सामयिक

समय का ये पल थम सा गया

 

आज हम एक ऐसे समय से गुजर रहे हैं, जहाँ सिर्फ देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया भय के माहौल में सिमटा हुआ है। कुछ लापरवाही कहें या गैर-जिम्‍मेदारी, कारण कुछ भी हो लेकिन सच्‍चाई सिर्फ यह है कि आज हम ‘कोरोना’ जैसे महामारी की चपेट में आ चुके हैं। इस बीमारी से निपटने के लिए जनता घरों में रहने को मजबूर है। कोरोना के इस दौर ने  समय को जिस तरीके से अपनी मुट्ठी में बांध रखा है, वह बरसों तक याद किया जायेगा। हिन्दी फिल्‍मों में विभाजन आदि जैसे जिन दृश्‍यों को देखकर हमारा मन विचलित हो उठता था, आज उन्‍हीं दृश्‍यों को अपनी नजरों के सामने से साक्षात गुजरते हुए देखना, किसी असहनीय और अमिट पीड़ा से कम नहीं।Covid 19: Chhattisgarh Lock Down All Shops Transport Closed 31 ...

दिन भर चहलकदमी वाली सड़के सन्‍नाटे के साये में सिमटी हुई है। इन सड़कों को देखकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि कोई सुरसा (मिथक के अनुसार) मुँह खोले लोगों को निगलने के लिए तैयार खड़ी हो और जिसके भय से सभी अपने घरों में छिपे बैठे हैं। भूख और प्‍यास से बिलखते समाज का निचला तबका इस काल से गुजरने की कोशिश में हर तरह की पीड़ा सह रहा है, लेकिन एक काल के मुँह से दूसरे काल तक उनका प्रवेश रोक पाना शायद ही संभव हो पा रहा है।

गम्भीर संकट में वैश्विक अर्थव्यवस्था 

यह वह तबका है जो दो वक्‍त की रोटी के लिए अपने घरों में छिपकर बैठ भी नहीं सकता। अगर बैठता है तो एक बात तय है कि महामारी से हो या न हो भूख से इनकी मौत सुनिश्चित है। वह वर्ग जिनके पास पैसे आने के साधन उपलब्‍ध है, वे तो अपने घरों में बैठकर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा रहे हैं। वहीं एक दूसरा वर्ग पेट में निवाला उतारने के लिए टकटकी लगाये इंतजार में बैठा रहता है कि कोई आये और इनकी भूख मिटा जाये।Jai Bhim: छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष

बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर ने जिस गैर-बराबरी को मिटाने के लिए लम्बा संघर्ष किया, अपने परिवार तक को दरकिनार कर दिया ताकि अन्तिम जन तक समानता पहुँच सके, वह स्‍वप्‍न समाज से निकलकर अब सड़कों पर भी धाराशायी होते साफ-साफ देखा जा सकता है। बाबा साहब ने जिस संविधान को हथियार के तौर पर समाज के तमाम वर्गों के बीच में पेश किया वे आज फिर उस हथियार से लड़ने में असमर्थ प्रतीत हो रहा है।

रक्त के मिश्रण से ही अपनेपन की भावना पैदा होगी

मजदूर, महिलायें, बूढ़े, बच्‍चे हर वर्ग के लोगों (तथाथित अमीर वर्ग को छोड़कर) को सड़कों पर रोते-बिलखते अथवा संघर्ष करते इन दिनों और भी आसानी से देखा जा सकता है। लेकिन एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि संवैधानिक समानता के बावजूद, एक तरफ तो इस पिछड़े और निम्‍न तबके को समानता से वंचित रखा जाता है। वहीं दूसरी तरफ उसी संविधान अथवा नियमों और कानूनों का हवाला देकर इस तबके को दंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा जाता। इसका सबसे ज्‍वलंत उदाहरण है यात्रियों के साथ किया गया भेदभाव।

एक तरफ तो विदेशों में फंसे हुये यात्रियों को तरह-तरह के सरकारी मदद देकर उनकी घर वापसी करायी गयी, वहीं दूसरी ओर अचानक हुये लॉकडाउन में फंसे मजदूरों को किसी तरह की सुविधा तबतक मुहैया नहीं कराया गया, जबतक उसका मीडिया ट्रायल नहीं हुआ। इन बेबस मजदूरों पर लाठियाँ बरसायी गयी, सड़कों पर उट्ठक-बैठक कराया गया। इन सबके बावजूद इनकी घर वापसी न कराकर फुटपाथ पर रहने के लिए छोड़ दिया गया। कैम्‍पों में जानवरों की तरह रहने को मजबूर किया गया। शायद यही कारण है, जिसके लिए ‘सोशल डिस्‍टेंसिंग’ जैसे शब्‍द का इस्‍तेमाल इस महामारी के समय में किया जा रहा है।

क्या प्रधानमन्त्री के सामने तालाबन्दी ही एकमात्र रास्ता था?

यह ‘सोशल डिस्‍टेंसिंग’ न रहकर ‘क्‍लास (वर्ग) डिस्‍टेंसिंग’ में तब्दिल हो गया है। सड़कों और आस-पड़ोस में इनसे अछूतों जैसा व्‍यवहार करने वाले लोग इन दिनों बहुत ही आसानी से देखा जा सकता है। इनमें से अधिकांश वे लोग भी हैं जो देश के प्रधानमंत्री में आह्वाहन पर थाली, ताली बजाते हैं, मोमबत्‍ती और दीये जलाते हैं लेकिन उन्‍हीं के आह्वाहन पर लॉकडाउन के कारण काम पर नहीं आने के कारण अपने बाईयों और अखबार वालों को वेतन नहीं  देते हैं। इस तरह ‘फीजिकल डिस्‍टेंसिंग’ का प्रयोग न करके ‘सोशल डिस्‍टेंसिंग’ का प्रयोग किये जाने का दुष्‍परिणाम स्‍पष्‍ट तौर पर चरितार्थ होते देखा जा सकता है जो कि असमानता का ही प्रतीक है, जो  हर जगह आसानी से देखा जा सकता है।Human Traffing Not Stop In Chhattisgarh - छत्तीसगढ़ ...

घर वापसी से लेकर कई अन्‍य जगहों पर भी मजदूर और निम्‍न वर्ग के लोग इस असमानता के शिकार हुये हैं। लॉकडाउन में इनके लिए रहने और खाने-पीने की कोई उचित व्‍यवस्‍था नहीं की गयी। इस कारण भी यह वर्ग पलायन के लिए मजबूर हुआ।अपने घर लौटने वाले मजदूर वर्ग को परिवहन सुविधा तक नहीं मिली। किसी तरह से पैदल, साईकिल आदि से चलकर हजारों किलोमीटर का सफर तय करके वे घर पहुँच भी गयें, तो उन्‍हें गाँव के अन्दर नहीं घुसने दिया जा रहा है, जिसे मदद के दौरान खुद बातचीत में इन लोगों के द्वारा हमे बताया गया। क्‍या विदेशों से आने वाले लोगों को ऐसी असुविधा का सामना करना पड़ा? जबकि यह विदेशों से ही फैली बीमारी है।

पलायन करते मजदूरों को कोरोना का नहीं ... तो फिर प्रवासी भारतीयों और विदेशियों को समय रहते क्‍यों नहीं रोका गया? आज इस सब का जिम्‍मेदार तो अपने घर में बैठकर आराम से जीवन व्‍यतीत कर रहा है, वहीं एक अबोध और संघर्षरत समाज इन सबका दुष्‍परिणाम झेलने को मजबूर है।

कोरोना काल का सकारात्मक पहलू-डिजिटल होता भारत

उनमें से कई की जिन्दगी तो सड़कों पर ही थम गयी तो कई की जिन्दगी भूख के दामन में सिमट गयी। आज यह वर्ग तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद भरपेट भोजन के लिए तड़प रहा है। इनके पास दवाई तक के लिए पैसे नहीं है। कुछ जगहों पर राशन के नाम पर सिर्फ चावल और नमक दिया गया है, जिसे बच्‍चे खाने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में रोग प्रतिरोधक क्षमता का क्‍या हाल होगा, इसे बखूबी समझा जा सकता है।

Hundreds Of People Fleeing In The Dark Every Day Due To Lockdown ...

फिलहाल जो स्थिति हमारे सामने पैदा हुई है, उसे देखकर एक बात तो तय है कि देश की अर्थव्‍यवस्‍था आज नहीं तो कल पटरी पर आ जायेगी, लेकिन इस मजदूर अथवा निम्‍न तबके के लोगों की जिन्दगी को पटरी पर लाना बेहद मुश्किल होगा। इस बीमारी की चपेट में जो लोग आये हैं और आ रहे हैं, उनमें से कई की मौत तो हो ही गयी है। लेकिन इस बीमारी के मद्देनजर जो एहतियात बरते जा रहे हैं, उसके कारण भी एक बड़ा तबका बिना इस बीमारी के ही तिल-तिल मरने को मजबूर है।

 कई जगहों पर तो टीवी पर सुने और देखे जाने वाले अधिकांश सुविधायें अथवा घोषणायें खोखले साबित हो रहे हैं। निम्‍न वर्ग के लोगों को खासतौर पर, कहीं एम्‍बुलेंस नहीं दिया जा रहा, तो कहीं फोन करने के बाद भी उन्‍हें अस्‍पताल नहीं ले जाया जा रहा है या उनका ईलाज सही तरीके से नहीं किया जा रहा है। जहाँ क्‍वारंटीन किया जा रहा है वे भी बदहाल अवस्‍था में है। मास्‍क और सेनेटाईजर के नाम पर कुछ भी नहीं दिया जा रहा।

कई राज्‍य सरकारों के पास तो वेंटिलेटर भी नाम मात्र ही है और जो सुविधायें हैं वे भी भ्रष्‍टाचार के भेंट चढ़ रहा है। राशन से लेकर दवाईयों तक में कालाबाजारी इस विकट काल में भी जारी है। छोटे-मोटे रोजगार करने वालों से निरन्तर मारपीट के साथ-साथ जबरन वसूली भी की जा रही है। वहीं संभ्रात वर्ग के लोगों को शायद ही कहीं डंडे और वसूली का शिकार होना पड़ रहा है।

लॉकडाउन के दौरान घरों में लॉक होकर सूकून से बैठकर इतिहास के झरोखे से रामायण और महाभारत देखते हुए उसमें होने वाले होने वाले युद्ध का आनन्द ले रहे हैं। वे लोग इस बात से शायद अनभिज्ञ हैं कि सड़कों पर पैदल चलने वाले लोग भी जिन्दगी से युद्ध लड़ रहे हैं और यह भी एक कालजयी इतिहास का हिस्‍सा बनेगा, जिसे एक समय बाद लोग फिर से टीवी पर देखेंगे और सुनेंगे, जो अखबारों की सुर्खियाँ बनेगा।

रामायण और महाभारत में लिप्‍त ऐसे इतिहास से थोड़ा बाहर वर्तमान में झांकते और संघर्षरत वर्ग की मदद के लिए हर हाथ उठता तो शायद उनका दुख-दर्द कुछ कम किया जा सकता था। मदद के दौरान कुछ मजदूरों से हुई बातचीत में यह बात भी सामने आई कि सरकार सुविधायें नहीं दे रही है। हमे एक वक्‍त का खाना मिलता है तो कोई जरूरी नहीं कि दूसरे वक्‍त भी खाना मिल जाये। जो खाना मिलता भी है, वह भी पेट भरने लायक नहीं होता। वहीं प्रशासन द्वारा यह कहा गया कि मदद देने के बावजूद वे घर जाने की जिद्द पर अड़े हैं।डॉ भीम राव आंबेडकर - Meghwal Samaj (मेघवाल ...

    आज बाबा साहब की जयन्ती पर मुझे यह कहते हुए बेहद दुख हो रहा है कि एक महामारी में भी जो असमानता एक लोकतान्त्रिक और संवैधानिक देश में देखी गयी है वे निश्‍चय ही बाबा साहब के सपनों को चोटिल करता प्रतीत हो रहा है। सदियों से व्‍याप्‍त गैर-बराबरी आज तक नहीं मिट पायी और किसी-न-किसी रूप में वे आज भी समाज में मौजूद है। इस अव्‍याप्‍त असमानता में समय का ये पल और भी थम सा गया है।

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अमिता

लेखिका स्वतंत्र लेखक एवं शिक्षाविद हैं। सम्पर्क +919406009605, amitamasscom@gmail.com
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