक्त कणिकाएं घटने लगती हैं, 3000 mSv पर घातक प्रभाव से बाल झड़ जाते हैं, एक बार में 3000 mSv से 5000 mSv के संपर्क में आने से 50% लोगों की मौत की संभावना बन जाती है।
गंभीर रेडिएशन के कारण बच्चों में ‘सिक किड सिंड्रोम’, बच्चों में ल्यूकेमिया और थायरॉयड कैंसर, कमजोर ऑटोइम्यून सिस्टम, फेफड़ों के रोग, गर्भवती महिलाओं में गर्भपात, नवजात की 28 दिनों में मौत आदि देखा गया। चेर्नोबिल दुर्घटना से 45 मिलियन क्यूरीज मात्रा में रेडियोएक्टिव आयोडीन निकला था। यह थायराइड कैंसर और खतरनाक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देता है। लाखों लोग प्रभावित हुए होंगे। पेड्रियाटिक कैंसर से कितने मरे होंगे इसका ठीक-ठीक रिकॉर्ड भी नहीं मिलता। गर्भ में पल रहे संततियों के भीतर भी इसका प्रभाव पड़ा होगा। कितने काल के गाल में समाए होंगे हिसाब नहीं है। केट ब्राउन के अनुसार इसने गर्भ में पल रहे बच्चों में म्यूटेशन किया होगा और गंभीर आनुवंशिक विकृतियों को जन्म दिया होगा। सीरीज की एक घटना में माँ के गर्भ में ही संतति की मृत्यु भीतर तक झकझोर देती है।
एचबीओ की सीरीज़ में यह भी दिखता है कि कैसे दुर्घटना के बाद बिना किसी जानकारी के अग्निशमन कर्मियों को जलती हुई आग को बुझाने की जिम्मेदारी दी जाती है जो आपदा प्रबन्धन में वैज्ञानिक प्लानिंग की आवश्यकता पर बल देता है। कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि कैसे नगरीकृत रूस को बचाने के लिए मौसम के सम्बन्ध में गलत जानकारियां प्रसारित की गई और ग्रामीण बेलारूस के ऊपर रेडियोएक्टिव फॉलआउट वर्षा कराई गई और बेलारूस को इसके संदर्भ में कोई जानकारी भी नहीं दी गई। निश्चित तौर पर इस दुर्घटना में 54 लोग नहीं बड़ी संख्या में असमय मृत हुए होंगे।
यूक्रेन के अधिकारी तो, जो प्रीपियत डिजिटल सेंटर से संबंधित हैं, इस संख्या को डेढ़ से दो लाख तक बताते हैं और बच्चों की संख्या को इसमें शामिल ही नहीं किया गया है। प्लॉखी अपनी पुस्तक में न्यूक्लियर प्लांट्स के निर्माण की राजनीति के संदर्भ में बात करते हैं और इसकी भी चर्चा करते हैं कि कैसे सूचनाओं को आम जनमानस तक पहुंचने से सेंसर किया गया और किसको इस घटना में न्यायिक प्रक्रिया के दौरान बलि का बकरा बनाया गया। यह भी बताते हैं कि कैसे इस घटना ने यूक्रेन को सोवियत यूनियन से अलग होने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यूरोपीय यूनियन रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका कैसे यूक्रेन को 2014 में अपने वायदे से किनारे करते हैं।
1:23:45 की अपशकुनी संख्या
इसको 12345 के रूप में देखने पर यह एक संख्या लगती है जिसको प्रीपियत के लोगों ने मनहूस मान लिया था लेकिन 26 अप्रैल 1986 का यही वो समय था जब आर.के.एम.बी. के चौथे रिएक्टर के कोर में दिल दहलाने वाला धमाका हुआ जिसकी ज्वाला ने यूक्रेन के साथ सोवियत यूनियन के अनेक हिस्सों के साथ जर्मनी, आयरलैंड, ब्रिटेन, बेलारूस को अपनी ज़द में ले लिया था। आयरलैंड में न्यूक्लियर वर्षा हुई तो जर्मनी में अन्य प्रभाव।
सीरीज के त्रिदेव
सीरीज के एक हिस्से में तीन हीरो उभर कर सामने आते हैं जो यह जानते हुए भी कि उनकी जान को खतरा है रिएक्टर 4 के जलप्लावित बेसमेंट में उतरने को तैयार हो जाते हैं – ‘एनानेनको, बेजपालोव और बारानोव’। तीनों सीख देते हैं कि कैसे देश सर्वोच्च होता है, हमारी स्वयं की आवश्यकताओं और ज़िन्दगियों से और ऐसी स्थिति में हम देश के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं और मातृभूमि के ऋण को चुका सकते हैं।
‘एक्सक्लूजन ज़ोन‘ और आपदा प्रबन्धन
आपदा प्रबन्धन के तात्कालिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप अग्निशमन बल और खदान कर्मियों (लिक्विडेटर्स), जिन्होंने रिएक्टर के कोर के नीचे टनल खोदने में सहयोग दिया ताकि कोर को ठंडा करके रिसते हुए रेडियोएक्टिव पदार्थ को फैलने से रोका जा सके। इन कर्मियों ने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। इन माइन वर्कर्स को देखकर भारत के उत्तराखंड में नवंबर 2023 में घटित सिलक्यारा टनल की घटना याद आ जाती है जहां पर टनल के धसने पर देशज तरीके से रैट-होल माइनर्स ने 17 दिन तक टनल में फंसे 41 मजदूरों को रेस्क्यू किया था।
आपदा प्रबन्धन के बाद के अन्य प्रयासों में चेर्नोबिल क्षेत्र में एक ‘एक्सक्लूजन ज़ोन’ निर्मित किया गया। वर्ष 1986 में छः माह के भीतर घटनास्थल के रिएक्टर 4 पर एक कंक्रीट ‘सारकोफेगस’ बनाकर सील किया गया। रिएक्टर 1, 2 तथा 3 को भी वर्ष 2000 तक चरणबद्ध तरीके से बंद किया गया। आज भी एक्सक्लूजन जोन में जाना (कुछ छूट के साथ) प्रतिबंधित है और यह यूक्रेन की सरकार की कस्टडी में है।
किधर जा रही ये दुनिया
26 अप्रैल 1986 को घटित चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना के 39 वर्ष पूर्ण होने पर इस लेख को लिखते हुए मन में एक भय सा उत्पन्न हो रहा है कि जिस गति से दुनियाभर के देश परमाणु हथियारों के जखीरे पर बैठे हैं और ज्यादा से ज्यादा परमाणु शस्त्रों को एकत्रित करने की होड़ में लगे हुए हैं उसका अंत कहाँ जा कर होगा। वर्ष 1945 के हिरोशिमा और नागासाकी के बाद न्यूक्लियर कैंप के देशों ने 500 से ज्यादा न्यूक्लियर टेस्ट किए हैं। 520 परीक्षणों ने स्ट्रेटोस्फीयर को सीधे-सीधे प्रभावित किया है। जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) के मुद्दे पर चर्चा के बहाने चेर्नोबिल पर पुन: गंभीर चिंता उभर कर सामने आई है। चेर्नोबिल तो दुनिया के लिए एक चेतावनी मात्र थी।
दुनियाभर के देशों के पास उपलब्ध परमाणु शस्त्रों की सूची बहुत लम्बी है और सभी नित नए-नए परमाणु शस्त्रों के परीक्षण की होड़ में लगे हुए हैं। परमाणु ऊर्जा से परमाणु जखीरे की यात्रा व प्रतियोगिता के कम होने की संभावना न के बराबर लग रही है क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में बहुत सारे देश अपने न्यूक्लियर पावर का इस्तेमाल दूसरों पर अपने वर्चस्व को स्थापित करने में लगा रहे हैं जबकि शायद उन्हें इस बात का भान नहीं है कि 24 घंटे तो वह खुद न्यूक्लियर बमों के ढेर पर बैठे हुए हैं।
दुनिया भर में परमाणु दुर्घटनाओं से बचने के लिए अनेक तरह के प्रयास हुए हैं। ‘इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी’ (आई.ए.ई.ए.) ने 1986 में न्यूक्लियर दुर्घटना के शीघ्र नोटिफिकेशन हेतु कन्वेंशन बनाया। 1994 में कन्वेंशन ऑन न्यूक्लियर सेफ्टी बना। यूरोपीय यूनियन ने रेडियोएक्टिव अपशिष्ट के सुरक्षित प्रबन्धन हेतु दिशा-निर्देश जारी किए। 1996 में ‘कंप्रिहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी’ (सी.टी.बी.टी.) अस्तित्व में आई।
भारत की स्थिति और स्टैंड पॉइन्ट
भारत में भी नरौरा पावर प्लांट में 1993 में हुई एक छोटी सी घटना, जिसको कि भारत के वैज्ञानिकों ने सफलतापूर्वक हैंडल कर लिया था, के पश्चात अनेक गंभीर प्रयास हुए हैं और ‘एटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड’ का गठन हुआ है। भारत अपनी सम्पूर्ण जिम्मेदारी और समझ के साथ परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग हेतु कटिबद्ध है।
समय की माँग
प्रश्न उठता है ‘क्या हम चेर्नोबिल से कुछ सीख ले पाए’? इतिहास से सीख लेते हुए इस तरह की आपदाओं से बचने के लिए पहले से ही तैयारी रखना बेहतर विकल्प होगा तभी आपदा प्रबन्धन के मूलमंत्र से जनमानस की रक्षा करने में सफल हो पाएंगे। सतही जानकारी की बजाय जागरूकता पर फोकस करना होगा। स्कूलों के पाठ्यक्रम में इस विषय को गंभीरता से समाहित करने की जरूरत अब आन पड़ी है। ऐसा कर पाएंगे तभी “बुद्धा इज स्माइलिंग” तथा “बुद्धा स्माइल्स अगेन” का वास्तविक आनन्द आम जनमानस ले पायेगा और समावेशी विकास की धारा में हम अपनी आने वाली पीढ़ी को सही अर्थ में कुछ बेहतर दे पाएंगे।
संदर्भ सूची
Alexievich, Svetlana; Gessen, Keith (2005). Voices from Chernobyl: The Oral History of the Nuclear Disaster. Dalkey Archive Press. ISBN 1-56478-401-0.
Alexievich, Svetlana (2016). Chernobyl Prayer: A Chronicle of the Future. Translated by Bunin, Anna; Tait, Arch. Penguin Modern Classics. ISBN 978-0241270530.
Gautney, Joanna & Holliday, Trenton. (2015). New Estimations of Habitable Land Area and Human Population Size at the Last Glacial Maximum. Journal of Archaeological Science. 58. 10.1016/j.jas.2015.03.028.
The best books on Chernobyl recommended by Kate Brown (https://fivebooks.com/best-books/chernobyl-kate-brown/)
https://www.nrc.gov/reading-rm/doc-collections/fact-sheets/chernobyl-bg.html