
कुम्भपर्व: कल्पवास के विशेष सन्दर्भ में एक मानवशास्त्रीय अध्ययन
डॉ. संजय कुमार द्विवेदी और प्रो. (डॉ.) राहुल पटेल
प्रस्तुत शोधलेख प्रयागराज में प्रति 12वें वर्ष लगने वाले कुम्भ पर्व पर ‘कल्पवास’ अनुष्ठान का एक विशिष्ट जीवनशैली के रूप में वैज्ञानिक अध्ययन है जहाँ तथ्यों के संकलन एवं विश्लेषण करने के लिए मानवशास्त्रीय अध्ययन पद्धति का प्रयोग किया गया है जिसमें क्षेत्रकार्य और सहभागी अवलोकन प्रमुख हैं। द्वितीयक स्रोतों से आवश्यकतानुसार प्रमाणित तथ्यों को भी ग्रहण किया गया है। प्रतिदर्श के रूप में सेक्टर नम्बर 6 (कुम्भ मेला 2025 के अनुसार) के कुल 200 गृहस्थ कल्पवासियों का चयन किया गया, जिसमें 150 महिला-पुरुष कल्पवासी तथा 50 केवल महिला कल्पवासियों पर अध्ययन कार्य किया गया। 150 महिला-पुरूष कल्पवासियों में 50 ऐसे थे जिनकी उम्र 60 वर्ष से कम थी तथा 100 लोगों की उम्र 60 वर्ष से अधिक थी। 50 महिला कल्पवासियों में 20 की उम्र 55 वर्ष और 30 की उम्र 60 वर्ष से अधिक थी। प्रस्तुत अध्ययन उत्तर प्रदेश में होने वाले विश्व के सबसे बड़े धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन के रूप में किया गया है जहाँ कल्पवास की प्रक्रिया एक विशिष्ट लोक सांस्कृतिक तत्व है जो कुम्भ को महान भारतीय परम्परा से जोड़ती है और जो भारतीय ज्ञान परम्परा की निरन्तरता को बनाये रखने का सबसे प्रमुख कारण है। यहाँ उत्तर प्रदेश राज्य के सभी भाषाई सांस्कृतिक क्षेत्रों के लोग अपनी लोक मान्यता, मूल्य-विश्वास की अवधारणा के साथ एकत्र होते है और कल्पवास जैसे अनुष्ठान का प्रयोग करके अपने जीवन को महान भारतीय ज्ञान परम्परा से जोड़ते है।
मुख्य शब्दावलीः
कुम्भ पर्व, कल्पवास, व्रत-संकल्प, शैय्यादान, तप-जप-नियम-संयम, परिक्रमा, प्रवचन, ज्योतिष, ग्रह-नक्षत्र योग, स्नान-पर्व
भूमिका
धर्म भारतीय संस्कृति का मेरूदण्ड है, जिसने लौकिक विकास के आलोक में आध्यात्मिक कल्याण को संपृक्त कर मानव जीवन की समग्रता एवं पूर्णता हेतु आध्यात्म को जीवन के केन्द्र में और आध्यात्मिक ज्ञान को जीवन के सर्वोपरि मूल्य के रूप में स्थापित किया है। भारतीय संस्कृति की धर्मपराणयता ने जीवन के उन मूल तत्वों को उद्घाटित किया है, जिन पर चलकर कोई भी व्यक्ति अथवा राष्ट्र महान बन सकता है। इसी कारण जाति, भाषा, समाज, सम्प्रदाय, मन मतान्तर, आहार एवं परिधान आदि में विषमता होते हुए भी यह देश विश्व धर्म शिरोमणि है। ‘पुण्य’ और ‘पाप’ की व्यवस्था यहाँ के अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है। देवत्व के लिए तो यह सर्वथा स्पृहणीय भूमि रही है, जिसमें ‘प्रकृति’ को केन्द्र में रखा गया है। भारतीय संस्कृति की इसी विशेषता से भारतीय लोकमानस को जोड़ने के लिए यहाँ की ऋषि परम्परा ने विविध देवी देवताओं, अवतारों, उनके क्रीड़ास्थलों, तीर्थों, पर्वो व उत्सवों की एक ऐसी व्यवस्था सृजित की जिससे सम्पूर्ण भारतवासी समय-समय पर इन तीर्थो की यात्रा करते हैं और विविध धार्मिक स्थलों पर सम्पन्न होने वाले पर्वो-मेलों, अनुष्ठान-अनुरंजनों में एकत्र होकर एक दूसरे से एकरस होते हैं। तीर्थराज प्रयाग में प्रति 12वें वर्ष लगने वाला ‘‘कुम्भ मेला’’ (जनवरी-फरवरी) इसका सबसे जीवन्त रूप है। वैश्विक आलोक में देखा जाये तो जहाँ राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने भारत देश को खण्डित एवं एकीकृत किया, वही धार्मिक विश्वासों पर आधारित शाश्वत मूल्यों ने भारतीय जनमानस की विविधता को एकता के एक सूत्र में एकीकृत किया है (रंगास्वामी, कृत्यकल्पतरू, तीर्थ विवेचन काण्ड)। भारतीय संस्कृति की ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की अवधारणा इन्हीं भावनाओं का प्रकटीकरण है। भारतीय दर्शन में, वैदिक विज्ञान ने मनुष्य के शरीर को पाँच तत्वों से निर्मित बताया है जिसमें जल, अग्नि, वायु, आकाश और पृथ्वी जैसे तत्वों का संयोग है। रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में गोस्वामी तुलसीदास जी इसी तत्व को उद्घाटित करते हुए कहते हैं:
‘‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
जहाँ पांच तत्वों से निर्मित शरीर को अधम कहा गया है और भारतीय संस्कृति इन्हीं पाँच तत्वों का शोधन करती है जहाँ पाप, पुण्य, पुनर्जन्म, मुक्ति की अवधारणा से मनुष्य के आंतरिक जीवन को व्यवस्थित करके कर्म, संकल्प और भाव की धारणा से सम्पूर्ण जीवन को संगठित किया गया है। जिसकी समस्त अभिव्यक्ति कुम्भ पर्व के दौरान दिखती है। जल तत्व के शोधन की प्रक्रिया में हिन्दू जनमानस ने जिस जीवन शैली को जन्म दिया उसे ‘नदीसंस्कृति’ की संज्ञा दी जा सकती है जिसकी अभिव्यक्ति तीर्थस्थान के रूप में होती है जिसमें कुम्भ पर्व का स्थान सर्वश्रेष्ठ है।
कुम्भ पर्व का उद्भव
कुम्भ संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘अमृत का घड़ा’ या ‘कलश’ होता है। भारत में लगने वाले कुम्भ पर्व के उद्भव के सम्बन्ध में विद्वानों में अनेक मतभेद है, इसकी प्राचीनता और उद्भव के सम्बन्ध में भारतीय ज्ञान परम्परा में मुख्यतः दो प्रधान विचारधाराएँ हैं जिससे कुम्भ पर्व के उद्भव, विकास, विस्तार पर प्रकाश पड़ता है। प्रथम साहित्यिक परम्परा तथा द्वितीय ज्योतिषीय गणना की परम्परा है। साहित्यिक परम्परा में वेद, पुराण, उपनिषद, महाकाव्य इत्यादि में वर्णित प्रसंगो से कुम्भ पर्व के उद्भव पर प्रकाश पड़ता है जहाँ स्कन्द पुराण, श्रीमद्भागवत महापुराण, विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, हरिवंशपुराण और रामायण तथा महाभारत में कथा-कहानी के रूप में अनेक प्रसंग उपस्थित हैं। इनमें सबसे रोचक कथा स्कन्दपुराण में आती है जहाँ ‘समुद्र मंथन’ की घटना से प्राप्त अमृत कलश के प्राकट्य से कुम्भ पर्व के उद्भव पर प्रकाश पड़ता है जहाँ कहा गया है कि समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवता और दानव में युद्ध हो गया। अमृत कलश को स्वर्ग तक ले जाने में 12 दिन का समय लगा। कलश से अमृत ले जाते समय यह चार स्थान पर छलक गया जो हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जयिनी थे। चूँकि देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर होता है, इसलिए प्रत्येक स्थान पर प्रति 12वें वर्ष कुम्भ पर्व के मनाने की परम्परा का जन्म हुआ।
सम्पूर्ण भारतीय धार्मिक उत्सव एक विशेष ज्योतिषीय घटना का परिणाम है। कुम्भ की यह विशिष्ट मान्यता ज्योतिषीय योग का प्रतिफल भी है जो कुम्भ की दूसरी धारणा है जहाँ हरिद्धार, प्रयाग, नासिक, उज्जयिनी के लिए ग्रह नक्षत्रों की विशिष्ट स्थिति का बोध होता है जिसका स्कन्दपुराण, पद्मपुराण, शिवपुराण में विस्तृत वर्णन मिलता है जैसेः
प्रथम- पद्यिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ।
गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भनामा तदोन्तमः।।
अर्थात् जब बृहस्पति कुम्भ राशि में, सूर्य मेष राशि में हो तो कुम्भ पर्व हरिद्वार में मनाया जाता है
द्वितीय- मेष राशि गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।
आमावस्या तदा योगः कुम्भाख्यतीर्थ नायके।।
अर्थात् जब बृहस्पति मेष राशि में, सूर्य तथा चन्द्रमा मकर राशि में, माघ अमावस्या के दिन होते है तो कुम्भ पर्व प्रयाग में होता है।
तृतीय- सिंहराशिगते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ।
गोदावरी भवते् कुम्भो जायते जलु मुक्तिदः।।
अर्थात् जब सूर्य एवं बृहस्पति सिंह राशि में जाते है तो गोदावरी (नासिक) के तट पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है।
चतुर्थ- मेष राशि गते सूर्ये सिंह राशौ बृहस्पतौ।
उज्जयिन्यौ भवेत् कुम्भः सदा मुक्ति प्रदायकः।।
अर्थात् जब बृहस्पति सिंह में, सूर्य मेष राशि में होते है तो कुम्भ का पर्व उज्जयिनी में मनाया जाता है। (कुम्भ पर्व य प्रयाग, दुबे, पृ-11)
पुराणों में प्रयाग में गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती संगम में माघ में स्नान का बहुत महत्व है। जब सूर्य मकर राशि में होता है उसी माह की अमावस्या को ‘वर्ष का मुख’ कहा जाता है। हर 12वें वर्ष में मकर और अमावस्या के स्नान का महत्व दुगुना हो जाता है। 60 वर्षीय बृहस्पति चक्र का प्रभाव नामक प्रथम वर्ष माघ शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ होता है इस समय सूर्य और चन्द्रमा का योग घनिष्ठा या श्रवण नक्षत्र के साथ होता है और बृहस्पति के साथ भी समायोजित होता है इस कारण प्रयाग कुम्भ को ‘‘मकर कुम्भ पर्व’’ का नाम दिया गया है। इसी प्रकार हरिद्वार में लगने वाले कुम्भ को कुम्भस्थ कुम्भ, नासिक में इसे सिंहस्थ कुम्भ और उज्जैन में लगने वाले कुम्भ पर्व को तुलास्थ कुम्भ कहा जाता है। (कुम्भ पर्व य प्रयाग, दुबे, पृ-13) बृहस्पति सूर्य का एक चक्कर लगाने में 11 वर्ष 78 दिन का समय लेता है, जिसमें 12 सौर वर्षीय चक्र में 50 दिन का क्षण हो जाता है। यह कमी 6वे व 7वें कुम्भ में 1 वर्ष की हो जाती है। ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति एक नक्षत्रीय घेरे से दूसरे में जाने में 84 वर्ष का समय लेता है इस प्रकार 84 वर्ष में 6 कुम्भ 12 वर्ष में और 7वां कुम्भ 11वें वर्ष में लगता है। इस अवस्था में सभी ग्रह अपने मूल राशि में मिलते हैं। इस प्रकार 100 वर्ष में एक कुम्भ 11वें वर्ष मनाया जाता है। कुम्भ का प्रारम्भ कब होता है यह एक अबूझ पहेली जैसा प्रश्न है जिसका उत्तर लगातार विद्वानों के द्वारा खोजा जा रहा है। इसी क्रम में अनेक विद्वानों, इतिहासकारों, धार्मिक व्यक्तियों, संस्थाओं द्वारा इसके प्रारम्भ को लेकर अलग-अलग आधार बनाकर कई प्रकार की तिथियों का अनुमान लगाया गया है। जहाँ आर. सी. हाजरा ने ‘नारदीय पुराण’ के आधार पर कहा है कि 12वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य कुम्भ का वर्तमान स्वरूप बना और वहीं इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने नागा संन्यासियों के संघर्ष के आधार पर कुम्भ के प्रारम्भ का समय 13वीं शताब्दी कहा। चैतन्य महाप्रभु के जीवन इतिहास में 1514 ई. में प्रयाग कुम्भ मेले पर प्रकाश पड़ता है। वहीं पारसी धर्म ग्रन्थ ‘दबिस्तान-ए-मुजाहिन’ में कुम्भ पर्व में 1640 ई. (1050 हिजरी) में वैरागी और नागा साधुओं के संघर्ष का उल्लेख है जो हरिद्वार में हुआ था। सरस्वती गंगाधर की पुस्तक ‘गुरू चरित्र’ (मराठी) में 15वीं शताब्दी के नासिक के सिंहस्थ मेले का वर्णन है। कैप्टन टॉमस हार्डविक ने ‘एशियाटिक रिसर्चेस’ के खण्ड 6 में 1796 के हरिद्वार में साधुओं के संघर्ष का वर्णन किया है। (दुबे, 2002)
इस प्रकार कुम्भ भारत की महान परम्परा है। इसका जन्म भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के जन्म के साथ होता है। इस प्रकार सभी साधु-संतों के अखाडे़ कुम्भ पर्व पर होने वाले अमृत स्नान (शाही स्नान) मकर संक्रान्ति, अमावस्या, बसंत पंचमी पर नियमबद्ध तरीके से स्नान करके पुण्य का अर्जन करते हैं। वैसे प्रयाग में प्रतिवर्ष माघ के महीने में मेला लगता है जहाँ साधु-संत, गृहस्थ समाज जनमानस कल्पवास करके अपने जीवन को परिष्कृत करते हैं, किन्तु कुम्भ के अवसर पर कल्पवास का योग करोड़ों गुना पुण्यफल में वृद्धि करता है जिसकी महत्ता इतनी है कि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के बाल काण्ड में वर्णन किया हैं कि-
को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।…
माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथपतिहि आव सब कोई।।
‘‘देव दनुज किन्नर कर श्रेणी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेणी।।
अतः इस प्रकार सभी लोग त्रिवेणी पर इकट्ठा होकर स्नान, ध्यान, जप, तप यज्ञ, कल्पवास करके अपने-अपने संकल्पों की पूर्ति करते हैं।
प्रस्तुत शोधपत्र महाकुम्भ 2025 में गृहस्थ कल्पवासियों पर केन्द्रित है। अतः कुम्भ मेला, मानव जीवन को संयमित, सुन्दर तथा आध्यात्मिक बनाने का एक पवित्र पर्व है जिसकी अभिव्यक्ति ‘कल्पवास’ के रूप में प्राचीन काल से वर्तमान तक गतिशील है। कल्पवास एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें हिन्दू जनमानस गंगा-यमुना के संगम तट पर एक निश्चित समय (पौसी पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक) के लिए टेन्ट और तम्बू लगाकर निवास करते हैं और तप संयम, कर्मकाण्ड, दान, त्याग, सत्संग इत्यादि के द्वारा ज्ञान, कर्म और भक्ति के मार्ग को अपने जीवन में मूर्तरूप देते हैं तथा पाप-पुण्य, पवित्र-अपवित्र की अवधारणा को मन में रख कर सत्कर्मों के माध्यम से पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्त होने के लिए अनुष्ठान करते हैं।
अध्ययन का क्षेत्र
भारत के वर्तमान प्रांत उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में गंगा-यमुना के संगम तट पर लगने वाले कुम्भ मेले का अध्ययन कल्पवास अनुष्ठान के विशेष सन्दर्भ में किया गया है। प्रयाग जिसका ‘यवन’ नाम ‘काली सोवरा’, चीनी नाम ‘पोलोइकिया’ और ‘अकबरी’ नाम ‘इलाहाबाद’ है, 24.47° से 25.47° उत्तरी अक्षांश और 81.9° से 82.21° पूर्वी देशांतर पर स्थित है। जिले का कुल क्षेत्रफल 63.07 वर्गकिमी है। वर्ष 2011 के सेंसस के अनुसार कुल जनसंख्या 5,959798 है। जनसंख्या घनत्व 1,100 प्रति वर्ग कि०मी०, लिंगानुपात 902, साक्षरता 74.41 है। इस जिले में 8 तहसील तथा दो लोकसभा सीट प्रयागराज तथा फूलपुर हैं। ग्रियर्सन के अनुसार प्रयाग जिले में पूर्वी हिन्दी बोली जाती है, जो पुरानी अर्ध-मागधी प्राकृत के स्थान में उत्पन्न हुई है, जिसे ‘अवधी’ कहा जाता है। प्रयाग के उत्तर में रायबरेली, प्रतापगढ़, जौनपुर जिले, पश्चिम में फतेहपुर, दक्षिण में बांदा तथा रीवा और पूर्व में मिर्जापुर, बनारस, भदोही जिला है। इस जिले में गंगा, यमुना, टोंस, बेलन नदी तथा उप नदियाँ जो केवल बरसात में बहती है जैसे- ससुर खदेरी, किनाई, मनसैता, बरना, बैरनियॉ नाला और लपरी हैं। गंगा तथा यमुना ने इसे तीन प्राकृतिक भागों में बाँटा है, जिसे गंगापार, जमुनापार और दोनों नदियों के बीच की भूमि को अंतर्वेद या दोआब कहते हैं।
कल्पवास
वेदोवत यज्ञ यागादि कर्म ही कल्प कहा गया है। यद्यपि कल्पवास शब्द का प्रयोग पौराणिक साहित्य में नहीं मिलता तथापि लोक में यह शब्द माघ मास में गंगा-यमुना के संगम क्षेत्र में नियमपूर्वक निवास करना ही कल्पवास कहलाता है और कल्पवास करने वाले लोग कल्पवासी कहे जाते हैं। कल्पवास का एक अर्थ परिवर्तन का स्थान भी है। अर्थात् जहाँ जप, तप, संयम, नियम, त्याग स्थान, श्रद्धा, दान, कर्मकाण्ड, सत्कर्म, सत्संग आदि के द्वारा व्यक्ति अपने जीवन में परिवर्तन करके आध्यात्मिक ऊर्जा को ग्रहण करता है, वही कल्पवास है। कल्पवासियों के माध्यम से यह जानकारी मिलती है कि सहस्त्र चतुर्युगी ब्रह्मा का एक दिन ‘एक कल्प’ कहलाता है। एक कल्प में किये गये सत्कर्मों का जो फल मनुष्य को प्राप्त होता है वह प्रयाग में माघ-मास में एक माह वास करके सत्कर्म करने मात्र से प्राप्त हो जाता है। अनेक प्रवचनकर्ता, संत, गंगा-यमुना की संगम भूमि को ‘कल्पवृक्ष’ के समान मानते हैं, जहाँ निवास करने से समस्त कामनाओं की पूर्ति हो जाती हैं। इस प्रकार कल्पवास एक ऐसा धार्मिक अनुष्ठान है, जिसके माध्यम से सामान्य जनमानस सभी मनोरथों की सिद्धि करता है और पापों का नाश करके पुण्य अर्जित करता है। अपने जीवन को पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति के लिए उद्योग करता है। यह विश्वास व्यक्ति को अलौकिक तत्वों की अनुभूति कराता है, जिसकी सामूहिक अभिव्यक्ति ही कल्पवास है।
भारतीय संस्कृति में प्रयाग को ‘तीर्थराज’ कहा गया है, जो स्वयं में ‘सत्यं शिवम् सुन्दरम्’ का मूर्तरूप है। तीर्थ शब्द ‘तृ प्लवन-तरणयोः धातु से थक्’ प्रत्ययपूर्वक बना है। जिसका अर्थ है जो ‘‘मानव को मुक्तिपथानुगामी’ बना दे। जिस प्रकार इस संस्कृति में मानव शरीर के कुछ भागों को स्वतः पवित्र माना गया है, उसी प्रकार पृथ्वी के कुछ प्रदेश, स्थान, पुण्यतम स्वीकार किये जाते हैं। इसके तीन कारण हैं-भूमि का अद्भुत प्रभाव, जल की तेजस्विता, तथा ऋषि-मुनियों द्वारा परिग्रह, सेवन तथा स्वीकरण। भारतीय संस्कृति में तीन प्रकार के तीर्थ माने गये हैं, प्रथम ‘‘जंगम तीर्थ’’ अर्थात् वेदों का अध्ययन कर धर्म के मर्म को समझने वाले तथा लोक-कल्याण हेतु उसका उपदेश देने वाले साधु-संत जंगम तीर्थ माने जाते हैं। द्वितीय ‘मानस तीर्थ’ अर्थात् सत्य, क्षमा, इन्द्रिय, निग्रह, दान आदि इनमें मन की परम विशुद्धि मानस तीर्थो में सर्वश्रेष्ठ स्वीकार की गई है। तृतीय ‘भौम तीर्थ’ अर्थात् भूमि के विविध स्थान। भौम तीर्थ प्रायः नदियों से सम्बद्ध अथवा पवित्र पर्वतों पर स्थित है। प्रयाग भौम तीर्थो में सर्वश्रेष्ठ और ऐसे ही तीर्थो का राजा है।
तीर्थपुरोहित
प्रत्येक समाज में धार्मिक कृत्य विशेषज्ञों के द्वारा सम्पन्न कराये जाते हैं। कल्पवास अनुष्ठान के लिए तीर्थपुरोहित (पण्डा) का विशिष्ट महत्व है। लगभग 75 वर्ष पूर्व पूरे संगम क्षेत्र में 1484 घर तीर्थपुरोहित थे। वर्तमान समय में इन्होंने एक समिति बनाई है जिसे ‘प्रयागवाल सभा’ के नाम से जाना जाता है। इस सभा में अध्यक्ष, महामंत्री पदाधिकारी होते हैं। आजकल प्रयागवाल सभा स्थगित है। सभा को मेला प्रशासन के द्वारा जमीन दी जाती है और सभी तीर्थपुरोहित अपने यजमानों की संख्या के अनुसार एक अनुभवी लेखपाल के द्वारा जमीन का बंटवारा करते हैं। प्रयागवाल सभा को मेला प्रशासन के द्वारा बिजली, पानी तथा शौचालय की मुफ्त व्यवस्था की जाती है। अधिक सुविधा के लिए अतिरिक्त भुगतान करना पड़ता है। तीर्थपुरोहित अपने यजमानों को आवास के रूप में तम्बू की व्यवस्था करते हैं। छोटे तंबुओं के लिए 5000 तथा बड़े तंबुओं के लिए 10000 रुपये प्रति तम्बू राशि चुकानी पड़ती है।
प्रत्येक तीर्थपुरोहित अपनी पहचान के लिए एक विशेष प्रकार के चिन्ह ‘झण्डे’ का प्रयोग करता है जैसे- मदन मोहन पण्डा पाँच सिपाही का झण्डा, शशिकान्त पण्डा तीन तुमणी का झण्डा, चाँदी का कटोरा, मचिया, लौकी, धनुष, गदा, हाथी, भाला, तलवार आदि पहचान चिन्ह झण्डे के रूप में लगाये जाते हैं।
इस प्रकार माघ मेले में आने वाले प्रत्येक साधु-संत, यात्री, स्नानार्थी, भक्त कल्पवासी किसी न किसी तीर्थ पुरोहित के यजमान हुआ करते हैं जिनका नाम पुरोहित के ‘बही खाते’ में लिखा होता है। सभी पण्डों का अपना यजमानी क्षेत्र निश्चित होता है, और वर्ष में एक बार पुरोहित जजमान के स्थायी निवास स्थान पर जाते हैं और दान प्राप्त करते हैं। क्षेत्रकार्य के दौरान साक्षात्कार से पता चलता है कि चाँदी का कटोरा वाले तीर्थ पुरोहित के भगवान राम यजमान थे, जिनके वंशज वर्तमान में प्रयागराज के कीडगंज में रहते हैं। प्रयागवाल सभा के सदस्यों द्वारा गंगा जी की पूजा-आरती की जाती है और पवित्र, फलदायी, शुभ, कुम्भ मेला का आरम्भ होता है। यदि सर्वप्रथम पूजा प्रयागवाल सभा ने नहीं की तो मेले का आरम्भ नहीं होगा। चूँकि ये तीर्थपुरोहित अपने को गंगा का पुत्र मानते हैं, इसलिए परम्परानुसार प्रथम पूजा के अधिकारी माने जाते हैं। तीर्थपुरोहित अपने को ब्राम्हण वर्ण से जोड़ते हैं और शुभ कार्यों में दान प्राप्त करने के अधिकारी माने जाते हैं। पण्डों का एक स्वरूप ‘महापात्र’ है, जो अशुभ कार्य (मृत्यु) के दान प्राप्त करने के अधिकारी हैं, इस प्रकार तीर्थपुरोहित, महापात्रों से अलग प्रस्थिति एवं भूमिका परम्परा का निर्वहन करते हैं।
कल्पवास का प्रारम्भ
कल्पवास पौषी पूर्णिमा से प्रारम्भ होता है और माघी पूर्णिमा तक चलता है। गृहस्थ कल्पवासी अपने घर से निकलते हैं। उनके साथ घर-गृहस्थी के सारे सामान, भोजन-सामग्री, पूजन-सामग्री भोजन पकाने के लिये सामग्री (गैस-चूल्हा, मिट्टी का तेल) वस्त्रादि, लकड़ी, कंडी इत्यादि होता है। यात्रा आरम्भ करने से पूर्व गृहस्थ कल्पवासी अपने घर में अपने कुल देवता, पूर्वजों, स्थान देवता, घर के देवता के नाम से गुड़, देशी घी से गोबर की कंडी पर अग्नि प्रज्वलित करके हवन करते हैं और घर की बेटियों, बड़े-बुजुर्गों तथा गाँव-घर के सभी बड़े सम्मानित रक्त-सम्बन्धियों का चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं। अपने पारंपरिक तीर्थपुरोहित के पास अपने लिए निर्धारित तम्बू में जातें हैं, एक तरफ रसोई एक तरफ शयन स्थल और एक तरफ पूजा स्थल बनाकर देवी-देवता को स्थापित करते हैं। तत्पश्चात तम्बू के बाहर प्रवेश द्वार पर किनारे की ओर ‘‘जौ’’ के दाने बोते हैं और अपने घर से लाये गये तुलसी तथा केले के पौधे को जमीन पर बालू में गाड़ते हैं और वहीं पास में एक हवन कुण्ड का निर्माण करते हैं।

सारी व्यवस्था करने के पश्चात गंगा स्नान के लिए प्रस्थान करते हैं। पुरुष कल्पवासी अपने सर के बाल मुड़वाकर ही स्नान करते हैं। स्नान के बाद अपने साथ ‘‘गंगा जल’’ लेकर आते हैं और पण्डा जी का आशीर्वाद लेते हैं, पुनः अपने तम्बू पर जाते हैं और तुलसी की पूजा करते हैं जिसमें गंगा जल चढ़ाते हैं, घी का दीपक जलाते हैं इसके बाद जौ को गंगा जल से सीचतें है हवनकुण्ड में हवन करते है, इसके बाद तम्बू के अन्दर पूजा स्थल में ‘शालिग्राम’ भगवान तथा अन्य देवी देवताओं की पूजा करते हैं। अपने तीर्थ पुरोहित के लिए ‘सिधा’ निकालते हैं, जिसमें एक थाली में चावल, दाल आटा, तिल, कोहडौरी, खटाई, घी, आलू, टमाटर, मटर, नमक, हल्दी, मसाला तथा द्रव्य (पैसा) आदि रखाकर उनके पास आते है और संकल्प लेते हैं।
यह संकल्प तीन प्रकार से होते हैं। जिसे वाकदत्त, मनोदत्त, पाणिकुशोदत्त कहते हैं। ‘‘वाकदत्त’’ में कल्पवासी अपने मुख से कहता है कि मै आपके स्थान पर यह मोह रहूँगा/रहूँगी इसके लिए आप को सवा पाँच धरा (1 धरा = 5 कि०ग्रा०) या 11 धरा, या सवा मन (1 मन = 40 कि०ग्रा०) अन्न दान करूँगा या 2, 3, 5, 11, 21 हजार रूपया दान करूँगा। ‘‘मनोदत्त’’ में कल्पवासी अपने मन से अन्न या द्रव्य दान को स्वीकारता है तथा ‘‘पाणिकुशोदत्त’’ में कल्पवासी अपने हाथ में सिधा की थाली, कुश, गंगाजल और द्रव्य (पैसा) लेकर संकल्प लेतें हैं और आशीर्वाद लेकर अपने तम्बू में वापस चले जाते है। जलपान करके ईश्वर का भजन स्मरण करते हुए शयन करते हैं।
कल्पवासियों की दिनचर्या
प्रतिदिन प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होकर, अपने साथ चावल, आटा, दाल, नमक, पूजन सामग्री और तिल लेकर गंगा स्नान को जाते हैं। घाट पर पहुँच कर ‘‘काला तिल’’ अपने शरीर पर लगाते हैं और गंगा तट को गंगा जी का पैर मानकर अपने हाथ से 5, 7, 9 बार दबाते हैं, गंगा जल हाँथ से उठाकर अपने मुख में डालते हैं जिसमें आंतरिक शुद्धि का भाव रहता है तत्पश्चात गंगा में स्नान के लिए प्रवेश करते हैं, स्नान के दौरान पानी में डुबकी मारते हैं, प्रत्येक डुबकी को देवी-देवता, पूर्वज कुल देवता, स्थान देवता और अपने लिए तथा अपने घर के सदस्यों को समर्पित करते हैं। अंजुली से गंगा जल लेकर देवी-देवता तथा पूर्वजों का तर्पण देते हैं और बाहर निकल कर अपने वस्त्र बदलते हैं।
महिला कल्पवासी स्नान के बाद घाट पर बालू से प्रतीक रूप में शंकर भगवान का लिंग बनाकर हल्दी, सिन्दूर, तिल चावल, अगरबत्ती, माला-फूल से पूजन करती हैं और मिश्री या चीनी से शंकर भगवान और गंगा जी को भोग लगाती हैं, गंगाजल से आचमन कराकर, दीपक जलाकर आरती करती हैं। उसके बाद लिंग को गंगा जी में प्रवाहित कर देती हैं। वापस अपने तम्बू में आकर गोबर की कण्डी में आग जलातें हैं, तुलसी का पूजन करते हैं, जौ को गंगा जल से सींचते हैं, हवन कुण्ड में हवन करके, तम्बू के अन्दर पूजा स्थल पर पूजा करके, अपने तीर्थपुरोहित के लिए ‘सिधा’ निकालकर दान करतें हैं और पुनः अपने तम्बू में आकर भोजन तैयार करते हैं। सबसे पहली रोटी गंगा जी के नाम से, दूसरी रोटी शालिग्राम के नाम से ‘अंगरासन’ के रूप में निकाला जाता है। जितनी भी भोज्य सामग्री बनती है यह सब थोड़ी-थोड़ी मात्रा में अंगरासन में शामिल होती है जिसे ‘‘गाय’’ को खिला दिया जाता है। भोजन में प्याज, लहसुन, बैगन, मूली, गाजर, कोहड़ा इत्यादि वर्जित है। आलू, गोभी, मटर, टमाटर, मिर्चा, नमक की सब्जी तथा उड़द, मूँग, अरहर, मटर, मसूर की दाल, चावल और आटे की रोटी इत्यादि का ही प्रयोग करते हैं। भोजन बनाने में ‘गंगाजल’ का प्रयोग किया जाता है भोजन केवल दिन में ही किया जाता है।भोजन के पश्चात दोपहर में कल्पवासी प्रवचन सुनने के लिए साधु-सन्तों के पण्डाल में जाते हैं। जाते ही प्रवचनकर्ता को दक्षिणा या खिचड़ी देकर चरण छूते हैं, आशीर्वाद लेकर सुनने बैठ जाते हैं। प्रवचन में भागवत पाठ, गीता, रामायण, रामचरितमानस, पुराणों की कथा कही जाती है। सायंकाल कल्पवासी अपने तंबुओं में वापस आते हैं और गंगा स्नान के लिए पूजन सामग्री के साथ पुनः निकल जाते हैं। महिला कल्पवासी स्नान के बाद गंगा जी की आरती करती हैं और दीपक जलाकर गंगा में प्रवाहित करती हैं। फिर से तुलसी की तथा तम्बू के अन्दर दीपक जलाकर पूजा करती हैं, पुरुष कल्पवासी शाम को रामचरितमानस का पाठ, भजन, कीर्तन, सत्संग करते हैं। पूजन के बाद सिंघाड़ा आलू, चाय, पेड़ा इत्यादि से जलपान करके भगवान का स्मरण करके निद्रा में लीन हो जाते हैं। प्रतिदिन इसी कार्य की पुनरावृत्ति की जाती है।
कल्पवास के दौरान कुछ सामान्य नियम
दिन में एक बार भोजन करना, त्रिकाल स्नान और संध्या करना, भूमि शयन, ब्रम्हचर्य का पालन करना, परनिन्दा न करना, सत्संग करना, दान देना, शुद्ध मन से पूजा करना, संयम अहिंसा पालन तथा श्रद्धा भाव रखना, दूसरे की अग्नि एवं दान न लेना, क्षमा करना, चोरी न करना, आंतरिक एवं बाह्य पवित्रता को बनाये रखना, क्रोध न करना, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, गंगा जल का प्रयोग करना, रात्रि शयन केवल अपने तम्बू में करना, दुष्कर्म में लगे व्यक्ति को स्पर्श न करना, शरीर एवं सिर की मालिश न करना, आवश्यकतानुसार उपवास करना, परिक्रमानुसार देव स्थानों का दर्शन, तप, यज्ञ करना।
कल्पवासियों के विशेष व्रत, दान एवं परिक्रमा
माघ के कुम्भ मेले में विशेष रूप से पौषी पूर्णिमा, मकर संक्रान्ति, गणेश चौथ, अमावस्या, बसंत पंचमी, अचला सप्तमी और माघी पूर्णिमा तिथियों का अत्यधिक महत्व है। कल्पवासी जनों के लिए माघ मास में पड़ने वाली ‘एकादशी’ और रविवार का भी विशेष महत्व है जिसमें तरह-तरह के कृत्य किये जाते हैं। महिला कल्पवासियो के लिए ‘गणेश चौथ’ का विशेष महत्व है। यह व्रत महिलाएं अपनी सन्तानों के लिए रखती हैं। जिस महिला को सन्तान नहीं होती वह यह व्रत नहीं रखती हैं। व्रती महिला सुबह नित्य कर्म के बाद स्नान के लिए जाती हैं रोज की तरह पूजा करती हैं लेकिन पूजा में ‘अक्षत’ (चावल) नहीं चढ़ाती और न ही किसी को ‘‘अन्न का दान’’ करती हैं। दान में आलू, शकरकंदी/गंजी, पेड़ा, मूँगफली, गुड़, मखाना और द्रव्य घाटिया पण्डा तथा तीर्थपुरोहित को दिया जाता है। जब तक रात में ‘चन्द्रमा’ का दर्शन नहीं होता है तब तक कुछ भी आहार ग्रहण नहीं करती हैं। जब किसी महिला को पहली बार सन्तान होती है तो उसके तुरन्त बाद पड़ने वाली ‘‘गणेश चौथ’’ को वह ‘‘गाय’’ के गोबर से ‘गौरी’ तथा एक सुपारी जो गणेश का प्रतीक होती है, की पूजा करती हैं, उसे तब तक अपने पास रखती हैं जब तक वह जीवित रहती हैं। कल्पवास के दौरान पड़ने वाले प्रत्येक ‘रविवार’ को कल्पवासी उपवास रखते हैं, जिसमें तेल, नमक का निषेध किया जाता है और ‘अन्न’ दान नहीं होता, केवल ‘फल’ का दान किया जाता है। गुड़, चीनी, सिंघाड़ा, मूँगफली, मखाना का भोज्य पदार्थ के रूप में प्रयोग करते हैं। ‘‘एकादशी’’ के उपवास में कल्पवासी नमक का प्रयोग करते हैं, लेकिन तेल-घी से बचते हैं। इस दिन ज्यादातर कल्पवासी आलू का प्रयोग करते हैं। कल्पवासियों के लिए ‘अचला सप्तमी’ का विशेष महत्व है। इस दिन ‘दण्डी सन्यासियों’ को ‘फलभोज’ कराकर अचला (कपड़ा) दान किया जाता है। इन सन्यासियों की ‘दण्डी’ ’’विष्णु’’ का प्रतीक होती है। इस दिन कल्पवासी 9, 11, 21 सन्यासियों को आमंत्रित करते हैं। सन्यासी पण्डाल में आते हैं और कल्पवासियों के द्वारा श्रद्धापूर्वक दिये जाने वाले भोज और दान को स्वीकार करके आशीर्वाद देकर अपने आश्रम को चले जाते हैं।
प्रयाग परिक्रमा
धार्मिक दृष्टि से प्रयाग की अन्तर्वेदी, मध्यर्वेदी, और बहिर्वेदी में तीन परिक्रमा हैं, अमावस्या स्नान के पश्चात दूसरे दिन से कल्पवासियों की प्रयाग परिकमा प्रारम्भ होती है। गृहस्थ कल्पवासी सबसे पहले बड़े हनुमान जी (लेटे हुए) का दर्शन करके लड्डू चढ़ाते हैं और परिक्रमा करते हैं। इसके बाद अक्षयवट, नागवासुकी मन्दिर, भरद्वाज आश्रम, वेणीमाधव मन्दिर, दशासुमेर, सोमेश्वर महादेव मन्दिर, शंख माधव (छतनाग) दुर्वासा मन्दिर, व्यास आश्रम, हंसकूप, जलकुण्ड एवं अरुन्धती होते हुए झूसी से संगम अपने तम्बू में आकर परिक्रमा का समापन करते हैं। परिक्रमा पूरी करने के पश्चात एक कल्पवासी अपने अनुष्ठान का उद्यापन करता है, जिसमें वह ‘सत्यनारायण की कथा’ सुनता है, और अपने रक्त सम्बन्धी, विवाह सम्बन्धियों, ब्राम्हणों को भोजन के लिए आमंत्रित करता है।
शैय्यादान
यह एक विशिष्ट प्रकार का दान है जिसे विधि-विधान नियम से सम्पन्न किया जाता है। नियमतः जब एक कल्पवासी 12 वर्ष तक माघ मेले में कल्पवास का अनुष्ठान कर लेता है तो शैय्या (चारपाई) दान करता है और प्रतिवर्ष के कल्पवास संकल्प से मुक्त हो जाता है। परन्तु सामान्य लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर 5वें, 7वें, 9वें वर्ष में भी यह दान करते हैं।
इस दान के दिन ब्राम्हण, सगे सम्बन्धी, मित्र और व्यवहारी को भोज दिया जाता है। शैय्यादान अपने तीर्थपुरोहित को दिया जाता है, जिसमें कल्पवासी मण्डप बनाता है, उसमें गृहस्थी के सभी सामान, गाय, कपड़ा, जूता, चप्पल, छाता, टार्च, लाइटर, टेलीविजन, सोफा, पंखा, अनाज, सब्जी, मसाला नकद मुद्रा इत्यादि दान किया जाता है। यह कल्पवासी के सामर्थ पर है कि वह क्या-क्या दे सकता है। इसी अवसर पर ‘गुप्तादान’ की परंपरा है जिसमें सोना, चाँदी आदि धातुओं के आभूषण या ‘विष्णु भगवान’ की प्रतिमा दान की जाती है इस दान करने से पहले किसी को पता नहीं होता है कि कौन सी वस्तु है, केवल यजमान जानता है, तीर्थ पुरोहित मंत्र के साथ इस दान को ग्रहण करते है। यदि शैय्यादान के बाद भी कोई व्यक्ति कल्पवास करता है तो जब यह बन्द करेगा उसे अपने वजन के बराबर एक तराजू में बैठकर तीर्थपुरोहित को अन्न (गेहूँ, चावल) दान करना पड़ता है।
कल्पवास का समापन
माघी पूर्णिमा के दिन कल्पवास का समापन होता है। इसके एक दिन पहले महिला कल्पवासी सायंकाल में गंगा के तट पर रोट, 365 दीपक, पीयरी (पीला वस्त्र) चढ़ाकर पूजा अर्चना करती हैं और वहीं बैठ कर सोहर, देवी गीत गाती हैं। फिर अपने तम्बू में वापस आती हैं। माघी पूर्णिमा के दिन पुरुष कल्पवासी नित्य कर्म से निवृत्त होकर गंगा स्नान के लिए जाते हैं, स्नान करने से पहले अपना बाल-दाढ़ी बनवाते हैं और स्नान करते हैं, गंगा जी से इच्छित फल की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। महिला कल्पवासी इस दिन स्नान-दान के पश्चात भोजन करके जौ को उखाड़ती हैं, हवन कुण्ड को ढकती हैं और तुलसी और केले के पेड़ को गंगा तट पर ले जाती हैं, यदि पेड़ हरें हैं तो उन्हें वहीं रोपित कर दिया जाता है और यदि पेड़ सूखा होता है तो नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस प्रकार कल्पवासी गंगा जी की प्रार्थना पूजा-अर्चना करके उनसे जाने की आज्ञा मांगते हैं और भूल-चूक-त्रुटि इत्यादि के लिए क्षमा-याचना करते हैं और अगले वर्ष पुनः आने का मन से संकल्प लेते हैं। गंगा के तट से अपने तम्बू पर वापस आकर तीर्थ पुरोहित को सुविधा शुल्क देकर और शेष बची खाद्य-सामग्री और दक्षिणा देकर उनका चरण छूकर आशीर्वाद लेकर अपने साधन से घर को प्रस्थान करते हैं। घर पहुँच कर द्वार पर गुड़-घी से गोबर की ‘उपरी’/कंडा पर हवन करते हैं और कहते हैं- सभी देवी देवता, कुल देवता, पूर्वज हमें आशीर्वाद दें हम अपने घर आ गये हैं आप सभी भी अपने-अपने स्थान को प्रस्थान करें। इसके बाद कल्पवासी अपने घर में प्रवेश करते हैं और घर के सदस्य थाल में उनका जल से पैर धुलकर सारे स्थानों पर छिड़कते हैं, चरण छू-कर आशीर्वाद लेते हैं। तीर्थ पुरोहित जेठ-वैशाख (अप्रैल-मई) के महीने में कल्पवासियों के गाँव-घर जाकर संकल्प किया गया अनाज दान में लेते हैं और आशीर्वाद देकर अपनी परम्परा को निरन्तरता प्रदान करते हैं।
महाकुंभ 2025 में वैश्वीकरण का प्रभाव: अर्जुन अप्पादुरई के सैद्धांतिक विचारों के आलोक में
प्रयागराज का महाकुंभ पर्व भारतीय सांस्कृतिक चेतना, धार्मिक आस्था, लोक जीवन और सामाजिक एकता का प्रतीक है। महाकुंभ में वैश्वीकरण और आधुनिकता के प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हुए। इस विश्लेषण में प्रसिद्ध मानवशास्त्री अर्जुन अप्पादुरई के ‘वैश्विक सांस्कृतिक प्रवाह’ (global cultural flows) के सिद्धांत का संदर्भ विशेष रूप से प्रासंगिक है, जिसमें वे वैश्वीकरण को पाँच स्केप्स, एथनोस्केप, मीडियास्केप, टेक्नोस्केप, फाइनान्सस्केप और आइडिया स्केप-के माध्यम से समझाते हैं।
इस विश्लेषण में विशेष रूप से कल्पवासियों की भूमिका को भी शामिल किया गया है, जो मेला संस्कृति के मूल में हैं। एथनोस्केप के संदर्भ में, 2025 में प्रयागराज कुंभ में न केवल देशभर से श्रद्धालु आए, बल्कि अमेरिका, जापान, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया से भी कल्पवास करने लोग पहुंचे। पहले जहाँ कल्पवास एक पारंपरिक भारतीय साधना मानी जाती थी, अब वैश्विक स्तर पर इसकी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा बढ़ गई। विदेशों से आए कल्पवासी गंगा किनारे साधना करते दिखे, जिससे मेले का सांस्कृतिक-धार्मिक भूगोल अंतरराष्ट्रीय हो गया।

मीडियास्केप के प्रभाव ने कुंभ मेला 2025 को डिजिटल युग का आयोजन बना दिया। कल्पवास के अनुभवों को अब सिर्फ मौखिक परंपराओं के माध्यम से नहीं, बल्कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लाइव स्ट्रीमिंग, ब्लॉग्स, और व्लॉग्स के माध्यम से भी साझा किया गया। विदेशी और देशी कल्पवासियों ने अपने साधना अनुभवों को यूट्यूब और इंस्टाग्राम जैसे मंचों पर साझा किया, जिससे कल्पवास की परंपरा का वैश्विक प्रसार हुआ।

फाइनैनसस्केप ने कुंभ के वित्तीय ढाँचे को बदल दिया। अर्न्तराष्ट्रीय निवेश, कार्पोरेट प्रायोजन और पर्यटन विकास परियोजनाओं ने मेले के आयोजन में भव्यता जोड़ी। कल्पवासियों के लिए अब विशेष आधुनिक सुविधाओं वाले शिविर बनाए गए- जैसे जैविक भोजन, मोबाइल चिकित्सा इकाइयाँ, अग्निशमन स्टेशन, डिजिटल आरक्षण प्रणाली जो परंपरा और आधुनिकता का समन्वय दिखाते हैं।
टेक्नोसस्केप के अंतर्गत कुंभ मेला 2025 में अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया गया। कल्पवासियों के लिए रजिस्ट्रेशन, स्थान आवंटन, स्वास्थ्य जांच और सुरक्षा हेतु मोबाइल ऐप्स, डिजिटल पहचान पत्र और ऑनलाइन सेवाओं का प्रावधान किया गया। कल्पवास के पवित्र जीवन में अब तकनीक का सहज समावेश दिखा, जिससे उनकी दिनचर्या अधिक व्यवस्थित और सुरक्षित बनी।

आइडियास्केप के अंतर्गत कुंभ मेला और विशेष रूप से कल्पवास की अवधारणा ने वैश्विक विचारधाराओं में जगह बनाई। योग, ध्यान, संयम और साधना जैसे भारतीय विचार अब पश्चिमी दुनिया में भी लोकप्रिय हो रहे हैं। 2025 के कुंभ में कई विदेशी कल्पवासियों ने भारतीय साधु-महात्माओं के सान्निध्य में पारंपरिक साधना पद्धतियाँ सीखी और अपनाईं, जो भारतीय आध्यात्मिकता के वैश्विक प्रसार का उदाहरण है।


अतः प्रयागराज महाकुंभ मेला 2025 न केवल भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का गौरवपूर्ण उत्सव रहा, बल्कि वैश्वीकरण और आधुनिकता के प्रभाव में एक नया सांस्कृतिक प्रयोग भी बना। कल्पवास जैसी प्राचीन परंपरा, जो अब वैश्विक श्रद्धा का केंद्र बन रही है, इस प्रक्रिया का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती है। अप्पादुरई के सिद्धांत के प्रकाश में यह स्पष्ट होता है कि कैसे कुंभ जैसे आयोजन वैश्विक और स्थानीय प्रभावों का अद्भुत मिश्रण प्रदर्शित करते हैं।
निष्कर्ष
कुंभ पर्व प्रयागराज की एक ऐसी जीवंत परंपरा है, जो भारतीय सांस्कृतिक चेतना के गहनतम स्तरों को अभिव्यक्त करती है। इसके मूल में गहरे मिथकीय आख्यान, ज्योतिषीय गणनाएँ और दीर्घ ऐतिहासिक विकास क्रम सक्रिय रहे हैं। मिथकीय दृष्टि से कुंभ पर्व की उत्पत्ति की सर्वप्रसिद्ध व्याख्या समुद्र मंथन की कथा से जुड़ी है, जिसमें देवताओं और असुरों के बीच अमृत-कुंभ प्राप्त करने के लिए संघर्ष हुआ था। प्रयागराज को इन स्थलों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, क्योंकि यहाँ त्रिवेणी संगम-गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का पवित्र मिलन होता है, जो भारतीय धार्मिक विश्वासों में मोक्ष और आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र माना जाता है। ज्योतिषीय आधारों के अनुसार, कुंभ पर्व का आयोजन विशिष्ट ग्रह-नक्षत्र संयोगों पर आधारित होता है। प्रयागराज में तब कुंभ आयोजित होता है जब गुरु (बृहस्पति) मेष राशि में और सूर्य मकर राशि में स्थित होता है। इन खगोलीय स्थितियों को अत्यंत पवित्र और जीवन के आध्यात्मिक उत्थान के अनुकूल माना गया है। इस तरह कुंभ न केवल धर्म-अनुष्ठान है, बल्कि ब्रह्मांडीय लय और मानवीय जीवन के बीच गहरे सम्बन्ध का उत्सव भी है इसी अर्थ में कुंभ पर्व भी है ।
ऐतिहासिक दृष्टि से, प्रयागराज में कुंभ का आयोजन प्राचीन काल से होता आ रहा है। गुप्तकाल (चतुर्थ-पाँचवीं शताब्दी) में प्रयागराज को तीर्थराज के रूप में प्रतिष्ठा मिली। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में प्रयागराज के विशाल धार्मिक मेले का उल्लेख किया, जिसे विद्वान कुंभ का प्रारूप मानते हैं। मध्यकालीन यात्रावृत्तों, मुग़लकालीन शिलालेखों तथा औपनिवेशिक अभिलेखों में भी कुंभ के आयोजन का प्रमाण मिलता है। आधुनिक काल में प्रयागराज कुंभ एक सुसंगठित सांस्कृतिक आयोजन के रूप में विकसित हुआ है, जिसमें शासन, तीर्थाटन, व्यापार और लोक-संस्कृति का व्यापक समावेश हुआ है।
प्रयागराज में कुंभपर्व का सब से महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति कल्पवास की साधन रही है जहां कल्पवास की परंपरा इस समग्र प्रक्रिया का एक अत्यंत महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पक्ष है। प्रयागराज कुंभ में कल्पवास का प्रावधान एक विशिष्ट धार्मिक साधना है, जिसमें श्रद्धालु माघ मास भर संगम तट पर वास करते हुए संयम, साधना, तपस्या और सत्संग के द्वारा अपने जीवन को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। कल्पवास, केवल शारीरिक तप नहीं, बल्कि मानसिक, आत्मिक और सामाजिक शुद्धिकरण का अभ्यास है, जो व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की दिशा में अग्रसर करता है।
वास्तव में कल्पवास का प्रारंभ कब से होता है इसका कोई स्पष्ट लिखित साक्ष्य नहीं प्राप्त होता है। लोक परंपरा के अनुसार रामायण काल में इसका प्रारंभ माना जाता है और वर्तमान समय तक निरंतर गतिशील है। कल्पवास का अपना सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक एवं स्वास्थ्य से संबंधित महत्व है। कल्पवास के दौरान प्रयाग में अन्न दान की एक विशेष व्यवस्था है जिसमें कल्पवासी गरीबों जरूरतमंदों को खिचड़ी (सीधा) दान के रूप में अन्न दिया करते हैं जो वास्तव में वर्षभर के भोजन की व्यवस्था का साधन है। कल्पवासी भोज-भंडारा के द्वारा ब्राह्मण, साधु-संत और सामान्यजन को आमंत्रित करते हैं जो प्रेम मैत्रीपूर्ण संबंधों का प्रदर्शित करता है। इस प्रकार कल्पवास आर्थिक विषमता को कम करने का एक विशेष अभिलक्षण है।
भारत एक आध्यात्मिक देश है जिसमें सामान्य जनमानस अपने लौकिक एवं अलौकिक विश्वासों को संतुष्ट करने के लिए कल्पना जैसे अनुष्ठान करते हैं। संगम तट पर सनातन के सभी संप्रदायों जैसे शैव, वैष्णव, शाक्त, सिक्ख, जैन, बौद्ध इत्यादि विचारधारा में श्रद्धा भाव रखने वाले लोग यहां रहते हैं। वह अपनी धार्मिक भावना को संतुष्ट करने के लिए जनमानस ‘नदी संस्कृति’ को जन्म देता है और स्नान, ध्यान जप-तप-पूजा-यज्ञ के द्वारा वह आध्यात्मिक ऊर्जा का सृजन करता है और यज्ञ आदि कर्म पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देते हैं।
राजनीतिक रूप से यह आयोजन सत्तापक्ष के लिए एक अवसर जैसा है जो राष्ट्रीय एकता, विश्व बंधुत्व, सामाजिक-संस्कृतिक सम्भाव के द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना को बल देकर सांस्कृतिक चेतना का प्रचार करता है और इस अनुष्ठान को पूर्ण कराने के लिए अनेक आधारभूत सुविधाएं प्रदान करता है जो संस्कृति संरक्षण का एक विशेष घटक है।
कल्पवास के स्वास्थ्य का पक्ष अत्यधिक प्रबल है क्योंकि गंगा का आगमन हिमालय के क्षेत्र से होता है जिसके जल में औषधियों का मिश्रण और गंगा की रेत में कल्पवास करना, ठंडे जल में स्नान करना स्वास्थ्य लाभ का सबसे उत्तम माध्यम है। साक्षात्कार के द्वारा यह भी पता चला कि बहुत सारे लोग जो मधुमेह, उच्च और निम्न रक्तचाप जैसी जीवनशैलीगत बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं उनको नियम- संयम युक्त जीवन शैली के कारण कल्पवास के समय दवा नहीं खानी पड़ती और यहां कल्पवास करने से उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है।
कुंभ पर्व 2025 प्रयागराज की इस समृद्ध परंपरा का नवीनतम आयाम है, जहाँ पौराणिक विश्वास, ज्योतिषीय गणना, ऐतिहासिक विरासत और साधनात्मक जीवनशैली (कल्पवास) का अद्भुत समन्वय देखने को मिलेगा। प्रयागराज इस अवसर पर केवल एक तीर्थस्थल नहीं रह जाता, बल्कि वह आस्था, संस्कृति, साधना और मानवता के सार्वभौमिक मूल्यों का विशाल मंच बन जाता है।
प्रयागराज के सन्दर्भ में देखा जाए तो कुंभ पर्व यहाँ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह शहर की ऐतिहासिक पहचान, सांस्कृतिक अस्मिता और वैश्विक प्रतिष्ठा का भी परिचायक है। कुंभ के अवसर पर प्रयागराज एक अस्थायी, विश्वस्तरीय सांस्कृतिक नगर बन जाता है, जहाँ धर्म, दर्शन, कला, व्यापार और मानवता के विविध आयाम एक साथ अभिव्यक्त होते हैं।
आभार
प्रस्तुत शोधपत्र मानववैज्ञानिक क्षेत्रकार्य का परिणाम है जो प्रथम शोधार्थी के आई.सी.एस.एस.आर. नई दिल्ली द्वारा प्रदत्त पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप 2023-24 पर आधारित है और यह पूरी तरह से आई.सी.एस.एस.आर. नई दिल्ली द्वारा वित्तपोषित है।
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डॉ. संजय कुमार द्विवेदी
पोस्ट डाक्टोरल फेलो, मानवविज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
प्रो. (डॉ.) राहुल पटेल
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, मानवविज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय