
सावधान! देश कैंसर-ग्रस्त हो चुका है
इसकी पूरी सम्भावना है कि सुधीजनों, गुणीजनों, भद्रजनों एवं विद्वतजनों को ही नहीं, इस पत्रिका के गम्भीर लेखकों और पाठकों को भी इस शीर्षक ‘सावधान! देश कैंसर-ग्रस्त हो चुका है’ से आपत्ति हो और असहमति भी। हम-आप ‘देश’ से कैसा अर्थ ग्रहण करते हैं, इसी पर सबकुछ निर्भर करता है। देश आखिर है क्या? क्या देश एक मानचित्र भर है? सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 1974 में लिखित कविता ‘देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता’ को आज पढ़ने-समझने की कहीं अधिक जरूरत है। पूरी कविता यहाँ उद्धृत करना आवश्यक है-
“यदि तुम्हारे घर के/एक कमरे में आग लगी हो/तो क्या तुम/दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में/लाशें सड़ रही हों /तो क्या तुम/दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?/यदि हाँ,/तो मुझे तुमसे/कुछ नहीं कहना है/देश कागज पर बना/नक्शा नहीं होता/कि एक हिस्से के फट जाने पर/बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें/और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव/वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें/अनमने रहें/
यदि तुम यह नहीं मानते/तो मुझे तुम्हारे साथ/नहीं रहना है/इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा/कुछ भी नहीं है/न ईश्वर/न जान/न चुनाव/कागज पर लिखी कोई भी इबारत/फाड़ी जा सकती है/और जमीन की सात परतों के भीतर/गाड़ी जा सकती है/जो विवेक/खड़ा हो लाशों को टेक/वह अंधा है/जो शासन /चल रहा हो बंदूक की नली से/हत्यारों का धंधा है/यदि तुम यह नहीं मानते/तो मुझे/अब एक क्षण भी/तुम्हें नहीं सहना है/याद रखो/एक बच्चे की हत्या/एक औरत की मौत/एक आदमी का/गोलियों से चिथड़ा तन/किसी शासन का ही नहीं/सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन/ऐसा खून बहकर/धरती में जज्ब नहीं होता/आकाश में फहराते झंडों को/काला करता है/जिस धरती पर/फौजी बूटों के/ निशान हों/और उन पर/लाशें गिर रही हों/वह धरती/यदि तुम्हारे खून में/आग बन कर नहीं दौड़ती/तो सम्झ लो/तुम बंजर हो गये हो-/तुम्हें यहाँ साँस लेने तक का नहीं है अधिकार/ तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार/आखिरी बात/बिल्कुल साफ/किसी हत्यारे को/कभी मत करो माफ/चाहे हो वह तुम्हारा यार/धर्म का ठेकेदार/चाहे लोकतन्त्र का/स्वनाम धन्य पहरेदार”
पचास वर्ष पहले लिखी गयी इस कविता में वह सब कुछ है, जो आज के समय में हमें बेचैन किये हुए है। ‘देश’ की जितनी गम्भीर चिन्ता पहले के कवियों में थी, सम्भव है, आज के कवियों में भी हो, पर आज की कविता गहरे दर्द और पीड़ा से कम लिखी जा रही है। मुक्तिबोध ने नेहरू के समय में ‘अँधेरे में’ जैसी कालजयी कविता लिखी थी। और यह सवाल किया था- ‘मर गया देश, अरे! जीवित रहे गये तुम।’
शब्द-क्रीड़ा अब कवियों में कम है, प्रधानमन्त्री में अधिक। एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) का मतलब वे अमेरिका एवं इण्डिया बताते हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति ट्रम्प ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) कह रहा है और भारत के प्रधान मन्त्री ‘मिगा-मिगा’ (मेक इण्डिया ग्रेट अगेन)कह रहे हैं। देश के बाहरी दुश्मनों से, ब्रिटिश सत्ता और सरकार से लड़ाई लड़ी गयी थी। किसान, मजदूर, महिलाएँ, छात्र- सभी राष्ट्रीय स्वाधीनता-आन्दोलन में शरीक थे। जिन्होंने भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया, अब वे बढ़-चढ़ कर बातें कर रहे हैं; किसानों और मजदूरों की, छात्रों-छात्राओं और बेरोजगारों की, युवा-शक्ति की जिन्हें चिन्ता नहीं है, वे ‘न्यू इण्डिया’ की बातें कर रहे हैं। देश हिंसा, आतंक, कटुता, नोटबन्दी से मुहबन्दी तक के दौर से गुजर रहा है।
मणिपुर भारत का एक राज्य है, लगभग दो वर्ष से धधक रहा है और प्रधानमन्त्री ने अब तक ‘राजधर्म’ का पालन नहीं किया है। वे एक बार भी मणिपुर नहीं गये हैं। कूकी और मैतेयी में आपसी संघर्ष पहले भी था, पर आज की तरह इसे बनाने में राज्य सरकार की भूमिका रही है, झूठ ने अपना विस्तार पिछले दस वर्ष में कहीं अधिक किया है। जिन्हें इतिहास की सही समझ नहीं है, जो मुगलों के अवदान से आँखें मूदे हुए हैं, वे सब इतिहास के पन्नों से मुगल काल को मिटाना चाहते हैं। मुगल अगर आक्रमणकारी होते, तो भारत की सारी धन-सम्पदा लूट कर चले जाते। अँग्रेजों ने भारत का धन लूट कर अपने यहाँ औद्योगिक क्रान्ति की, मुगलों ने भारतीय धन बाहर नहीं भेजा।
औरंगजेब की सेना में 31 प्रतिशत हिन्दू थे। आधे सेनापति और दरबारी हिन्दू थे उसके समय में सामूहिक धर्म-परिवर्तन नहीं हुआ था गैर मुसलमानों पर अगर उसने जजिया टैक्स लगाया, तो मुसलमानों पर हज टैक्स भी। उसने अपना मकबरा दिल्ली में न बनवा कर महाराष्ट्र के औरंगाबाद के खुल्दाबाद में बनाने को कहा। उसकी कब्र छत्रपति संभाजी नगर से 25 किलोमीटर दूर है। औरंगजेब की इच्छा के अनुसार उसे खुल्दाबाद में उसके आध्यात्मिक गुरु शेख जैनुद्दीन की दरगाह के पास दफनाया गया। ऑड्रे ट्रस्चके ने अपनी किताब ‘औरंगजेब : द मैन एंड द मिथ’ में स्पष्ट कहा है कि अँग्रेजों के समय के इतिहासकारों ने उसे हिन्दुओं का शत्रु बताया। ‘हिन्दू’ शब्द ईसापूर्व छठी शताब्दी में प्रयुक्त हुआ है, पर धर्म के रूप में इसका प्रयोग बहुत बाद का है। रणेन्द्र ने अभी अपने एक लेख ‘भारत के इतिहास में बाइनरी और वर्चस्व’ (आलोचना, 76, जनवरी – मार्च 2024) में इतिहासकार रोमिला थापर को उद्धृत किया है।
“ ‘हिन्दू’ का इस्तेमाल 15 वीं शताब्दी से पहले धर्म के तौर पर नहीं किया गया था। इसे धर्म के रूप में नामित करने के लिए इस शब्द का पहला प्रयोग 18वीं शताब्दी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सिविल सेवकों और व्यापारियों द्वारा किया गया था। ‘हिन्दू’ शब्द का ‘धर्म’ के रूप में प्रशासनिक इस्तेमाल और उपयोग केवल 1850 के दशक में शुरू हुआ, विशेष रूप से जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम 1850 में।”
पिछले दस-ग्यारह वर्षों में हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर सरकार ने जैसा विभाजन किया है, उससे देश के भावी रूप का हम अनुमान कर सकते हैं। देश में हिन्दुओं की आबादी लगभग 80 प्रतिशत है। सभी हिन्दू न तो आरएसएस, भाजपा और मोदी के समर्थक हैं और न साम्प्रदायिक राजनीति के।
राम मन्दिर निर्माण के बाद भी भाजपा और मोदी का एक सूत्री कार्यक्रम जारी है। मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर, अपने विरोधियों पर भृकुटी तान कर लोकतन्त्र संविधान किसी की रक्षा नहीं की जा सकती, देश को नष्ट होने से नहीं बचाया जा सकता। जो हिन्दू हिन्दू-राष्ट्र के विरोधी हैं, जो नागरिक लोकतन्त्र और संविधान के प्रति आस्थावान हैं, जिन्हें नियम-कानून में आस्था है और जो सच बोलने से नहीं हिचकते, वे सब एकजुट नहीं हैं। लोकतन्त्र और संविधान को बचाने वाले तथा फासीवाद के विरोधी एक साथ नहीं है। भारत घोषित रूप से हिन्दू राष्ट्र नहीं है, पर प्रधानमन्त्री लोकसभा में 15 मिनट तक प्रयाग राज में महाकुम्भ पर अपना वक्तव्य देते हैं। वे जिस संस्कार, परम्परा और संस्कृति की बात करते हैं, वह ‘हिन्दुत्व’ की है, हिन्दू की नहीं, जिसका कंसेप्ट सावरकर ने ‘हिन्दुत्व: हू इज हिन्दू’ में दिया है। सही खबरें हम तक नहीं पहुँच पातीं।
प्रिंट हो या विजुअल, सब पर सरकार कब्जा कर चुकी है। कोई संस्था अब न स्वतन्त्र है और न स्वायत्त। यह अधीनता का एक नया दौर है और इससे मुकाबला करने वाली शक्तियाँ कम हैं। इतने बड़े देश में जो कुछ व्यक्ति और संगठन बचे हुए हैं, उनसे सत्ता-पक्ष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हम बोलते रहें, लिखते रहें, विचार-विमर्श होता रहे पर सरकार अपने मार्ग पर चल रही है। उसका यह मार्ग हिन्दुत्व-कॉरपोरेट फासीवाद का मार्ग है। समाज में जहर घोल दिया गया है, घर-परिवार, नाते-रिश्ते, अड़ोस- पड़ोस सबके अर्थ बदल रहे हैं। देश बुरी तरह दो भागों में बाँट दिया गया है। एक ओर संघ, भाजपा, मोदी और कॉरपोरेट समर्थक हैं, दूसरी ओर इसके विरोधी हैं।
विश्व के किसी भी देश का राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री भारत के प्रधानमन्त्री की तरह धार्मिक या साम्प्रदायिक नहीं है। वे आरएसएस के प्रचारक रहे हैं। भारत आरएसएस के कब्जे में है। भय, आतंक, घृणा और झूठ आज की तरह पहले कभी नहीं फैला हुआ था। लोकतन्त्र और संविधान कभी इस तरह खतरे में नहीं था। देश के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल अब केवल चुनाव के समय सक्रिय होते हैं। बड़ी-से-बड़ी घटनाओं पर देशव्यापी कोई प्रदर्शन नहीं होता। छिटपुट प्रदर्शन अधिक प्रभावशाली नहीं होते। मन्दिर-मस्जिद सरकार की चिन्ता में है, शिक्षा-स्वास्थ्य नहीं। अँग्रेजों के समय में भी देश में आज जैसी आर्थिक असमानता नहीं थी।
भारत में गरीब व्यक्ति का गाँव में प्रतिदिन खर्च 45 रुपये और शहर में 67 रुपये है, प्रधानमन्त्री पर कुल मिलाकर प्रति दिन होने वाला खर्च 1.17 करोड़ रुपये है। एक दिन में मुकेश अंबानी की कमाई 163 करोड़ रुपये है और अडानी की 858 करोड़ रुपये। अडानी ग्रुप की आय हर मिनट 59. 58 लाख रुपये है। यह आय प्रति सेकेंड 51 हजार 250 रुपये है। पिछले वर्ष 2024 में 13 करोड़ भारतीय अधिक गरीबी में थे। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 127 देशों में भारत का 105 वाँ स्थान है। न गरीबी मिट रही है, न कुपोषण खत्म हो रहा है। 5 साल से कम उम्र के 35 प्रतिशत बच्चे स्टेटिंग के, 19.3 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग के और 32 प्रतिशत से कुछ अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। न भ्रष्टाचार मिट रहा है, न बलात्कार। दुनिया के 180 देशों में भ्रष्टाचार में भारत 96 वें स्थान पर है।
बलात्कार के मामले प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, प्रतिदिन लगभग 86 बलात्कार के केस दर्ज होते हैं। कई केस दर्ज नहीं होते। समाचार-पत्र बिक चुके हैं। गोदी मीडिया से अब शायद ही कोई अपरिचित हो। पत्रकारों की हत्या मामूली बात है। भारतीय लोकतन्त्र में सच बोलना और लिखना गुनाह है। आर एस एस, भाजपा, मोदी-शाह से सवाल पूछना अपराध है। इस समय विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ की याद आती है। इस सरकार में प्रधानमन्त्री ही सब कुछ हैं। दल से बड़ा व्यक्ति है। देश हथकड़ी और बेड़ी मे बंध चुका है। कायरता और बुजदिली बढ़ रही है। मध्य वर्ग का बड़ा भाग अपने में मगन है। शॉपिंग और सैर-सपाटा जारी है। चन्द कॉरपोरेटों के यहाँ देश की सारी सम्पदा जा रही है। लूट-महालूट झूठ-महाझूठ का ऐसा दृश्य पहले नहीं था।
प्रतिदिन देश में 82 लोगों की हत्या होती है। संसद में अब करोड़पतियों और अपराधियों की संख्या कहीं अधिक है। विधि-व्यवस्था, नियम-कानून में भी गिरावट कम नहीं है। 2024 के ‘रूल ऑफ इंडेक्स’ में भारत 142 देशों में 72 वें स्थान पर था। लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता बड़ी संख्या में जेलों में बंद है। 19 मार्च 2025 तक सुप्रीम कोर्ट में लगभग 83 हजार केस लम्बित थे। देश के 25 उच्च न्यायालयों में लगभग 60 लाख मुकदमे विचाराधीन हैं। सभी न्यायालयों को मिला कर इस समय विचाराधीन मुकदमों की संख्या लगभग 5 करोड़ है। भारत के हाई कोर्ट में जजों की कुल संख्या 1 हजार 114 है, जिसमें 327 पद रिक्त है। 12 उच्च न्यायालय में दस से अधिक जजों के पद रिक्त हैं। 1 मार्च 2025 तक जजों की कुल 32 प्रतिशत सीट खाली थी। सरकार बेरोजगार युवकों को लेकर अधिक चिंतित नहीं है। तीन-चार महीने पहले तक शिक्षित बेरोजगारों की संख्या साढ़े तीन करोड़ से अधिक थी। केन्द्र सरकार में साढ़े नौ लाख से अधिक पद खाली हैं।
भारत आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं है। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से यह गरीब देशों में है। विकासशील देशों में भी इसका स्थान नीचे है। सही खबरें जन साधारण तक नहीं पहुँच पातीं। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में, 180 देशों में भारत का स्थान 152 वें नंबर पर है। समाज में एक ओर घृणा फैलाई जा रही है, दूसरी ओर भय। स्वाधीन भारत में मुस्लिम विरोधी ऐसी सरकार कोई नहीं थी। 2014 में भाजपा की बहुमत की सरकार और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने संघ की वैचारिकी को, हिन्दू राष्ट्र की उसकी संकल्पना को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 2014 के बाद ही बहुसंख्यकवाद और अधिनायकवाद बढ़ा। घोषित पक्ष पर, कार्यक्रम पर हम सब ध्यान देते हैं, पर अघोषित पक्ष पर नहीं, अघोषित आपातकाल, अघोषित फासीवाद, अघोषित हिन्दू राष्ट्र अब सामने है। इसके लिए सभी संस्थाओं पर कब्ज़ा ज़रूरी था। आवश्यक था, उसके प्रमुख पदों पर अपने लोगों को बैठाना और मीडिया को कंट्रोल करना, जो सत्रहवें लोकसभा चुनाव (2019) के बाद तीव्र गति से किया गया। प्रचार और विज्ञापन पर सर्वाधिक ध्यान दिया गया।
प्रधानमन्त्री ने अपनी छवि निर्मित की। उनकी छवि-निर्मिति में गोदी मीडिया की, नव्य तकनीक की, सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही। कॉरपोरेट पहले भी थे, मनमोहन सिंह के समय भी थे, पर वे अधिक शक्तिशाली बने 2014 के बाद, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद। प्रधानमन्त्री ने अपना कद बढ़ाया। चाटुकारों की फौज बढ़ती गयी। उन्हें ‘विष्णु का अवतार’ कहा गया, यह भी कहा गया कि पूर्व जन्म में वे शिवाजी थे। जयभगवान गोयल की किताब है ‘आज के शिवाजी नरेन्द्र मोदी’। धर्मोन्माद बढ़ाने में, घृणा फैलाने में, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य बढ़ाने में, मन्दिर-मस्जिद का जाप करने में ऐसे लोग पहले नदारद थे। प्रधानमन्त्री ने अपनी एक धार्मिक-अध्यात्मिक छवि बनायी। अपने को सभी देशवासियों से जुड़े रहने की बार-बार बात कही। “मोदी हाथ नहीं मिलाता, बल्कि 140 करोड़ लोगों का हाथ होता है।” क्या सच में वे हर पल औरों के लिए जीते हैं? 140 या 144 करोड़ भारतीयों में लगभग 20 करोड़ मुसलमान हैं, क्या प्रधानमन्त्री उनके लिए भी जीते हैं? वे खुलकर संघ की प्रशंसा करते हैं- “सौ साल में संघ ने समर्पित भाव से कार्य किया। ऐसे पवित्र संगठन से मुझे संस्कार मिला। ‘लाइफ ऑफ परपस’ मिला। रामकृष्ण मिशन, विवेकानन्द, संघ के विचार ने मुझे गढ़ा। क्या आर एस एस के विचार रामकृष्ण और विवेकानंद के विचार से साम्य रखते हैं। संघ के विचार गोलवलकर के विचार हैं। अभी तक किसी ने रामकृष्ण, विवेकानन्द और गोलवलकर के विचारों में समानता नहीं देखी है।
तकनीक के अत्याधुनिक समय में धर्म और मज़हब की बात करना सबके लिए घातक और नुकसान देह है। देश में समस्याएँ पहले से ही विद्यमान थीं, पर उन सभी समस्याओं से आँख मूंदकर हिन्दू-मुसलमान करना देश को नये सिरे से विभाजित करना भी है। उन्माद, भय, आतंक, घृणा की राजनीति ने देश को अंधी सुरंग में लाकर छोड़ दिया है। यह कार्य आरएसएस, भाजपा और प्रधानमन्त्री ने जिस योजनाबद्ध ढंग से किया है, उस पर राजनीतिक दलों का अब भी ध्यान नहीं जाता।
लोकसभा चुनाव (2024) के पहले विरोधी दलों ने जिस तरह मिल-जुलकर ‘इण्डिया’ गठबंधन बनाया था, वह फिलहाल बिखरा हुआ है। जिस समय राजनीतिक दलों की बड़ी भूमिका थी, देश को भयमुक्त, घृणा-मुक्त करने की जिम्मेदारी थी, उस समय उसने अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया। सबके अपने-अपने स्वार्थ प्रमुख रहे हैं- ‘स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लंठन हमारा’। भाजपा की शक्ति संघ की शक्ति है। संघ के कार्यकर्ता आज भी कम समर्पित नहीं हैं। वैसा समर्पण भाजपा के सदस्यों में नहीं है। चुनाव के समय संघ भाजपा को जिताने में सक्रिय हो जाता है, धन-दौलत का अभाव भाजपा में नहीं है। उसके पास अकूत धन-सम्पदा है। विधायकों-सांसदों की खरीद उसके लिए जायज है। उसने राजनीति से नैतिकता और शुचिता समाप्त कर दी है। राजनीति में क्रय-विक्रय का सिलसिला जारी है। इससे बात न बनी, तो ईडी है, इनकम टैक्स है, सीबीआई है। बच कर नहीं जाया जा सकता। यह भारत का अंधकार-काल है, जिसे 5 ट्रिलियन और 2047 की बातें कर समाप्त नहीं किया जा सकता।
भविष्य वर्तमान से जुड़ा होता है और संकट बढ़ा दिया गया है। युवा शक्ति खामोश और निष्क्रिय नहीं, तो अधिक सक्रिय भी नहीं है- भारत में एक हजार दो सौ के लगभग विश्वविद्यालय हैं, जिनमें 17 महिला विश्वविद्यालय हैं। 45 हजार कॉलेज हैं। उच्च शिक्षा में छात्रों-छात्राओं की संख्या 4 करोड़ 14 लाख से अधिक है। सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्तियों को देखें, प्रोफेसरों एवं अन्य प्रमुख पदों पर कार्यरत व्यक्तियों को देखें, अधिसंख्य संघ के समर्थक हैं। गुणवत्ता और योग्यता का अब वहाँ कोई अर्थ नहीं है। बाल मानस और युवा मानस पर संघ का कब्जा बढ़ा है। पाठ्यक्रम बदल दिया गया है, वैज्ञानिक चेतना के स्थान पर धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना को बढ़ावा दिया गया। संघ एक साथ जितने मोर्चों पर कार्यरत-युद्धरत है, उससे सब परिचित नहीं हैं। वह भारतीय ज्ञान-परम्परा को हिन्दू ज्ञान-परम्परा एवं ब्राह्मणवादी परम्परा के रूप में प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में होने वाली संगोष्ठियों को देखें, समझें, जो इन दिनों भारतीय ज्ञान-परम्परा के रूप में आयोजित की जा रही हैं। यह सब एक हिन्दू मानस के निर्माण के निमित्त है। ज्ञान की अपनी एक संघीय राजनीति है, इतिहास और परम्परा को देखने की अपनी एक संघीय दृष्टि है, जो अब पूरी तरह फैल चुकी है।
देश एक ख़तरनाक दौर में है। इसे पहचानने वाले कम नहीं हैं। केवल लिखने-बोलने से दृश्य नहीं बदलेगा। राजनीतिक दलों की चिन्ता में केवल चुनाव है, सीट वृद्धि है।
हमारे देश की जनसंख्या 1 अरब 46 करोड़ से अधिक है। 28 राज्य और 8 केन्द्रशासित प्रदेश में, पूरे प्रदेश में कुल 6 लाख 45 हजार गाँव हैं। 26 दिसम्बर 2024 तक भारत में 788 जिले थे। आईएएस अधिकारी लगभग 7 हजार हैं। आईपीएस 5 हजार से अधिक हैं। साढ़े 17 हजार से अधिक थाने हैं। कार्यपालिका, विधायिका न्यायपालिका के कार्य से हम परिचित-प्रभावित हैं। देश पर कंट्रोल एक व्यक्ति और एक संस्था का है।
महात्मा गाँधी के परपोते तुषार गाँधी (अरुण मणिलाल गाँधी के पुत्र, मणिलाल गाँधी के पौत्र) ने पिछले महीने केरल में दिये अपने एक वक्तव्य में मुल्क को बचाने की बात कही है। हमारे मुल्क को कैंसर ने ग्रस्त कर लिया है और वह आरएसएस है। गाँधी के सपनों के भारत को जिन्दा रखने के लिए इससे मुकाबला करना होगा। आरएसएस एक जहरीली संस्था है। आसएसएस मुल्क के साथ गद्दारी कर रहा है, देश ‘कैंसर टर्मिनल’ के एक कदम पीछे है। कैंसर पूरे शरीर में फैल चुका है। भारत को बचाने के लिए रेडिएशन थेरेपी करना होगा। अब रेडिएशन की ज़रूरत है, कीमो की नहीं। हमारे विचार ही हथियार हैं। टर्मिनल स्टेज कैंसर की अन्तिम अवस्था है। यह चौथा स्टेज है जिसे मेटास्टेटिक कैंसर भी कहा जाता है, जो शरीर के अन्य भागों में फैल जाता है। सारा परिदृश्य हमारे सामने है। कैंसर ग्रस्त भारत का इलाज क्या चुनाव से सम्भव है?