रामपुर की रामकहानी

भउजी

 

रामपुर की रामकहानी-3

‘भउजी’। इस शब्द में गजब की मादकता है। कान में इस शब्द के पड़ते ही बदन में सनसनाहट दौड़ जाती है। देवर-भउजाई के रिश्ते की गर्माहट असल में गाँव में ही महसूस की जा सकती है।

मेरी उम्र लगभग चार साल की रही होगी जब पहली बार मैने भउजी का दीदार किया। शाम का धुंधलका हो रहा था। मेरे घर के सामने की कच्ची सड़क पर डोली आकर रुकी। कँहारों ने अपनी-अपनी लाठियाँ बगल के पेंड़ों से लगा कर खड़ी कर दीं और आस-पास जहाँ-तहाँ बैठकर सुस्ताने लगे। छोटे-छोटे बच्चे डोली के इर्द-गिर्द धमा-चौकड़ी मचा रहे थे। डोली में दूल्हन उनके लिए कोतूहल का विषय थी। उन दिनों बच्चे डोली देखते ही जोर-जोर से चिल्लाकर गाने लगते, ”ए दुलहिनिया गाजर खो, तोर भइया अइलें नइहर जो।” यहाँ तो डोली सामने रखी थी और उसमें दूल्हन भी। जबतक दूल्हन डोली से बाहर नहीं निकलेगी बच्चे हटने वाले नहीं थे। वहाँ आस-पास सयाना कोई नहीं था। घर की महिलाएं दूल्हन की अगवानी करने की तैयारी कर रहीं थीं। दूल्हन का पहले परछावन होगा। ननद या सास की बाँह पकड़कर दूल्हन डोली में से उतरेगी और परछावन के बाद चौकठ के भीतर कदम रखेगी। इस सब की तैयारी में समय तो लगेगा ही।

एक कँहार ने समय की नब्ज पहचानते हुए दूसरे से कहा, “इसके पहले इतनी दूर की डोली नहीं ढोई थी। बाप रे बाप ! पडरौना कोई बीस कोस तो रहा ही होगा।” डोली पडरौना के पास के गाँव ‘रहसू’ से आई थी। पहले गाँव के लोग कोस से ही दूरी मापते थे। पडरौना आज कुशीनगर जिले में पड़ता है। मेरा अनुमान है कि हमारे घर से कोई सौ सवा सौ किलोमीटर तो होगा ही। दूसरे कँहार ने सुर में सुर मिलाया, “भिनसहरे सुकवा उगते ही बिदाई हो गई थी। तब से लगातार डोली में जुते हैं। कंधे का घट्ठा भी दर्द करने लगा। अब तो घर के पास आ गए हैं। ईनाम मिलना चाहिए। अब बिना ईनाम के डोली नहीं उठाएंगे।” कँहारों की संख्या छ: थी। इससे कम में डोली नहीं चल पाती थी। डोली के दोनो ओर दो-दो कँहार डोली ढोते थे और दो साथ-साथ चलते थे- कंधा बदलने के लिए। सभी कँहार दूल्हन को सुनाते हुए एक दूसरे से ईनाम की माँग की रट लगाने लगे।

असल में कँहारों को जो पारिश्रमिक तय था वह तो उन्हें मिलना ही था। दूल्हे राजा आस-पास कहीं चले गए थे। सयाना कोई दूसरा वहाँ था नहीं। बच्चों का शोरगुल और धमा-चौकड़ी जारी थी। कँहारों का लक्ष्य दूल्हन ही थी। और किसी से वे माँग भी नहीं सकते थे। ईनाम की माँग का यह उपयुक्त अवसर था। अचानक डोली के ओहार से बाहर गोरी दूधिया रंग की मेंहदी रची कोमल हथेली बाहर आई। हथेली में कुछ पैसे थे। एक कँहार ने उस हथेली के नीचे अपना हाथ फैला दिया और पैसे उसकी हथेली में आ गिरे। सभी बच्चे उत्सुकता से हथेली निहारने लगे। उन बच्चों में मै भी शामिल था। डोली के बाहर निकलने वाली वह कोमल हथेली आज भी मेरे मानस पटल पर यथावत अंकित है। भउजी का यह मेरा पहला दीदार था। उनके चेहरे का नहीं, उनकी हथेली का।

ननदों ने बड़े दुलार से अपनी बाँहों के सहारे हँसी-मजाक करते हुए भउजी को घर में प्रवेश काराया। दूसरे दिन से गाँव की औरतों का आना-जाना शुरू हो गया, जो कई दिन तक चलता रहा। जैसे-जैसे गाँव की औरतें दूल्हन का मुँह देखकर और मुँहदेखाई देकर जाने लगीं, भउजी की सुन्दरता की चर्चा गाँव में होने लगी। अपनी माँ को भी मैने बाऊजी से बतियाते हुए सुना कि, “बड़कू की बहू बड़ी सुन्दर आई है।” भइया को गाँव के लोग ‘बड़कू’ ही कहते हैं। क्योंकि वे उम्र में सबसे बड़े बेटे हैं। इसी भाव से छोटे बेटे को ‘झिनकू’ कहा जाता है। मैं अपने इन दोनो चचेरे भाइयों को ‘बड़कू भैया’ और ‘झिनकू भइया’ कहकर पुकारता हूँ।

यद्यपि भउजी के आने से वर्षों पहले ही हमारे बाऊजी और बड़का बाऊजी में घर का बँटवारा हो चुका था और उन दोनों का अपना-अपना अलग घर भी बन चुका था किन्तु माहौल में अपनापन बरकरार था। हमारा एक-दूसरे के घरों में आना-जाना खाना-पीना सामान्यत: होता रहता था। बड़कू भैया दर्जा दस में पढ़ रहे थे। मैं अमूमन उनसे गणित के सवाल पूछने जाया करता था। हालांकि उनसे हमारी दूरी बराबर बनी रही। वे हमें सरल व्यक्ति कभी नहीं लगे। जबकि इसके ठीक विपरीत भउजी का स्वभाव बेहद सौम्य था और मुझे बराबर आकर्षित करता रहा। हमारे परिवार में आने वाली सबसे बड़ी भउजी की जो छाप मेरे ऊपर पड़ी उसने भउजी नामक रिश्ते की संवेदना को अत्यंत मोहक बना दिया। बचपन में भउजी का देखा हुआ वह रूप माधुर्य मुझे उन्हें अप्रतिम मानने को विवश करता रहा। उनका दुधिया गोरा रंग, हिरनी जैसी चंचल आँखे, लम्बे घने बाल, पतली लम्बी नाक, पतले होंठ और गठा हुआ छरहरा बदन मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ गया। भउजी का रूप-रंग जैसा था, भगवान ने उन्हें उतना ही सुमधुर स्वर भी दिया था। भउजी जब अपनी सुरीली आवाज में कोई गीत टेरतीं तो समा बँध जाती। उनका स्वर सबसे अलग था। दूसरी महिलाएं केवल उनका साथ देने के लिए गातीं। जनेऊ हो या विवाह, फागुन हो या सावन, कोई अवसर भौजी की स्वर लहरियों से खाली नहीं जाता था। फागुन लगते ही भउजी का फगुआ शुरू हो जाता था। जब घर के सभी पुरुष खा-पीकर सो जाते थे उस समय भउजी आस-पास की कुछ महिलाओं को साथ लेकर फगुआ गाना शुरू कर देती थीं। उनके द्वारा गाए जाने वाले फगुआ के कुछ बोल आज भी फागुन लगते ही मेरे कानों में रह-रह कर कौंधने लगते हैं। “जनि जा हो कंत परदेस बसंत नेराने”। / “सखि आज नंद जी के द्वार भीर भई भारी।”/ “हेरें बिकल सुदामा भुलाने। अरे, मोर निजुकी दई रिसियाने मड़इया हेराने”। “मोहन धरि रूप जनाना, चले बेंचन चुड़िया सहाना, नगर बरसाना”। इसी तरह सावन में कजरी- “बदरवा उमड़ि घुमड़ि जनि बरसो, डर मोहें लागे अटरिया ना / एक तो पिया परदेस में छाये, दूजे बिजुरी तूँ चमकाये, तीजे रात अँधेरिया ना।” आदि। सोहर, कजरी, झूमर, चौताल, बिवाह के गीत आदि के साथ ही रोपनी के गीत, जँतसार आदि श्रम गीतों का भी अद्भुत भण्डार हैं भउजी।

पिछले बीस-पचीस वर्षों में गाँवों में बाजारवाद ने जो पैर फैलाया है, उससे वहाँ से जाँत खत्म हो गए और उसी के साथ गाँव की महिलाओं में ब्लड प्रेशर, सुगर, कमरदर्द, पेचिस आदि रोग महामारी की तरह फैल गए हैं। जँतसार का एक मार्मिक गीत मैने भउजी के कंठ से सुना है। उसकी पंक्तियाँ आज भी स्मृति में बसी हुई है। “झीनी झीनी गेहुँआ हो बाँस के चँगेलिया हो, ननदी भउजिया गेंहुँआ पीसेली हो राम।/ गेहुँआ पिसत हमें छिटके गरमिया हो, केहू ना बेनिया डोलावे हो राम।” जँतसार में मुख्य रस करुण होता था। जँतसार के असंख्य गीत ‘जाँत’ के साथ ही खत्म हो गए और इसी के साथ लोक-साहित्य की यह मूल्य धरोहर हमने खो दी। बहरहाल, चाहे फागुन में फगुआ का मौसम हो या सावन में कजरी का अथवा चैत में चैता का, भउजी जब गाने बैठतीं तो दो-ढाई घंटे गाने के बाद ही महफिल उठती। इसी तरह भउजी के द्वारा गाया जाने वाला एक अत्यंत मार्मिक सोहर है जिसके बारे में मैं विस्तार से कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। गीत की पंक्तियाँ हैं,

“छापक पेड़ छिहुलिया त पतवन गहबर हो,
तेहि तर ठाढ़ि हरिनियाँ त मन अति अनमन हो।
चरतै चरत हरिनवाँ त हरिनी से पूछहि हो,
हरिनी की तोर चरहा झुरान कि जल बिनु मुरझिउ हो।”

       इस सोहर में घने जंगल में उदास अनमन भाव से खड़ी हिरणी से उसका साथी हिरण पूछ रहा है – “प्रिये, क्या पानी के बिना तुम्हारा चेहरा मुरझाया हुआ है? अथवा चरहा ही सूख गया है? आखिर तुम उदास क्यों हो?”

हिरणी अपने साथी हिरण से अपनी उदासी का कारण बताती हुई कहती है कि, “न तो मेरा चरहा सूखा है और न जल का ही अभाव है, मैं तुम्हारी चिन्ता में सूख रही हूँ। कल राजा दशरथ के घर उनके बेटे की छट्ठी है। उस दिन उनके यहाँ बहुत बड़ा भोज होगा, खुशी मनाई जायेगी। उस भोज में मांस पकेगा और उसके लिए वे लोग तुझे मार डालेंगे। मैं उसी चिन्ता में उदास हूँ।”

अंतत: छट्ठी के भोज के लिए हिरण को मार डाला जाता है। उसका मांस बन रहा है। उसकी गंध दूर तक फैल रही है। हिरणी राजा दशरथ के घर उनकी प्रधान रानी कौशल्या के पास एक फरियाद लेकर जाती है। उसे उम्मीद है कि वे स्त्री हैं एक स्त्री का दुख जरूर समझेंगी। रानी बड़े आसन (मचिया) पर बैठी हैं। हिरणी उनसे निवेदन करती है,

“मचिये पर बैठें कोसिल्ला रानी हरिनी अरज करे हो,
रानी मँसुआ त सीझे कड़हिया, खलरिया हमें देतिउ हो।”

अर्थात “हे रानी जी ! मेरे प्रिय साथी हिरण का मांस तो आप के यहाँ कड़ाही में पक ही रहा है। उसका स्वाद आप के यहाँ भोज में लोगों को मिलेगा ही। आप कृपा करके मेरे प्रिय साथी हिरण की चमड़ी हमें दे दें। मैं इसे ले जाकर पेंड़ पर लटका दूँगी और उसे देख-देख कर अपने मन को धीरज बँधाती रहूँगी मानो मेरा साथी हिरण जिन्दा है।”

“पेड़वा से टँगतीं खलरिया त हेरि-फेरि देखतिउँ हो,
रानी देखि-देखि मन समुझइतीं जनुक हिरना जीअत हो।”

समस्त उत्तर भारत में राम-कथा के प्रति जैसा आदर भाव है वैसा अन्य किसी भी मिथकीय वृत्त पर नहीं है। राम-सीता हमारे आराध्य हैं। उनसे हम चरित्र की भी शिक्षा लेते हैं। ऐसी राम-कथा के प्रति जिस तरह की आलोचनात्मक दृष्टि इस सोहर के रचनाकार की है वह हमें चकित करती है। रानी कौशल्या हिरणी के इस तुच्छ आग्रह को भी ठुकरा देती हैं। लोक कवि जानता है कि राजसत्ता शोषित पीड़ित प्रजा के प्रति तनिक भी उदार नहीं होती। कौशल्या हिरणी के इस आग्रह को ठुकराती हुई कहती हैं,

“जाहु-जाहु हरिनी घर आपन खलरिया नाहीं देइब हो,
 हरिनी खलरी से खजड़ी छवइबें त राम ओसे खेलिहें हो।”

           हिरणी बेचारी उदास दुखी मन से लौट जाती है। उधर अयोध्या में हिरण की चमड़ी से खजड़ी बनती है, राम उससे खेलते हैं। जब-जब खजड़ी बजती है हिरणी उसे अकनते हुए चुपचाप जहाँ की तहाँ खड़ी रह जाती है और अपने प्रिय साथी हिरण को याद करती है,

“जब-जब बाजे खजड़िया सबद सुनि अकनइ हो,
हरिनी ठाढ़ि ढेकुलिया के नीचे हरिनवा के बिसुरइ हो।”

निश्चित रूप से राम-कथा के प्रति यह आलोचनात्मक दृष्टि लोक कवि की ही हो सकती है और ऐसे लोक कवियों की संवेदनाएं लोक भाषाओं में ही व्यक्त होती हैं। आमतौर पर कौसल्या की छबि समाज में एक संवेदनशील, दयालु, पुत्र-वत्सल और आदर्श माँ की है। किन्तु यहाँ इस लोक कवि के मन में कौसल्या एक रानी हैं जिनमें दया लेस मात्र भी नहीं है। हमारी स्पष्ट मान्यता है कि लोक-साहित्य हमेशा प्रतिपक्ष का साहित्य होता है। वह व्यवस्था- विरोध का साहित्य होता है। मुझे बाद में पता चला भउजी का नाम भी ‘सरस्वती’ ही है। वे सचमुच सरस्वती की प्रतिमूर्ति हैं।

भउजी जब मुझे ‘बाबू’ कहकर बुलातीं तो लगता जैसे अमृत की वर्षा हो रही है। दरअसल पडरौना की बोली हीं खाँटी भोजपुरी है। हमारे यहाँ की भोजपुरी में अवधी का पुट मिला हुआ है। इसलिए भोजपुरी की मिठास का स्वाद भउजी की बोली में सहज सुलभ था।

हमारे यहाँ देवर-भउजाई के रिश्ते की परिकल्पना भी अद्भुत है। एक ओर भउजाई को माँ जैसा सम्मान देने को कहा गया है तो दूसरी ओर इन दोनो में हँसी-मजाक का रिश्ता भी होता है। देवर, ‘द्विवर:’ से ही विकसित हुआ है। जिसका अर्थ ही है ‘दूसरा वर’। भउजी से मेरा रिश्ता भी इसी तरह का रहा है। मेरे संकोची स्वभाव ने भउजी से मजाक करने की इजाजत कभी नहीं दी। हाँ, फगुआ आने पर भउजी के ऊपर रंग डालने जरूर जाता। भउजी भी पूरी तैयारी के साथ प्रतीक्षा करतीं, धैर्य से रंग डलवातीं और मुझपर भी डालतीं। रंग डालने के बाद वे मुट्टीभर कटे हुए सूखे मेवे खाने को जरूर देतीं। अभावों में भी उन्होंने अपना तहजीब नहीं छोड़ा। इसके बाद मैं अपनी छोटकी भउजी अर्थात झिनकू भैया की पत्नी को रंग डालता फिर दूसरी भउजाइयों को। दूसरी भउजाइयों में राम बिरिछ भैया (रामबृक्ष उपाध्याय) की पत्नी, शंकर भैया (शंकर कँहार) की पत्नी, सत्नरायन (सत्यनारायण स्वर्णकार) भैया की पत्नी और उसके बाद बड़का टोला पर अर्जुन भैया, विद्याधर भैया और पाँड़े भैया की पत्नियों को रंग डालने जरूर जाता। जिनके घर रंग डालने जाता उनमें से अधिकांश के घर मालपुआ और गुझिया खाने को जरूर मिलता। अलग-अलग घरों में बनने के कारण मालपुआ और गुझिया के स्वाद में भिन्नता मिलती। सच है, सौन्दर्य वैविध्य में ही होता है। इधर वर्षों से गाँव में होली नहीं मनाई और भउजी के साथ फगुआ खेलने की प्यास, प्यास ही बनी रही। मन उदास है।

भउजी के हाथ का भोजन भी उतना ही स्वादिष्ट होता है। उनके दरवाजे पर जाने से वे भोजन जरूर पूछती हैं- ऊपर के मन से नहीं, खिलाने की लालसा से और अमूमन मेरे मना करने के बावजूद जो कुछ बना होता है परोस कर ले आती हैं, कोशिश करती हैं अँचार आदि देकर उसे स्वादिष्ट बनाने की। उन्हें बराबर लगता है कि उनके घर का खाना मुझे पसंद नहीं आ रहा है। उन्हें नहीं पता कि स्वाद वास्तव में खिलाने वाले की अभिरुचि और प्रेम में मिला होता है, तरह-तरह के पकवानों में नहीं।

मुझे बराबर लगता है भउजी उस घर के लायक नहीं थी। उनका जीवन हमेशा अभावों में कटा। उनके पति कुर्क अमीन के रूप में वर्ष में कुछ महीने ही काम करते थे और किसानों से वसूले गए धन के अनुपात में ही कमीशन के रूप में उन्हें पारिश्रमिक मिलता था। उनके दोनो बेटे भी स्थाई और सम्मान जनक नौकरी नहीं पा सके। खेती भी इतनी नहीं कि उसके सहारे जिन्दगी कट सके। आज कल तो बड़े-बड़े किसान तक कर्ज में डूबे हुए हैं। भउजी ने अपने बेटों के लिए मुझसे कई बार सिफारिश की है। उन्हें नहीं पता कि उनके द्वारा एक बार किया गया संकेत ही मेरे लिए काफी है, किन्तु मैं क्या करूं? मेरे पास किसी को नौकरी देने का कोई पावर नहीं है। विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए साक्षात्कार लेने जरूर जाता हूँ किन्तु साक्षात्कार देने की योग्यता तो उन्हें अर्जित करनी ही पड़ेगी। वहाँ भी हम योग्यता को नजरन्दाज नहीं कर सकते। भउजी के दोनों बेटों में वह योग्यता नहीं आ पायी।

आज भउजी सतहत्तर पार कर चुकी होंगी। मैं सरसठ वर्ष का हो चुका हूँ। मुझसे कम से कम दस साल बड़ी तो वे होंगी ही। इतने अभावों में अपने एकरस पति के साथ रहते हुए भउजी ने अपना जीवन ससम्मान काट लिया है। उनके बारे में मैने अबतक कोई प्रवाद नहीं सुना है। हमारे घर से भी कभी-कभी विभिन्न मुद्दों पर कोई न कोई विवाद होता रहा किन्तु अंतत: हमारे रिश्ते पूर्ववत कायम हैं। अब भी जब हम गाँव जाते हैं तो हमारी भउजी हमें छोड़ने जरूर आती हैं और अपने स्नेह से हमें सराबोर कर देती हैं। आज भी बिदाई के समय हमारी आँखों में आंसुओं की स्रोतस्वनी फूटने लगती है।

अपनी भउजी का प्यार जिसे नहीं मिला वह अभागा है। बैसे तो गाँव में संबंधों से ही व्यक्ति की पहचान होती है। भैया, काका, दीदी, भउजी, बहिनी, बाबू, अइया, दादा, दादी से भिन्न गाँव में किसी का नाम लेकर पुकारते मैने बहुत कम देखा, चाहे वे किसी जाति-विरादरी के हों। अपने से छोटों को ही उनके नाम से पुकारा जाता है। सुखदेव काका जाति के चमार थे और पूरे बीस साल तक उन्होंने हमारी हलवाही की किन्तु मैने कभी उन्हें नाम लेकर नहीं पुकारा। हमेशा उन्हें काका ही कहा और उनकी पत्नी को काकी। मेरी माँ उन्हें सम्मान में ‘रउआ’ कहकर पुकारती थी। बीस साल तक हलवाही करने के बावजूद बाऊजी का उनसे किसी तरह का विवाद होते मैने नहीं देखा। जातिगत भेदभाव के बावजूद रिश्तों की यह गँवई मिठास भी अद्भुत है। विरुद्धों के सामंजस्य का सौन्दर्य।

क्या गाँव में अब भी रिश्तों का यह अपनापन बचा है?

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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