स्त्रीकाल

हे स्त्री तुम सिर्फ देह नहीं हो

10 फरवरी 2025 को पूरे देश में उस समय खलबली मच गयी, जब छत्तीसगढ़ के एक न्यायधीश ने फ़ैसला सुनाते हुए यह कहा कि पति का पत्नी के साथ जबरन अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध बनाना सज़ा के दायरे में नहीं आता है। यह मामला मैरिटल रेप का था, जिसमें छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के जस्टिस नरेंद्र कुमार व्यास की एकलपीठ ने अपने फ़ैसले में पीड़िता के पति को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (बलात्कार), 377 (अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध) और 304 (गैर-इरादतन हत्या) के मामलों में दोष मुक्त करार दिया और अभियुक्त को तुरन्त रिहा करने का आदेश दिया। जस्टिस व्यास ने कहा, “अगर पत्नी की उम्र 15 साल या उससे अधिक है तो पति का अपनी पत्नी के साथ यौन सम्बन्ध बनाना बलात्कार नहीं माना जाएगा। ऐसे में अप्राकृतिक कृत्य के लिए पत्नी की सहमति नहीं मिलना भी महत्वहीन हो जाता है।”

ज्ञात हो कि छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के एक 40 वर्षीय व्यक्ति ने पत्नी के साथ बलपूर्वक और अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध बनाए जिसकी वजह से उसकी मृत्यु हो गयी। पीड़िता ने अपनी मौत से पहले इस मामले में बयान भी दिया था। इलाज के दौरान पीड़िता की मृत्यु हो जाने की वजह से यह मामला सरकार के तरफ़ से लड़ा गया। मई 2019 में जिला न्यायालय ने पीड़िता के पति को बलात्कार, अप्राकृतिक कृत्य और गैर-इरादतन हत्या के लिए दोषी ठहराया और उसे 10 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। पीड़िता के पति ने जिला न्यायालय के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील की, जिसके बाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फ़ैसले को खारिज करते हुए पीड़िता के पति को बरी करने का आदेश दे दिया।

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के इस फ़ैसले ने वैवाहिक सम्बन्धों को लेकर एक बड़ा सवाल खड़ा किया है, जिसमें शारीरिक सम्बन्धों में पत्नी की सहमति-असहमति को महत्वहीन बता दिया गया। ऐसी स्थिति कमोबेश बनी रहती भी है, जहाँ पत्नी की सहमति-असहमति गृहस्थ जीवन में आज भी अधिकांश घरों में मायने नहीं रखता है। न्यायधीश का फैसला समस्त मानव समुदाय के लिए बेहद निराशाजनक है, खासतौर पर देश की आधी आबादी के लिए। यह मानवजाति को शर्मसार करने वाला फैसला है, जिसे सही करार देने के लिए ये कहा गया कि कानून में इसे अपराध ठहराने का कोई प्रावधान नहीं है। ज्ञात हो कि किसी भी प्रकार की हिंसा कभी भी अपराध से मुक्त नहीं हो सकता, भले ही वह मानसिक ही क्यों न हो। इस बात से भी लोग भलीभांति परिचित हैं कि इंसान के लिए नियम होते हैं न कि नियमों के लिए इंसान। देश में कई ऐसे जज हैं जो अपने फैसले के माध्यम से एक उदाहरण पेश कर रहे हैं। कानून में निरन्तर बदलाव अथवा संशोधन होते रहे हैं। नये-नये कानून भी बन रहे हैं।

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में पति-पत्नी के सम्बन्धों को लेकर जिस प्रकार का फैसला दिया गया, वह कोई एक दिन की उपज नहीं है बल्कि सदियों से चली आ रही उस पितृसत्तात्मक समाज की देन है, जहाँ महिलाओं को सिर्फ एक देह के रूप में देखा गया। आज भी पुरूष प्रधान प्रवृति ही घरों में भी हावी होती है। सदियों से उन्हें भोग-बिलास की वस्तु समझा गया। उनकी भी अपनी इच्छायें, भावनाएं होती है। वह भी इंसान ही है, कोई देवी या वस्तु नहीं, इसे आज भी बहुत कम लोग ही समझ पाये हैं। वह पुरूष जो एक स्त्री के साथ सात फेरे लेता है, साथ जीने-मरने की कसमें खाता है, उसे अपने अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करता है, वही पुरूष अपने मजे के लिए उसे ऐसी सजा कैसे दे सकता है? हवस में अन्धे लोग अपनी पत्नी के भी दुख-तकलीफ को नहीं समझ सकते तो फिर कैसा जीवन साथी। ऐसे पुरूषों के लिए विवाह सिर्फ वासनापूर्ति का एक जरिया मात्र है। ऐसे लोग जानवरों से भी बद्तर श्रेणी में होते हैं। लेकिन पत्नी परम्पराओं और समाज के दबाव में सबकुछ चुपचाप सहती रहती है।

महिलाओं पर परम्परा का बोझ डालने के लिए ही ‘धर्मपत्नी’, ‘पतिव्रता’ जैसे शब्द तो हैं, लेकिन ‘धर्मपति’, पत्निव्रता की संकल्पना अबतक नहीं आ पायी। तभी तो अधिकांश पत्नी आज भी अपने पति की हर ख़ुशी और इच्छा को पूरा करना अपना धर्म समझती हैं। उनकी लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती हैं। फूलन देवी भी सबसे पहले इसी विवाह जैसी संस्था की ही शिकार हुई थी और धीरे-धीरे परिस्थितियों ने उन्हें बागी बना दिया। हाल ही में प्रदर्शित वेब सीरीज ‘क्रिमिनल जस्टिस’ इसी वैवाहिक संस्था को कटघरे में खड़ी करती हुई प्रतीत होती है, जहाँ पति हर रात अपनी पत्नी के साथ क्रूरता के साथ सम्बन्ध बनाता है और उसे लहूलुहान कर देता है, जिससे तंग आकर एक दिन वह अपने पति का खून कर देती है। इस हिंसा को ‘भाग मिल्खा भाग’ फिल्म में भी दिखाया गया था, जो यही प्रदर्शित करता है कि एक स्त्री की परेशानियों और इच्छाओं से बढ़कर मर्द की हवस होती है।
मेरे सम्पर्क में भी कुछ ऐसी महिलाएं आयी, जिन्होंने ऐसे ही हिंसात्मक रिश्ते की बात कही। सिर्फ इतना ही नहीं सम्बन्ध बनाने से इनकार करने पर उनके ऊपर चारित्रिक लांछन लगाकर प्रताड़ित किया जाता है, जिससे वे आजाद तो होना चाहती हैं लेकिन समाज का डर ऐसा करने से रोकता है। ऐसी ही एक रिपोर्ट 27 फरवरी को ‘दैनिक भास्कर’ में भी प्रकाशित हुई थी, जिसमें एक महिला सन्यासी ने बताया कि कितनी क्रूरता के साथ उसका पति हर रात उसके साथ सम्बन्ध बनाता था, इन्फेक्शन होने के बाद भी उसे नहीं छोड़ता था। वह चलने तक में असमर्थ हो जाती थी, जिसके कारण वह लगतार बीमार रहती थी, जिससे तंग आकर उसने गृहस्थ जीवन को त्याग दिया और सन्यासी बन गयी। ऐसी घटनायें निरन्तर बढ़ रही है, जिसमें इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। लेकिन सबसे बड़ा दोष है, मर्दवादी सोच का।

लगातार बढ़ रही बलात्कार की घटनायें हो या कास्टिंग काउच की, सभी में महिला को सिर्फ और सिर्फ देह के रूप में ही देखा जाता है। वे शायद आजतक यह नहीं समझ पाये हैं कि किसी वेश्या के साथ भी जबरदस्ती नहीं की जा सकती है। विज्ञापनों में भी महिलाओं को एक देह के रूप में ही प्रदर्शित किया जा रहा है। फिल्मों में भी कैबरे डांस, आयटम सॉंग उनके देह का ही प्रदर्शन रहा है और फ़िल्में सुपरहीट करने के लिए यह फंडा अरसे से इस्तेमाल किया जाता रहा है। महिलाओं को ‘माल’ कहकर सम्बोधित करना भी इसी सामाजिक सोच का नतीजा है। आज भी अधिकांश पुरूष महिलाओं को देह के रूप में ही देख रहे हैं। किसी के साथ थोड़ा हंस-बोल लो तो भी लोग सीधे देह तक ही पहुंचने की कोशिश करने लगते हैं और अंत में दोषी भी महिलाओं को ही करार दिया जाता है। आज तक कोई पुरूष वेश्या, कुलटा, चरित्रहीन शायद ही कहलाया लेकिन महिलायें सदियों से ऐसी उपाधियों से नवाजी जाती रही हैं।

महिलाओं को सशक्त बनाने, अधिकारों के प्रति जागरूक करने, उन्हें हिंसा से मुक्त करने तथा समाज में लिंग आधारित भेदभाव समाप्त करने के लिए 1975 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा महिला दिवस की अधिकारिक घोषणा की गयी, किन्तु स्थितियाँ आज भी कमोबेश वैसी ही बनी हुई है। इस स्थिति में सुधार के उद्देश्य से ही प्रति वर्ष एक खास थीम के साथ महिला दिवस मनाया जाता है। इस बार का थीम ‘महिलाओं को समानता देने में तेजी लाने (एक्सीलरेट एक्शन)’ पर फोकस करना है। इस थीम के जरिए महिलाओं की बराबरी में बाधा डालने वाले सिस्टम को खत्म करने की कोशिशों में भी तेजी लाना है। इसका मकसद सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना है। परन्तु, आज भी यह दिवस अपने उद्देश्यों में बहुत हद तक असफल होता ही दिख रहा है। ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के नारे से लोगों को जगाया जा सकता है, लेकिन सामाजिक सोच को बदलना आज भी मुश्किल है। ‘लाडली बहन योजना’ हो या ‘महतारी वंदन योजना’, इससे महिलाएं आर्थिक रूप से थोड़ी समृद्ध हुई हैं, किन्तु सशक्त नहीं। सरकार महिलाओं के उत्थान के लिए प्रयासरत तो है परन्तु, उनकी सशक्तिकरण के लिए जो व्यवस्था चाहिए, उसमें आज भी बेहद कमी नजर आती है।

अधिकांश प्रावधान सिर्फ कागजों पर ही है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी महिलाओं की ऐसी स्थिति चिन्ताजनक है। उनकी स्थितियों में कुछ बदलाव तो आया है, लेकिन अभी बहुत कुछ बदलना बाकी है। महिलाओं का शोषण आज भी ख़त्म नहीं हुआ है, बल्कि उनके शोषण का स्वरूप बदल गया है। आज जरूरत है वैसे पुरूषों को सामने आने के जिनके होने से महिलाओं को हमेशा बल मिला है, जिन्होंने ने महिलाओं के जीवन को सदैव नई दशा-दिशा प्रदान की। साथ ही महिलाओं को भी यह समझना होगा कि वह सिर्फ देह नहीं है। उनका अपने ऊपर पूरा अधिकार है। उनके साथ किसी को भी जोर-जबरदस्ती करने का कोई अधिकार नहीं है, भले ही रिश्ते में वह पति ही क्यों न हो। हर स्त्री को यह स्वीकार करना होगा कि वह सिर्फ देह नहीं है।

.

Show More

अमिता

लेखिका स्वतंत्र लेखक एवं शिक्षाविद हैं। सम्पर्क +919406009605, amitamasscom@gmail.com
4.4 7 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
2
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x