बाऊजी
रामपुर की रामकहानी-15
19 फरवरी 1991, बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के इमेरजेंसी वार्ड का बेड नं.-7। रात के दो बज रहे हैं। डॉक्टर निर्विकार भाव से जाँच कर रहा है- सिर्फ हमारी संतुष्टि के लिए। सरोज, दीदी, विश्वंभर आदि कई लोग घेर कर खड़े हैं। बाऊजी अन्तिम साँस ले रहे हैं। मैं साँस रोके उन्हें देख रहा हूँ। जी करता है उन्हें दोनो हाथों से अँकवार में भर लूँ और खूब चिल्ला- चिल्ला कर रोऊँ। उनसे कहूँ कि आप तो कभी हार मानने वाले नहीं थे? कितने साहसी थे आप? मामूली ठोकर ही तो लगी थी किसी की बाईक से? आप की हड्डियाँ इतनी कमजोर कैसे हो गईं? मैं सब समझ रहा हूँ। मेरी ही तरह आप भी तो सोचते रहते थे- राह चलते। सड़क पर कुछ सोचते हुए चल रहे होंगे, हार्न नहीं सुनाई दिया होगा और किसी ने ठोकर मार दी होगी। आप मन से कमजोर हो गये हैं। अकेलापन ने आप को कमजोर बना दिया है। माँ के जाने के बाद पिछला नौ साल कैसे गुजारा है आपने, यह आप के अलावा कोई नहीं समझ सकता। लोग तो आप को भाग्यशाली कहते हैं। दोनो बेटे प्रोफेसर हो गये। लेकिन सचाई तो सिर्फ मैं जानता हूँ न? किस काम के थे हम आपके लिए? आप का मन न गोरखपुर में विश्वंभर के यहाँ लगता था और न मेरे यहाँ बड़हलगंज में। हम दोनो अपनी- अपनी दुनिया में व्यस्त। कौन अड्डेबाजी करता आप के साथ रोज बैठकर? किसे फुर्सत थी? संध्या की शादी के बाद गाँव में कोई था नहीं जो आप को दो रोटी बना कर खिला सके। भरे–पूरे परिवार में परिवार का मुखिया कितना अकेला हो गया था अपने अन्तिम दिनों में।
बाऊजी, आज आप हमें माफ कर दीजिए। मेरी यह अन्तिम प्रार्थना स्वीकार कर लीलिए। लौट चलिए घर। मैं सारा पढ़ना-लिखना छोड़कर आपकी सेवा में लग जाऊँगा। आप से खूब बातें करूँगा। आप को तुलसीकृत रामायण, विश्राम सागर और गीता पढ़कर रोज सुनाऊँगा। अकेले कभी नहीं छोड़ूँगा।
“ही इज नो मोर” डॉक्टर की जबान खुली और मेरी तंद्रा टूटी। दीदी चिल्ला उठी। सबकी आँखों से आँसुओं की धाराएं फूट पड़ीं। पिछले बत्तीस साल से मैं इसी पछतावे के साथ जी रहा हूँ कि बाऊजी को मैंने अकेला छोड़ दिया था वर्ना उनकी छत्र-छाया आज भी हमारे सिर जरूर होती। मैं नहीं मानता कि उनकी मौत आ गई थी। मैं अंध भाग्यवादी नहीं हूँ, कर्म में विश्वास करता हूँ मैं। अब तो मरते समय तक यह पछतावा मेरा पीछा छोड़ने वाला नहीं है कि उनके असमय निधन का जिम्मेदार मैं भी हूँ। आज भी लगता है कि बाऊजी की कातर निगाहें मुझे निहार नहीं रही हैं, पुकार रही हैं।
अद्भुत जीवट के व्यक्ति थे बाऊजी। अपने भैया से बँटवारे के बाद बिल्कुल अकेले। शादी के सात-आठ वर्ष बाद ही पत्नी को दमा ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था। किन्तु बाऊजी कभी हार नहीं माने। आजीवन उन्होंने माँ की एकनिष्ठ भाव से सेवा की। तनिक भी कोताही नहीं बरती। अभावों के बावजूद उन्होंने अपने पौरुष और सूझ-बूझ के बल पर पूरी ईमानदारी और स्वाभिमान के साथ जो जिन्दगी गुजारी, वह एक मिसाल है।
बचपन में बाऊजी के भैया ही घर के मालिक थे। वे मिडिल पास थे और आला काबिलियत भी। खुद सरकारी प्राइमरी स्कूल के अध्यापक। अपने से बीस साल छोटे भाई की तालीम के प्रति वे उदासीन रहे। उन्होंने अपने अनुज को इतनी ही तालीम दिलाई जिससे कि वे ‘तुलसीकृत रामायण’, ‘विश्राम सागर’, ‘सोरठी वृजाभार’, ‘आल्ह खंड’, ‘तोता मैना किस्सा’,’लोरिकायन’ और ‘बैताल पचीसी पढ़ सकते थे। वे भैंस चराते, दूध दुहते, कुश्ती लड़ते, आल्हा गाते और खेती करते। उनके मुँह से उनकी मान्यताओं को प्रकट करने वाली निम्नलिखित पंक्तियाँ मैंने नसीहत के रूप में सैकड़ों क्या हजारों बार सुनी है-
“उत्तम खेती मध्यम बान, निसिध चाकरी भीख निदान।”
बँटवारे के बाद अपने हिस्से में आई खेती और बैल की सेवा से जो समय बचता, वे अपने ही अन्य पट्टीदारों के यहाँ कुछ काम करते किन्तु भोजन उन्हें अपने घर खुद बनाना पड़ता- उनके बूढ़े पिता जो उनके साथ थे। ब्राह्मण होने के कारण उन्हें न तो हल की मूठ पकड़ने का सामाजिक अधिकार था और न दूसरों के यहाँ मजदूरी करने का। इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर आँच आ सकती थी।
चंद्रबली मामा जब आये थे और उन्हें भी बाऊजी ने अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाया तो उन्हें अपने बहनोई का दुख देखा न गया और अपनी बहन को उन्होंने खुद पहुँचा दिया और साथ में एक बैल भी। बाऊजी के हिस्से में आई बैलगाड़ी अब चल निकली। वे पास के कटहरा जंगल से सूखी जलौनी लकड़ियाँ लादते और सिसवा-घुघली जैसे शहरों में ले जाकर बेंचते।
घर के सामने से गुजरने वाली सड़क उन दिनों कच्ची थी। बैलगाड़ियों के पहिये भी उन दिनों काठ के होते थे जिन पर लोहे की हाल चढ़ी होती थी। एक ही रास्ते पर वैलगाड़ियों के लगातार चलने से सड़कों पर लीक बन जाती थी और बरसात के दिनों में बड़े- बड़े गड्ढे। कभी- कभी बैलों के लिए उन बड़े- बड़े गड्ढों से बैलगाड़ियों को निकालना बड़ा कठिन होता था। बाऊजी को दूसरों का सहयोग लेना पड़ता था। कई लोग एक साथ जोर लगाकर गड्ढों से पहिया निकालते थे। बैल भी अपना कर्तव्य भली-भाँति जानते थे और यथासमय वे भी जोर लगाते थे। सहयोग के बगैर गाँव में जीवन संभव नहीं है। बाऊजी उसी सड़क से शहरों तक लकड़ियाँ ले जाते थे और तीसरे या चौथे दिन लौटते थे। लकड़ियों से लदी बैलगाड़ी जब घर के सामने आती तो वे सड़क के किनारे बैलगाड़ी खड़ी करके भोजन करने घर आते, एक दो घंटे रुकते और फिर बैलों की लगाम थाम लेते। बैलगाड़ी पर उनके भोजन के लिए आटा चावल के साथ जरूरी बर्तन भी पड़ा रहता और बैलों के लिए खली -खुद्दी और भूँसा भी। जहाँ शाम होती भोजन पकाकर खा लेते। उनके बैल इतने सधे होते थे कि कभी- कभी तो बाऊजी बैलगाड़ी पर गहरी निद्रा में सोते रहते और बैल अपने रास्ते चलते जाते। ऐसे दृश्य अनेक बार मैंने देखा है। सामने से आने वाली बैलगाड़ी को देखकर बैलों का अपने आप किनारे हो जाना और उन्हें रास्ता देना सामान्य बातें थीं। मैंने बाऊजी को असीमित संघर्ष करते देखा है। कभी मैंने उनके चेहरे पर हताशा नहीं देखी। माँ को जब दमा ने दबोच लिया तो उसकी देखभाल के लिए बाऊजी ने भी लकड़ी लादना छोड़ दिया।
आल्हा गाना बाऊजी का शौक था। आस-पास के गाँवों के लोग आम तौर पर उन्हें आल्हा गाने के लिए आमंत्रित करते। उन्हें सिर्फ उनके भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती। उस दिन अमूमन वे अहरा पर लिट्टी, अरहर की दाल और चोखा बनाते। भोजन करने के बाद आल्हा शुरू करते और दो घंटे के बाद दो माना (एक किलो) दूध पीते। दूध अहरा पर ही गरम होता रहता। हाँ, उस दिन वे पान जरूर खाते, सादा पान। मैंने कई बार उनकी महफिल में श्रोता की हैसियत से आल्हा का आनंद लिया है। जब वे युद्ध के दृश्य का वर्णन करते,
“खटखट खटखट तेगा बोले, बाजै छपक छपक तलवार,
सरसर सरसर सरही चल रई, जाकैं लगें निकरबें पार
पैदल कै संग पैदल भिरिगे, औ असवारन से असवार,
हौदा कै संग हौदा मिलिगै, ऊपर पेशकब्ज की मार।”
तो उनके ढोलक पर थाप भी तेगा की तरह ही तेज हो जाती और मेरी भी भुजाएं फड़कने लगतीं। रूदल के जन्म का वर्णन करते हुए वे गाते थे,
“जा दिन जनम भयो रूदल कै, धरती धँसी अढ़ाई हाथ।”
आल्हा गाने के एवज में किसी तरह की बिदाई लेना वे अपना अपमान समझते थे। तीन से चार घंटे लगातार आल्हा चलता। वे अकेले गाते और ढोलक भी खुद बजाते। श्रोताओं की बड़ी भीड़ होती। आल्ह खंड का अधिकाँश हिस्सा उन्हें याद था। कभी सामने किताब रखकर मैने उन्हें आल्हा गाते नहीं देखा।
मैं दर्जा चार में पढ़ता था। राजकीय प्राइमरी पाठशाला सोनरा में। गाँव के बच्चों के साथ हम पैदल ही आते-जाते थे। मेरे साथी थे राम मिलन, जो मुझसे एक दर्जा पीछे थे। एक बार राम मिलन से झगड़ा हो गया, थोड़ी मारपीट भी। राम मिलन रोते हुए अपने घर जा रहे थे। मैं अभी सड़क पर ही था कि उनके काका बदरी तेजी से आए और मुझे दो-तीन झापड़ जड़ दिए। मैं रोते हुए अपने घर आया। बाऊजी घर पर ही थे। देखते ही उन्होंने पूछा,
“का भईल? काहें रोअ ताड़S?”
“बदरी काका मरलें हवें।”
“काहें?”
“राम मिलन हमरे कमीज पर स्याही छिड़िक दिहलें। तS हम उनके एक चाटा मार दिहलीं।”
“राम मिलन नाहीं मरलें?”
“ऊहो मरलें आ हमहूँ।”
इतना सुनने के बाद बाऊजी की आँखों से अंगारे फूटने लगे।
“लइकन के झगड़ा में हाथ चलावेके हिम्मत इनकर कैसे हो गईल? चल हमरे साथ।”
उन्होंने लाठी उठाया, मेरा हाथ पकड़ा और बदरी के घर की ओर चल दिए। बदरी भी पहलवानी करते थे। वे मेरे बाऊजी से भी ज्यादा तगड़े थे। बदरी, बेनी और तिरबेनी तीनो भाई एक ही साथ रहते थे। संगठित थे। तीनो ताकतवर थे। राम मिलन, बेनी के लड़के थे। खपड़ैल का बखरी मकान था उनका। उनके सामने बाऊजी की कोई हैसियत नहीं थी। किन्तु बाऊजी अकेले मेरा हाथ पकड़े उनके दरवाजे पर चढ़ गए और जोर -जोर से ललकारने लगे।
“निकल बाहर, तोहार हिम्मत कैसे भईल हमरे लइका के ऊपर हाथ छोड़े के?।।।।”
वे चुनौती देने लगे। तीनो भाई अपने घर में ही थे। कोई बाहर नहीं निकला। अन्त में कुछ पड़ोस के लोग बाऊजी को समझा-बुझाकर हमारे घर ले आए। बाऊजी का वह रूप देखकर मैं घबड़ा गया था। किसी के दरवाजे पर चढ़कर उन्हें चुनौती देना कितने साहस का काम है? यदि वे तीनो भाई घर से निकलकर बाऊजी पर टूट पड़ते तो बाऊजी कुछ न कर पाते। किन्तु बाऊजी का साहस अद्भुत था।
कुछ दिन पहले ही रात में चोरी से गन्ना काटते हुए देखकर उन्होंने अकेले ही तुफानी को इतना मारा था कि उन्हें दस दिन तक हल्दी दूध पीना पड़ा था।
स्नान- ध्यान के बगैर बाऊजी मुँह में कुछ नहीं डालते। किन्तु उनका स्नान-ध्यान बहुत साधारण होता। अमूमन कुँए पर वे गगरा या बाल्टी से पानी भर कर सिर पर उड़ेल लेते। फिर शरीर मल लेते और एक गगरा पानी दुबारा। स्नान हो गया। धोती बदलते, गीली धोती पानी में डुबोकर मिचकारते और अरगनी पर फैला देते। इसी तरह उनका ध्यान भी अति सामान्य था, बिना किसी ताम झाम के। वे कहते कि, “किसान का तो जीवन ही योगी का होता है। हम ही तो हैं जो खुद भूखे रहकर दुनिया का पेट भरते हैं।”
नहाने के बाद वे जहाँ कहीं भी चुक्का-मुक्का बैठ जाते और हाथ जोड़कर भगवान का स्मरण कर लेते। राम हों, शिव हों, हनूमान हो, उनके लिए सब बराबर। दस से पंद्रह मिनट का ध्यान और उसके बाद खराई से बचने के लिए गुड़ का टुकड़ा या जो कुछ भी खाद्य उपलब्ध हो, मुँह में डाल लेते। इसके बाद वे अपने काम में जुट जाते। बैठकर गप्प करना तो उन्हें आता ही नहीं था। बरसात के दिनों में जब भी फुर्सत होती वे सुतरी कातते या रस्सी बुनते (बटते)। सुतरी के लिए सनई और रस्सी के लिए पटुआ बाऊजी हर साल उगाते। सनई के फूल की सब्जी मुझे बहुत स्वादिष्ट लगती। किन्तु उसका असली उपयोग सुतरी के लिए ही होता। खेत में तैयार हो जाने के बाद सनई को काटकर पहले तालाब में डाला जाता और उसे सड़ने के लिए डुबो दिया जाता। लगभग एक हफ्ते बाद जब उसका छिलका सड़ जाता तो उसे उसी तालाब के पानी में पहले पीटा जाता था और इसके बाद उसे धोकर साफ किया जाता था। फिर सुखा लेने के बाद चरखी के सहारे सुतरी तैयार की जाती थी। यह चरखी सूत कातने वाले चरखे से भिन्न होती थी जिसे खड़े होकर या किसी ऊँचे आसन पर बैठकर हाथ से नचाया जाता और सुतरी बनती जाती। घर में खटिया (चारपाई) बुनने के लिए हमारे यहाँ कभी सुतरी या रस्सी बाजार से नहीं खरीदी गई। पटुआ भी इसी तरह तैयार किया जाता किन्तु उसकी रस्सी दोनो हाथ से बुनी (बटी) जाती। रस्सी के लिए बाऊजी खेत के मेड़ों पर सबई भी उगाते और सुखाने के बाद उससे भी रस्सी बटते। सबई की रस्सी से बुनी हुई चारपाई नंगे शरीर सोने पर गड़ती। उसकी उम्र भी सुतरी की रस्सी से कम होती। रस्सी जरूरत के अनुसार पतली या मोटी बनाई जाती। पशुओं के लिए पगहा, नाथ, जाबा, दँवरी, गगरी- गगरा से पानी भरने के लिए उगहन, सामान ढोने के लिये बँहिगाँ, लढ़िया पर सामान कसने के लिए रसरा आदि न जाने कितनी जगह और कितनी तरह की रस्सी की जरूरत दैनिक जीवन में पड़ती। बाऊजी हर तरह की रस्सी खुद तैयार करते। रस्सी की जरूरत तो आज भी पड़ती है किन्तु अब बाजार से खरीद ली जाती है और सनई-पटुआ की नहीं, प्लास्टिक की। उन दिनों प्लास्टिक का ईजाद हुआ था क्या? याद नहीं, किन्तु पर्यावरण प्रदूषित नहीं था। हम इनार (कुएं) का जल पीकर बड़े हुए हैं। हैंडपंप तक नहीं थे, आरो की कौन कहे?
बाऊजी खांटी किसान थे। हर सब्जी जो हमारे क्षेत्र में पैदा हो सकती थी, उन्होंने उगाई। हम चटनी के लिए खेत से ताजी धनिया की पत्ती खोंटकर लाते थे, लहसुन की पत्ती भी और हरा मरचा भी। भोजन परोसा जाता था और हम खेत से चुनकर मूली उखाड़ते थे। किस आकार की मूली का स्वाद कैसा होगा-यह हम ही जानते थे। मौसम के अनुसार तरह- तरह की सब्जियाँ और साग। हमारे खेतों में गोबर की खाद ही पड़ती थी। सब्जियों का वह स्वाद अब हमारी कल्पना में ही बचा है। अब तो गोबर की खाद मिलती ही नहीं। सारी उपज रासायनिक खादों और कीटनाशकों के सहारे। देखने में हरा भरा किन्तु निस्वाद।
हमारे घर खेती तो दो बैलों की भी पूरी नहीं थी किन्तु उसी में बाऊजी सब कुछ उगाते थे। ख्याल रखते थे कि उनके बच्चों को किसी चीज के लिए तरसना न पड़े। रबी की फसलों में गेहूँ, जौ, तीसी, सरसो, चना, मटर, लतरी, मसुरी तथा खरीफ की फसलों में सरया- पाउस जैसे मोटे और जल्दी पकने वाले धानों से लेकर, कनकजीर और कालानमक जैसे अगहनी धानों तक तथा मकई, बजड़ा, मड़ुआ, कोदो, साँवाँ, टाँगुन से लेकर खीरा, काँकर तक सब कुछ। मकई के खेत का तालमेल काँकर के साथ खूब बैठता था। काँकर की लताएं जमीन पर पसरती थीं और मौका मिलते ही मक्के के तनों पर चढ़ जाती थीं। मुझे फूट बहुत पसंद थे। खेत में सुबह के वक्त दौड़कर जाता और फूट ढूँढ लाता फिर हम सभी भर पेट खाते। किसी- किसी फूट में मिठास कुछ कम होती तो राब से मिलाकर खाने में बड़ा मजा आता। भारतेन्दु ने ‘फूट’ और ‘बैर’ को हिन्दुस्तान का मेवा कहा है। ‘फूट’ और ‘बैर’ दोनों श्लिष्ट है। बैर(बेर) तो अभी बचा है किन्तु ‘फूट’ अब देखने में नहीं आते।
किसानी बाऊजी के जीवन में रची- बसी थी। मौसम का मिजाज पहचानने में उनका कोई सानी न था। कृषक जीवन से संबंधित घाघ और भड्डरी से लेकर दूसरी अनेक लोक प्रचलित कहावतें और लोकोक्तियाँ उन्हें याद थीं। जीवन की पाठशाला में पढ़कर उन्होंने जो सीखा था उन्हें चैलेन्ज करना किसी के बूते की बात नहीं थी।
“राति निबद्दर दिन में बद्दर, पुरुआ बहे लब्बर झब्बर।
कहें घाघ हम होइबें जोगी, कुँइयाँ के पानी से धोइहें धोबी।” अथवा
“रोहिन बरसे मृग तवे अद्रा कुछ कुछ जाय,
कहैं घाघ सुनु घाघिनी, स्वान भात नहिं खाय।”
पुरनका टोला पर आम का बाग था जिसे हम बगइचा कहते थे। इसमें बीजू आम के तरह- तरह के पेड़ तो थे ही, जामुन, महुआ, बड़हर आदि के भी पेड़ थे। इसमें सड़क के किनारे अगल-बगल के दो पेड़ों के नाम थे सेनुरिअहवा और लहसुनहवा। लहसुनहवा के आम से थोड़ी- थोड़ी लहसुन जैसी गंध आती थी किन्तु वह बहुत मीठा और स्वादिष्ट होता था। बाऊजी और माँ दोनो इन पेड़ों के आम नहीं खाते थे। पूछने पर पता चला कि ये दोनो पेंड़ उन्हीं के द्वारा लगाए गये हैं और जब तक उनका विवाह नहीं हो जाता ये उनके फल नहीं खा सकते। इतना पैसा जुट नहीं पाता था कि उनका विवाह कराया जा सके। अंत में एक बार मैंने जिद की तब जाकर उन पेड़ों का विवाह हुआ।
मैं नहीं जानता कि प्रकृति के प्रति इस तरह का रागात्मक भाव दुनिया के किसी अन्य देश में है या नहीं। हम अपने हाथों से रोपे गये विरवे को भी बेटा -बेटी की तरह ही प्यार करते हैं। यह एक तरह का अंधविश्वास है किन्तु मेरा सिर अपने उन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा से झुक जाता है जिन्होंने इस तरह की परंपरा आरंभ कीं।
बाऊजी को खेत कम होने की चिन्ता हमेशा सताती रहती थी। उन्होंने सस्ता देखकर घर से 7-8 मील पश्चिम जंगल के किनारे हड़हवा पर दो एकड़ खेत खरीदा। खेत तीन तरफ जंगल से घिरा हुआ था। खरीदने के लिए उन्होंने न जाने कहाँ- कहाँ से कुछ धन इकट्टठा किया, कुछ कर्ज लिया, सोचा था खेत में अनाज पैदा करेंगे और बेंचकर तीन-चार वर्षों में कर्ज उतार देंगे। खेत न जाने कबसे परती था। रात-दिन एक करके उन्होंने पहले कुदाल से उसे बराबर किया। खेती के योग्य बनाया। खेती करने के लिए सुकदेव काका, बाऊजी और मैं सुकवा उगने से पहले ही घर से निकलते थे, दिनभर खेत में काम करते थे और रात में भोजन करने के समय तक लौटते थे। चार-पाँच वर्षों तक गेहूँ और धान दोनो बोते रहे और सभी फसलें हिरन और नीलगायें चरती रहीं। अंत में आजिज आकर उन्हें दोनो एकड़ खेत मिट्टी के मोल बेंचने पड़े तब जाकर कर्जों से मुक्ति मिली।
वहीं मैंने गोपाल को भाले के सहारे बारहसिंगा का शिकार करते देखा जिसे गोपाल के दो पालतू कुत्ते जंगल से खदेड़कर बाहर ले आए थे। अपनी बड़ी- बड़ी गुच्छेदार सिंगों के कारण वह विशाल बारहसिंगा घने जंगल में दौड़ नहीं पा रहा था और बार-बार बाहर निकल आ रहा था। कई बार डकैती और बम बनाने के केस में जेल काट चुका गोपाल वहीं जंगल के किनारे अकेले घर बनाकर अपनी बीबी और दो बच्चों के साथ रहता था। मैंने देखा, अपने कुत्तों के साथ लंगोट पहने नंगे बदन गोपाल भी बारहसिंगे का पीछा कर रहा है। अचानक उसका एक कुत्ता लपक कर बारहसिंघे का अण्डकोश पकड़ लिया और लटक गया। इसी बीच गोपाल ने दूर से भाला फेंक कर बारहसिँघे पर अचूक प्रहार किया। भाला बारहसिंगे के शरीर में धँस गया। बाँ- बाँ की चीत्कार के साथ वह गिर कर छटपटाने लगा। बाद में पता चला कि गोपाल ने पड़ोस के गाँव वालों को माटी के मोल उसका मांस बेंचा था।
वैसे बाऊजी कर्ज से तब तक मुक्त नहीं हुए जब तक मुझे नौकरी नहीं मिल गई और उन्होंने खुद खेती करना छोड़ नहीं दिया। यूरिया और डाई तो उधार मिलता ही था जरूरत पड़ने पर वे ठढ़िया बाबा से भी सूद पर उधार लेते रहते थे। जब से मैंने होश सँभाला उन्हें ठढ़िया बाबा से कर्ज लेते-देते ही देखा। ठढ़िया बाबा से बीस-पचीस रूपये से लेकर चार-पाँच सौ रूपये तक कर्ज आसानी से मिल जाता था। इसके लिए पिछले कर्ज का कुछ हिस्सा चुकाना पड़ता था और हस्ताक्षर के साथ निशान भी लगाना पड़ता था। जितना कर्ज मिलता था उसमें से एक-दो रूपये ठढ़िया बाबा अपना मेहनताना काट लेते थे। ठढ़िया बाबा सूद पर रुपया चलाने वाले किसी सेठ के कर्मचारी होते थे।
नैतिकता और ईमानदारी बाऊजी के जीवन के ऐसे मूल्य थे जिनसे वे कभी नहीं डिगे। मेरे ससुर पुलिस विभाग में रिजर्व इंस्पेक्टर के पद से रिटायर हुए थे। मेरी शादी के लिए घर पर आये थे। जमाने को देखते हुए बाऊजी से उन्होंने सवाल किया था,
“आप की डिमांड क्या है?”
बाऊजी ने मुस्कराते हुए कहा था, “इंस्पेक्टर साहब, मैं अपनी बेटी या बेटा नहीं बेंचता। हाँ, मैं एक साधारण किसान हूँ। मेरे पास शादी में खर्च करने के लिए कुछ नहीं है। रास्ता आप ही निकालिए।”
“मैं भी रिटायर हो चुका हूँ। जीवन भर पुलिस लाईन में रहा। थाने पर तैनात पुलिस वालों की तरह मेरे पास ऊपर की आमदनी नहीं थी। परिवार बड़ा है। सिर्फ एक बेटी की शादी हुई है। दो कुँवारी हैं और दोनो शादी लायक हो चुकी हैं। आप अपनी बहू के लिए जेवर-कपड़े लाइये या नहीं, हमारे यहाँ कोई कुछ नहीं बोलेगा। हाँ, बारात कम लाइएगा।”
“कितनी?” बाऊजी ने पूछा था।
“बीस-पचीस।’’ इंस्पेक्टर साहब ने कहा था।
मेरी शादी में कुल चौबीस लोग गए थे। सादगी इतनी कि हमारी शादी के अवसर की कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है। फोटोग्राफर बुलाया ही नहीं गया था। किसी के पास अपना कैमरा था नहीं। फोटो लिए ही नहीं गए। उन दिनों मैं डिग्री कॉलेज में लेक्चरर बन चुका था।
साधारण सूती कुर्ता, पतली किनारी की मरदानी धोती, कंधे पर गमछा और पैर में टायर का चप्पल- यही बाऊजी का पहनावा था। पहुनई करने के लिए एक जोड़ी धोती-कुर्ता अलग से पड़ा रहता। हाँ एक जोड़ी चमरौधा जूता भी। इसे खरीदना नहीं पड़ता और वर्षों चलता।
दरअसल, जब कभी घर का बैल मरता तो मालिक को एक जोड़ी चमरौधा जूता जरूर मिलता। होता यह कि मरी हुई गाय या बैल की उन दिनों समाधि नहीं दी जाती थी। मरे हुए पशु को टाँगकर गाँव के चमार गाँव से दूर सरेह में ले जाते थे और उसकी खाल उतार लेते। उतरे हुए खाल से जूते बनते। उन्हीं में से एक जोड़ी जूता बैल के मालिक के हिस्से आता। इस जूते को पहनने से पहले कड़ुआ तेल में रात भर डुबोना पड़ता तब जाकर वह थोड़ा नरम होता। चमरौधा जूता पहनना सबके बूते की बात नहीं थी। ढेलों भरे खेतों में नंगे चलने वाले किसानों के पैर ही उन्हें साध सकते थे। महाप्राण निराला ने तो ‘सरोज स्मृति’ में साहस ही छोड़ दिया है,
“वे जो जमुना के से कछार, पद, फटे बिवाई के, उधार
खाए के मुख ज्यों, पिए तेल, चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर- गंध, उन चरणों के मैं यथा अंध,
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति, हो पूजूँ ऐसी नहीं शक्ति।”
बाऊजी शाकाहारी थे। गले में एक छोटी सी माला पहनते थे जिसमें तुलसी का छोटा सा एक दाना पिरोया रहता था। लोगों की नजर उस पर कम पड़ती थी। उनमें नशे की कोई लत न थी। हाँ, यदि उनके सामने कोई चूना मिलाकर पत्ते वाली सुरती बनाता तो वे नीचे का गरदा उससे माँग लेते और उसे सूँघते। इससे छींक आती और उन्हें अच्छा लगता। किन्तु इसके लिए उन्होंने अपने पास कभी सुरती नहीं रखी और न खरीदा।
अपनी बदहाली की खुद खिल्ली उड़ाते मैंने बाऊजी को ही देखा था। एक बार मेरी शादी के लिए एक एडीओ साहब आए थे। वे रात हमारे घर रुके भी। उनके अनुकूल व्यवस्था नहीं थी हमारे घर। उन्हें कुछ असुविधा हो रही थी। बाऊजी ने लक्षित किया और उनसे कहा,
“एडीओ साहब ! गदुले के घरे पहुना अइलें, गादुल कहलें कि ए पाहुन जी, आईं एक डारि पकड़िके आपहुँ लटकि जाईं।” और कहकर हँसने लगे।