रामपुर की रामकहानी

ठेके पर हरि नाम

 

रामपुर की रामकहानी-16

“गाँव आये आज पाँच दिन हो गये. सिर्फ आज की रात सो पाया हूँ. दिन में मुझे सोने की आदत नहीं और रात होते ही लाउडस्पीकर की चिग्घाड़. कान झनझनाने लगते हैं. सर दर्द से परेशान हूं.” मैं रामवृंद से अपना दुखड़ा रो रहा था जो मार्निंग वाक से लौटते समय मेरे घर पता करने आये थे कि मैं दो दिन से उनके साथ जा क्यों नहीं रहा हूँ. मेरी बात सुनकर वे हँसने लगे,

“चिन्ता मत कीजिए, आज दोपहर से फिर शुरू होने वाला है. पूरा भादो भर चलेगा. इन दिनों सबको फुर्सत रहती है. हर साल सावन-भादो में कीर्तन और भंडारा ही चलता है.”

 काफी दिनों बाद मैं इस मौसम में अपने गाँव आया था और पुस्तकालय भवन बनवाने के लिए कुछ दिन रुकने का इरादा था

“लेकिन लाउडस्पीकर की आवाज इतनी तेज क्यों रहती है ? आप लोगों को कोई असुविधा नहीं होती ?” मैंने जिज्ञासा प्रकट की थी.

“धीरे- धीरे आप भी अभ्यस्त हो जाएंगे. हम लोग तो सो लेते हैं. आदत पड़ गई है.” रामवृंद के कथन में व्यंग्य के साथ मजबूरी भी झलक रही थी. 

“आप लोग लाउडस्पीकर का वाल्यूम कम करने के लिए क्यों नहीं कहते ?” मैंने पूछा.

 “कोई नहीं कहता. मेरी तरह सबको आदत पड़ गयी है. कान में भगवान का नाम ही तो सुनाई दे रहा है. किसी को बुरा क्यों लगेगा ? कल सबेरे मार्निंग वाक पर आइये. टहलना मत छोड़िए.” उन्होंने आदेश की मुद्रा में कहा. वे मेरे शुभचिन्तक हैं और जानते हैं कि मैं सुगर का मरीज हूँ.

दूसरे दिन टहलकर लौटते समय वे मुझे भावनंद बाबा के मंदिर की ओर ले गये.  मंदिर सड़क के किनारे है. सामने और अगल-बगल खूब जगह है. गाँव के लोग यहीं पर कीर्तन कराते हैं. सारी व्यवस्था बनी बनायी मिल जाती है. गाने वाले तक. सिर्फ पैसे खर्च करने पड़ते हैं. मैंने देखा वहाँ कीर्तन चल रहा था. सिर्फ चार लोग गा रहे थे. सुनने वाला कोई नहीं. किन्तु लाउडस्पीकर की आवाज इतनी तेज कि वहाँ हम लोग चिल्लाकर भी कोई बात करें तो दूसरे को सुनाई नहीं पड़ रहा था.

“केकर कीर्तन होता ?”

“बेचू मौर्या के.”

 “ जगलाल भैया के बेटा बेचू ?” मैं कन्फर्म होना चाहा.

“हाँ, हाँ, उनहीं के.”

“उनहूँ के त नाईं देखत बांड़ीं ?” मैंने चारो ओर नजर दौड़ाई. “के के गाव ता ? “

“गाँवे के लोग नाईं हवें.”

 मैं चकित रह गया. कीर्तन में न घर का कोई है और न गाँव का.

               “आजकल कई ठो ग्रुप बा कीर्तन गावे वालन के. सट्टा दिआ जाला.”

“क्या जमाना आ गया है. भगवान का नाम भी ठेके पर.” मैं मन ही मन बुदबुदाकर रह गया.

मंदिर के सामने भूपनाथ मौर्य का घर हैं. वे अपने दरवाजे पर खड़े हमारी ओर देख रहे थे. मैं उनके समीप चला गया और चिल्लाकर पूछा,

 “आपको इस लाउडस्पीकर की आवाज से कोई परेशानी नहीं होती है ?”

                “बहुत होती है.” उनकी पीड़ा आँखों से छलकने लगी. “एक लड़का है. इस साल फाइनल इन्तहान देगा. उसे पढ़ने को ही नहीं मिल रहा है.”

“मना क्यों नहीं करते ?”

वे मेरा मुँह देखने लगे. उन्हें लगा कि ये कैसी बात कह रहे हैं. कीर्तन के लिए भला कैसे मना किया जा सकता है ? मैंने उनकी समस्या ताड़ लिया.

 “आप को उनसे कहना चाहिए कि बच्चे का इन्तहान है. लाउडस्पीकर का वाल्यूम थोड़ा कम कर लें. इससे बहुत असर पड़ेगा.”

 “ कई बार कह चुका हूँ. लोग कम करते भी हैं किन्तु बाद में दूसरे लोग आते हैं और फुल पर करवाकर चले जाते हैं.” उन्होंने अपनी विवशता प्रकट की.

मुझे अपने बचपन का कीर्तन याद आ गया. कीर्तन तो वैसे ही होता था जैसे आज हो रहा है किन्तु उन दिनों लाउडस्पीकर का प्रचलन नहीं था. लोग बिना माइक के गाते थे. तब भावनंद बाबा का मंदिर भी नहीं बना था. एक भी मंदिर नहीं था गाँव में. शायद इसीलिए कीर्तन लोगों के अपने घरों के ओसारों में हुआ करते थे..

हमारे टोले पर राम बिरिछ भैया के ओसारे में या हमारे ओसारे में हर साल कीर्तन होता.  छब्बे काका ढोल बजाते और राम बिरिछ भैया कढ़ाने वाले होते और गाने वाले इतने होते कि उन्हें बैठने की जगह कम पड़ती.  मुझे भी अच्छा लगता और मैं भी झाल या करताल उठा लेता और झूम झूम कर गाने लगता,

“हरे रामा हरे रामा, रामा रामा हरे हरे, हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे.”

 चौबीस घंटे इतना ही गाना होता है, चाहे जितनी भी राग रागिनियों में इसे ढाल लीजिए और चाहे जितने भी ढोल, झाल, करताल बजा लीजिए. भला कैसे अच्छा लगेगा इतना ही बार बार दुहराना ? किन्तु लोगों को अच्छा लगता था, भगवान का नाम जो था. “घीव के लट्टू टेढ़ो भला.”

किन्तु मेरी समस्या दूसरी थी. राम और कृष्ण को ‘हरे रामा’ ‘हरे कृष्णा’ कहकर लोग रेरियाते क्यों हैं ?  इस तरह उन्हें अपमानित क्यों करते हैं ? वर्षों तक मैं इस समस्या से जूझता रहा.

उन दिनों हरिकीर्तन बैठाने के लिए सिर्फ भगवान राम और कृष्ण की कुछ तस्वीरें एक तरफ आसन बनाकर सजा दी जातीं और उन पर फूल पत्तियाँ रख दी जातीं. ढोल, झाल, करताल में से कुछ न कुछ सबके घरों में होता था.  कीर्तन शुरू. गाँव भर के लोग आते- जाते रहते अपनी सुविधा और समय के अनुसार. गाने वालों की भीड़ लगी रहती. हाँ जत्तन कोँहार जब कीर्तन गाने वालों की जमात में शामिल होते तो बैठने वालों में खलबली मच जाती. लोग उन्हें जगह देने के लिए अगल -बगल सरकने लगते. कुछ तो उठकर चले भी जाते.

असल में जत्तन नहाते बहुत कम थे. बंडी (गंजी) पहन कर कहीं भी चले जाते. उनकी बंडी के ऊपर भी कभी -कभी चिल्लर रेंगते हुए दिखाई दे जाते. बंडी को चिल्लर विहीन न करने की मानो उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी. इसीलिए उनके पधारते ही बैठने के लिए महफिल में उन्हें भरपूर जगह मिल जाती. जत्तन अकेले रहते थे और खुद बनाते खाते थे. उनका सौन्दर्यबोध अद्भुत था. उन्होंने एक बार बाऊजी से कहा था, “आजु खूब छोट- छोट आलू के भुजुआ तरकारी बनवली हईं.  अँठई जइसन कुरकुर भईल रहल ह. खूब भरपेट खइलींहँ.” बाऊजी ने “धत् सारे के.”  कहकर उनके दृष्टांत का उपहास किया था.

इसी तरह गाँव भर के लिए मसखरे की तरह एक व्यक्ति थे ‘गोबिन’. उनका पूरा नाम गोबिन्द रहा होगा किन्तु मैंने उन्हें हमेशा गोबिन के नाम से ही जाना. मूरत काका उनकी बहुत खिल्ली उड़ाते थे. बड़का टोला पर पोखरा के किनारे सड़क पर उनका घर था. उनके घर के दाएं बाएं दोनो तरफ रास्ते निकलते थे. एक रास्ता चमरउटी की ओर जाता था और दूसरा खाँव के घर की ओर.  गोबिन काका दरवाजे पर महुआ के पेड़ के नीचे बैठे- बैठे आने- जाने वालों की छींटाकसी का जवाब अपने मौन रूपी अमोघ अस्त्र से देते रहते थे. जाड़े के दिनों में महुआ के पेड़ से थोड़ा हटकर उन्हें धूप में ऊंड़ुस ( खटमल) मारते प्राय: देखा जा सकता था. सुतरी से बुनी हुई चारपाई को वे जोर से पटकते और फिर नीचे झाँकते. जमीन पर गिरे हुए खटमलों को वे अपने नंगे पैर के अंगूठे से मसल – मसल कर ऐसे मारते जैसे भीमपुत्र घटोत्कच कौरव सेना को. खटिया पटकने से जो खटमल नीचे नहीं गिरते उन्हें वे छोटी लकड़ी से बाध हटा- हटाकर ढूँढते और दांत पीस -पीस कर मसलते. ऊंड़ुस मारने में उन्हें बड़ा मजा आता था. उन दिनों लोग खटमलों को मारने के लिए चारपाई को तालाब में डुबो देते और चौबीस घंटे के बाद उसे तालाब से निकाल कर सुखा देते. ऊँड़ुस खत्म. पंद्रह -बीस दिन की छुट्टी हो जाती. किन्तु गोबिन ऐसा नहीं करते. अपने अंगूठों से ऊंड़ुस मारने के सुख से वे वंचित नहीं होना चाहते थे.

 एक दिन जब मूरत काका उधर से गुजर रहे थे तो गोबिन काका ने आवाज देकर बुला लिया और थोड़ा इतराते हुए कहा, “ए मूरत, पता नाहीं काहें आजुकल कनकजीरे के भात, रहरी के दाल आ आलू- गोभी के तरकारी, तनिको नींके नाईं लागता.” तो मूरत काका ने तपाक से कहा था, “ए भैया तब का गूह नाईं नS खइब ?”  गोबिन छनमनाकर रह गये थे और मूरत काका चलते बने.

 ‘मंगलपुर के पहुना’ की तरह गोबिन कभी- कभी मिरजई पहनते थे. मंगलपुर के पहुना राम चंदर भैया के घर के दामाद थे किन्तु घरजमाई की तरह हफ्ते दो हफ्ते में घूम- फिर कर अपनी ससुराल आ जाया करते थे.  गाँव भर के लोग उन्हें पहुना ही कहते थे. जाड़े में जब वे अपनी मटमैली मिरजई पहने हुए आते तो मजाक में लोग उन्हें हिंगुअरहा पहुना कहते. असल में पहले जाड़ों में पहाड़ी लोग हमारे इलाके में हींग बेंचने आते. वे बहुत गंदे मोटे कपड़ों की मिरजई जैसी पोशाक पहने रहते. शायद वे नहाते भी बहुत कम थे, किन्तु उनकी हीँग बड़ी सुगंधित और उम्दा होती थी.  महिलाएं साल भर के लिए उनसे हींग खरीद कर रख लेतीं. उन पहाड़ियों को लोग ‘हिंगुअरहा’ कहकर ही पुकारते. मिरजई पहनने वाले अब नहीं दिखते. 

      चौबीस घंटे बाद ठीक उसी समय हरिकीर्तन का समापन होता. छोटी सी यज्ञ की बेदी बनती. हवन होता और सबको प्रसाद मिलता. प्रसाद में चरणामृत और पंजीरी. दही में भेली मिलाकर चरणामृत और गेहूँ के आटे को भूनकर और उसमें बतासा गड़ी -छोहाड़ा डालकर पंजीरी. चरणामृत आम के पत्ते के दोने से हथेलियों पर रख दिया जाता. लोक मुँह से सुड़क कर बाकी अपने सिर में पोंछ लेते और उसी हाथ में पंजीरी ले लेते.

उन दिनों भंडारा छोटा होता. लोग मिलजुल कर संपन्न करते. रिश्तेदार भी आते और गाँव के लोग भी. पुड़ी, सब्जी और तस्मई. केले की सब्जी या बंडा की सब्जी सबसे ज्यादा पसंद की जाती. मेरे गाँव में राम बिरिछ भैया भोजन बनाने में भी उस्ताद थे. संख्या बढ़ने लगती तो पिसी मिर्च की बुकनी थोड़ी बढ़ा देते. उन दिनों तालाबों में पुरइन के पत्तों की कमी नही थी. भोजन पुरइन के पत्तों या केले के पत्तों पर कराया जाता. मिलजुल कर बनाना और मिलजुल कर खाना. पानी के लिए मिट्टी का बट्टा इस्तेमाल होता जिसे चुक्कड़ भी कहा जाता. भोजन में भी बोझ एक के सिर नहीं रहता. अपनी क्षमतानुसार कोई पिसान दे देता, कोई तस्मई के लिए दूध, कोई चावल और कोई सब्जी. मेल- जोल का माध्यम भी था हरिकीर्तन.

जन्माष्टमी के दिन कीर्तन जरूर होता. इस समय कृष्ण जन्म की झाँकी सजाई जाती और उसी के सामने कीर्तन होता. झाँकी में मख्खन खाते बालक कृष्ण की तस्वीर जरूर होती. ठीक बारह बजे रात को कृष्ण का जन्म होता. प्रतीक रूप में ढँका हुआ खीरा निरावृत कर दिया जाता. राम बिरिछ भैया बड़े उत्साह से गाते,

“गोकुला में बाजे बधैया गोविन्द लाल भुइयाँ गिरे हैं.” कान्हाँ के भुइयाँ गिरने की खुशी में सभी खड़े हो जाते और झूम-झूम कर एक साथ गाते, “गोविन्द लाल भुइयां गिरे हैं.” गाते- गाते लोग मस्ती में झूमने लगते. इसके बाद प्रसाद बँटता.

हरिकीर्तन से भी बड़ा आयोजन होता है श्रीमद्भागवत. गाँवों में जो भागवत सुन लेता था उसे भरोसा हो जाता था कि उसका कम से कम कुंभी नरक नहीं होगा. भागवत कथा कम से कम दस दिन चलती थी. सुनने वाले के यहाँ लोगों का आना जाना लगा रहता था. मैंने भागवत सुनते पहली बार जिन्हें देखा वे थे हमारे पड़ोस के दुखी काका. सुनाने वाले थे बागापार के महातम सुकुल. वे श्लोकों को सुमधुर स्वर में गाते थे और इसके बाद उसकी व्याख्या भी करते थे. वे कहा करते थे कि संस्कृत के श्लोकों को सुनने से ही पुण्य मिलता है क्योंकि संस्कृत देववाणी है. इसलिए इन्हें जरूर सुनना चाहिए. बाद में जब मैं संस्कृत साहित्य पढ़ने लगा तो देखा कि इसके भी अनेक ग्रंथों में उसी तरह पाखंडों का विरोध है जैसे हिन्दी के ग्रंथों में. इसमें भी अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र आदि पर किताबें लिखी गई हैं. इसमें भी लम्बी और छोटी हर तरह की कहानियाँ लिखी गई हैं जैसे हिन्दी में. इसमें भी प्रेम और सौन्दर्य का वैसे ही चित्रण है जैसे हिन्दी में. फिर यह विशिष्ट और पवित्र भाषा कैसे हो गई,  सिर्फ पुरानी होने के कारण ? श्लोक सुनने मात्र से पुण्य क्यों मिलता है ? निश्चय ही संस्कृत के पंडितों ने इस पर अपना विशेषाधिकार जमा रखा है. पुरानी होने के कारण आम लोगों की समझ में तो यह आती नहीं.

श्रोताओं में पुरुषों से अधिक महिलाएं होती थीं जो सज धज कर कथा सुनने आती थीं. कथा सुनने आने वाली महिलाएं सबसे पहले व्यास- गद्दी पर बैठे पंडितजी का बड़े आदर के साथ पाँव स्पर्श करतीं अपना आंचल पकड़कर. नई उमर की महिलाएं जब उनका पाँव छूतीं तो पंडित जी उनके घूँघट में छिपे चेहरे की ओर बड़े ध्यान से झाँकते. झुकते समय कभी- कभी उन्हें ब्लाउज के ऊपरी हिस्से की भी एक झलक मिल जाती और उनकी आँखें तृप्त हो जातीं. लोग चोरी-छिपे कहते कि “महातम सुकुल कथा त बहुत बढ़ियाँ बाँचेलें बकिर तनी मउगाह हवें.”

भागवत-कथा आज भी होती है. इस बार जब गाँव गया तो दो दिन बाद ही राम नयन भागवत सुनने बैठे. संयोग से उनके घर के पीछे मेरा घर है. उनके लाउडस्पीकर का मुँह पूरब की ओर था इसलिए मुझे कथा की आवाज कम सुनाई पड़ती थी. कथा का भी निर्धारित समय होता था. हरिकीर्तन की तरह चौबीस घंठे गाना नहीं होता था. राम नयन आकर मुझे कथा सुनने के लिए आमंत्रित कर चुके थे. “बिहान भागवत बइठी. तुहँऊ अइहS.” मैंने उन्हें आश्वस्त किया था.

 कथा शुरू हुई तो लिहाज के नाते एक -दो दिन उनके दरवाजे पर गया भी किन्तु पंडित जी व्यास-गद्दी पर ऊँचे बैठे थे और नीचे कुछ महिलाएँ. कुर्सी थी नहीं. अपने लिए उपयुक्त जगह न देखकर लौट आया था. हाँ, भंडारा में जरूर शामिल हुआ किन्तु अब पुड़ी- सब्जी खाने में पहले जैसी रुचि नहीं रह गई है.

गाँव में इधर दो त्योहारों का प्रचलन तेजी से बढ़ा है, छट्ठि और दुर्गापूजा. छट्ठि माई बिहार से आई हैं और दुर्गा माई बंगाल से. हमारे इलाके में दोनो का आगमन डेढ़-दो दशक पहले ही हुआ है. जबसे इन दोनो देवियों का पदार्पण हमारे गाँव में हुआ है, इनके प्रताप से पूजा के समय गाँव में बड़ी चहल-पहल रहती है. इन दोनो देवियों को नाच- गाना, खाना-पीना, गाजा-बाजा, मौज मस्ती बहुत पसंद है. इनके भक्त इनका जयजयकार करने, नारे लगाने और मद-मस्त होकर नाचने से कभी नही थकते.

पिछले वर्ष छट्ठि माई की पूजा के दिन गाँव में ही था. सायं दिन ढलने के साथ गाँव के  प्रमुख तालाबों के किनारे से और राम घाट से भी पड़ाका फोड़ने की लगातार आवाज आने लगी तो मैंने रामवृंद से फोन करके कह दिया कि आज तो विलंब हो गया किन्तु कल हम पूजा देखने जरूर चलेंगे. हम ठीक चार बजे रात में ही मार्निंग वाक के बहाने पहले टिकुलहिया पोखरी पर और उसके बाद वहीं से रामघाट चले गये. टिकुलहिया पोखरी को चारो ओर से सजा दिया गया था. ग्राम समाज की ओर से लाइटिंग की सुंदर व्यवस्था की गई थी. बाजे बज रहे थे और सजी -धजी महिलाएं छट्ठि माई का गीत गा रही थीं. मादक वातावरण था. वहीं से हम रामघाट गये तो वहाँ का दृश्य देखकर चकित रह गये. नदी पर बने पुल से हम देख रहे थे. लगता था नदी की क्षीण धारा के किनारे स्वर्ग से अप्सराऔं का समूह उतर आया है. थोड़ा- थोड़ा पाँव नदी के जल में डाले, हाथों में अर्घ्य लिये पंक्तिबद्ध खड़ी सजी- धजी महिलाओं की लंबी श्रेणी सूर्य के उगने की प्रतीक्षा कर रही थीं. अपने गाँव की नदी के किनारे ऐसा मनोरम दृश्य मैंने पहली बार देखा था.

मैंने देखा कि छट्ठि माई का ब्रत लेने वाली महिलाऔं के साथ आर्केस्ट्रा के कई ग्रुप, जिनमें लड़कियाँ अपने झीने कपड़ों में भोजपुरी के अश्लील गानों पर थिरक रही थीं. स्वाभाविक रूप से लुहेड़ो की टोली रह रह कर इन लड़कियों के पास जाने की कोशिश भी कर रही थी. नीचे नदी के किनारे खड़ी ब्रती सुंदरियों की श्रेणियाँ और ऊपर पुल पर से उन्हें घूरती लंपटों की भूखी निगाहें. मुझे लगा कि मेरा गाँव अब उत्तरआधुनिक युग में प्रवेश कर चुका है.

दुर्गा पूजा के क्या कहने! इस बार मेरे छोटे से गाँव में दुर्गापूजा के तीन पंडाल बने थे. एक चौराहे पर, एक भावनंद बाबा के मंदिर पर और एक पंचायत भवन के सामने. पंचायत भवन के सामने बजने वाले लाउडस्पीकर की आवाज सीधे मेरे कानों में पड़ती थी और मेरे कान धन्य हो रहे थे. गाँव की देवियाँ सुबह चार बजे से जागरण गीत गाना शुरू करती थीं,

“ऊठ ऊठ हो जगदम्मा माई भोर हो गईल.

ऊठ ऊठ हो सिवसंकर बाबा भोर हो गईल.”

मैंने रामवृंद से पूछा, “एक ही गाँव में ये तीन पंडाल क्यो ? यदि एक ही बनता और दूसरे पंडालों का खर्च एक ही पंडाल में लगता तो पंडाल और अधिक सुंदर बन सकता था. पूरे गाँव की भीड़ भी एक जगह इकट्ठी होकर पूजा की रौनक में चार चांद लगा देती.”

“यह गाँव की गुटबंदी का फल है. इन दिनों गाँव में तीन गुट सक्रिय हैं. पंडालों के बहाने तीनो गुट अपना- अपना शक्ति- प्रदर्शन कर रहे हैं. एक जगह कैसे इकट्ठा हो सकते हैं ?”

       विसर्जन रेहाव नदी में हुआ था. किन्तु विसर्जन से पहले मूर्ति को ट्राली में रखकर जुलूस की शक्ल में पूरे गाँव में घुमाया गया. मूर्ति को पकड़कर कुछ युवा ट्राली में खड़े थे और बड़ी संख्या में युवक और युवतियाँ लाउडस्पीकर के गानों पर झूम झूम कर नाच रहे थे. उनके सारे अंग अबीर और गुलाल में सराबोर थे. उनकी चाल -ढाल और नृत्य की मुद्राएं उनकी मस्ती का बयान खुद कर रही थीं. जुलूस नारे लगा रहा था, “दुर्गा मइया की जय” और “जय श्रीराम”.

मैंने रामवृंद से पूछा, ‘जय श्रीराम’ का दुर्गा की पूजा से क्या संबंध है ?

 “आप बताइए न. आप तो प्रोफेसर हैं.” उन्होंने कहा और मैंने हाथ जोड़ लिये.

मैं सोचने लगा. ये जुलूस और नारे ही आज की सारी समस्याओं की जड़ हैं. इस बार मोहर्रम के वक्त भी मैं यहीं था. कई दशक बाद गाँव के मोहर्रम के जुलूस को देख रहा था. मन हुआ कुछ दूर ताजिये के साथ चलूँ. बचपन में महीनों से कर्बला के मेले की प्रतीक्षा करता था. मेले से पहले रात में निकलने वाले ताजिये के जुलूस में जब ढाँक- तासा बजता था तो मैं अपने को कहाँ रोक पाता था ? सोये रहने पर बाऊजी जगा देते थे. लाख तंगी हो, ताजिये के जुलूस में शामिल होने के लिए बाऊजी फूलझरी और मोमबत्ती जरूर खरीदते थे जिसे जलाकर मैं फूले न समाता. महिलाएं ताजिए के पीछे- पीछे चलती हुई ‘जारी’ गातीं. बच्चे ‘पायख’ बनते. हिन्दू मुसलमान का कोई भेद नहीं था. दर्जा दस पास करने के समय तक मुझे पता ही नहीं था कि मोहर्रम मुसलमानों का त्योहार है.

किन्तु इस बार मोहर्रम के जुलूस को देखकर डर लगा. एक भी हिन्दू शामिल नहीं था. लोग ‘अल्लाहू अकबर’ के नारे लगा रहे थे.

हमारे यहाँ ये जुलूस वाली भक्ति आई कहाँ से ?

जिन ग्रंथों में भक्ति का विवेचन है उनमें ‘श्रीमद्भगवद्गीता’, ‘श्रीमद्भागवत’ और ‘रामचरितमानस’ प्रमुख हैं. इनमें तो जुलूस निकालकर और नारे लगाकर भक्ति करने का उल्लेख नहीं है. सूर, कबीर, मीरा, रैदास आदि संतों के साहित्य को भी मैंने जाँचा-परखा है. किसी ने इसका सुझाव नहीं दिया है.

तुलसी सहित अधिकाँश भक्तों ने श्रीमद्भागवत में उल्लिखित नवधा भक्ति के अनुसरण का सुझाव किया है.  नवधा भक्ति वाला श्लोक निम्न है,

“श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् / अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्.”

यानी, ईश्वर की लीला का श्रवण करना, उसका गुणगान करना, उसका स्मरण करना, उसके चरणों का आश्रय लेना, उसका पूजन करना, उसकी वंदना करना, उसे अपना स्वामी और स्वयं को उसका दास मानना, उसे अपना सबसे घनिष्ठ मित्र मान लेना और उसके सामने अपने को समर्पित कर देना – यही नौ तरह की भक्ति नवधा भक्ति है.  इस नवधा भक्ति में भी गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकालने और उसमें नारे लगाने का सुझाव कहीं नहीं है.

‘नारद भक्ति सूत्र’ भी भक्ति से संबंधित बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ है. नारद ने भक्ति को परिभाषित करते हुए उसे “सात्वस्मिन् परम प्रेमरूपा” कहा है. अर्थात्, भगवान में परम प्रेम होना ही भक्ति है. ‘शाण्डिल्य भक्ति-सूत्र’ में कहा गया है “सा परानुरक्तिरीश्वरे भक्ति:” अर्थात ईश्वर में अत्यधिक अनुरक्ति ही भक्ति है.

वैसे भी भक्ति का मूल तत्व प्रेम ही है. प्रेम का समाजीकरण ही भक्ति है. जब तक कोई चाहे कि जिससे वह प्रेम करता है उससे कोई दूसरा प्रेम न करे तब तक प्रेम है किन्तु, जब कोई चाहने लगे कि जिससे वह प्रेम करता है उसी से सभी प्रेम करें तो वह भक्ति है.

जब किसी भी धर्मग्रंथ में जुलूस निकालने, नारे लगाने और इस तरह शक्ति- प्रदर्शन वाली भक्ति का उल्लेख नहीं है तो फिर यह जुलूस और नारेबाजी वाली भक्ति आयी कहाँ से ?

 “ये जो छोटे-छोटे बच्चे मुट्ठी बाँधकर ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाते हैं उसका असली रूप आपको याद हैं ?” मैंने रामवृंद से पूछा. वे ठहर कर सोचने लगे. “याद है जब आपके दादा भजन गाते थे तो शुरुआत किससे करते थे ? ‘जय सियाराम जय जय सियराम.’ ‘सियाराम’ में से ‘सिया’ को कब ‘राम’ से अलग कर दिया गया और उसकी जगह ‘श्री’ जोड़ दिया गया, कुछ पता चला आपको ? यही राजनीति है. करुणा, दया और त्याग की साक्षात् मूर्ति हैं माता सीता. उनके रहते ये बच्चे दंगाई कैसे बन सकते थे ? मुट्ठी भांजकर जब ये बच्चे ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाते हैं तो उनके चेहरे पर आक्रोश होता है और भुजाओं में आक्रामकता. अब ‘नीलाम्बुजश्यामलकोमलांगम्’ वाले राम के दर्शन कम होंगे जिनकी बायीं ओर माता सीता विराजमान हों. अब तो धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाए जिस राम की मूर्ति से इन बच्चों का परिचय हो रहा है उनकी त्योरी चढ़ी ही रहती है. न जाने क्या होने वाला है मेरे इस प्यारे मुल्क का ?“ मेरे साथ रामवृंद भी उदास हो गये.

 पिछले कुछ वर्षों से सांप्रदायिकता में जो उभार आया है उसमें इस जुलूस और नारेबाजी वाली भक्ति की ही मुख्य भूमिका है.

एक बार मैंने अपनी फेसबुक पर यही सब लिखकर पोस्ट कर दिया था, इस सुझाव के साथ कि सभी धार्मिक जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए चाहे वे जुलूस किसी भी धर्म से संबंधित क्यों न हों, तो मेरे खिलाफ लोगों ने मोर्चा खोल दिया था.

एक दिन मैं अपने घर के वरामदे में बैठा था. देखता हूँ की सड़क पर सैकड़ो की संख्या में बाईक सवार गेरुवाधारी नौजवान धीरे- धीरे चले आ रहे हैं. उनके पीछे सैकड़ों की संख्या में महिलाएं, युवतियाँ और छोटी उम्र की लड़कियाँ भी अपने सिर पर कलश लिये शोभा यात्रा में शामिल हैं. इनके पीछे- पीछे दर्जनों ट्रैक्टर- ट्राली और कारें और सबसे पीछे जन समूह. लगता था पूरा गाँव ही उमड़ पड़ा है. मैंने अपने पड़ोसी राम नयन से पूछा, “कइसन जलूस हे हो ?”

“लखिमा में आजु जग्गि बइठी. ओही के तैयारी में कलश- यात्रा निकरल बा.”

दूसरे दिन मार्निंग वाक की हमारी दिशा बदल गई. हम लखिमा पोखरा के किनारे मंदिर के समीप यज्ञ- स्थल पर गये. सुबह पाँच बजे से ही यज्ञ- मंडप की परिक्रमा के लिए महिलाओं की कतारें लग गई थीं. वे सज- धज कर यज्ञ- मंडप की परिक्रमा कर रही थीं. पता चला कि यज्ञ अगले दस दिन तक चलेगा और तब तक यहाँ मेला लगा रहेगा.

लखिमा मेरे गाँव के बगल का गाँव है. रामवृंद ने बताया कि आज कल यज्ञ कराना भी कुछ लोगों का धंधा बन चुका है. बाहर से कुछ लोग आते हैं और गाँव के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क करके यज्ञ का आयोजन करते हैं. खूब दान मिलता है. खूब खर्च भी होता है और अंत में लाखों की बचत. आयोजक कमाते भी हैं और साथ में हिन्दुत्व का पाठ भी पढ़ाते हैं. ऊपर के आका भी खुश.

हो रहा है न उत्तरआधुनिक हमारा गाँव ?

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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