पारिस्थितिकीय संहार का अपराधीकरण
पारिस्थितिकीय संहार की अभी तक कोई स्वीकृत कानूनी परिभाषा तो नहीं है लेकिन इस पद के अन्तर्गत उन गैर कानूनी और घातक मानवीय कृत्यों को रखा जाता है, जिनके कारण पर्यावरण पर बहुत व्यापक और दीर्घकालीन गम्भीर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और जिनके कर्ता अपने इन कृत्यों के सम्भावित दुष्परिणामों से अनभिज्ञ नहीं होते। मानव समुदायों विशेषत: आदिवासियों और जीव-जन्तुओं के अधिवासों और पर्यावरण का विध्वंस करने वाली सरकारी और निजी परियोजनाओं को पारिस्थितिकीय संहार के अन्तर्गत रखा जा सकता है। बन्दरगाहों के विस्तार के कारण समुद्री जीवों और वनस्पतियों की क्षति कोई छिपी बात नहीं है। इससे स्थानीय लोगों की परम्परागत आजीविका पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अवैध बालू के खनन, नदियों में होने वाले प्रदूषण, तेलवाहक जहाजों से होने वाले रिसाव, अमेजन के जंगलों की आग और भोपाल गैस काण्ड जैसी औद्योगिक दुर्घटनाओं आदि को हम पारिस्थितिकीय संहार के अन्तर्गत रख सकते हैं।
जानबूझकार जीव-जन्तुओं और वनस्पितियों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाना, हवा और जल में औद्योगिक अपशिष्टों आदि द्वारा ज़हर घोलना और पारिस्थितिकीय आपदा का हेतु बनने वाली तमाम मानवीय गतिविधियाँ इसी श्रेणी में परिगणित की जाती हैं। पर्यावरण प्रदूषण से होने वाली मौतों और बीमारियों के बढ़ते ग्राफ के साथ पारिस्थितिकीय संहार को अपराध घोषित करके दोषियों को कानून के दायरे में लाकर दण्डित करने की चर्चा जोर पकड़ती जा रही है। इसे जनसंहार की तर्ज़ पर अन्तर्राष्ट्रीय अपराध घोषित किये जाने के लिए भी देशज जन समुदाय लामबन्द होने लगे हैं। पर्यावरणविद और प्रकृतिप्रेमी भी इस दिशा में सक्रिय देखे जा सकते हैं। तापमान में होती वैश्विक वृद्धि के साथ जलवायु दशाओं में जो अभूतपूर्व प्रतिकूल बदलाव हो रहे हैं, उनके कारण बाढ़ और अकाल की आवृत्तियों में चिन्ताजनक स्तर तक यादृच्छिकताएँ देखने को मिल रही हैं। केदारनाथ की आपदा और हालिया हिमाचल की बाढ़ को मात्र कुदरत का कहर कहकर निजी क्षेत्र के साथ-साथ हमारे देश के नीति निर्माता भी विकास की अपनी कथित राष्ट्रवादी भूख की जवाबदेही से बच नहीं सकते।
पारिस्थितिकीय संहार को लेकर बढ़ती जागरुकता के बीच अच्छी बात यह है कि दुनिया के 11 देशों में पारिस्थितिकीय संहार पहले ही अपराध घोषित हो चुका है और 27 देश पर्यावरण की सचेतन क्षति के अपराधीकरण की दिशा में कार्यरत हैं। यहाँ तक कि यूरोपीय संघ भी इस साल सर्वसम्मति से पारिस्थितिकीय संहार को अपराध की श्रेणी में डालने का निर्णय कर चुका है। जहाँ तक हमारे देश की बात है, तो कुछ अदालती निर्णयों में पर्यावरणीय विनाश के लिए सम्बन्धित कम्पनी आदि को दोषी भी ठहराया गया है और कई मजबूत कानून भी हमारे यहाँ विद्यमान हैं, जैसे पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 और प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम 2016 आदि। वैसे एक ओर जहाँ पर्यावरण विषयक देश के सर्वोच्च सांविधिक निकाय अर्थात राष्ट्रीय हरित अधिकरण को पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण जैसे अधिनियमों से जुड़े मामलों में दखल का क्षेत्राधिकार नहीं है, वहीं दूसरी ओर हमारी वर्तमान संघीय सरकार पारिस्थितिकीय संहार को वैधानिकता प्रदान करने वाली है, जैसे वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 और जैव विविधता (संशोधन) विधेयक 2023 जैसे विवादास्पद प्रस्तावित कानून। पर्यावरणविदों का मानना है कि इन विधेयकों के कानून बन जाने पर देश के कुल वन क्षेत्र में चिन्ताजनक स्तर तक कमी आ सकती है।
पारिस्थितिकीय संहार को अन्तर्राष्ट्रीय अपराध घोषित करने की मुहिम में अग्रणी नाम रहे हैं – जीवविज्ञानी आर्थर गैल्स्टन, स्वीडिश प्रधानमन्त्री ओलोफ पाल्मे। ब्रिटिश अधिवक्ता पॉली हिगिन्स ने 2010 में अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय के समक्ष भी यह माँग रखी थी। आज की तिथि में अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय की रोमन संविधि अन्तर्गत चार क्रूरताओं को वैश्विक अपराध की श्रेणी में मान्यता प्राप्त हैं: जनसंहार, मानवता विरोधी अपराध, युद्ध अपराध और आक्रमण विषयक अपराध। इनमें से युद्ध अपराध के अन्तर्गत ही पर्यावरण विनाश के लिए उत्तरदायी दोषी को जवाबदेह ठहराया जा सकता है। ध्यातव्य है कि वियतनाम युद्ध में एजेंट ओरेंज जैसे घातक रासायनिक हथियार के इस्तेमाल से पारिस्थितिकी पर घातक दुष्प्रभाव पड़ा था और उसके लिए अमेरिका को युद्ध अपराधी घोषित करने की आवाज़ भी जबर्दस्त ढंग से उठाई गयी थी।
पारिस्थितिकीय संहार के कारण प्रकृति की जो व्यापक क्षति होती है, उसके कारण प्रभावित भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों को अल्पकालीन के साथ-साथ दीर्घकालीन अवधि में बड़े स्तर पर जन-धन की हानि उठानी पड़ती है। प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के कारण उनके आजीविका के स्रोत और अस्तित्व के आधार तक खत्म हो जाते हैं और इसका परिणाम होता है अपनी मातृभूमि से विस्थापन। जल, जंगल और जमीन से विस्थापित हो आदिवासी समुदाय अपनी आदिवासी पहचान भी खोने को अभिशप्त होता है। यहाँ हमें मनुष्य केंद्रित चिन्तन से ऊपर उठकर आदिवासी दर्शन के अनुसार मनुष्येत्तर जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के सर्वनाश को भी ध्यान में रखना चाहिए और वैसे भी प्राणिमात्र का अस्तित्व पारस्परिकता के एकसूत्र में बंधा होता है। स्पष्ट है कि अब वक्त आ गया है जब प्रकृति के खिलाफ होने वाले अपराधों को जन समुदाय के खिलाफ होने वाले अपराधों की तर्ज़ पर ही वैश्विक अपराध के रूप में देखा जाए किन्तु इसके लिए रोमन संविधि में अपेक्षित संशोधन जरूरी हैं। वास्तव में मौजूदा वैश्विक अपराध कानूनों में से कोई भी पारिस्थितिकीय संहार के लिए दोषी को दण्डित देने में सक्षम नहीं है।
अगर अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय भी इसे अपराध घोषित कर देता है, तो दुनियाभर के देशों पर स्वत: ही इस दिशा में कानून बनाने का दबाव बनेगा। पूँजीवादी विकास के जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं, वहाँ नैतिकता-अनैतिकता के सवाल अब कुछ मायने नहीं रखते। कानून के द्वारा पारिस्थितिकीय संहार के लिए जब कॉरपोरेट की जवाबदेही तय की जाएगी, जब सरकारी और निजी कम्पनियों के शीर्ष नेतृत्व को इस अपराध के लिए दण्डित किया जाएगा और दोषी को क्षतिपूर्ति के लिए बाध्य किया जाएगा, तब ही इस दिशा में कानून का भय कायम हो पाएगा। कोई भी कम्पनी या कॉरपोरेट ऐसी किसी भी परियोजना में निवेश से पहले दस बार सोचने के लिए बाध्य होगा जो पर्यावरण विनाश के लिए उन्हें वैश्विक अपराध के दायरे में लाने वाली हो।
पारिस्थितिकीय संहार के अपराधीकरण के सन्दर्भ में जब कानून निर्माण की बात की जाती है, तो इस प्रकार के कानून की सम्भावित खामियों पर भी विचार करना जरूरी है। इस अपराध की परिभाषा इसप्रकार की नहीं होनी चाहिए कि अपराध के निर्धारण में सन्दिग्धता के चलते अपराधी कानून के हाथों से बच निकले। पारिस्थितिकीय संहार के निर्धारण का मानदण्ड बहुत ढीलाढाला या बहुत उच्च नहीं होना चाहिए। ‘दीर्घकालीन क्षति’ और ‘व्यापक नुकसान’ जैसे पदों के इस्तेमाल से परिभाषा में अर्थ की अस्पष्टता पैदा होती है। विकास बनाम पर्यावरण की बहस खड़ी करके पर्यावरणीय क्षति की तुलना में जन हित की बात करके पारिस्थितिकीय संहार की अनदेखी करने की कोई गुंजाइश कानून में नहीं रखी जानी चाहिए। पारिस्थितिकीय संहार को परिभाषित करते हुए इसके पीछे अपने कृत्य के परिणाम को लेकर अपराधी के संज्ञान और जानते-बूझते अपराध किये जाने को रेखांकित किया जाता है। यहाँ समस्या यह है कि पर्यावरणीय आपदा के पीछे इरादतन पर्यावरण को क्षति पहुँचाने की प्रवृत्ति प्राय: नहीं होती।
स्पष्ट है कि परिभाषा में अगर इस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है, तो दोषी की अपराध सिद्धि की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं। वैसे भी पर्यावरणीय मामलों में अभियोजन की दोषसिद्धि की दर बहुत कम रहती है। स्पष्ट है कि कानून ऐसा बनाया जाना चाहिए ताकि पारिस्थितिकीय अपराधों के लिए कॉरपोरेट जगत को अपराधी साबित करके दण्डित किया जा सके। एक अन्य समस्या कानून के क्षेत्राधिकार की है। पारिस्थितिकीय संहार से जुड़े अपराध का क्षेत्र किसी एक देश विशेष तक सीमित नहीं होता। प्राय: एकाधिक देशों की सीमाओं तक इन अपराधों की व्याप्ति मिलती है। यहाँ ग़ौर करने लायक यह भी है कि प्राय: इन मामलों में अपराधी बहुत ताकतवर होते हैं जबकि पीड़ित पक्ष बहुत कमजोर होता है। उदाहरण के लिए पर्यावरण प्रदूषण का शिकार बनने वाले लोगों की वर्गीय और जातीय स्थिति किसी से छिपी नहीं है।
वास्तव में पारिस्थितिकीय संहार की जवाबदेही निर्धारण के साथ-साथ क्षतिपूर्ति के जमीनी क्रियान्वयन का रास्ता बहुत सारी चुनौतियों से भरा हुआ है। जब किसी औद्योगिक आपदा का असर पीढ़ी दर पीढ़ी आनुवांशिक स्तर पर देखा जाता है और हवा, पानी और मिट्टी में सालों-साल तक ज़हर का असर बना रहता है, तब भी वैश्विक राजनीति और निवेश पर पड़ने वाले कथित प्रतिकूल प्रभाव की आशंकाओं के चलते स्वघोषित राष्ट्रवादी सरकारें तक कोई ठोस कार्रवाई करने में हिचकती देखी जाती हैं। विश्व-शक्तियों की दाब-धौंस के सामने अदालत के निर्णय और राष्ट्र की सम्प्रभुता तक बौने साबित होते देखे जा सकते हैं। कॉरपोरेट पूँजीवाद के सामने कमजोर पड़ते राष्ट्र राज्य में शायद अब इतना दमखम बचा ही नहीं है कि वह पारिस्थितिकीय संहार को लेकर ज्यादा चूँ-चपड़ कर सके!