रामपुर की रामकहानी

सुर्ती से दारू तक

 

रामपुर की रामकहानी-11

 

जीवन प्रकृति का सुन्दरतम उपहार है और इसे जीने का साधन है हमारा शरीर। इसीलिए बाऊजी कहा करते थे, “पहला सुख निरोगी काया”। अगर शरीर नीरोग है तो आनंद ही आनंद है और अगर शरीर रोगी है तो करोड़ों की संपत्ति और सुख के सारे साधन किसी काम के नहीं।

दरअसल हम अपने बारे में जितना जानते हैं उतना कोई दूसरा नहीं। इसी तरह अपने ऊपर जितना हमारा अधिकार है उतना किसी और का नहीं। अपने जीवन को हम जैसे चाहेँ नियंत्रित कर सकते हैं। हम नियमित और संतुलित भोजन करें, नियमित व्यायाम करें, मन को नियंत्रण में रखे और प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलें तो स्वस्थ जीवन जीते हुए लंबे समय तक जीवन का आनंद ले सकते हैं। यह सब हमारे अपने हाथ में है। मुँह स्वादिष्ट पदार्थ खाने के लिए बना है, तंबाकू जैसा अखाद्य खाने के लिए नहीं। दाँत भोजन चबाने के लिय़े बने है, होठों के बीच तंबाकू छिपाने के लिए नहीं। फेफड़े साँस लेने के लिए बने हैं, जहरीला धुँआ भरने लिए नहीं। आमाशय भोजन पचाने के लिए बना है दारू भरने के लिये नहीं। रात और दिन सोने और जागने के लिये बने है, जागने और सोने के लिये नहीं। हाथ और पैर काम करने और चलने के लिय़े बने हैं, सिर्फ आराम करने और बैठे रहने के लिये नहीं। प्रकृति के इन नियमों का उलंघन करेंगे तो प्रकृति भी हमें ज्यादा दिन चैन से जीने नहीं देगी।

नहीं जानता कि प्रकृति के अनुकूल चलने और नैतिक मूल्यों के प्रति बचपन में ही मेरी आस्था इतनी दृढ़ कैसे हो गयी। क्या यह माई, बाऊजी, झिंगुरी काका और तिरबेनी भगत की संगति का असर था? संगति तो इन्ही की मिली थी मुझे।

नशा के नाम पर उन दिनों लोग सुर्ती खाते थे, बीड़ी पीते थे और गाँजा पीते थे। बहुत थोड़े लोग भाँग भी पीते थे और दारू पीने वाले तो गिने- चुने थे। उन दिनों पहलवान छाप या 36 नंबर बीड़ी चलती थी। सुर्ती पत्ते वाली चलती थी। इसमें चूना मिलाकर पहले देर तक मसला जाता था, उसे कई बार ताली की तरह ठोंका जाता था और तब जाकर उसे साथ रहे दोस्तों में बाँटते हुए खुद होठ और दाँतों के बीच रख लिया जाता था। लोग चुनौटी अपने साथ रखते थे जिसमें चूना भरा रहता था। कटे हुए स्थान पर चूना लगा देने से घाव जल्दी भर जाता था। इस तरह वह दवा का भी काम करता था। वैसे मेरे गाँव में लोगों ने एक व्यक्ति का नाम ही ‘चुनौटी’ रख दिया था। नौटंकी में वे जोकर का रोल निभाते थे।

सुर्ती से दारू तक
सुर्ती (खैनी)

 सुर्ती बनाने के दौरान ठोंकते समय उसका गर्दा आस- पास उड़ता था तो लोग छींकने लगते थे। काशी काका उसे ‘बुद्धिवर्धिनी’ कहते थे। उनका तर्क था कि उसे खा लेने के बाद बंद बुद्धि की गाँठ खुल जाती है। सुर्ती बनाते लोगों को देखते तो बाऊजी उसके नीचे का झीना गरदा माँग लेते थे और उसे सूँघा करते थे। सूँघने के बाद वे कई बार छींकते थे। ऐसा करने में उन्हें मजा आता था। लेकिन इसके लिए उन्होंने कभी अपने पास सुर्ती रखी नहीं। सिर्फ उनके सामने यदि कोई सुर्ती बनाता तो वे अंत में उसके गर्दे के लिए हाथ फैला देते। आज भी उस पीढ़ी के कुछ लोग चूना मिलाकर सुर्ती मलते दिखायी दे जाते हैं। वह सुर्ती गुटके की तरह कैन्सर पैदा करने वाली नहीं होती थी क्योंकि उसमें मिलावट की गुँजाइश बहुत कम थी। मुजफ्फरपुर में मैने उसकी खेती देखी है। हाँ, सुर्ती खाने वाले पान खाने वालों की तरह जहाँ- तहाँ थूक देते थे। लोगों को बुरा लगता था। तभी तो लोग कहा करते थे-

राजा पीयें गाँजा तमाकू पीयें चोर / सुर्ती खायें चिउतिया थूकेलें चारू ओर।”

निश्चित रूप से किसी गँजेड़ी ने ही यह कहावत कही होगी। वर्ना गाँजा तो ज्यादातर साधू लोग पीते थे चिलम में डालकर, भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद समझकर। यहाँ तम्बाकू पीने से तात्पर्य बीड़ी पीने से ही है। हुक्का भी मेरे गाँव में था महतीन के घर। गाँव में सबसे ब़ड़ा घर उन्ही का था, खपड़े का। घर के भीतर मैं कभी नहीं गया, किन्तु उनका ओसारा बहुत बड़ा था जिसमें विशालकाय मसहरी पड़ी रहती थी, मसहरी यानी खाट। उसी के बगल में हुक्का पड़ा रहता था। एक बार मैंने महतीन को हुक्का गुड़गुड़ाते देखा भी था। वे मर्द की तरह लगती थीं, मर्द की तरह बोलती थीं और मर्द की तरह चलती भी थीं। घर की मालकिन वही थीं। अब उस घर का नामोनिशान तक नहीं है।

मेरे परिवार में कोई किसी तरह का नशा नहीं करता था। सिर्फ जगन्नाथ भैया बीड़ी पीते थे। वे मेरे ममेरे भाई थे किन्तु परिवार के सदस्य जैसे थे और मेरे अभिभावक भी। वे उ.प्र. परिवहन निगम के जी.एम. ऑफिस में क्लर्क थे। हर दूसरे शनिवार को वे गोरखपुर से मेरे घर आ जाते थे और रविवार को नदुआ बाजार जरूर जाते थे। उन दिनों नदुआ बाजार, क्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध बाजार था जो सिर्फ रविवार के दिन लगता था। जगन्नाथ भैया अमूमन वहाँ से चावल खरीदते थे और सोमवार को बड़े सबेरे चावल लेकर बस से गोरखपुर चले जाते थे। विभाग के कर्मचारी थे इसीलिए उन्हें बस का भाड़ा नहीं देना पड़ता था।

बीड़ी

जगन्नाथ भैया पहलवान छाप या 36 नंबर बीड़ी पीते थे। जब अपने मुँह में बीड़ी दबाकर वे लाइटर से जलाते थे तो मुझे उसे देखना बहुत अच्छा लगता थां। कई बार तो मुँह में धुंआँ भरकर वे कुछ देर तक रखे रहते थे और बाद में जब अपने नाक, मुँह और कभी- कभी कान से भी निकालते थे तो मैं उन्हें एक टक निहारता रहता। उनके पॉकेट से बीड़ी चुराकर मैंने दो -तीन बार जलाकर पीने और अपने मुँह और नाक से धुंआँ निकालने की कोशिश की थी किन्तु सफल न हो सका था और खाँसते- खाँसते परेशान हो गया था। पचास पार करते- करते जगन्नाथ भैया दमा के मरीज हो गये थे और रिटायर होने के चंद दिनों बाद ही फेफड़े की बीमारी से चल बसे।

फगुआ के दिन भाँग पीने की परंपरा मेरे गाँव में थी। फागुन लगते ही गाँव- गाँव में ढोल बजने शुरू हो जाते थे और फगुआ के दिन ही उसका समापन होता था। पूरे महीने भर रँग पड़े हुए कपड़े ही लोग पहना करते। न जाने कब कहाँ से कोई सरहज, साली या भौजाई रंग डाल दे। “फागुन भर ससुरा देवर लागे“ प्रचलन में था। लोगों के पास इतने कपड़े तो होते न थे कि वे रोज -रोज बदलते रहें।

 मेरे अथवा राम बिरिछ भैया (रामवृक्ष उपाध्याय) के बरामदे में महफिल जमती थी। भोजन के बाद रात नौ बजते -बजते ढोल पर थाप पड़ने लगती। सबके घरों में ढोल, झाल, करताल में से कुछ न कुछ जरूर रहता था। वैसे तो सबसे अच्छा फगुआ गाते थे गाँव के चौकीदार जॉन मोहम्मद, किन्तु वे पड़ोस के गाँव रेहाव के रहने वाले थे और रात में चौकीदारी में व्यस्त रहते थे। उनके बाद राम बिरिछ भैया ही दूसरे व्यक्ति थे जो फगुआ गाने में माहिर थे। चौताल, डेढ़ताल और झूमर उन्हें खास प्रिय थे और बीच- बीच में चहका और उलारा। शिव प्रसाद द्वारा लिखी हुई फगुआ की किताब में शायद ही कोई बचा हो जो उन्हें याद न हो। ढोलक छब्बे काका (छबिलाल भगत) बजाते थे। झाल, करताल तो कोई भी बजा लेता था। जिनके हाथ में कोई बाजा नही होता वे ताली से काम चलाते। गाते सभी थे। कभी कभी भउजी के नेतृत्व में महिलाओं की महफिल घर में जम जाती थी और कंपटीशन होने लगता। ऐसे अवसरों पर कंपटीशन में कब तीसरा पहर हो गया, पता ही नहीं चलता।

होली के दिन पूरा गाँव फगुआ के रँग में रँगा रहता। सबेरे राख व कनई (कीचड़) और दोपहर के बाद रंग और अबीर। सभी फगुआ गाते, रंग खेलते और तरह-तरह के पकवान खाते। बरामदे में जब लोग फगुआ गाने में मगन रहते तो भीतर से अचानक रँग छपाक से लोगों पर पड़ता और लोग देखते रह जाते। दोपहर के बाद भाँग घुला हुआ शर्बत का सेवन होता।

उस साल होली के दिन मेरे बरामदे में फगुआ जमा था। बड़े- ब़ड़े दो बाल्टी भर कर राब का रस तैयार हुआ। इसमें खूब महीन पिसी हुई भाँग डाली गयी। भाँग का मजा तभी आता है जब उसे घंटों तक मजबूत हाथों से पीसा गया हो- सिल -लोढ़े से। मेरे ही घर सब हो रहा था किन्तु कब किस सिरफिरे ने पीसने वाले के साथ मिलकर भाँग में धतूरे का बीज मिला दिया, मुझे पता ही नहीं चला। हम सभी छककर रसपान किए। होसिला (हौशिला प्रसाद उपाध्याय) कई गिलास पी गये। थोड़ी देर में ही उन्हें तेजी से नशा चढ़ने लगा। मैं डर गया और प्रेम (प्रेमसागर पटेल) को लेकर साइकिल से महाराजगंज डॉक्टर के पास दवा लेने चला गया। डॉ. एस.एन. राय मेरे सुपरिचित डॉक्टर थे। मऊपाकड़ में उनका चैम्बर था। अंदर रहते थे किन्तु बाहर ही मिल गये। “कहिए पंडीजी, होली के दिन यहाँ कहाँ?” मैं उन्हें भाँग पीने की कहानी बताते- बताते हँसने लगा। मेरी हँसी रुक ही नहीं रही थी। वे ताड़ गए। पानी मँगाया। मुझे और प्रेम सागर दोनों को दवा देते हुए कहा, “पहले आप लोग यह दवा ले लीजिए। भाँग आपको भी चढ़ गई है।” इसके बाद होसिला के लिए भी उन्होंने दवा दी और अपेक्षित हिदायत भी।

 उनसे दवा लेकर जब हम लोग वापस आने लगे तो हमारे पाँव डगमगाने लगे। हम दोनो का हँसते-हँसते बुरा हाल था। हम कभी हँसते और कभी इस बात को लेकर चिन्तित हो जाते कि हमने तो दो- दो गिलास ही पिया हैं। होसिला की दशा कैसी होगी जिन्होंने छ: बड़े गिलास पी लिया है और वह भी निचला हिस्सा। भाँग के नशे का मेरा पहला अनुभव था। हम सिर्फ हँसते। साइकिल चलाने की स्थिति में कोई नहीं था। हम पैदल हो लिए। रह- रह कर हँसते रहे और फिर होसिला को याद करके चिन्तित भी। पैर इधर-उधर डगमगाता किन्तु चेतना कभी विलुप्त नहीं हुई। पाँच किलोमीटर की दूरी हमने पाँच घंटे में पूरी की। ढहते-ढिमलाते रात दस बजे हम घर पहुँचे। गाँव पर महिलाओं को छोड़कर कोई सामान्य स्थिति में नहीं था। होसिला को स्वस्थ होने में तीन दिन लग गए थे। उनके घर के लोग अनहोनी की आशंका में रोने लगे थे। उसके बाद से कभी मैंने भाँग का सेवन नहीं किया।

गाँव छूटे कई वर्ष हो चुके थे। बड़हलगंज से कलकत्ता आ चुका था। गाँव से संबंध धीरे- धीरे ढीले पड़ रहे थे। एक दिन महाराजगंज की कचहरी में गया। ट्रस्ट की रजिस्ट्री करानी थी। बैजनाथ मिश्र मेरे छोटे भाई की तरह हैं। चंद्रशेखर मास्टर साहब के बेटे। वकालत करते हैं। उनके साथ बैठा था काम हो रहा था। कुछ स्टाम्प खरीदने थे। उन्होंने थोड़ी दूर पर बैठे, मुँह में गमछा लपेटे हुए एक सच्चन से स्टाम्प देने के लिए कहा। उस सज्जन ने मुझे देखा। उठकर मेरे पास आए और सामने आकर अपने चेहरे से गमछा हटा लिया। मैं उनका चेहरा देखकर घबड़ा गया। अधकटा होंठ नीचे लटका हुआ था। कुछ दाँत और मसूड़े दिखायी दे रहे थे। बदरंग मुँह देखकर उबकाई आने लगी। मैंने तुरंत पहचान लिया, “अरे! ओम प्रकाश?” उन्होंने फिर गमछे से चेहरा ढक लिया। मेरी स्मृतियों में उनका सुंदर मुखड़ा कौंध उठा।

कृत पिपरा के ओम प्रकाश शर्मा ने बी.ए. की पढ़ाई मेरे साथ की थी। हम अच्छे दोस्त थे। गाँव छोड़ने के बाद लंबे समय तक उनसे कोई संपर्क नहीं रहा। उन दिनों तो संपर्क के लिए फोन की भी सुविधा नहीं थी।

ओम प्रकाश पान बहुत खाते थे। जाहिर है उसमें तंबाकू भी रहता था। मुँह का कैंसर हुआ। महीनों अस्पताल में भरती रहे। दो वर्ष इलाज चला। खेत बेंचने पड़े। ऑपरेशन के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। उन्होंने बताया कि अब उनका कैंसर ठीक हो गया है। किन्तु गमछे से मुँह ढँक कर रखना पड़ता है। नए लोग चेहरा देखकर डर जाते हैं। उन्हें भी चेहरा दिखाना अच्छा नहीं लगता। पिछले पाँच महीने से दुबारा कचहरी में बैठ रहे हैं। अब वे स्टाम्प बेचने के साथ घूम- घूम कर लोगों को तंबाकू का सेवन न करने की नसीहत देते हैं। उन्होंने बताया कि उनका कैंसर तो ठीक हो गया किन्तु बच्चों के लिय़े अब बहुत कम खेती बची है।

दो वर्ष बाद जब गाँव गया तो ओम प्रकाश से मिलने की इच्छा मुझे कचहरी तक खींच लायी। ओम प्रकाश के तख्ते पर उन्हें नहीं पाया। बैजनाथ ने बताया कि कैंसर फिर उभर आया था और वे अब इस दुनिया में नहीं हैं।

 बडड़हलगंज में अपने पड़ोसी रहे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के डॉ. पी.सी. तिवारी का चेहरा देखकर तो मैं चक्कर खा गया था। उनके होँठ और मसूड़े के कुछ हिस्से काट दिए गए थे और खुले मुँह से लगातार लार टपक रहा था। आठ वर्ष बाद उन्हें देखा था। चेहरा देखकर मैंने अपना मुँह फेर लिया था। उन्हें बहुत बुरा लगा होगा।

सुर्ती से दारू तक

उन दिनों दारू की दूकान सिर्फ महाराजगंज में थी। महाराजगंज के बीच से बहने वाले बलिया नाले पर लोहे का पुल था। तब बलिया नाला तेज धार वाली बहती हुई नदी थी। इसकी धारा कभी थमती नहीं थी। पुल से ठीक पहले उत्तर तरफ “देशी शराब के ठेके की दूकान” का बोर्ड लगा था। इसके अलावा मैंने और कहीं शराब की दूकान नहीं देखी। मैं जब कभी उधर से गुजरता तो तिरछी निगाह से शराब की दूकान की ओर देखता। एक-दो लोग दूकान के सामने खड़े दारू खरीदते और कुछ अगल-बगल जमीन पर बैठकर चुक्कड़ में दारू पीते दिखाई देते। ठेले पर चिखना बेचने वाले भी एकाध नजर आते। कभी वहाँ खड़ा होकर देखने की हिम्मत मेरी नहीं हुई। कोई देखेगा तो क्या कहेगा? शराबियों को निहार रहा हूँ? शराबियों से मुझे घृणा थी। वे मुझे सामान्य से भिन्न बिलकुल अलग तरह के प्राणी लगते।

इस बार एक दिन जब मार्निंग वाक से लौट रहा था तो सामने से आ रहे एक अँधेड़ व्यक्ति ने दूर से ही प्रणाम किया, “बाबू पा लागी।” वे मैला कुचैला कुर्ता-पैजामा पहने हुए थे। पाँव डगमगा रहे थे। लग रहा था सबेरे ही उन्होंने चढ़ा लिया है। चेहरा पहचाना हुआ लग रहा था। मैने रामवृंद की ओर प्रश्न की मुद्रा में निहारा, “के हवे?” रामवृंद हँसे, “महेश मद्धेशिया। नरेश के बाप। गाँव में चारो ओर थू-थू होता है। बस घर बचा है और थोड़ी सी जमीन। बाकी सब बेच कर पी गए। बेटे ने अपना अलग घर बना लिया है। उसका ईंट का भट्ठा साझे में है फिर भी अच्छा चल रहा है। गाँव में प्रतिष्ठा है। सुनता हूँ वह भी पीता है किन्तु कभी कभी। किसी को पता नहीं चलता। चारो ओर बाप अपने बेटों के कुकर्मों से परेशान रहते हैं लेकिन नरेश अपने पियक्कड़ बाप के कुकर्मों से परेशान हैं। शराब अनेक बुराइयों को अपने साथ लेकर आती है। झूठ- फरेब, चोरी-चिकारी, मार-पीट, गाली- गलौज, दुराचार आदि सब इन्हीं दारू सिंह दुलहा के बाराती हैं।” रामवृंद उपदेश देते- देते हँसने लगे। मैंने उनका हाथ पकड़ा और आगे बढ़ गया।

आजकल हमारे प्रदेश के गाँव- गाँव में देशी दारू की दूकानें हैं। मेरे गाँव में भी है। पहले यह दूकान गाँव के सरकारी प्राइमरी स्कूल के गेट के ठीक सामने थी। बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ी थी इसे हटवाने के लिए। गाँव के एक नौजवान इंद्रजीत मौर्य और उसके साथियों की प्रमुख भूमिका थी। वर्षों के संघर्ष के बाद दूकान अब गाँव की बस्ती से थोड़ी दूर चली गयी है। किन्तु गाँव के छोटे- छोटे बच्चे गुटका खाते हैं, ‘पावर’ नाम से एक- एक रूपये का पैकेट हर छोटी -बड़ी दूकानों पर मिल जाता है जिसमें पता नहीं नशे की क्या वस्तु भरी होती है। बच्चे उसका खूब सेवन करते हैं। शाम को शराब की दूकान पर मेले जैसी रौनक होती है। अब पाउच में दारू मिलता है, खरीदने-पीने-ढोने सबमें आसान। देश विकास की छलाँग लगा रहा है। मदमत्त युवाओं में राष्ट्र-भक्ति हिलोरें मार रही है।

मेरा कोई बीमा नहीं है। नये साल के जनवरी में केयर हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम की बीमा का फॉर्म भर रहा था तो उसके एक क़ॉलम में इस प्रश्न का भी जवाब देना था कि, “क्या बीमा धारक गुटका, तंबाकू, पान मशाला, एक दिन में पाँच से ज्यादा सिगरेट या चार यूनिट अर्थात 120 मिलीलीटर से ज्यादा शराब पीता है?”

यानी, बीमा कंपनी गुटका, तंबाकू, सिगरेट और शराब पीने वालों के बारे में पहले से तय कर चुकी है कि इनका खास ख्याल रखना है क्योंकि ये अपनी मौत को जल्दी बुलाने को उतावले हैं। अस्पतालों में ये जल्दी आयेंगे, किन्तु वक्त गुजारेंगे ज्यादा। अपने परिवार को भी बर्बाद करके ही इन्हें स्वर्ग जाना है।

क्यों करते हैं लोग नशा? क्यों पीते है सिगरेट? क्यों खाते हैं तंबाकू? क्यों पीते हैं शराब?

यदि एक सिगरेट का दाम दस रूपये ही रखें और मान लें कि सिर्फ पाँच सिगरेट ही एक दिन में ये पीते हैं तो भी एक दिन का पचास रूपए हुआ और महीने का पंद्रह सौ। यानी, पंद्रह सौ रूपए महीने की रिकरिंग यदि जमा की जाय तो जोड़िए पचास साल में कितना होगा? सिगरेट, शराब, गुटका आदि में ये अपनी कमाई का कितना धन खर्च करते हैं अपनी उम्र घटाने, बीमारी बुलाने और नशेड़ियों- शराबियों में अपना नाम दर्ज कराने के लिए? परहित में इनकी रुचि न हो तो भी इस धन का सदुपयोग ये अपने ही बच्चों की सुख-सुविधाएं बढ़ाने में कर सकते हैं या कम से कम उन्हें नशा न करने की नसीहत देने का नैतिक अधिकार हासिल कर सकते हैं। किस मुँह से ये अपने बच्चों को शराब-सिगरेट न पीने की सलाह दे सकते हैं?

एक नशेड़ी जितना धन नशे में उडा देता है यदि उस धन का इस्तेमाल नशाबंदी में खर्च हो तो न जाने कितने परिवार बर्बाद होने से बचे जाएं, कितने बच्चे अनाथ होने से बच जाएं और कितनी स्त्रियाँ विधवा होने से बच जाएं। नशेड़ी अपने आप के ही दुश्मन नहीं होते, वे पूरी मानवता के दुश्मन होते हैं।

कलकत्ता आने के बाद बड़े-बड़े साहित्यकारों के संपर्क में आया। उन्हें दारू पीते देखा तो उनके लिए जो सम्मान का भाव था वह तेजी से घटने लगा। वामपंथी साहित्यकारों को मजदूरों -किसानों के हित में बड़ी- बड़ी बातें करते, आदर्श बघारते और साथ में शराब के साथ ठहाके लगाते देखता हूँ तो उनसे वितृष्णा होती है। बहुत से अपने प्रिय लेखकों के प्रति मेरा सम्मान भाव, घृणा में बदल गया उनकी शराब पीने की आदतों को देखकर। लोग कहते हैं, “उनका सृजन देखिए, निजी जिन्दगी में वे क्या करते हैं उससे आप को क्या?” मैं इसे नहीं मानता। नशे में उड़ा दिये जाने वाले धन का सदुपयोग जरूरतमंदों की जरूरतें पूरी करने के लिए भी किया जा सकता है। पहले अपना आचरण सुधारें तब आदर्श की बाते करें। यह गाँधी का देश है। हमारे आदर्श गाँधी हैं।

ईश्वर की कृपा से मैंने बचपन में जो संस्कार अर्जित किये वे बाऊजी, झिंगुरी काका और तिरबेनी भगत से मिले थे। मैं अपने संस्कारों को लेकर पूरी तरह संतुष्ट हूँ। आज के तथाकथित महान साहित्यकार इनके पासंग में भी नहीं है। होंगे साहित्यकार, किन्तु सच्चे और अच्छे इन्सान मेरे बाऊजी, झिंगुरी काका और तिरबेनी भगत ही थे। हमें अपने देश के लिए अच्छे इन्सान चाहिए, जिनका अकाल पड़ता जा रहा है, पियक्कड़ साहित्यकार नहीं

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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