पर्यावर्णीय खतरे की भयावहता
मॉनसून के आने पर अब पूरे देश ने, जो भीषण गर्मी और लू की चपेट में था, राहत की साँस ली है। इस बार गर्मी की तपिश इतनी ज़्यादा थी कि राजस्थान के चुरू में देश का उच्चतम तापमान 50.5 डिग्री सेल्सियस रहा। इस साल मई और जून में लगातार 38 दिनों तक दिल्ली का अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया। 28 मई को, दिल्ली में अधिकतम तापमान 47.5°C दर्ज किया गया, जो 1951 के बाद से राजधानी में मई में एक दिन का सबसे अधिक तापमान है। दूसरा उच्चतम (47.3 डिग्री सेल्सियस) अगले ही दिन 29 मई को दर्ज किया गया। 28 जून को, दक्षिण-पश्चिम मानसून का बहुप्रतीक्षित आगमन भी एक दुःस्वप्न में बदल गया। भारत मौसम विज्ञान विभाग के ग्रिड डेटा के अनुसार, शहर में 1951 के बाद से जून में एक दिन में सबसे अधिक बारिश (150.7 मिमी) हुई। जून में एक दिन की पिछली अधिकतम वर्षा 97.3 मिमी थी -जो नवीनतम रिकॉर्ड से 50 मिमी कम है- जो 30 जून 1981 को हुई थी। इस तरह इस वर्ष दो महीनों में, दिल्ली ने दो चरम मौसम की घटनाओं को देखा है: मई में अत्यधिक गर्मी के दिन और उसके बाद जून में भारी बारिश।
2008-2019 के दौरान गर्मी की वजह से हर वर्ष 1,100 व्यक्तियों तक की मौत हुई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मई के महीने में जो हीटवेव दर्ज की गयी थी। वह बाकी सालों के मुकाबले डेढ़ डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म रही। वैज्ञानिकों ने पाया कि भारत में इस बार जो हीटवेव चली है वह इंसानों की सहनशीलता से काफी ज्यादा होती जा रही है। इस बार 37 से ज़्यादा शहरों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा दर्ज किया गया।
दरअसल ग्रीनहाउस गैसों की सान्द्रता बढ़ने के साथ-साथ वैश्विक सतह का तापमान भी बढ़ रहा है। पिछला दशक, 2011-2020, अब तक का सबसे गर्म दशक रहा है। 1980 के दशक से, हर दशक पिछले दशक से ज़्यादा गर्म रहा है।
भारत सहित दुनिया के कई देशों में पेयजल का भयानक संकट उत्पन्न हो गया है। दक्षिण अफ़्रीका की राजधानी केपटाउन को दुनिया का पहला जलविहीन शहर घोषित किया जा चुका है। संयुक्त राष्ट्र ने कुछ समय पहले ही यह चेतावनी दे दी थी कि 2025 तक दुनिया के क़रीब 120 करोड़ लोगों को स्वच्छ पेयजल मिलने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। अब यह संकट हमारे सामने है। हम देख रहे हैं कि तमिलनाडु सहित देश के कई राज्यों में पेयजल का सदा संकट रहता है।
जलवायु परिवर्तन से दुनिया के भूमि और समुद्र में अगले कुछ दशकों में दस लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है। समुद्र के अधिक अम्लीय होने के कारण, अरबों लोगों को भोजन देने वाले समुद्री संसाधन खतरे में हैं। जंगल की आग, चरम मौसम और आक्रामक कीट और बीमारियाँ जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित कई खतरों में से हैं। जलवायु परिवर्तन मानवता के सामने सबसे बड़ा स्वास्थ्य खतरा है। जलवायु प्रभाव पहले से ही वायु प्रदूषण, बीमारी, चरम मौसम की घटनाओं, जबरन विस्थापन, मानसिक स्वास्थ्य पर दबाव और उन जगहों पर बढ़ती भूख और खराब पोषण के माध्यम से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं जहाँ लोग पर्याप्त भोजन नहीं उगा सकते या नहीं पा सकते। जलवायु परिवर्तन उन कारकों को बढ़ाता है जो लोगों को गरीबी में डालते हैं और बनाए रखते हैं। पिछले दशक (2010-2019) में, मौसम सम्बन्धी घटनाओं ने हर साल औसतन 2.31 करोड़ लोगों को विस्थापित किया, जिससे कई और लोग गरीबी के शिकार हो गये। कितने लोग जानते हैं कि वायु प्रदूषण विश्व में होने वाली मौतों की अब उच्च रक्तचाप और 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौतों की कुपोषण के बाद दूसरी सबसे बड़ी वजह है। ये आँकड़े हमें चौंका सकते हैं पर सच यही है कि वर्ष 2021 में वायु प्रदूषण से दुनिया में 81 लाख लोगों की मृत्यु हुई।
2015 में पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में इसके गम्भीर परिणामों पर चर्चा हुई थी और इसे ध्यान में रखते हुए एक महत्त्वपूर्ण समझौता हुआ था। पेरिस समझौते का दीर्घकालिक तापमान लक्ष्य वैश्विक सतह के तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 °C (3.6 °F) से नीचे रखना है। सन्धि में यह भी कहा गया है कि अधिमानतः वृद्धि की सीमा केवल 1.5 °C (2.7 °F) होनी चाहिए। तापमान में जितनी कम वृद्धि होगी, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव उतने ही कम होने की उम्मीद की जा सकती है। इस तापमान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को जल्द से जल्द और जितना सम्भव हो उतना कम किया जाना चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 °C से नीचे रखने के लिए, 2030 तक उत्सर्जन में लगभग 50% की कटौती करने की आवश्यकता है। उसे 21वीं सदी के मध्य तक नेट जीरो तक भी पहुँच जाना चाहिए। पर स्पष्टतः ज़्यादातर देशों के द्वारा इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पर्याप्त प्रयास किए जा रहे हैं ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता।
जहाँ तक भारत के पर्यावरण की बात है, इसे छठी वार्षिक विश्व वायु गुणवत्ता सूचकांक (2023) में विश्व का तीसरा सर्वाधिक प्रदूषित देश और दिल्ली को विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित राजधानी घोषित किया गया है। स्वीस संस्था आईक्यू एयर के अनुसार विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 50 शहरों में 42 शहर भारत में हैं। अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी द्वारा वर्ष 2024 के लिए जारी पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में भारत को 180 देशों की सूची में 176वाँ स्थान मिला।
पर भारत में अब भी विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ विनाशलीला जारी है। हम अब तक विकास और पर्यावरण के बीच सन्तुलन बनाने में सफल नहीं हो पाये हैं। इसके कुछ मामलों पर हम यहाँ नजर डालते हैं। महाराष्ट्र में मुम्बई के आरे कॉलोनी इलाके में मेट्रो कारशेड बनाने के लिए 2500 पेड़ काटे गये। यह पूरा इलाका मानव निर्मित है। देश के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने जब आरे कॉलोनी की नींव रखी थी तब इस मौके पर उन्होंने पौधारोपण किया था। नेहरू के पौधारोपण के बाद यहाँ इतने लोगों ने पौधा रोपा कि कुछ ही वर्षों में 3166 एकड़ में फैला यह इलाका जंगल में तब्दील हो गया है, जहाँ चारों तरफ सिर्फ पेड़ ही पेड़ नजर आते हैं। आरे फॉरेस्ट को ‘मुम्बई का फेफड़ा’ भी कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस इलाके के कारण ही मुम्बई का पर्यावरण और हवा की शुद्धता में सन्तुलन बना रहता है। आरे जंगल में तेंदुओं के अलावा जीव-जन्तुओं की करीब 300 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। इस जंगल में पेड़ों की कटाई का लता मंगेशकर जैसी बड़ी शख्सियतों सहित बड़ी संख्या में पर्यावरण प्रेमी एवं अन्य कार्यकर्ताओं ने विरोध किया था। लोग पेड़ों के काटने के विरोध में चिपको आन्दोलन की तरह इकट्ठा हुए। लोगों ने कहा कि हमें साँपों या चीतों से नहीं पर अब विकास से डर लगता है। विरोध के दौरान बताया गया कि पेड़ों का काटा जाना सिर्फ वातावरण के लिए ही खतरनाक नहीं होगा, बल्कि इसकी वजह से मुम्बई के अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास बाढ़ जैसा खतरा पैदा होगा। पर्यावरणविदों ने बताया कि इन पेड़ों की वजह से बारिश का पानी रुकता है। अगर पेड़ नहीं होंगे तो बारिश का अतिरिक्त पानी मीठी नदी में जाएगा। इससे इलाके में बाढ़ का खतरा पैदा होगा। आरे आन्दोलन चिपको आन्दोलन के बाद सम्भवतः भारत का सबसे बड़ा पर्यावरण आन्दोलन माना जाता है। अभी यहाँ पेड़ काटने पर सुप्रीम कोर्ट की रोक लगी हुई है।
इसी तरह का एक अन्य मामला है जैव विविधता से समृद्ध छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र का, जो 170,000 हेक्टेयर में फैला है। आदिवासियों और ग्रामीणों के बार-बार विरोध और 2021 से वनों की कटाई करने से रोकने के बावजूद अन्ततः अधिकारी 2022 में वनों की कटाई शुरू करने में कामयाब रहे। इसके 137 हेक्टेयर में फैले जंगल में हजारों पेड़ काटे जा चुके हैं। यहाँ उन पेड़ों को भी काट दिया गया है, जिन्हें 100 से अधिक वर्षों से संरक्षित और संरक्षित किया गया था। ये पेड़ कोयला उत्खनन के लिए काटे गये हैं। इस घने वन क्षेत्र के नीचे कुल पाँच अरब टन कोयला होने का अनुमान है। हालाँकि काटे जाने वाले पेड़ों की आधिकारिक संख्या 15,307 होने का अनुमान है, जबकि स्थानीय लोगों का दावा है कि झाड़ियों और झाड़ियों के रूप में सूचीबद्ध कई छोटे पेड़ों को भी काटा गया है। एक अनुमान है कि वन विभाग के अधिकारी पहले ही 30,000 से अधिक पेड़ काट चुके हैं और आने वाले दिनों में 250,000 अन्य पेड़ काटने का खतरा मँडरा रहा है। आशंका है कि 841 हेक्टेयर में फैले परसा में पेड़ों की कटाई जल्द ही शुरू हो जाएगी। इस कार्रवाई से उत्तरी छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के सहली, तारा, जनार्दनपुर, घाटबर्रा, फतेहपुर और हरिहरपुर जैसे पड़ोसी गाँवों के 700 मूल परिवारों की आजीविका प्रभावित होगी। ऐसे में यदि इस पूरे जंगल को काट दिया जाता है तो आने वाले समय में लोगों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इण्डिया द्वारा साल 2021 में पेश की गयी रिपोर्ट के अनुसार, हसदेव अरण्य में गोंड, लोहार और ओरांव जैसी आदिवासी जातियों के 10 हजार लोग निवास करते हैं। इसके अलावा यहाँ 82 तरह के पक्षी, दुर्लभ प्रजाति की तितलियाँ और 167 प्रकार की वनस्पतियाँ हैं। जिनमें से 18 वनस्पतियाँ ऐसी हैं जो लुप्त होने की कगार पर हैं। साथ ही इस क्षेत्र में हसदेव नदी भी बहती है और हसदेव जंगल इसी नदी के कैचमेंट एरिया में स्थित है। इन्हीं वजहों के चलते इस जंगल को मध्य भारत का फेफड़ा भी कहा जाता है। यह जंगल हाथियों, भालू, सरीसृप और अन्य सहित जानवरों की कई प्रजातियों का घर है। साल और महुआ जैसे आर्थिक और आध्यात्मिक रूप से महत्त्वपूर्ण पेड़ हैं, जो स्थानीय लोगों की आजीविका का भी साधन हैं। वे लोग इन पेड़ों को देवता के रूप में पूजते हैं।
गाजियाबाद से मेरठ होते हुए मुजफ्फरनगर तक बननेवाला कांवड़ मार्ग तो मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की प्राथमिकताओं में शामिल है। दावा है कि इसके निर्माण से एनएच 58 से ट्रैफिक कम होगा और जाम से भी राहत मिलेगी। काफी समय से यह प्रोजेक्ट वन विभाग की एनओसी के कारण अटका हुआ था। पर अब कांवड़ मार्ग के निर्माण का रास्ता साफ हो गया है। शासन के आदेश पर सामाजिक वानिकी प्रभाग मेरठ के बाद मुजफ्फरनगर और गाजियाबाद ने भी 60 करोड़ जमा होने पर 1.12 लाख पेड़ काटने की सशर्त अनुमति दे दी। ये 60 करोड़ रुपए जमा भी करा दिए गये हैं। इसके साथ ही गंगनहर की दायीं पटरी पर दो लेन के 110 किमी लम्बे चौधरी चरण सिंह कांवड़ मार्ग बनने की अन्तिम अड़चन दूर हो गयी है। इस मार्ग के लिए कुल 1,12,722 पेड़ हटाए जाएँगे।
हम देखते ही हैं कि दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में जानलेवा प्रदूषण वर्ष में कई दिन समाचारों की सुर्ख़ियों में रहता है। चर्चा है कि फरवरी 2024 में डीडीए ने दिल्ली के छतरपुर के रिज क्षेत्र में सड़क को चौड़ा करने के लिए 1100 पेड़ चोरी-छिपे काट दिये। इस रिज क्षेत्र को दिल्ली का फेफड़ा कहा जाता है। दिल्ली में पेड़ों की कटाई पर पहले ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की रोक लगी हुई है। ऐसे में बिना कोर्ट की मंजूरी के बड़ी संख्या में पेड़ काटने पर अदालत में कोर्ट की अवमानना की याचिका पर सुनवाई करते हुए इन पेड़ों की अवैध कटाई में भारतीय वन अधिनियम और दिल्ली वृक्ष संरक्षण अधिनियम, 1994 के आदेशों की पूर्ण अवहेलना पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी अप्रसन्नता तो व्यक्त की, पर जो नुक़सान होना था वह तो हो ही गया।
नीति आयोग की पर्यटन परियोजना ग्रेट निकोबार के लिए बेहद विनाशकारी होगी। इस मेगा परियोजना में एक ट्रांस-शिपमेंट बन्दरगाह का निर्माण, एक अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे, एक टाउनशिप का विकास और द्वीप पर 450 एमवीए गैस और सौर-आधारित बिजली संयन्त्र की स्थापना शामिल है। इस परियोजना के लिए लगभग दस लाख पेड़ों के कटने से द्वीप की पारिस्थितिकी पर भारी असर पड़ेगा। ग्रेट निकोबार परियोजना के लिए मूल निवासियों से परामर्श किए बिना ‘स्थानीय समुदाय’ पर सामाजिक प्रभाव का आकलन किया गया। सार्वजनिक सुनवाई में दो आदिवासी समुदायों- शोम्पेन और ग्रेट निकोबारी की आवाज़ें शामिल नहीं हो पायीं। शोम्पेन और निकोबारी, जिन्हें शिकारी-संग्राहकों के एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत किया गया है, की संख्या केवल कुछ सौ है और वे द्वीप पर एक जनजातीय रिजर्व में रहते हैं।
इस बात को लेकर गम्भीर चिन्ताएँ हैं कि प्रस्तावित बुनियादी ढाँचे के उन्नयन से शोम्पेन जनजाति और उनकी पारम्परिक जीवन शैली पर गम्भीर प्रभाव पड़ सकता है, जो द्वीप के प्राकृतिक पर्यावरण के साथ गहराई से जुड़ी हुई है।
हमने देखा है कि केन्द्र शासित प्रदेश लद्दाख़ के जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने इस वर्ष मार्च में कंपकंपाती ठण्ड और शून्य से नीचे तापमान में जो अनशन किया था उसमें उनकी अन्य माँगों के अलावा लद्दाख के बेहद नाज़ुक पर्यावरण को बचाने की माँग भी शामिल थी। उनका कहना है, “हम लद्दाख़ की पहाड़ियों को बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं। भारतीय संविधान में एक बहुत ही विशेष प्रावधान है, जिसे अनुच्छेद 244 की छठी अनुसूची कहा जाता है, वह लद्दाख जैसे जनजातीय क्षेत्र के लोगों और संस्कृतियों को सुरक्षा प्रदान करता है और साथ ही वहाँ यह निर्धारित कर सकता है कि इन स्थानों को दूसरों के हस्तक्षेप के बिना कैसे विकसित किया जाना चाहिए। यही सब कुछ है जिसकी हम माँग कर रहे हैं।”
बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई के अलावा औद्योगीकरण, कृत्रिम उर्जा आधारित वाहनों पर बढ़ती हमारी निर्भरता और कचरे का कुप्रबन्धन भी जलवायु परिवर्तन के बड़े कारण हैं और इनके प्रबन्धन पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
जलवायु परिवर्तन के ख़तरे सामने आकर खड़े हो गये हैं, हम इसके दुष्परिणाम झेलने भी लगे हैं फिर भी हम अब तक इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय नहीं कर रहे हैं। कोविड जैसी भयानक महामारी के कारण 50 लाख से ज़्यादा लोगों को खोकर भी हमने कोई सबक नहीं सीखा है। हम देख सकते हैं कि कुछ नहीं बदला है, सब कुछ वापस पहले जैसा ही हो गया है।
हमारी गतिविधियों से यह स्पष्ट है कि पर्यावरण के विनाश के नतीजों को हम गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं। देश में इस दिशा में जो कुछ होता दिखता है वह प्रभावी नहीं महज रस्मी है। पर्यावरण के संकट को टालने के लिए देश में कई समूह और कार्यकर्ता जरूर लगे हुए हैं। पर पर्यावरण प्रदूषण से जीवन को गम्भीर खतरे की समझ अबतक आमजन को हो ही नहीं पायी है और वह इसके प्रति पूरी तरह से उदासीन है। यह स्थिति बेहद डरानेवाली और चिन्ताजनक है। पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे को जन आन्दोलन बनाए बगैर इसकी सफलता सन्दिग्ध है।