रामपुर की रामकहानी

कृषि-संस्कृति की समाधि

 

रामपुर की रामकहानी -4

“आदमी हो या पशु, भूख और प्यास से मरने में भी बड़ा वक्त लगता है। 17 दिन के बाद यहीँ प्राण निकले थे उसके। इतने दिन तक किसी ने उसे न पानी दिया था न चारा। ऐसा नहीं था कि लोगों का दिल पत्थर का हो चुका था और दया खत्म हो चुकी थी। लोग चाहते थे कि वह जल्दी मर जाय। उसका दुख देखा नहीं जाता था, किन्तु उसके प्राण थे कि निकलते ही नहीं।”

यह कहते हुए रामबृंद ने मुझे पास ले जाकर अपनी लाठी के संकेत से उस जगह को दिखाया जहाँ वह बैल असीमित कष्ट सहकर मरा था। रामबृंद ने बताया कि अभी उसकी उमर ज्यादा नहीं थी किन्तु रात-दिन किसानों के डंडे खा-खाकर वह कमजोर हो गया था। फसलें बचानी किसानों की मजबूरी थी। इधर से उधर उसे खदेड़ना पड़ता था। इसी बीच किसी कारण से उसका एक पैर टूट गया और वह जमीन पकड़ लिया। फिर दुबारा नहीं उठ सका। जहाँ गिरा था वहीं बगल में गड्ढा खोदकर उसे समाधि दे दी गई थी। मैंने देखा अब भी वहाँ की फसल जमीन से सटकर दबी हुई थी और लगभग नष्ट हो गई थी। मुझे अपने ‘भुअरा’ की याद आ गई। भूअर रंग का होने के कारण उसे ‘भुअरा’ कहकर हम बुलाते थे।

मेरे घर हमेशा दो बैल रहते थे, किन्तु कुछ विपरीत परिस्थितियों के कारण तीन-चार साल तक नाद पर अकेला भुअरा ही था। अकेले उसे भी अच्छा नहीं लगता था किन्तु वह बेजुबान बेचारा क्या करता? हम उसके अकेलेपन को महसूस करते और ज्यादा प्यार करते। मैं हर हफ्ते तालाब में ले जाकर उसे रगड़-रगड़ कर नहलाता। माँ शाम को उसके लिए दो रोटी अलग से बनाती और खुद उसे मुँह में प्यार से खिलाने के बाद ही भोजन करती। उसे ‘कौरा’ कहा जाता। रात में जबतक उसे ‘कौरा’ नहीं मिलता वह बैठता ही नहीं था, खड़े-खड़े अगोरता रहता था। खिलाते समय जब उसके चेहरे पर माँ हाथ फेरती तो वह अपना चेहरा माँ के सामने कर देता।

तिरबेनी के घर भी एक ही बैल था। फिर क्या था, एक बैल उनका और एक हमारे भुअरा को जोड़कर जोड़ी बन गई और हल चलने लगा। उन दिनों सुखदेव काका हलवाही करते थे। इस तरह तीनों के घर बराबर हल चलता जैसे दो दिन तिरबेनी के घर, दो दिन मेरे घर और दो दिन सुखदेव काका के घर। बैल का श्रम आदमी के श्रम के बराबर ही माना जाता। सुखदेव काका के यहाँ खेती बहुत कम थी इसलिए उनका काम दो-चार दिन में ही पूरा हो जाता। बाकी दिनों वे हमारे और तिरबेनी के घर हल चलाते और अपनी मजदूरी लेते।

रामबृंद सुगर के मरीज हैं। सुबह चार बजे सीवान में टहलने निकल जाते हैं। मुझे भी हिदायत देते हैं कि छड़ी के बिना मैं घर से बाहर न निकलूँ। आजकल कुत्ते गाँव में कम, सीवान में ही ज्यादा रहते हैं, आठ-दस-बारह के झुंडों में। उन्हें मांस खाने की लत लग गई है। गाँव के नजदीक होने के कारण इस बैल की तो समाधि दे दी गई किन्तु गाँव से दूर सरेह में मरने वाले जानवरों को समाधि देने की फुरसत किसे है? बहुत खतरनाक हो गए हैं ये कुत्ते। आदमखोर। अकेला खाली हाथ पाकर ये किसी को नहीं छोड़ते। समूह में टूट पड़ते हैं। हकीक चाचा तो गाँव के ही थे। सभी पहचानते थे उन्हें। किन्तु अकेला पाकर घर से थोडी दूर पर उन्हें नोच-नोच कर अधमरा कर दिया था गाँव के इन्हीं कुत्तों ने। बहुत इलाज करने पर भी डॉक्टर उन्हें बचा नहीं पाए।

रामबृंद बताते हैं कि घायल पड़े हुए जानवरों को ये कुत्ते नहीं छूते, मरने का इंतजार करते हैं। जानवर जबतक गिरा हुआ है तबतक कुछ नहीं बोलेंगे किन्तु, यदि वह किसी तरह उठकर चलने लगा तो उसे दौड़ा-दौड़ा कर, काटकर उसे जमीन पर गिरा देते हैं और घायल कर देते हैं। सत्रह दिन तक पड़े रहे उस बैल को कुत्तों ने भी नहीं काटा। बड़ी असह्य पीड़ा के बाद मौत आयी थी। घुरुच-घुरुच कर मरना इसे ही कहते हैं।

इस बैल की मौत क्या सिर्फ एक बैल की मौत है? पिछले दस-पंद्रह सालों में तमाम प्रयास करने के बावजूद बैल नामक प्रजाति को हम बचा नहीं पाए। पहले गाँवों में किसानों की हैसियत उनके नाद पर बँधे बैलों से ही आँकी जाती थी। कोई बिरला ही होता जिसके दरवाजे पर बैल न हों। आज मेरे गाँव में किसी के घर भी बैल नहीं है। जैसे-जैसे कृषि में मशीनों का चलन बढ़ा है, बैलों की उपयोगिता घटी है। पिछले एक दशक में तो मानो उनके ऊपर शामत ही आ गई है। गाय यदि बछड़े को जन्म देती है तो वह घर के लिए एक समस्या बनकर ही आता है। कुछ दिन बाद ही वह सीवान के लावारिश जानवरों में शामिल हो जाता है। सदियों का यह साथी आज किसान का सबसे बड़ा शत्रु बना हुआ है। किसान डंडे लेकर रात-दिन उसके पीछे पड़ा रहता है और वह बेचारा तब तक मारा-मारा फिरा करता है जबतक उसकी मौत नहीं आ जाती।

कृषि एक संस्कृति है जो सदियों पहले वजूद में आई। जंगलों से बाहर आकर इन्सान ने जब खेती करना सीखा तो उसका सबसे पहला साथी बना बैल। पशुपालन सभ्य मनुष्य का सबसे पहला व्यवसाय था। पशुपालन में भी गाय पालना सबसे मुफीद था। गाय हमें दूध देती थी, गोबर देती थी जिससे खाद बनता था और उसके बछड़े बैलगाड़ी चलाने, माल ढोने और हल जोतने के काम आते थे। गाय तो आज भी बैतरणी पार करा देती है।

मैंने रामबृंद से कहा, “आप के घर में तो कोई पशु नहीं है। गोबर की खाद होती ही नहीं है। सिर्फ रासायनिक खादों और कीटनाशकों के बल पर कबतक खेती कर पाएंगे? आप सनई या ढैंचा बोकर हरी खाद बना लीजिए।” उन्होंने तपाक से उत्तर दिया, “ सनई बोएंगे तो एक एकड़ की जुताई का ही दो हजार लग जाएगा। फिर एक बार जोतने से तो काम चलेगा नहीं। पहले की तरह अपना हल-बैल तो हैं नहीं कि अपनी मर्जी से चाहे जितनी बार जोतिए। आज तो हरी खाद बनाने में जितनी लागत लगेगी उतने की उपज ही नहीं बढ़ेगी।” फिर वे लगे अपनी खेती में आने वाले खर्च का ब्योरा देने। जुताई ट्रैक्टर से, बुआई भी ट्रैक्टर से। जमीन में डाई, बाद में यूरिया कम से कम दो बार, कीटनाशकों के बगैर कुछ बचेगा नहीं। सिंचाई के लिए घर में पंपिग सेट तो है किन्तु तेल आसमान छू रहा है। कटाई के लिए कंपायन वाले कम नहीं लूटते हैं। और जब फसल काँटा पर पहुँचती है तो दाम नहीं मिलता। सरकार कुछ और रेट घोषित करती है, बनिया कुछ और रेट से खरीदता है। कुंतल पीछे चार-पाँच सौ रूपए कम। और उन्होंने सब जोड़कर बता दिया कि खेती आज घाटे का सौदा है।

 मैंने कहा, “आप इतना जोड़-घटा रहे हैं और मुनाफे को देखकर फसल बो रहे हैं तो आप किसान कैसे हुए? आप तो व्यापारी हैं।” वे अचकचा गए। कुछ जवाब नहीं सूझा। मैंने आगे भी जोड़ा, “अब तो खेती सीजन आने पर पाँच -छ: दिनों का काम है और उन पाँच-छ: दिनों में से भी कुछ घंटे ही खेती को देने पड़ते हैं। आप खुद सुबह दो घंटा खेत में देकर घर आ जाते हैं और नहा-खाकर दूकान चले जाते हैं।“ वे मेरी ओर तिरछी नजर से देखने लगे। दरअसल उन्होंने गाँव के ही चौराहे पर सोने-चांदी की एक दूकान खोल रखी है। दिनभर वहीं रहते हैं। उनका बेटा भी उसमें हाथ बँटाता है। खेती अब उनका मुख्य काम नहीं है। किन्तु यही दशा गाँव में सबकी है।

मुझे अपने बाऊजी याद आ गए। उन दिनों खेती करना किसान का पूर्णकालिक काम था। पूरा घर उसमें लगा रहता था। खेती के लिए बैल रखने पड़ते थे। लोग दूध के लिए गाय या भैंस भी रख लेते थे। उन्हें खिलाने, उनके लिए चारा जुटाने और उनकी सेवा में ही सारा दिन गुजर जाता था। अपनी बैलगाड़ी भी थी, काठ के पहिए वाली। फसल ढोने, खाद गिराने आदि के लिए बैलगाड़ी का इस्तेमाल होता था। खेती में बाऊजी गोबर की खाद ही डालते थे। वे अपनी जरूरत की सभी फसलें उगाते थे। धान और गेहूँ तो पैदा करते ही थे, इसके अलावा भी बाजड़ा, मड़ुआ, कोदो, मकई, साँवाँ, टांगुन आदि ऐसी फसलें भी उगाते थे जिनके अब कहीं दर्शन भी नहीं होते। चरी भी बोते थे पशुओं के लिए। मक्के के खेत में काँकर का फूट देखे मुझे कई दशक हो गए। वे दलहन के लिए अरहर, ऊड़द, लतरी, मसूरी, मटर, चना सभी थोड़ा-बहुत बोते ताकि हमें किसी चीज के लिए तरसना न पड़े।

खेत में जब मटर की फली गदा जाती तो हम खेत में होरहा लगाते और भुनी हुई सोंधी फलियों का स्वाद लेते। चने का भी होरहा बड़ा ही मजेदार होता। तेल के लिए सरसो, तीसी, तिल, गुड़ के लिए गन्ना आदि सब उगाते थे बाउजी। गन्ने से जरूरत भर की भेली (गुड़) बना ली जाती, एक हाँड़ी राब ढाल लिया जाता और बाकी गन्ना घुघुली सुगर फैक्ट्री में भेज दिया जाता। गाँव में हर टोले पर कोल्हुआड़ होता। बैल वहाँ भी चलते। कड़ाह में गुड़ के लिए जब गन्ने का रस उबलता और उसका महिया तैयार होता तो मैं उसकी सोंधी गंध से खिंचता हुआ बाँस की कोपल लिए पहुँच जाता। भभूती काका छन्नी से छानकर महिया कोपल में उड़ेल देते। गन्ने के ऊपरी हिस्से की, दाँत से दतुअन की तरह कूँची बनाकर गरम-गरम महिया खाने का मजा अब कभी नहीं मिलेगा। कोल्हुआड़ को याद करते हुए मैने उन्हें बताया कि मैं किस तरह कड़ाह में महिया तैयार होने से पहले धागे में आलू या सेम की फलियाँ गूँथकर डाल देता। वह रस में भीनते हुए पकता। जब महिया के साथ उसे निकाला जाता तो उसका स्वाद अवर्णनीय होता।

रामबृंद मुझसे कम से कम दस साल छोटे हैं। बहुत सारी चीजें उनकी स्मृतियों में भी हैं। मैंने उन्हें याद दिलायी कि किस तरह मेरे बाऊजी साल भर खाने के लिए आलू, प्याज, मरचा, लहसुन, अरुई, बंडा पैदा कर लेते थे। मेरे घर के मचान पर सब रख दिया जाता और साल भर चलता। पता नहीं क्यों, अब तो महीने भर में ही सड़ने लगता है। मेरे घर हर तरह की सब्जियाँ पैदा होतीं। गोभी, केला, बैगन, टमाटर, बकला, केंवाच आदि गोएंड़े के खेत में। कोंहड़ा, लौकी, भतुआ, घेंवड़ा, सरपुतिया, बोड़ा, तरोई, कुरदुन, सेम, करैली आदि तो छत पर या झमड़े पर ही इफरात का फलता। क्या नहीं होता था हमारे घर? माँ भतुआ की अदौरी बनाती जो हर मसालेदार सब्जी में पड़ती और उस सब्जी का स्वाद बढ़ जाता। वह पूरे साल भर चलता। पहली सिंचाई के बाद मटर या चने की बढ़ी हुई फुनगी को खोंटकर बनने वाला साग, सरसों और ताजा बथुआ का साग, सनई के फूल का साग अब कहाँ मिलता है? मैं हमेशा खेत से उखाड़कर ताजा मूली ही खाता था और खेत की ताजा सोया-धनिया, लहसुन के पत्ते और हरे मरचे की चटनी।

बाऊजी केवल किरासन का तेल और नमक खरीदने बाजार जाते थे। नदुआ बाजार, जो हफ्ते में सिर्फ एक दिन रविवार को लगता था। नदुआ बाजार में एक तरफ सिर्फ बैलों का बाजार लगता था। बहुत बड़ा। मैंने कई बार बाऊजी के साथ वहाँ से बैल खरीद कर लाया है या वहाँ बैल बेचने के लिए ले गया हूँ। नदुआ बाजार अब भी लगता है किन्तु अब वहाँ बैलों की खरीद -बिक्री नहीं होती। बैल की प्रजाति खत्म होने के कगार पर है। बैल और किसान का सदियों पुराना अटूट रिश्ता औद्योगीकरण की भेंट चढ़ गया। इसकी शुरुआत तो नब्बे के दशक में वैश्वीकरण के साथ ही हो गई थी। इस सदी की यह सबसे बड़ी दुर्घटना है। बैल के अभाव में किसान का कोई अस्तित्व है क्या?

मैने रामबृंद से पूछा, “आप खेती में कितनी मेहनत करते हैं? कुछ देर चुप रहने के बाद उन्होंने जवाब दिया, “मेहनत कहाँ करते है? अब तो सिर्फ देखभाल करनी होती है। पैसा लगता है। काम तो सब मशीनों से होता है।” मैंने जोर देकर कहा, “फिर आप को मैं किसान नहीं कह सकता। आप सिर्फ व्यापारी हैं। व्यापारी भी मेहनत नहीं करता। जोड़ता -घटाता रहता है, बिचौलिए का काम करता है और सिर्फ मुनाफा कमाता है।”

मैंने उनसे कहा, “याद कीजिए उन दिनों को। किसान के पास कितना काम होता था। पशुओं की सेवा के अलावा सुबह से शाम तक अपने खेतों में वह कुछ न कुछ करता ही रहता था। किसानी एक पूर्णकालिक काम था। जेठ की पहली बरसात की हम बेसब्री से इंतजार करते थे। समय पर पानी नहीं बरसा तो इंद्रदेव को खुश करने के लिए तरह-तरह के उपक्रम करते। कभी-कभी तो गाँव की महिलाएं रात में नंगी होकर हल चलातीं, और जब आकाश में बादल दिखाई देते तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहता। हम मानते कि हमारे प्रयास व्यर्थ नहीं गए। बारिश के बाद भी जबतक साइत न हो जाय धरती में बीज नहीं डाला जाता। किसी शुभ दिन को कलश में जल, आम का पल्लव, सिंदूर, दधि, अक्षत आदि के साथ खेत में जाकर पाँच छेव कुदाल से कोड़कर साइत होती। तब जाकर खेतों में हल चलता।

 

इसके बाद तरह-तरह की फसलें पैदा करने के लिए किसान को काम में जुते रहना पड़ता था। गोबर की खाद खेत में डालना, उसे फैलाना, फिर कई-कई बार की जुताई, बोआई, कुँए में ढेंकली लगाकर अथवा नदी या तालाब के किनारे है तो बेंड़ी से सिंचाई, निराई, पकने पर हँसिया के सहारे हाथ से कटाई, सुइला-बहिँगा या दूर है तो बैलगाड़ी से ढुलाई, खलिहान में बैलों के सहारे दँवरी, ओसौनी, फसल को सुखाकर बखार या डेहरी में रखने तक किसान लगा रहता था। लोहार, कोंहार, बढ़ई, हजाम, बुनकर सभी मिलकर गाँव की पूरी अर्थव्यवस्था सँभाले हुए थे। नब्बे पार करने वाले राम समुझ लोहार की चमड़े की भाथी अब अंतिम साँस गिन रही हैं।

सच पूछिए तो किसान के पास श्रम ही एक मात्र पूँजी होती थी। उसी के बल पर वह खेती करता था। पैसा खेती में बहुत कम लगता था। इसीलिए अगर दो बैल की खेती है तो आसानी से परिवार का पालन-पोषण हो जाता था। पुश्त-दर पुश्त हम खेती के बलपर ही तो जी रहे थे।

“लेकिन पैदावार बहुत कम होती थी । भादो आते ही कई लोगों के घरों में अनाज घट जाता था। लोग मन्नी लेकर काम चलाते थे। अब पैदावार दोगुनी-तीगुनी होने लगी है।” रामबृंद ने प्रतिकार किया।

“किन्तु आप तो कह रहे हैं कि खेती घाटे का सौदा है? पैदावार बढ़ी है तो घाटे का सौदा कैसे?” उनके पास कोई जवाब नहीं था। मैंने उन्हें समझाया कि घाटे का सौदा इसलिए है कि पैदावार बढ़ने का फायदा किसान को नहीं मिल पा रहा है। लाभ ले रहे हैं ट्रैक्टर-ट्राली, पंपिंग सेट और कंपायन बनाने वाले; डाई, यूरिया, पोटाश और कीटनाशक बनाने वाले; किसिम-किसिम के बीज तैयार करने वाले और सौ रूपए से भी ऊपर की रेट से डीजल बेचने वाले लोग। सरकार भी इसमें शामिल है। खेती आपकी है जरूर किन्तु उससे लाभ कमा रही हैं बड़ी-बड़ी कंपनियाँ, खेती का मशीनीकरण करके। मैं फिर कहूँगा। किसान का श्रम ही उसकी पूँजी है। कृषि-संस्कृति की आत्मा है श्रम की संस्कृति। चरम मशीनीकरण की इस राक्षसी सभ्यता ने कृषि को श्रम से मुक्त कर दिया है। अब कृषि-संस्कृति बची कहाँ? अपने दिल से पूछिए, क्या आप किसानी करते हैं? याद रखिए, खेती तो रहेगी किन्तु बाँझ हो जाएगी। भूखों मरेंगे लोग।

सोया-धनिया के पत्ते की चटनी मैं आज भी बनाता हूँ किन्तु खाते समय उसका बचपन वाला स्वाद नहीं मिलता। परभंस ने खेत से काटकर ताजा सोया-पालक भेजा था। मुझे इसका साग बहुत पसंद है किन्तु तनिक भी अच्छा नहीं लगा। मैंने उनसे शिकायत की तो उन्होंने बताया, “सोया-पालक हो या चौंराई, बिना कीटनाशकों के कुछ भी नहीं होता। कई-कई बार यूरिया और कीटनाशक डालने पड़ते हैं। इससे साग बेस्वाद हो जाता है।” इतना ही नहीं, इस तरह की साग-सब्जियाँ दूसरे रोगों की भी जनक होती हैं। इसीलिए अमीर लोग अपने लिए आर्गनिक खेती कराते हैं।

किसान खाली होने पर भी बैठा नहीं रहता था। बतकही मुँह से होती थी, हाथ काम करता रहता था। खटिया-मचिया बुनने के लिए सुतरी बाजार से नहीं खरीदी जाती थी। सनई-पटुआ हम खुद पैदा करते, उसे पानी में सड़ाते, फिर पीटकर साफ करते, सुखाते और सुतली के लिय़े तैयार कर लेते। बरसात में जब खेत में काम कम रहता तो घरों में हम सुतली कातकर और रस्सी बुनकर तैयार कर लेते। महिलाओं के पास क्या पुरुषों से कम काम था? तब न धान कूटने की मशीन थी और न आटा पीसने की। घर पर ही ढेंकी में धान कूटना पड़ता और घर की ही चक्की में आटा पीसना और दाल दरना भी। पशुओं को पालने की जिम्मेदारी ज्यादातर महिलाओं की ही होती थी।

आज खेती की नयी तकनीक ने, मशीनीकरण ने किसान के श्रम को निरर्थक बना दिया है। इसी के साथ बैल का विलुप्त होना सदियों पुरानी कृषि-संस्कृति का विलुप्त होना है। खेती में काम न रह जाने से आज हमारे गाँव के किसानों के बेटे देश-विदेश में जाकर मजदूरी करते हैं। गाँव के हर दूसरे घर का नौजवान सऊदी में मजदूरी कर रहा है। बाकी देश के दूसरे शहरों में है। बचे-खुचे सुबह-सुबह बिकने के लिए मुख्यालय की मजदूर-मंडी में चले जाते हैं। गाँव अब किसान नहीं, मजदूर पैदा करता है। उद्योगपतियों को उनके कारखानों के लिए सस्ता मजदूर जो चाहिए।

रामबृंद के भेजे में बात समा रही थी। वे खुद बी।ए। पास है। कोई नौकरी नहीं मिली तो गाँव पर रहकर ही व्यवसाय में लग गए। खेती भी कर लेते हैं। गाड़ी ढर्रे पर आ गई है। मैंने रामबृंद से अपने मन का दर्द बाँटते हुए कहा कि हर फसल कटने के बाद खेतों की पराली फूँक दी जाती है। उसके साथ खेती के लिए उपयोगी केचुओं से लेकर जमीन के दूसरे सभी जीव-जंतु जलकर स्वाहा हो जाते हैं। देशी खाद कभी खेतों में पड़ती नहीं। सिर्फ रासायनिक खादों और कीटनाशकों के सहारे धरती कबतक देश के निठल्लों का पेट भरती रहेगी? अपने गाँव में ही देखिए, बड़े-बड़े देशी आमों के बाग कट चुके हैं। पड़ोस का जंगल खत्म हो रहा है। पेड़ों के नाम पर ठिगने कद के पौधे रोपकर उनकी संख्या गिनाई जाती है और वृक्षारोपण का प्रचार किया जाता है। दूसरी ओर, खेती के काम में इस्तेमाल की जाने वाली तरह-तरह की मशीनों, नई-नई बीजों, रासायनिक खादों, कीटनाशकों आदि को बेचकर उद्योगपति मालामाल हो चुके हैं। सुना है अब खेती में ड्रोन का भी इस्तेमाल होने वाला है।

किसान अपने श्रम के बल पर पुश्त-दर-पुश्त अपने परिवार पालते आ रहे थे। क्षमता से ज्यादा लगान की वसूली और जमींदारों की ज्यादती का बोझ किसानों पर जरूर था किन्तु आज की तरह कर्ज के बोझ से दबकर उनके द्वारा आत्महत्याएं करने की घटनाएं मैंने नहीं सुनी थी। आखिर मैं खुद एक किसान-पुत्र हूँ। क्या आज मेरे बाऊजी मुझे पढ़ा पाते? बाऊजी पढ़ाने के साथ मुझे खेती करना भी सिखाते रहते थे। उनके मुँह से ये पंक्तियाँ मैंने अनेक बार सुनी है।-

“उत्तम खेती मध्यम बान / निषिध चाकरी भीख निदान।”

अब इन पंक्तियों ने अपना अर्थ खो दिया है

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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