सामयिक

महामारी, महिलाएँ और मर्दवाद

 

कोरोना वायरस ने भारत सहित पूरी दुनिया को बदल दिया है लेकिन दुर्भाग्य से इससे हमारी साम्प्रदायिक, नस्लीय, जातिवादी और महिला विरोधी सोच और व्यवहार में कोई फर्क नहीं पड़ा है। आज दुनिया भर के कई मुल्कों से खबरें आ रही हैं कि लॉकडाउन के बाद से महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा के मामलों में जबरदस्त उछाल आया है।

वैसे तो किसी भी व्यक्ति के लिये उसके “घर” को सबसे सुरक्षित स्थान माना जाता है लेकिन जरूरी नहीं है कि महिलाओं के मामले में भी यह हमेशा सही हो। लॉकडाउन से पूर्व भी दुनिया भर में महिलाएँ घरेलू और बाहरी हिंसा का शिकार होती रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी रिपोर्ट “भारत में अपराध 2018” के मुताबिक़ घरेलू हिंसा के मामले बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं जिनमें ज्यादातर पति या करीबी रिश्‍तेदार शामिल होने हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़ 2018 के दौरान घरेलू हिंसा के सबसे अधिक मामले दर्ज किये गये हैं। वर्ष 2005 में घरेलू हिंसा अधिनियम लागू होने के बाद भी  इस स्थिति में कोई ख़ास सुधार देखने को नहीं मिला है।

58 Victims Complained Of Domestic Violence During Lockdown ...

घरेलू हिंसा की जड़ें हमारे समाज और परिवार में बहुत गहराई तक जमीं हैं। परिवार को तो महिलाओं के खिलाफ मानसिकता की पहली नर्सरी कहा जा सकता है। पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार परिवार में ही विकसित होता है और एक तरह से यह हमारे परिवारक ढाँचे के साथ नत्थी हैं। घरेलू हिंसा के साथ दिक्कत यह है कि इसकी जड़ें इतनी गहरी और व्यापक हैं कि इसकी सही स्थिति का अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल हैं। यह एक ऐसा अपराध है जिसे अक्सर नजरअंदाज या छुपा लिया जाता है, औपचारिक रूप से इसके बहुत कम मामले रिपोर्ट किये जाते हैं और कई बार तो इसे दर्ज करने से इनकार भी कर दिया जाता है।

यह भी पढ़ें- लॉकडाउन के कारण घरेलू हिंसा

जयादातर महिलाएँ शादी बचाने के दबाव में इसे चुपचाप सहन कर जाती हैं। हमारे समाज और परिवारों में भी विवाह और परिवार को बचाने के नाम पर इसे मौन या खुली स्वीकृति मिली हुयी हैं। राज्य और प्रशासन के स्तर पर भी कुछ इसी प्रकार यही मानसिकता देखने को मिलती है। टाटा स्कूल ऑफ सोशल साइंस द्वारा साला 2014 में जारी “क्वेस्ट फॉर जस्टिस”अध्ययन  रिपोर्ट के अनुसार पुलिस और अदालतों दारा भी घरेलू हिंसा को अक्सर एक परिवारिक मामले के रूप में देखा जाता है और इनके द्वारा भी महिलाओं को कानूनी उपायों से आगे बढ़ने से हतोत्साहित करते हुये अक्सर “मामले” को मिल-बैठ कर सुलझा लेने का सुझाव दिया जाता है।महिलाओं के खिलाफ भी दर्ज कराया जा ...

पूर्व के अनुभव बताते हैं कि महामारी या संकट के दौर में महिलाओं को दोहरे संकट का सामना करना पड़ता है। एक तरफ तो महामारी या संकट का प्रभाव तो उनपर पड़ता ही है, इसके साथ ही महिला होने के कारण इस दौरान उपजे सामाजिक-मानसिक तनाव और मर्दवादी खीज का ‘खामियाजा” भी उन्हें ही भुगुतना पड़ता है। इस दौरान उनपर घरेलू काम का बोझ तो बढ़ता ही है साथ ही उनके साथ “घरेलू हिंसा” के मामलों में भी तीव्रता देखने को मिलती है।

आज एक बार फिर दुनिया भर में कोरोनावायरस की वजह से हुए लॉक डाउन से महिलाओं की मुश्किलें बढ़ गयी हैं, इस दौरान महिलाओं के खिलाफ हो रही घरेलू हिंसा के मामलों में काफी इजाफा देखने को मिल रहा है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा दुनिया के कई मुल्कों में लॉकडाउन की वजह से महिलाओं और लड़कियों के प्रति घरेलू हिंसा के मामलों में बढ़ोत्तरी दर्ज किए जाने को भयावह बताते हुए इस मामले में सरकारों से ठोस कार्रवाई की अपील की गयी है।

यह भी पढ़ें- जश्न और जख्म के बीच आधी आबादी

भारत में भी स्थिति गंभीर है और इस मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग को सामने आकर कहना पड़ा है कि लॉकडाउन के दौरान पुरुष अपनी कुंठा और गुस्सा महिलाओं पर निकाल रहे हैं। आयोग के मुताबिक पहले चरण के लॉक डाउन के एक सप्ताह के भीतर ही उनके पास घरेलू हिंसा की कुल 527 शिकायतें दर्ज की गयी। यह वे मामले हैं जो आनलाईन या हेल्पलाइन पर दर्ज किये गये हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि लॉक डाउन के दौरान वास्तविक स्थिति क्या होगी।

लॉकडाउन- वर्क फ्रॉम होम में बढ़ गई ...

दरअसल इस संकट के समय महिलाओं को लेकर हमारी सामूहिक चेतना का शर्मनाक प्रदर्शन है जिसपर आगे चलकर गम्भीता से विचार किये जाने की जरूरत है। हम एक लिंगभेदी मानसिकता वाले समाज हैं जहाँ पैदा होते ही लड़कों और लड़कियों में फर्क किया जाता है। यहाँ लड़की होकर पैदा होना आसान नहीं है और पैदा होने के बाद एक औरत के रूप में जिन्दा रहना भी उतना ही चुनौती भरा है। पुरुष एक तरह से महिलाओं को एक व्यक्ति नहीं “सम्पति” के रुप में देखते हैं। उनके साथ हिंसा, भेदभाव और गैरबराबरी भरे व्यवहार को अपना हक समझते हैं। इस मानसिकता के पीछे समाज में मर्दानगी और पितृसत्तात्मक विचारधारा का हावी होना है।

यह भी पढ़ें- महिला सशक्तिकरण के अथक योद्धा हैं श्री कैलाश सत्‍यार्थी

कोई भी व्यक्ति इस तरह की सोच को लेकर पैदा नहीं होता है बल्कि बचपन से ही हमारे परिवार और समाज में बच्चों का ऐसा सामाजिकरण होता है जिसमें महिलाओं और लड़कियों को कमतर व पुरुषों और लड़कों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानने के सोच को बढ़ावा दिया जाता है। हमारे समाज में शुरू से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि महिलाएँ पुरषों से कमतर होती हैं बाद में यही सोच पितृसत्ता और मर्दानगी की विचारधारा को मजबूती देती है। मर्दानगी वो विचार है जिसे हमारे समाज में हर बेटे के अन्दर बचपन से डाला जाता है, उन्हें सिखाया जाता है कि कौन सा काम लड़कों का है और कौन सा काम लड़कियों का है।

लॉकडाउन में बढ़ती घरेलू हिंसा: आपदा ...

हमारा समाज मर्दानगी के नाम पर लड़कों को मजबूत बनने, दर्द को सहने, गुस्सा करने, हिंसक होने, दुश्मन को सबक सिखाने और खुद को लड़कियों से बेहतर मानने का प्रशिक्षण देता है, इस तरह से समाज चुपचाप और कुशलता के साथ इस विचार और व्यवहार को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक हस्तांतरित करता रहता है। महिलाओं को लेकर जीवन के लगभग हर क्षेत्र में हमारी यही सोच और व्यवहार हावी है जो “आधी आबादी” की सबसे बड़ी दुश्मन है। हम एक पुरानी सभ्यता है समय बदला, काल बदला लेकिन हमारी यह सोच नहीं बदल सकी उलटे इसमें नये आयाम जुड़ते गये। आज भी हम ऐसा परिवार, समाज और स्कूल ही नहीं बना सके जो हममें पीढ़ियों से चले आ रहे इस सोच को बदलने में मदद कर सकें।

यह भी पढ़ें- आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना स्त्री स्वतन्त्र नहीं

आज आर्थिक रूप से मानवता ने भले ही तरक्की कर ली हो लेकिन सामाजिक रूप से हम बहुत पिछड़े हुए हैं-गैर-बराबरी के मूल्यों, मर्दानगी और यौन कुंठाओं से लबालब। संकट के समय में हमारा यह  व्यवहार और खुल कर सामने आ जाता है। यह एक आदिम समस्या है जिसकी जड़ें मानव सभ्यता के हजारों सालों के सफर के साथ सहयात्री रही हैं। आज सभ्यता के विकास और तमाम भौतिक तरक्कियों के बावजूद भी मानवता इससे पीछा छुड़ाने में नाकाम रही है। लैंगिक न्याय व समानता को स्थापित करने में महिलाओं के साथ पूरे समाज की भूमिका बनती है जिसमें स्त्री, पुरुषों और किशोर, बच्चे सब शामिल हैं।

domestic violence increase amid corona virus lockdown. hc sends ...

इस दिशा में व्यापक बदलाव के लिए जरुरी है कि पुरुष अपने परिवार और आसपास की महिलाओं के प्रति अपनी अपेक्षाओं में बदलाव लाएँ। इससे ना केवल समाज में हिंसा और भेदभाव कम होगा बल्कि समता आधारित नए मानवीय संबंध भी बनेगें। इसके साथ ही ऐसे तरीके भी खोजने होगें जिससे पुरुषों और लड़कों को खुद में बदलाव लाने में मदद मिल सके और वे मर्दानगी का बोझ उतार कर महिलाओं और लड़कियों के साथ समान रुप से चलने में सक्षम हो सकें। यह एक लंबी कवायद होगी और कोरोना से निपटने के बाद मानवता को इस दिशा में विचार करना होगा।

यह भी पढ़ें- कोरोना: महामारी या सामाजिक संकट

बहरहाल तात्कालिक रूप से जैसा कि संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव द्वारा अपील की गयी है भारत सहित दुनिया के सभी राष्ट्रों को कोरोनावायरस महामारी से निपटने के लिये अपने कार्ययोजना में महिलाओं के  घरेलू हिंसा की रोकथाम व उसके निवारण के उपायों को शामिल किया जाना चाहिये। भारत में इस दिशा में राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा पहल करते हुये घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं की मदद के लिए गैर-सरकारी संगठनों की एक टास्क फोर्स बनाने का फैसला किया है साथ ही आयोग द्वारा घरेलू हिंसा संबंधित मामलों की शिकायत के लिये एक व्हाट्सऐप नंबर भी जारी किया है। यह एक स्वागतयोग्य कदम हैं लेकिन इस दिशा में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा तत्काल और बड़े व ठोस कदम उठाये जाने की अपेक्षा है।

.

Show More

जावेद अनीस

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +919424401459, javed4media@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

12 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
12
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x