
मंथरा और कैकेयी रूपी दीमक
साहित्य और समाज के अन्तर्सम्बन्ध को सदैव स्वीकारा गया है। समाज में घटित घटनाओं को साहित्य में जितने खुबसूरत तरीके से पिरोया गया, वह समाज के लिए पथ प्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन करता रहा है। यही वजह है कि किसी देश के विकास में वहाँ के साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ग्रीक साहित्य के दो महाकाव्य ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ उत्कृष्ट साहित्य हैं, जिसे समाज में एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है। इनके माध्यम से ग्रीक शिक्षा और संस्कृति का आधार रखा गया है। ठीक इसी प्रकार भारत में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के योगदान को समझा जा सकता है।
कोई भी काव्य जब महाकाव्य की श्रेणी में दर्ज होता है तो उसका प्रमुख कारण समाज में उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता से होती है जिसका अनुकरण समाज करता चला जाता है। स्थितियां विषम वहाँ हो जाती है जब इसका अनुकरण सकारात्मक पक्षों के अपेक्षा नकारात्मक पक्षों की ओरअधिक होने लगे। ऐसे में सभ्य समाज की जगह असभ्य समाज का वर्चस्व बढ़ने लगता है जिसका प्रभाव वर्तमान परिदृश्य में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। इसी संदर्भ को ध्यान में रखते हुए ‘रामचरितमानस’ के दो पात्रों ‘मंथरा’ और ‘कैकेयी’ की भूमिका को वर्तमान परिपेक्ष्य में देखने का प्रयास किया गया है।
‘रामायण’ सिर्फ हिन्दू धर्मं तक सीमित नहीं है, अपितु सम्पूर्ण दुनिया के लिए कई महत्वपूर्ण संदेश देता है। इसके हर पात्र और घटना से कुछ-न-कुछ सीख देने की कोशिश की गयी है, जिसमें से एक भगवान राम के राज्याविषेक के समय की है। राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्न थे। चारों तरफ राम के राज्याभिषेक के लिए अयोध्या में बड़े ही धूमधाम से तैयारी चल रही थी, जिसकी वजह से वहाँ त्योहार जैसा वातावरण बना हुआ था। परन्तु, भगवान राम इस सूचना से अनभिज्ञ थे। जैसे ही राम के राज्याभिषेक की सूचना रानी केकैयी की दासी मंथरा को मिली तो वह तुरन्त माता केकैयी के पास पहुँच जाती है।
राम पर दृढ़ विश्वास रखने वाली माता केकैयी को भरत के नाम पर मंथरा इस तरह से दिगभ्रमित करती है कि वह पुत्र मोह में मंथरा के वाकजाल में फंस जाती है। जबकि वह अच्छी तरह से जानती है कि राम उनका बहुत आदर तो करते ही हैं साथ ही सबसे ज्यादा प्रेम भी करते हैं। अयोध्या की परम्परा और नियम के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का अधिकारी होता था। शुरूआत में कैकेयी मंथरा की बातों को गंभीरता से नहीं लेती है, किन्तु मंथरा के बार-बार कहने से वह उसकी बातों में आ जाती है और सोचने लगती है कि कहीं-न-कहीं मंथरा सच ही कहती है। इस तरह अयोध्या नगरी का विनाश शुरू हो जाता है।
मंथरा की बातों को मानकर कैकेयी अपने विवेक का उपयोग किये बिना ही भरत को राजा बनाने के लिए राजा दशरथ के सामने अपना त्रियाचरित्र दिखाती है। जैसे ही राजा दशरथ कैकेयी के कक्ष में प्रवेश करते हैं, रानी कैकेयी अपनी बातों को मनवाने के लिए नखरे दिखाने लगती है। वह रूठने का नाटक करते हुए, अपने साज-सज्जा और आभूषण को उतार कर एक साधारण महिला का रूप धारण करके राजा दशरथ के सामने आती है। जब राजा दशरथ इस दृश्य को देखते हैं, तो वे आश्चर्यचकित होकर पूछते हैं कि यह क्या हाल बना रखा है? बहुत निवेदन करने के पश्चात् रानी कैकेयी नाराजगी का कारण बताते हुए, अपनी दोनों इच्छा को प्रकट करती है। पहला– राम की जगह भरत को अयोध्या का राजपाठ दिया जाए। दूसरा- राम को वनवास भेज दिया जाए।
रानी कैकेयी के दोनों शर्तों को सुनकर राजा दशरथ के पांव तले से जमीन मानो खिसक गयी। मजबूरीवश राजा दशरथ को रानी कैकेयी की दोनों शर्तों को मानना पड़ता है। इस प्रकार रामायण की मंथरा एक महाकाव्य से निकलकर समाज के बीच पहुंच गयी।
कैकेयी और मंथरा जैसे पात्रों की प्रासंगिकता वर्तमान समय में और अधिक बढ़ गयी है। वर्तमान समाज में प्रत्येक क्षेत्रों में इस तरह के पात्रों का ताता लग सा गया है जो चापलूसी और चमचागिरि करके खूब फल-फूल रहें है जिसका मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करना है। किन्तु, ऐसे लोग समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है जो धीरे-धीरे घर, परिवार, समाज, संस्था आदि को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहने की आवश्यकता है। केकैयी जैसे चरित्र के लोग अपनी बातों को मनवाने के लिए तरह-तरह के नुस्खे अपनाते हैं, जिससे सबकुछ तबाह हो जाता है। सामाजिक अथवा पारिवारिक उत्थान के मद्देनजर समय रहते ही ऐसे पात्रों के मनोभाव को समझकर विवेकपूर्ण निर्णय लेकर भविष्य में होने वाली अनीतिपूर्ण घटनाओं को रोक सकते हैं, लेकिन ऐसा कम ही देखने को मिल रहा है।
मंथरा और कैकेयी जैसे पात्र, स्त्री और पुरूष दोनों ही रूपों में सर्वस्व मौजूद हैं जो समाज में दीमक की तरह फैले हुए हैं, जो धीरे-धीरे सबको खोखला कर देता है। ऐसे लोगों से हमेशा से ही सचेत रहने की आवश्यकता है। ऐसे पात्रों से जब हम सावधान नहीं रहते हैं तो इसका दुष्परिणाम सबको भोगना पड़ता है। ऐसे लोग अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक गिर जाते हैं और कुछ भी करने में गुरेज नहीं करते हैं। इसलिए बड़े पदों में विराजमान लोगों को कान से कच्चा नहीं होना चाहिए। मंथरा जैसे लोगों के बहकावे में आने से न सिर्फ समाज का बल्कि देश का भी बड़ा नुकसान होता है। ऐसे लोगों के कारण ही ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ में युद्घ की स्थिति उत्पन्न हुई।
इस तरह के पात्र अपने निजी हित, लोभ, मोह-माया, तरक्की आदि को प्राप्त करने के लिए चापलुसी और चाटुकारिता करता रहता है। इससे व्यक्ति विशेष का लाभ तो होता है, किन्तु एक बड़े समुदाय, समाज और देश का नुकसान होता है। यह नुकसान सीमित दायरे में हो तो एक हद तक स्वीकार्य भी है, किन्तु, यह नुकसान यदि बड़े पैमाने पर होता है तो इससे समाज और व्यवस्था चरमरा जाती है। इसलिए ऐसे पात्रों के विचारों से सदैव बचने की आवश्यकता होती है। हमारे आसपास ऐसे चाटुकार और विनाशकारी लोगों की संख्या लगातार बढ़ते ही जा रही है। दुर्भाग्य से शिक्षक और विद्यार्थी भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। अब कूटनीति ही रणनिति का हिस्सा बन गया है। ऐसे लोग अपनी बातों के जाल को इस तरह से बुनते हैं कि इससे निकल पाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए समय रहते यदि हम ऐसे लोगों को रेखांकित नहीं करेंगे, तो ये लोग समाज को गलत दिशा दिखाकर खोखला बना देगा और देश निर्माण की ओर न बढ़कर विनाश की ओर बढ़ेगा।