रामपुर की रामकहानी

पुरनका टोला और सदानीरा

रामपुर की रामकहानी-1

(‘रामपुर की रामकहानी’, सिर्फ रामपुर की कहानी नहीं है। यह बदलते भारत और खासतौर से वैश्वीकरण के बाद हो रहे तीव्र विकास और उसकी दिशा की रामकहानी है। यह मेरे गाँव की सत्यकथा है। कल्पना के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है। तथ्यात्मक भूलें हो सकती हैं किन्तु अनजाने में। तय आप करेंगे कि हमारे गाँव, समाज और देश का विकास किस दिशा में अग्रसर है ? उसका स्वाद कैसा है ? कसैला या मीठा ? आपको यह भी तय करना है कि आगे इसकी परिणति कैसी होगी?)

प्रकृति ने हमें याद करने का तोहफा दिया किन्तु उसी के साथ भूलने की सौगात भी दे दी। अगर हमें सबकुछ याद रहता तो हम पागल न हो जाते? किन्तु वक्त की धार में सबकुछ बह जाता है।

    मैंने जब होश संभाला तो अपने को दो पुरउटियों (पुआल की ऊँची राशि) के बीच अपने से चार साल बड़ी अपनी दीदी की गोद में चिपका हुआ पाया और मेरी माँ जिन्हें ‘माई’ कहना मैं सीख गया था, दोनों ओर की खाली जगह को पुआलों से ढँक रही थी ताकि डाकुओं की नजर उनके बच्चों पर न पड़े। मैं डर के मारे थर-थर काँप रहा था। मुँह से आवाज निकालने की मनाही थी। टोले के सारे मर्द लाठी भाला लेकर डाकुओं का सामना करने के लिए मोर्चा बाँधे हुए थे। मोर्चेबंदी के कारण डाकुओं को बिना लूट-पाट के वापस जाना पड़ा था।

वह एक छोटा सा टोला था। किन्तु वहाँ के लोग थे बड़े संगठित। अपने संगठन के बल पर वह छोटी सी बस्ती बहुत वर्षों तक कायम रही किन्तु कबतक टिक पाती? डाकू बार-बार आते थे। मुश्किल से तीन किलोमीटर दूर कटहरा का विशाल जंगल है, जहाँ छिपने में उन्हें सुविधा थी। कई बार लूटने में वे सफल भी हो जाते थे। बाध्य होकर एकाएक पूरा गाँव ही वहाँ से उजड़ गया।

मेरे खपड़ैल के छोटे से घर के पिछवाड़े बाँस की कोठ थी जिसे बँसवारी कहा जाता था। बाँस पर चुड़ैल रहती थी। उसकी आवाज यदा-कदा सुनाई देती थी। उसके लम्बे-लम्बे बाल होते थे। वह कभी-कभी बाँस पर छलांग भी लगाती थी। लेकिन मैंने कभी उसे देखा नहीं। बँसवारी के बगल में एक पोखरी थी। पोखरी यानी, छोटे आकार का तालाब। कहने के लिए तो यह पोखरी थी किन्तु इसका जल कभी सूखता नहीं था। कुछ ही लोग इसे तैर कर पार कर पाते थे। लोग कहते थे कि इसमें बुड़ुआ रहता है जो इसके बीच में जाने वालों की टांग पकड़ लेता है और डुबो देता है। उस बुड़ुआ के डर से मैंने कभी इस पोखरी को पार करने की कोशिश नहीं की। घर के पीछे एक बड़ा सा आम का बाग था, बच्चे उसे बगइचा कहते थे। उसमें सबके हिस्से के पेंड़ थे, किन्तु सबसे ज्यादा पेंड़ तिरबेनी उपधिया के थे। उसमें एक इमली का विशाल पेंड़ था, जिसपर भूत भी रहते थे। किन्तु मैंने भूतों को कभी देखा नहीं। भूतों के पैर के पंजे पीछे की ओर मुड़े रहते थे। रात में सीवान में भूत जब चरते थे तो उनके मुँह से आग निकलती रहती थी। लोग देखकर डरते थे। मेरी माँ मुझे ‘हनूमान चालीसा’ रटा चुकी थी। चुड़ैल और भूतों से बचने का वही एक मात्र अमोघ अस्त्र था। उसमें तो साफ लिखा है, “भूत पिशाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै।” बाद में जब भी मुझे भूतों से डर लगता तो जल्दी-जल्दी हनूमान चालीस पढ़ने लगता और डर उड़नछू हो जाता।

पुरनका टोला सिर्फ छ: घरों की बस्ती थी। तिरबेनी उपधिया, छबिलाल भगत, राम समुझ दास, राम हरख और मेरे पिताजी और उनके बड़े भाई के घर यहाँ थे। लोग बताते हैं कि फेंकनी और उनके पति भी यहीं रहते थे। दोनों की मौत एक साथ रात में सोते हुए साँप के काटने से हुई थी। फेंकनी के पति का नाम अब याद नहीं है। तिरबेनी उपधिया के दो बेटे थे रामबृक्ष उपाध्याय और हौशिला प्रसाद उपाध्याय। हौशिला जिन्हें लोग ‘होसिला’ कहते थे, मुझसे सिर्फ एक माह छोटे थे। सुगर की बीमारी ने उन्हें जल्दी उठा लिया। मेरी उनसे अन्त तक दोस्ती बनी रही। हम दोनों एक साथ भैंस चराते और कुश्ती लड़ते। हमारे बीच इस बात को लेकर अमूमन बहस होती कि उनकी माँ को कौन अधिक मानता है। जब वे अपनी माँ को माई कहकर उनपर दावा ठोंकते तो मैं उनकी माँ को ‘बड़की माई’ कहकर अपना दावा और भी मजबूत कर लेता। वास्तव में मैं उनकी माँ को बड़की माई कहकर ही पुकारता और वे भी मुझे उतना ही दुलारतीं। मुझे बचपन में पता ही नहीं चला कि वे पराए घर की हैं। नाटे कद, साँवले रंग और चेहरे पर चेचक के दाग वाली बड़की माई के हृदय में प्यार का सागर हिलोरें लेता रहता था। वे मुझे भी अपना बेटा ही मानतीं और होसिला को जो कुछ खाने को देतीं तो मुझे भी उसमें हिस्सा बराबर का होता। बड़की माई लम्बी उमर जीकर दिवंगत हुईं। उनके जीवन के अन्तिम दिन सुखद नहीं थे। वे बहरी हो गईं थीं और उनके सामने ही उनके दोनों बेटों में बँटवारा हो गया था।

काली माई का थान

मेरे दरवाजे पर ओबा माई का थान (स्थान) था। वह थान आज भी है किन्तु अब उन्हें काली माई का थान कहकर पुकारा जाता है। तिरबेनी उपधिया की जिन्हें मैं ‘बड़का दादा’ कहता था, ओबा माई में गहरी आस्था थी। वे हर साल चैत की नवमी को धूम-धाम से ओबा माई की पूजा करते थे। उस दिन थान के आस-पास की सफाई होती, बड़का दादा खुद इनार (पूरे टोले के बीच एक मात्र पक्का कुँआ) से पानी भर कर लाते और थान की लिपाई करते। उस दिन खँसी की बलि चढ़ाई जाती थी। मिट्टी की छोटी सी हाथी की स्थापना भी होती थी। उस दिन बड़का दादा के सिर पर ओबा माई जरूर आती थीं। जब ओबा माई उनके सिर आती थीं तो उनका हाव-भाव विचित्र होने लगता था। उनकी आँखें लाल हो जाती थीं। वे तेजी से अपना सिर हिलाने लगते थे और जोर-जोर से बोलने लगते थे। लोगों की भीड़ जुट जाती थी। देखने वालों के चेहरे पर भय साफ दिखायी देता था। साहसी लोग उनसे भखौती करने लगते थे। भखौती यानी, यदि कोई बीमार है तो उसपर किसने जादू–टोना किया है? या किसी की कोई वस्तु चोरी चली गई है तो उसे किसने चुराया है? उस समय बड़का दादा के मुँह से जो कुछ निकलता उसे सच मान लिया जाता क्योंकि वह कथन ओबा माई का माना जाता था। डरे हुए लोग उनसे उनकी इच्छा पूछने लगते थे। वे तरह-तरह की फरमाइश भी करते जैसे बकरे की बलि, चुनरी, पाँच या दस ब्राह्मणों का भोज आदि। बाद में ओबा माई की फरमाइश पूरी की जाती थी। इधर नवयुवकों में काली माई के प्रति आस्था बढ़ी है। थान पर पूजा-पाठ भी बढ़ गया है।

पुरनका टोला, जहाँ मेरा जन्म हुआ था, उजड़ा तो जिसे जहाँ जगह मिली बस गया। राम समुझ केदार के टोले पर बस गए और बाकी लोग सुकुल के टोले पर। इन दोनों टोलों के अलावा छ: टोले और थे रामपुर में-गदुलहिया, बलुअहिया, सोनपुर, अम्मरपुर, टिकुलहिया और बड़का टोला। इनमें से कुछ दिन बाद टिकुलहिया भी उजड़ गया। टिकुलहिया पर झिंगुरी दास सबसे खेतिहर थे। वे उजड़कर सुकुल के टोले पर आ बसे। उनके उजड़ते ही पूरा टोला उजड़ गया। इस तरह बाद में कुल सात टोले बचे और गाँव की पहचान हो गई “सातो टोला रामपुर।”

आज ये टोले अपने नाम और पहचान दोनों खो चुके हैं। गदुलहिया, जहाँ एक बड़ा सा बाग था और उस बाग में पेड़ों पर बड़े-बड़े असंख्य गादुल (चमगादड़) लटके रहते थे, अब रामपुर चौराहा के नाम से जाना जाता है। वहाँ से आगे बढ़ने पर केदार का टोला मिलता है जिसकी अब अलग से पहचान नहीं रह गई है। रामपुर चौराहे के साथ वह जुड़ चुका है। बलुअहिया उजड़ने के कगार पर है, अम्मरपुर और बड़का टोला जुड़ चुके हैं। चौराहे से लेकर अम्मरपुर तक सड़क के दोनों ओर मकान और दूकान बन चुके हैं। अब कोई इस गाँव को सातो टोला रामपुर कहकर नहीं पुकारता।

सदानीरा
डीह बाबा का थान

गाँव के देवता थे डीह बाबा। डीह बाबा का थान सुकुल के टोले पर आज भी है किन्तु वहाँ जाने के लिए अब रास्ता तक नहीं बचा है। पहले गाँव भर के लोग बड़े उल्लास से डीह बाबा की पूजा करते थे, विशाल पाकड़ के पेंड़ के नीचे। गाँव भर की स्त्रियाँ सामूहिक रूप से कड़ाही चढ़ातीं। लपसी-सोहारी बनता। बच्चे बहुत खुश होते। अब डीह बाबा की सुधि लेने वाले बहुत कम हैं। उनके थान की ज्यादातर जमीन लोगों ने जोत कर अपने खेतों में मिला लिया है। हाँ, उनकी जगह अब भावनंद बाबा के मंदिर ने ले लिया है। दो दशक पहले यहाँ भी एक चबूतरा ही था। लेकिन अब वहाँ खूब चहल-पहल रहती है। मुख्य सड़क के किनारे जो है। सच है, देवी-देवताओं की परिकल्पना और निर्माण भी हम अपनी रुचि, प्रकृति और जरूरत के अनुसार करते हैं। देवताओं का भी हमारी ही तरह उत्थान-पतन होता रहता है। वेदों के सबसे बड़े देवता देवराज इन्द्र को तो आज कोई एक लोटा जल भी नहीं देता और आदिवासियों के देवता शिव के लिंग की पूजा गली-गली में हो रही है।

बाबा भावनंद मंदिर

 कितनी पुरानी है रामपुर की बस्ती? कहना कठिन है। इसके बगल में सदानीरा सदियों से बह रही है। पिछले कुछ वर्षों से वह गर्मियों में सिकुड़ जाती है। धार क्षीण हो जाती है और अब तो लोग उसे नाला कहने लगे हैं–‘रेहाव नाला’। सूखने के लिए तो ‘सरस्वती’ भी सूख गई। फिर इसकी बिसात ही क्या? किन्तु अन्य नदियों की तरह सदा उफनती रहने वाली इस नदी के किनारे की मानव बस्ती ज्यादा पुरानी नहीं होगी। कुछ सौ वर्ष पहले तक यह पूरा क्षेत्र वनाच्छादित था। मेरे बाऊजी यहाँ के खेत को ‘रनगढ़ वाला खेत’ कहते थे। मैंने एक बार पूछा था इस नाम का रहस्य। उन्होंने बताया था कि जंगली जानवरों से खेत की रखवाली के लिए यहाँ ऊँचे मचान बनते थे। इन्हें ‘रनगढ़’ कहा जाता था। वैसे रनगढ़ नाम का एक उपेक्षित किला कवि केदारनाथ अग्रवाल की प्रिय नदी केन की धारा के बीच में भी है। बाऊजी बताते थे कि एक बार हमारे एक पूर्वज जब रनगढ़ पर सो रहे थे तो जंगली हाथी आ गए। एक हाथी अपना सूँढ़ मचान तक ले गया। रखवाले ने हथियार से उसके सूँढ़ पर तेज वार किया। घायल हाथी चिग्घाड़ते हुए जंगल में भाग गया था।‘रनगढ़’ शब्द अब अपना अर्थ खो चुका है। अब किसानों को जंगली जानवरों का नहीं, छुट्टा साढ़ों का खौफ है।

 निस्संदेह जंगल कटने के बाद ही रामपुर बसा होगा। रामपुर तो समझ में आता है, पर बुजुर्ग? क्या इसके पीछे भी कोई रहस्य है? नहीं पता। सदानीरा के किनारे सदियों से माघी अमावस्या के दिन मेला लगता था। लोग स्नान करके दान दक्षिणा देते और पुण्य कमाते थे। जिस घाट पर नहान लगता थाउसे रामघाट कहा जाता था। रामघाट पर लगने वाले मेले की प्रतीक्षा बच्चे सालभर से करते थे। गाँव की बहुएं और जवान लड़कियाँ समूहों में गीत गाती हुई रामघाट जाती थीं। “करे असनान चलअ हो सखी सगरे पर।” नहान के अवसर पर ब्राह्मणों की बन आती थी। वे एक-एक गाय लेकर नदी के किनारे पहुँच जाते, नहाने के बाद जजमान, गाय की पूँछ पकड़कर गोदान करते और पंडित संकल्प पढ़कर जजमान का बैतरणी पार कराना सुनिश्चित कर देते। इसे “बछिया छुआना” कहा जाता। पूँछ बछिया का ही पकड़ाया जाता। बाछा का नहीं। संकल्प करने वाले ब्राह्मण को कम से कम बीस आना दक्षिणा मिलता, सीधा अलग से। सीधा में चावल, दाल, सब्जी के नाम पर आलू और उसके साथ हल्दी नमक आदि। एक ब्राह्मण के लिए भर पेट भोजन भर का सामान। उस एक ही दिन में ब्राह्मणों की अच्छी खासी आमदनी हो जाती। मैंने जब थोड़ा पढ़-लिख लिया तो मुझे भी कई बार जजमानों को बछिया छुआने का अवसर मिला। ऐसे अवसरों पर बाऊजी किसी दूसरे की बछिया माँग लाते और मुझे लेकर नदी के किनारे रामघाट पहुँच जाते। संकल्प का मंत्र मैं पढ़ता। उस समय मेरे बाऊजी का बाल ब्राह्मण बेटा संकोच से गड़ जाता जब ब्राह्मण के नाम पर कई बुजुर्ग जजमान उसके पैर छूते और आशीर्वाद लेते।

 

‘सदानीरा’ नाम मेरे द्वारा ‘रेहाव नदी’ के लिए दिया गया है। सदानीरा का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में भी है और महाभारत में भी। किन्तु आज वह नदी कौन सी है? इतिहासकार तय नहीं कर पा रहे हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार सदानीरा कोसल और विदेह जनपदों के बीच सीमा बनाती थी। रेहाव की स्थिति ऐसी ही है। महाभारत में गंडक और सदानीरा का उल्लेख अलग-अलग नदियों के रूप में है। गंडक तो आज भी उसी वेग से प्रवाहित है किन्तु सदानीरा?

अब रेहाव नदी की धारा गर्मियों में बहुत क्षीण हो जाती है। किन्तु मेरा अपना मकान ही नहीं, चार-पाँच दशक पहले के इस क्षेत्र के अधिकांश मकान इसी रेहाव नदी के बालू से निर्मित हुए हैं। कहाँ से आता था इतना बालू? क्या पहाड़ से सम्बन्ध जुड़े बिना नदी में बालू आना संभव है? भले ही इसका स्रोत आज किसी पहाड़ से न जुड़ता हो किन्तु हिमालय की पहाड़ियाँ यहाँ से अधिक दूर नहीं हैं। इसके किनारे दूर-दूर तक फैले चरागाहों को मैंने अपनी आँखों से देखा है जहाँ दिन भर हजारों पशु छुट्टा चरा करते थे। यह नदी आगे जाकर त्रिमुहानी घाट पररोहिन (रोहिणी) में मिल जाती है।

सदानीरा का वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य और इतिहास ग्रंथों में जिस आदर के साथ हुआ है उससे लगता है कि हमारा गाँव भी कम पुराना नहीं है। मनुष्य के चरण इस सदानीरा के किनारे भी सदियों पहले पड़ें होंगे। आखिर मनुष्य का पहला व्यवसाय तो पशुपालन ही था। खेती करना तो उसने बहुत बाद में सीखा। सदानीरा का जल और उसके असीमित क्षेत्रों में फैले हुए चरागाह पशुओं और मनुष्यों के लिए सहज सुलभ थे। फिर मनुष्य यदि यहाँ अपनी बस्ती न बसाता तो कहाँ बसाता?

सदानीरा के किनारे मानव ने अपनी बस्ती चाहे जब बनायी हो किन्तु मैंने जबसे होश संभाला यह नदी मेरे रग-रग में बसी हुई है। मेरे ज्यादातर खेत इसी नदी के किनारे थे। कुछ तो नदी के उस पार भी। मन्ठें और बागापार घाटे पर के खेत में जाने के लिए नदी पार करना पड़ता था। उस समय नदी पर पुल नहीं था और लोग तैर कर या छाती भर पानी लाँघ कर नदी पार करते। मैंने कई बार अपने बाऊजी के कंधे पर बैठकर नदी पार किया है और कई बार भैंस की पीठ पर बैठकर। इन खेतों में काम करने के दौरान दोपहर में यहीं लिट्टी लगती। उसके लिए आसपास से गोइंठा (सूखा गोबर) इकट्ठा कर लिया जाता। आलू और भंटा (बैगन) आसपास के खेतों से मिल जाता या तो घर से लेकर आते, नदी के जल से आटा गूँथा जाता, नदी में नहाते, लिट्टी चोखा खाते और नदी का पानी पीते। उस लिट्टी-चोखा का स्वाद मेरी स्मृतियों से कभी नहीं जाता। इसी नदी में घंटों नहाते हुए मैंने बार-बार अपने बाऊजी की डाँट खायी है। थोड़ा-बहुत तैरना भी सीखा इसी नदी में। इसी नदी के जल से आसपास के खेतों की सिंचाई होती थी। सिंचाई के लिए ढेंकली और बेंड़ी का इस्तेमाल होता था।

फोटे साभार : गाँव कनेक्शन

बाद में पंम्पिंग सेट का इस्तेमाल होने लगा। दोपहर में दर्जनों लोग जाल या टाप लेकर मछली मारने जाते और एक दो घंटों में ही अपनी जरूरत भर की मछली मार लाते। कुछ लोग कँटिया लगाते और आम तौर पर मँगुरी मछली ज्यादा पाते। कभी-कभी जब बरारी मछली फँस जाती तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहता। रामबिरिछ भइया नदी के किनारे के बिलों में हाथ डालकर बामी मछली पकड़ते जो साँप जैसी लम्बी होती और अमूमन नदी के किनारे बने बिलों में रहती। मैं मछली-मांस नहीं खाता किन्तु मछली मारने की कला देखने में बड़ा आनंद आता। इस नदी को देखकर जहाँ मेरी आँखें जुड़ा जाती थीं आज उसकी दशा पर सिर्फ आँसू बहाती हैं। अब इसमें दूर-दूर तक बालू नहीं दिखता।

अपने समृद्ध अतीत के बावजूद गोरखपुर के दक्खिन वालों की निगाह में यह पूरा इलाका तराई का हैं। वैसे तो तराई, तलहटी का ही विकसित रूप है और तलहटी से मतलब हिमालय की तलहटी से ही है। सबेरे-सबेरे जब आसमान साफ हो तो यहाँ से हिमालय की चोटियाँ साफ दिखायी देती हैं- बर्फीली भी और हरी भरी भी। बड़ा सुहाना लगता है उन्हें देखना। किन्तु यहाँ तो तराई का अर्थ पिछड़ा और असभ्य भी लगा लिया गया है। जबकि यहाँ बसने वाले ज्यादातर लोगों के पूर्वज दक्खिन से ही आए हैं।

हमारी भी एक पट्टीदारी गोरखपुर के दक्खिन खजनी के पास बसडीला गाँव में है। पूर्वजों ने वहीं से यहाँ आकर छोटी सी जमींदारी खरीदी थी। उन दिनों भी बसडीला से बराबर आना जाना लगा रहता था। मेरे एक पट्टीदार नागा बाबा थे। क्या रुचि थी उनकी। कभी ऊँट, कभी घोड़े और कभी हाथी की सवारी करते हुए वे हर साल आते थे, नागा बाबा कभी दाढ़ी बढ़ाए हुए और कभी नंग धड़ंग, सिर्फ लँगोट में। बड़ा अच्छा शरीर था उनका। गँठीले जवान थे। गाँव भर के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक का मनोरंजन होता था उनसे।

वह संयुक्त परिवार का जमाना था। दस पन्द्रह लोगों का परिवार आम था। एक परिवार बड़के टोला पर पियारे काका का था। कम से कम पचास लोगों का भोजन एक चूल्हे पर बनता था। उनकी गायों के रहने के लिए जो घारी थी वह गाँव से बाहर सड़क पर बने उनके खेत में थी और मेरे ओसारे से सीधे दिखायी देती थी। सबेरे-सबेरे जब उनकी घारी का दरवाजा खुलता और उसमें से अस्सी–नब्बे गायों का झुंड निकलता तो देखते ही बनता था। उनकी गायों को दुहने में कई लोग शामिल होते थे। बछड़ों के गले में पगहा नहीं होता था। एक ओर गायों का दूथ बछड़े पीते रहते थे और दूसरी ओर उन्हें दूहा जाता था। बछड़ा भरपेट दूध पीकर अपने आप छोड़ता था। किसी गाय के गले में भी पगहा नहीं लगता। गाएं सीधे नदी की ओर जातीं और दिनभर नदी के किनारे के चरागाहों में चरतीं। ज्यादा चरवाहे भी नहीं होते थे। पियारे काका के गायों के साथ गाँव के दूसरे लोगों की गाएं भी नदी के किनारे ही चरतीं। घर पर नाद में खिलाने की परम्परा तब नहीं थी। अधारे भइया गायों की चरवाही करते। वे बाँसुरी बजाते, फरुआही पर बिरहा टेरते, गाय चराते और शाम होते ही अपने आप गायें धीरे-धीरे घर आ जातीं। फिर शाम को उनका दुहा जाना आरम्भ होता जो देर रात तक चलता रहता। कृष्ण अपनी गायों को ऐसे ही चराते रहे होंगे। पियारे काका बाद में साधू हो गए और गाँव छोड़कर कहीं चले गए। उनके बेटे छेदी को गाँव के लोग ‘घूरे’ कहते थे। वे मेरे बचपन के दोस्त थे, दर्चा पाँच तक साथ में पढ़ाई की थी। उनके निधन का समाचार सुनकर मुझे बड़ा दुख हुआ था

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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