तपती धरती और बढ़ते पर्यावरणीय खतरे
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) प्रमुख के अनुसार हम इस समय तीन प्रमुख संकटों की चिन्ताजनक तीव्रता का सामना कर रहे हैं, जलवायु परिवर्तन का संकट, प्रकृति और जैव विविधता के नुकसान का संकट और प्रदूषण तथा अपशिष्ट का संकट। यह संकट दुनिया के पारिस्थितिकी तन्त्र पर हमला कर रहा है, अरबों हेक्टेयर भूमि ख़राब हो गयी है, जिससे दुनिया की लगभग आधी आबादी प्रभावित हो रही है और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के आधे हिस्से पर खतरा मंडरा रहा है। ग्रामीण समुदाय, छोटी जोत वाले किसान और बेहद गरीब लोग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि भूमि बहाली भूमि क्षरण, सूखे और मरुस्थलीकरण की बढ़ती लहर को उलट सकती है। उल्लेखनीय है कि भूमि बहाली संयुक्त राष्ट्र पारिस्थितिकी तन्त्र बहाली दशक (2021 से 2030) का एक प्रमुख स्तम्भ है, जो दुनिया भर में पारिस्थितिकी प्रणालियों की सुरक्षा और पुनरुद्धार के लिए एक रैली का आह्वान है, जो सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण सन्तुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया जाता रहा है। हमें बखूबी समझ लेना होगा कि यदि पृथ्वी का तापमान साल दर साल इसी प्रकार बढ़ता रहा तो आने वाले वर्षों में हमें इसके गम्भीर परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीच्यूट के मुताबिक दुनियाभर में गर्मी का प्रकोप वर्ष दर वर्ष बढ़ रहा है। दुनिया के कुछ देश तो ऐसे भी हैं, जहाँ पारा 50 डिग्री के पार जा चुका है और अब भारत भी इन देशों में शामिल होता दिख रहा है, जहाँ देश के कुछ हिस्सों में भी तापमान इस साल 50 डिग्री के पार पहुँच गया। हाल ही में अमेरिका के गोडार्ड इंस्टीच्यूट फॉर स्पेस स्टडीज (जीआईएसएस) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 1880 के बाद पृथ्वी का तापमान औसतन 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है और तापमान में सर्वाधिक बढ़ोतरी 1975 के बाद से ही शुरू हुई है।
भारत के कई हिस्सों में तो इस साल मार्च महीने से ही बढ़ते पारे का प्रकोप देखा जा रहा है। दरअसल करीब दो दशक पहले देश के कई राज्यों में जहाँ अप्रैल माह में अधिकतम तापमान औसतन 32-33 डिग्री रहता था, वहीं अब मार्च महीने में ही पारा 40 डिग्री तक पहुँचने लगा है और यह जलवायु परिवर्तन का ही स्पष्ट संकेत है। इस समय देश के अनेक इलाकों में आसमान से मानो आग बरस रही है। हीट वेव, लू के प्रकोप और भीषण गर्मी से कई राज्यों में लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। महीने में ही उत्तर भारत के कई इलाकों में तो इस बार तापमान 50 डिग्री को पार कर गया था। भीषण गर्मी के कारण नदियाँ, नहर, कुएँ, तालाब सूख रहे हैं। भूजल स्तर लगातार नीचे खिसकने से देश के अनेक इलाकों में गर्मी के मौसम में हर साल अब पेयजल की गम्भीर समस्या भी विकट होने लगी है। गर्मी के मौसम में अब हीट वेव की प्रचण्डता इतनी तीव्र रहने लगी है कि मौसम विभाग को अब हीट वेव को लेकर कभी ‘रेड अलर्ट’ जारी करना पड़ता है तो कभी ‘ऑरेंज अलर्ट’। निश्चित रूप से यह पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज का ही स्पष्ट और खतरनाक संकेत है। बताते चलें कि मौसम विभाग द्वारा रेड अलर्ट मौसम के अधिक खराब होने पर जारी किया जाता है, जो लू की रेंज में आने वाले सभी इलाकों के लिए होता है।
‘रेड अलर्ट’ का मतलब होता है कि मौसम बहुत खराब स्थिति में पहुँच चुका है और लोगों को सावधान होने की जरूरत है। ऑरेंज अलर्ट का मतलब होता है तैयार रहें और इस अलर्ट के साथ ही सम्बन्धित अधिकारियों को हालातों पर नजर रखने की हिदायत होती है। सैन डियागो स्थित स्क्रीप्स इंस्टीच्यूट ऑफ ओसनोग्राफी के शोधकर्ताओं के अनुसार पृथ्वी के तापमान में 1880 के बाद हर दशक में 0.08 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। शोधकर्ताओं के मुताबिक 1900 से 1980 तक तापमान में वृद्धि प्रत्येक 13.5 वर्ष में दर्ज की जा रही थी किन्तु 1981 से 2019 के बीच में तापमान में वृद्धि की समय सीमा 3 वर्ष हो गयी है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि अभी 2.4 डिग्री तापमान और बढ़ेगा। पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाने का ही दुष्परिणाम है कि ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण दुनिया के कई शहरों के जलमग्न होने की आशंका जताई जाने लगी है।
भारत के सन्दर्भ में देखें तो कुछ वर्ष पूर्व तक पर्वतीय क्षेत्रों का ठंडा वातावरण हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता था किन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में यातायात के साधनों से बढ़ते प्रदूषण, बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करने और राजमार्ग बनाने के नाम पर बड़े पैमाने पर वनों के दोहन और सुरंगें बनाने के लिए बेदर्दी से पहाड़ों का सीना चीरते जाने का ही दुष्परिणाम है कि पहाड़ों की ठण्डक भी धीरे-धीरे कम हो रही है और मौसम की प्रतिकूलता लगातार बढ़ रही है। प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें निरन्तर चेतावनियाँ देती रही है किन्तु जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिन्ता व्यक्त करने से आगे हम शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। कहीं भयानक सूखा तो कहीं बेमौसम अत्यधिक वर्षा, कहीं जबरदस्त बर्फबारी तो कहीं कड़ाके की ठण्ड, कभी-कभार ठण्ड में गर्मी का अहसास तो कहीं तूफान और कहीं भयानक प्राकृतिक आपदाएँ, ये सब प्रकृति के साथ खिलवाड़ के ही दुष्परिणाम हैं और यह सचेत करने के लिए पर्याप्त हैं कि यदि हम इसी प्रकार प्रकृति के संसाधनों का बुरे तरीके से दोहन करते रहे तो स्वर्ग से भी सुन्दर अपनी पृथ्वी को हम स्वयं कैसी बना रहे हैं और हमारे भविष्य की तस्वीर कैसी होने वाली है।
पर्यावरण पर लिखी अपनी पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में मैंने विस्तार से यह वर्णन किया है कि किस प्रकार शहरों के विकसित होने के साथ-साथ दुनियाभर में हरियाली का दायरा सिकुड़ रहा है और कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं। विश्वभर में प्रदूषण के बढ़ते स्तर के कारण हर साल तरह-तरह की बीमारियों के कारण लोगों की मौतों की संख्या तेजी से बढ़ रही हैं, यहाँ तक कि बहुत से नवजात शिशुओं पर भी प्रदूषण के दुष्प्रभाव स्पष्ट देखे जाने लगे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रतिवर्ष विश्वभर में प्रदूषित हवा के कारण करीब सत्तर लाख लोगों की मौत हो जाती है। प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को क्षति पहुँचाकर हम स्वयं जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का कारण बन रहे हैं और यदि गम्भीर पर्यावरणीय समस्याओं को लेकर हम वाकई चिन्तित हैं तो इन समस्याओं का निवारण भी हमें ही करना होगा ताकि हम प्रकृति के प्रकोप का भाजन होने से बच सकें अन्यथा प्रकृति से जिस बड़े पैमाने पर खिलवाड़ हो रहा है, उसका खामियाजा समस्त मानव जाति को अपने विनाश से चुकाना पड़ेगा।
लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के लिए साल में केवल एक दिन 5 जून को ‘पर्यावरण दिवस’ मनाने की औपचारिकता निभाने से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर हम वास्तव में पृथ्वी को खुशहाल देखना चाहते हैं तो इसके लिए प्रतिदिन गम्भीर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। यदि हम चाहते हैं कि हम धरती माँ के कर्ज को थोड़ा भी उतार सकें तो यह केवल तभी सम्भव है, जब वह पेड़-पौधों से आच्छादित, जैव विविधता से भरपूर तथा प्रदूषण से सर्वथा मुक्त हो और हम चाहें तो सामूहिक रूप से यह सब करना इतना मुश्किल भी नहीं है। बहरहाल, यह अब हमें ही तय करना है कि हम किस युग में जीना चाहते हैं? एक ऐसे युग में, जहाँ साँस लेने के लिए प्रदूषित वायु होगी और पीने के लिए प्रदूषित और रसायनयुक्त पानी तथा ढ़ेर सारी खतरनाक बीमारियों की सौगात या फिर ऐसे युग में, जहाँ हम स्वछन्द रूप से शुद्ध हवा और शुद्ध पानी का आनन्द लेकर एक स्वस्थ एवं सुखी जीवन का आनन्द ले सकें। दरअसल अनेक दुर्लभ प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर हमारी पृथ्वी प्रदूषित वातावरण के कारण धीरे-धीरे अपना प्राकृतिक रूप खो रही है। ऐसे में जब तक पृथ्वी को बचाने की चिन्ता दुनिया के हर व्यक्ति की चिन्ता नहीं बनेगी और इसमें प्रत्येक व्यक्ति का योगदान नहीं होगा, तब तक मनोवांछित परिणाम मिलने की कल्पना नहीं की सकती।