
आम आदमी के लिए कृत्रिम मेधा के मायने
कृत्रिम मेधा एकमात्र ऐसी तकनीक है जिसने मानवीय बुद्धिमत्ता के विकल्प के रूप में मशीन को खड़ा करने की ज़िद ठान रखी है। जितनी तीव्र गति से यह आगे भाग रहा है, इसमें कोई शक नहीं कि बहुत जल्दी यह मानव बुद्धिमत्ता को पीछे छोड़ देगा। जैसे जैसे इसकी क्षमता का दुनिया को पता चल रहा है, अब उन लोगों को भी डर लगने लगा है जिन्होंने इस तकनीक को सम्भव बनाया है और इसे आगे और परिमार्जित कर रहे हैं।
तकनीक फ़ितरतन असमानता पैदा करती है। इसका मूल कारण तो यह है कि जो समाज इसे एक औज़ार के रूप में प्रयोग करता है वह सामाजिक-आर्थिक और दूसरी विषमताओं से ग्रस्त है। तकनीक की एक क़ीमत होती है और सभी लोग यह क़ीमत चुकाने के काबिल नहीं होते। क़ीमत के अलावा, सभी लोग तकनीक-कुशल भी नहीं होते, और कुछ लोग तो ऐसा कभी नहीं बन पाते। यह परिदृश्य तकनीक को एक ख़ास वर्ग तक सीमित कर देता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता में समाज को उस हद तक बदल देने की क्षमता है कि कल वह अपना ही चेहरा नहीं पहचान सके, तो फिर समाज की आर्थिक-सामाजिक विषमता और निजी मानवीय क्षमता की सीमा – दोनों की युगलबंदी असमानता की पाट को और ज़्यादा चौड़ा और इस खाई को और गहरा कर देगा। और विशेषकर भारतीय सन्दर्भ में कृत्रिम मेधा पर गौर करते हुए हम इस तथ्य को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। डरोन अचेमोग्लू, जो अमेरिका के मेसच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलजी (एमआइटी) के एक नामचीन अर्थशास्त्री हैं, का मानना है कि दुनिया में मशीनीकरण ने असमानता को जन्म दिया है।
कृत्रिम मेधा हमारी जगह हम मानवों की जगह लेने जा रहा है। हमें सोचने और निर्णय लेने के काम से छुट्टी मिल जाएगी। उम्मीद तो यह की जाती थी कि वह हमारे इशारे पर नाचेगा पर अब ऐसा होता नहीं दिख रहा है। जेफ़्री हिंटॉन, जिन्हें कृत्रिम मेधा पर उनके कामों के लिए 2024 में भौतिकी का नोबल पुरस्कार मिल चुका है, का कहना है कि बड़े भाषाई मॉडल जैसे ओपन एआई के जीपीटी-4 को जिस असीम संभावनाओं से उन्होंने लैस पाया है उससे उन्हें चिंता होने लगी है। अब वह इसके गंभीर ख़तरे से लोगों को आगाह कराना चाहते हैं। उनका कहना है कि ओपन एआई के इस मॉडल को देखने के बाद उनको अब यह शक नहीं रहा कि मशीन उनकी उम्मीदों की तुलना में कहीं ज़्यादा स्मार्ट बन रहे हैं। ओपन एआई की शुरुआत करनेवाले लोगों में एक इल्या सुत्सकेवर मशीन लर्निंग पर शोध के दौरान उनके साथ था।
सारी बड़ी तकनीकी कंपनियाँ जैसे अल्फ़बेट, माइक्रसॉफ़्ट, मेटा, आइबीएम, ओपन एआई, नवीडिया/एनवीडिया, अमेज़न, ऐपल, डीपमाइंड, टेस्ला, ऑरकल, इंटेल, एआई ब्रेन, एंथ्रोपिक आदि कृत्रिम मेधा पर काम करनेवाली दुनिया की कुछ प्रमुख कंपनियाँ हैं। दुनिया की संप्रभु सरकारें भी इन पर काम कर रही हैं और दुनिया के सभी अग्रणी विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में इस पर काम हो रहा है। पर हम सब जानते हैं कि किसी कॉरपोरेशन के संसाधनों का मुक़ाबला कोई सरकार नहीं कर सकती। सरकारों के पास ज्यादा संसाधन होता है पर वह सिर्फ इसी काम में अपना सारा पैसा नहीं लगा सकती है। पर कॉरपोरेशन इन बाध्यताओं से मुक्त होता है। इसलिए इस बात की संभावना अधिक है कि कृत्रिम मेधा पर नवीनतम शोध की अंतिम बाज़ी कॉरपोरेशन ही जीते। इस समय लगभग सारी बड़ी कंपनियाँ कृत्रिम मेधा का प्रयोग कर रही हैं और इसके माध्यम से अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाने एवं ज्यादा मुनाफ़ा कमाने में लगी हैं। और यही वह कारण है जिसने दुनिया के कुछ सही सोच वाले अकादमिकों और विशेषज्ञों की नींद उड़ा रखी है।
कृत्रिम मेधा की खुराक डाटा है और इस डाटा को हम आम लोग उत्पन्न करते हैं। और हमारा मोबाइल और कंप्यूटर इन डाटा की गंगोत्री है। जीपीएस (यानी वास्तविक समय में आपके किसी स्थल पर मौजूद होने की जानकारी) वाला स्मार्ट फ़ोन जो इंटरनेट से जुड़ा हो और ऐसी ही व्यवस्था से जुड़ा आपका कंप्यूटर और लैपटॉप। हमारे पूरे दिन भर की गतिविधियाँ अपने पीछे डिजिटल फ़ुट्प्रिंट छोड़ जाती हैं जो डाटा के रूप में डिजिटल संसार में घूमता है। यह चौबीसों घंटे और साल के सभी 365 दिन सक्रिय रहता है। जब हम और आप कुछ नहीं कर रहे होते हैं तो यह भी एक डाटा है।
हमारे मोबाइल में जीपीएस होता है जिससे यह पता चलता है कि वास्तविक समय में हम कहाँ हैं। जब हम कोई चीज़ ख़रीदने के लिए अपने मोबाइल से भुगतान करते हैं या दुकानदार से अपना मोबाइल नंबर साझा करते हैं तो हमारा मोबाइल नंबर भी इस डिजिटल फ़ुट्प्रिंट का हिस्सा बन जाता है। घर से निकलने पर ही नहीं, घर में बैठकर भी आप टीवी पर क्या देखते हैं, कौन सा गाना सुनते हैं, यह सब डिजिटल फ़ुट्प्रिंट में दर्ज़ होता है और साइबर दुनिया में मौजूद होता है। दुनिया भर में ऐसे लोग हैं और उनकी ऐसी एजेंसियाँ हैं जो साइबर दुनिया में बहती डाटा की इस गंगा से डाटा छानकर उसे निगमों और दूसरी एजेंसियों को मोटी रक़म के बदले बेच देती हैं। इस तरह हमारे डिजिटल फ़ुट्प्रिंट से तैयार डाटा दुनिया के हर कोने में पसर जाती है।
बड़ी कंपनियाँ डाटा की ख़रीद बाज़ार से करती हैं। बिग डाटा मार्केट नामक वेबसाइट के अनुसार, 2022 में डाटा बाज़ार का आकार 220.2 अरब डॉलर का था जिसके 2028 तक बढ़कर 401.2 अरब डॉलर हो जाने का अनुमान है। जब हम डाटा बाज़ार कहते हैं तो इसमें डाटा से जुड़ी सारी बातें जैसे सॉफ़्ट्वेर, डाटा विश्लेषण और डाटा का जुगाड़ (डाटा माइनिंग) जैसी सारी बातें आती हैं। इस डाटा बाज़ार में भी एशिया प्रशांत ऐसा क्षेत्र है जिसमें डाटा का विस्फोट सबसे ज्यादा होनेवाला है। इस क्षेत्र में डिजिटल फ़ुट्प्रिंट का प्रसार सर्वाधिक गति से बढ़ रहा है और इसी वजह से डाटा बाज़ार में इसकी साझेदारी 2025 में 40% से अधिक हो जाएगी। वेबसाइट के अनुसार व्यवसाय और डाटा से जुड़ी दूसरी गतिविधियों का चेहरा पूरी तरह बदलने के लिए डाटा की अहमियत को आज लोग बखूबी समझ रहे हैं।
सरकारों को भी व्यापक पैमाने पर डाटा की जरूरत होगी अगर वह कृत्रिम मेधा का प्रयोग कर अपनी जनता को लाभ पहुँचाना चाहती है। सरकारी क्षेत्र में बहुत व्यापक स्तर पर डाटा का निर्माण होता है। सरकार के लिए इतने बड़े स्तर पर डाटा का जुगाड़ करना बड़ी समस्या नहीं है।
शिक्षा क्षेत्र में कृत्रिम मेधा ऐसे क्षेत्रों की मैपिंग कर सकता है जहाँ स्कूल, कॉलेज खोले जाने हैं, वह यह पता कर सकता है कि किस राज्य के किस क्षेत्र के स्कूलों में कम से कम छात्रों का पंजीकरण हो रहा है। कहाँ छात्र स्कूल नहीं आ रहे हैं, कहाँ शिक्षक कम है और कहाँ शिक्षा की बुनियादी व्यवस्था अपर्याप्त है। पर इसके लिए जरूरी है कि सरकारी स्कूल या शिक्षा विभाग जरूरी डाटा तैयार करे। पर यह तभी सम्भव हो पाएगा जब स्कूल पूरी तरह डिजिटल मानचित्र पर हों। देश में अनुमानतः 68.7% स्कूल सरकारी हैं। ये सारे सरकारी स्कूल अभी डिजिटल मैप पर नहीं हैं। इन्हें डिजिटल मैप पर लाने के लिए सरकार को इस क्षेत्र में भारी निवेश करना होगा। आज भी हमारे देश में सैकड़ों स्कूलों के भवन नहीं हैं, इनमें पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं, स्कूलों में कोई दूसरी बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं। ऐसे में यह उम्मीद करना कि स्कूल डिजिटल हो जाएगा, किसी बड़ी ख़ुशफ़हमी से कम नहीं है।
कृत्रिम मेधा न्यायपालिका और न्याय उपलब्ध कराने में मदद कर सकता है। पर इसके लिए न्यायालयों का पूरी तरह से डिजिटल मैप पर होना जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कृत्रिम मेधा को ऐसे डाटा नहीं मिल पाएँगे जिसके आधार पर वह कोई समाधान सुझाए। देश में न्यायिक व्यवस्था को डिजिटल बनाने पर जरूरी निवेश का बोझ उस सरकार से ढोने की उम्मीद कैसे करें जो कोर्ट में पर्याप्त जज की भी नियुक्ति नहीं कर पा रही है। ऐसे में सवाल यह है कि कब यह व्यवस्था पूरी तरह डिजिटल बनेगी और कब कृत्रिम मेधा का लाभ इसको मिलेगा?
शिक्षा की तरह ही स्वास्थ्य का क्षेत्र भी बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्रों के हवाले कर दिया गया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि प्राथमिक और द्वितीयक स्वास्थ्य सेवाओं को नज़रंदाज़ किया जा रहा है। छोटे-छोटे शहरों में भी सिर्फ सुपरस्पेशीऐलिटी अस्पताल खोले जा रहे हैं। बड़ी बीमारियों के इलाज के नाम पर मरीज़ों से पैसा ऐंठना ज्यादा आसान होता है। इन अस्पतालों को पूरी तरह डिजिटल मैप पर लाना भारी निवेश के बिना सम्भव नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इन तीनों क्षेत्रों या दूसरे क्षेत्रों में भी डिजिटाइजेशन का काम बिल्कुल नहीं हुआ है। पर इनको डिजिटल मैप पर पूरी तरह आने में काफी समय लगेगा।
अब ज़रा एक नज़र देश में कंप्यूटरीकरण की स्थिति पर डालें जिसके बिना ऑनलाइन डाटा की कल्पना नहीं की जा सकती। डाटा रिपोर्टल के अनुसार, वर्ष 2024 की शुरुआत में देश में इंटरनेट का प्रयोग करनेवालों की संख्या 751.5 मिलियन था और उस समय इंटरनेट प्रसार का प्रतिशत 52.4 था। इस तरह, उस समय की कुल जनसंख्या का 47.6% इंटरनेट से दूर था। वर्ष 2024 की शुरुआत में देश में 1.12 अरब लोग सेल्यूलर मोबाइल का उपयोग कर रहे थे और इस तरह यह प्रतिशत कुल जनसंख्या का 78% था।
डिजिटल इन्फ़्रास्ट्रक्चर का अभाव या इसके असमान प्रसार ने हमारे देश में असमानताओं को ज़्यादा तीव्र किया है। ये बातें तकनीक को सर्व सुलभ होने से रोकती हैं और फिर इसका लाभ सिर्फ़ समाज के एक ख़ास वर्ग को मिल पाता है।
तकनीक को अपनाने में पीछे छूटे इन लोगों को सिर्फ सरकारी हस्तक्षेप ही इस स्थिति से उबार सकता है। पर कई कारणों से निजी निगमों के एहसान के नीचे दबी सरकारें जनता को इस शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए तुरंत सामने नहीं आती हैं जबकि ऐसा करना उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी होती है। इसलिए आम लोगों को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि सरकार उन्हें तकनीक-सक्षम बनाने के लिए तत्काल कोई क़दम उठाएगी। और जब तक स्वाभाविक रूप से ये सेवाएँ आम जनता को सुलभ होंगी, तब तक जनसंख्या का सबल और तकनीक-सक्षम वर्ग कृत्रिम मेधा के बल पर कहीं का कहीं जा चुका होगा।
इस तरह, जब पूरी दुनिया कृत्रिम मेधा का लाभ उठा रही होगी, हमारे देश में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जो उस तकनीक की क़ीमत नहीं चुका सकता, जो तकनीक-सक्षम नहीं है, हाशिए पर ठेल दिया जाएगा। ऐसे लोग पूरी तरह बाज़ार के भरोसे छोड़ दिए जाएँगे जहाँ उन्हें कृत्रिम मेधा की सेवाएँ लेने के लिए भारी क़ीमत चुकानी होगी। अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार प्राप्त कर चुके पॉल रोमर बाज़ार की बढ़ती ताक़त को चिंताजनक मानते हैं। उनका कहना है कि सारा दोष बाज़ार का है, हम कुछ नहीं कर सकते। पर यह सरासर ग़लत है। निजी क्षेत्र से जनता के शोषण को सिर्फ़ सरकारें रोक सकती हैं पर जब तक वह इस बारे में कोई नीतिगत निर्णय लेती है या नियम-क़ानून बनाने की सोचती है, बहुत पानी बह चुका होता है।

जेफ़्री हिंटॉन ने 2023 में गूगल छोड़ दिया। इसके अगले साल ही, 2024 में उन्हें कृत्रिम बुद्धिमत्ता को विकसित करने और इस क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार मिला। कृत्रिम मेधा से लैस कारपोरेट आम लोगों का क्या करनेवाला है, इससे ज़्यादा चिंता हिंटॉन को अधिनायकवादी नेताओं से है। उम्र के 78वें वर्ष में उन्हें इस बात की चिंता है कि अगर कृत्रिम बुद्धिमत्ता से लैस यह सुपर-मानव जैसी मशीन ऐसे नेताओं के हाथ लग गयी जिनका नज़रिया विस्तारवादी और चरित्र अधिनायकवादी है तो यह दुनिया के लिए ज़्यादा घातक होगा। आजकल वे दुनिया के ऐसे नेताओं को एक मंच पर लाकर उन्हें कृत्रिम मेधा के दुरुपयोग के ख़िलाफ़ एक व्यापक अंतर्राष्ट्रीय नीति और क़ानून बनाने के लिए राज़ी करने पर काम कर रहे हैं। हिंटॉन का मानना है कि अधिनायकवादी नेता इस मानव-मशीन का युद्ध और चुनाव में प्रयोग कर सकते हैं।
अमूमन अपनी सरकारों से लोग इस तरह की उम्मीद करते हैं कि वह उनके डाटा की निजता और उसके ग़लत हाथ में पड़ जाने से उनकी रक्षा करेगा। पर अभी तक का अनुभव कहता है कि इस बारे में दुनिया भर की सरकारों की विश्वसनीयता शक के घेरे में है। हमारे पास दुनिया के जिन अलग अलग हिस्सों से फ़ोन आते हैं, हमें अब कोई शक नहीं है कि हमारे मोबाइल नंबर को हमसे पूछे बिना पूरी दुनिया में पहुँचा दिया गया है।
फिर भारत जैसे देश जहाँ, भाषा, संस्कृति और जातीय विविधता इतनी अधिक है, वहाँ के लोगों के लिए कृत्रिम मेधा किस तरह की दुनिया को आकार देने जा रहा है यह भी हमारी मुख्य चिंताओं में होनी चाहिए। वैसे ही यह माना जा रहा है कि कृत्रिम मेधा नौकरियाँ समाप्त कर देगा, समाज में रंग भेद, लैंगिक भेदभाव, पितृसत्ता के शिकंजे और असमानता को और तीव्र करेगा। हॉर्वर्ड बिज़्नेस रिव्यू के एक आलेख के अनुसार अगले 15-20 सालों में नये तरह के मशीनों के कारण क़रीब 14% नौकरियाँ समाप्त हो जाएँगी; 32% जॉब्ज़ का स्वरूप बदल जाएगा। क्या कृत्रिम मेधा दलितों, पिछड़ी जातियों, महिलाओं, आदिवासियों और दूसरे कमजोर वर्गों के साथ हुए ऐतिहासिक और भेदभावों को ध्यान में रखेगा? इसका स्वरूप क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। अगर वह इनको स्वीकार नहीं करता है तो यह बहुत सारी नयी समस्या को जन्म दे सकती है। ये वर्ग जिनके खिलाफ ऐतिहासिक भेदभाव के प्रमाण हैं, वे अपनी दुरावस्था का उत्तर खोजने के क्रम में इसका दोष किसके दरवाज़े पर डालेंगे अगर कृत्रिम मेधा ने उनके ऐतिहासिक शोषण के इतिहास को समाप्त कर दिया? ऐसे में कृत्रिम मेधा ऊँची जातियों, पितृसत्ता और ग़ैर आदिवासियों को उनकी ऐतिहासिक अपराधों से मुक्त नहीं कर सकता पर अगर वह करेगा तो भारत जैसे देशों में हम एक बड़ी समस्या से लड़ते दिखेंगे।
योशुआ बेंगीयो मांट्रीऑल यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं और मांट्रीऑल इन्स्टिट्यूट फ़ॉर लर्निंग अलगोरिथम्स के निदेशक हैं और इस मुद्दे पर हिंटॉन की चिंताओं से सहमत हैं। वे कहते हैं कि कृत्रिम मेधा जिस तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है, वह समाज की गति से कहीं अधिक है। हर महीने यह तकनीक कुछ नया लेकर सामने आती है जबकि किसी क़ानून, नियम आदि के बनने या सरकारों के बीच समझौता होने में काफी वक़्त लगता है।
तो कृत्रिम मेधा का हस्तक्षेप मानव जीवन के किसी एक पक्ष तक सीमित नहीं रहनेवाला है क्योंकि वह भविष्य का सुपर-मानव है। वह नयी रचनात्मकता का विहान लाएगा और चाहे तो महाविनाश के दिल दहला देनेवाले मंजर को हक़ीक़त में बदल दे। संक्षेप में, आम आदमी कृत्रिम मेधा के सन्दर्भ में ख़ुद को जिन दो पाटों के बीच पिस्ता हुआ पाएगा वह है कारपोरेट और अधिनायकवादी नेता। मजबूत सरकारें और वैश्विक कल्याण की दृष्टि रखनेवाले नेता हमें इस स्थिति से उबार सकते हैं, अगर वे चाहें तो।