कान्हे आली
रामपुर की रामकहानी-10
और सबेरे दस बजते-बजते कान्हे आली के प्राण पखेरू उड़ गए। सुबह का वक्त था। गाँव के लोगों की भीड़ जमा थी। कल तीसरे पहर ही जब उनको लेने एम्बुलेंस आयी थी और उनकी दशा देखकर उन्हें बिना लिए ही वापस चली गयी थी तभी से गाँव में चर्चा थी कि कान्हे आली रात–बिरात जरूर चली गाएंगी। किन्तु उन्होंने रात बिता दी और सुबह सबकी उपस्थिति में उन्होंने अन्तिम साँस लिया। समय रहते गाँव की भली महिलाओं ने गंगाजल और तुलसीदल उनके मुँह में डाला। दूसरे दिन कान्हे आली के निधन की खबर अखबारों में प्रमुखता के साथ प्रकाशित हुई।
उस वर्ष जब हम लोग ‘रामपुर उत्सव’ के कार्यक्रम के लिए गाँव आए तो कान्हे आली हमारे बरामदे में ही थीं। वे पिछले कई महीने से वहीं रह रही थीं। उनके पास सोने के लिए एक काठ की चौकी थी जिसपर कपड़े का सिला हुआ पुराना गद्दा था। ओढ़ने के लिए एक चद्दर और मच्छरदानी। उनका एक काठ का बड़ा सा बक्सा भी था जो गाँव के ही उनके एक रिश्तेदार के घर रखा हुआ था। बक्शे में उनका कुछ सामान था जिसकी चाभी हमेशा उनके आँचल के कोने से बँधी रहती थी। दिन में वे एक ही वक्त ईंट जोड़कर बनाये गये अस्थायी चूल्हे पर कुछ पका लेती थीं और उसी से उनका दोनो वक्त का भोजन हो जाता था। कभी- कभी झिनकू भैया के घर से भी उन्हें कुछ खाने को मिल जाता था और तब उन्हें पकाना नहीं पड़ता था। हमेशा नियमित रूप से स्नान- ध्यान करके ही अन्न ग्रहण करने वाली अस्सी साल की कान्हे आली अब कपड़े की कमी तथा पानी की असुविधा के चलते दो- दो या तीन- तीन दिन तक स्नान नहीं कर पाती थीं, किन्तु धार्मिक निष्ठा इतनी कि अब भी वे ब्राह्मण को छोड़कर किसी दूसरी जाति के घर खाना नहीं खाती थीं।
कान्हे आली का असली नाम सोनमती देवी था, किन्तु सभी लोग उन्हें कान्हे आली के नाम से ही जानते थे। कान्हे आली जब जवान थीं तभी उनके पति चोकट अहिर की धान के खेत में काम करते समय बज्रपात से मौत हो गई थी। उनका एक बैल भी उस बिजली की चपेट में आ गया था। पति की असमय मौत से निरक्षर कान्हे आली के जीवन में मानो विपतियों का पहाड़ टूट पड़ा। भगवान ऐसा किसी के साथ न करे। उनकी कोई सन्तान नहीं थी। उनका मैका कान्हे नामक गाँव में था, ससुराल से लगभग दस किलोमीटर दूर। इसीलिए वे गाँव में ‘कान्हे आली’ के नाम से पुकारी जाती थीं। मेरे गाँव में बहुओं को नाम लेकर पुकारे जाने की परंपरा नहीं थी। फलाने बहू या फलनवा की माई कहकर लोग पुकारते थे। मैके के गाँव के नाम से पुकारी जाने वाली भी कई महिलाएं थीं जैसे पिपराही, छपराही, बगपराही, पूर्बाही, दखिनाही, सोनरा आली, चिउरहा आली, लखिमा आली आदि। पति के मरने के बाद कुछ दिन मैके वालों ने कान्हे आली को सहारा दिया किन्तु न जाने क्यों उनका मन मैंके में लगता ही नहीं था। वे सन्यासी जैसा जीवन जीने लगीं। सुबह स्नान करके ही अन्न ग्रहण करना, साधु सन्तों के संसर्ग मे रहना और भगवान का भजन करना उनकी दिनचर्या हो गयी।
कान्हे आली के पास कुछ खेत था और रहने के लिए अपना एक छोटा सा घर भी। अकेले जीवन बसर करने के लिए इतना काफी था। किन्तु जब औरत निरक्षर हो और आगे पीछे कोई सहारा न हो तो लोगों की निगाह उसकी इज्जत और दौलत दोनो पर जमी रहती है। कान्हे आली के जवानी के दिन अब नही थे किन्तु उनके पास कुछ खेत और अपना घर तो था ही। गाँव के लोगों ने कान्हें आली को फुसलाना शुरू कर दिया और धीरे- धीरे एक- एक करके उनका खेत अपने नाम रजिस्ट्री करा लिया। यहाँ तक कि कुछ दिन बाद उनके रहने का एक मात्र ठिकाना उनका घर भी लिखवा लिया और रूपया एक ऐसे प्राइवेट बैंक मे जमा करा दिया जिसके दरवाजे पर कुछ ही दिन बाद ताला लग गया।
अब कान्हे आली के दुर्दिन के दिन शुरू हो गये। वर्षों तक वे बड़कू भैया के वरामदे में रहीं, खाना बनाती, खातीं और बरामदे में सो जातीं। तुनकमिजाज तो थी हीं, मुहफट भी थीं। धीरे- धीरे विवाद बढ़ा और एक दिन उन्हें बड़कू भैया का बरामदा छोड़ना पड़ा। फिर वे अशोक के घर रहने लगीं किन्तु वहाँ अधिक दिन तक नहीं चला और अन्त में जब कहीं ठिकाना नहीं मिला तो खाली पड़े हमारे बरामदे में उन्होंने डेरा जमा लिया।
इस बार जब हम गाँव गए तो कान्हे आली वरामदे में थीं। उन्हें हटाने की हमारी हिम्मत नहीं हुई, किन्तु हमारे दरवाजे पर ही दो दिन आयोजन होता है और उन दोनो दिनों भारी भीड़- भाड़ रहती है। इसलिए जिन दो दिनों आयोजन था उन दोनो दिनों वे स्वत: दूसरे के घर सोने चली गईं थीं।
मैं जबतक गाँव पर रहा कान्हे आली मेरे दिमाग के निकलती ही नहीं थीं। उन्हें इन परिस्थितियों में छोड़कर भला कैसे जा सकूँगा। मुझे पता चला कि इस जनपद में भी फरेन्दा के पास एक वृद्धाश्रम खुला है। उसे सरकारी सहायता भी मिलती है। संयोग से एक दिन महाराजगंज कचहरी में उसके संचालक से मेरी भेंट हो गई। मैने उनसे कान्हें आली के बारे में विस्तार से चर्चा की। मुझसे वे काफी प्रभावित हुए और बताया कि वे कान्हे आली को अपने वृद्धाश्रम में ले जाना चाहेंगे। मैंने उसी दिन शाम को कान्हे आली से बात की, “फरेन्दा के पास सरकार ने एक वृद्धाश्रम खोला है। जिन बुजुर्गों की देख-रेख करने वाले लोग नहीं हैं ऐसे असहाय लोगों को रहने, खाने-पीने और दवा -दारू की सारी व्यवस्था सरकार मुफ्त करती है। उनके संचालक मेरे परिचित हैं। वे आपको अपने यहाँ रहने की सारी व्यवस्था कर देंगे। मेरी बात हो गयी है। बीच- बीच में मैं आप से मिलने आता रहूँगा। समय समय पर हम खबर भी लेते रहेंगे।” अभी मैं उन्हें समझा ही रहा था कि कान्हे आली मेरे सामने से उठकर चली गयीं। उनकी आँखें डबडबा गयी थीं। चेहरा तमतमा गया था। राम नयन के घर जाकर उनके सामने रोने लगीं। वे दरवाजे पर ही बैठे हुए थे। सड़क पर ही उनका घर था। कान्हें आली को रोते हुए देखकर कई लोग ठिठक गये। “मुझे वृद्धाश्रम में भेजने की बात कहने की उनकी हिम्मत कैसे हुई ? ऐसा कहकर उन्होंने मेरा घोर अपमान किया है। वहाँ पराए लोगों के सामने, जिनमें पुरुष भी होंगे भला मैं कैसे रह पाऊंगी ?” राम नयन से वे रो- रो कर कह रही थीं। कान्हे आली ने राम नयन से बताया कि वे इस गाँव को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाएंगी और वे यहीं मरेंगी। मरने के बाद चाहे गाँव वाले उनकी लाश कहीं भी फेंक दें किन्तु मरेंगी इसी गाँव में।
कान्हे आली के दिल पर गहरा चोट लगा था। वे बहुत रात गए मेरे बरामदे में आयीं और चुपचाप अपनी चौकी पर सो गईं। दूसरे दिन भी हमारे जगने से पहले ही वे उठकर कहीं जा चुकी थीं। भउजी ने मुझे बताया कि वृद्धाश्रम वाली बात से वे बहुत दुखी हो गई हैं। उन्होंने यह भी बताया कि वे भागवत सुनना चाहती हैं। उन्हें वर्षों तक भरोसा था कि बैंक में जमा उनका रुपया जल्दी ही मिलेगा और जब मिलेगा तो उससे वे सबसे पहले भागवत सुनेंगी और भंडारा करेंगी। भउजी ने बताया कि अब बैंक में जमा धन को लेकर वे निराश हो चुकी हैं किन्तु भागवत सुनने की उनकी अभिलाषा बनी हुई है। वे उसके लिए एक- एक पैसे जुटा रही हैं।
मैके में कान्हे आली के भाई- भौजाई और भतीजे भी थे। वे लोग चाहते थे कि कान्हे आली उनके घर चलें और उन लोगों के साथ रहें। कई बार वे लोग उन्हें ले भी गए किन्तु कुछ दिन रहकर वे फिर से रामपुर चली आती थीं। वे बार- बार रामपुर क्यों चली आती थीं इस बारे में कोई कुछ भी बता पाने में असमर्थ था। किन्तु उन्हें जितना मैं समझ सका, उन्हें इस बात पर पूर्ण विश्वास था कि जिस गाँव में ब्याह कर वे लायी गयी है उसी गाँव में निधन होने पर उनको स्वर्ग मिल सकेगा। कहीं दूसरे गाँव में मरने पर वे नरक की भागी होंगी।
कान्हे आली के पति चोकट काका जब जीवित थे तो उनके यहाँ दुधारू भैंस जरूर रहती थी। भैंस को आमतौर पर कान्हे आली ही चराती थीं। वे दही बहुत अच्छा जमाती थीं। बड़ी सफाई से रहती भी थीं। दही की जरूरत होने पर हमारी प्राथमिकता में पहला नंबर कान्हे आली का घर ही होता था। मिट्टी की नदिया (वे कहँतरी कहती थीं) में जमा हुआ जामुनी रंग की साढ़ी वाला दही देखते ही हमारे लार टपकने लगते। दही मेरी खास कमजोरी भी थी।
चोकट काका के मरने के बाद कान्हे आली के भीतर सन्यास का भाव पैदा हो गया। भैंस पालना उनके लिए कठिन था। सो सबसे पहले भैंस बिकी। खेती को उन्होंने बटाई पर दे दिया। उनके घर अब कोई ज्यादा काम ही नही था। एक वक्त खाना पकातीं और बाकी समय गाँव में घूम- फिर कर काट देतीं। अब वे चंदन लगाने लगी थीं। उन्होंने शाकाहार अपना लिया। सुबह नहाकर पूजा करना और उसके बाद ही अन्न ग्रहण करना उनकी रोज की दिनचर्या में शामिल हो गया। वे अब अपनी बिरादरी के अलावा केवल ब्राह्मणों के घर ही भोजन करतीं। उन ब्राह्मणों के घर भी कान्हे आली भोजन नहीं करती थीं जो मांसाहारी थे। अकेलापन ने उनके पैरों में मानों पहिया लगा दिया हो। कान्हे आली दिन भर इधर से उधर घूमती रहतीं। गाँव में घर-घर की सूचनाएं बैठे बिठाए कान्हे आली से एक जगह ही मिल जाती। वे सूचनाओं की भण्डार थीं। हम गाँव जब भी जाते, पता नहीं कहाँ से कान्हे आली को खबर मिल जाती और वे घंटे भर के भीतर ही हाजिर हो जातीं और गाँव भर की खबर देने लगतीं। ‘रामपुर उत्सव’ के अवसर पर मेरी पत्नी उनके लिए एक साड़ी जरूर ले जातीं। मेरी रसोई में जो कुछ पकता वे बड़ी रुचि से खातीँ। मेरी पत्नी के प्रति उनके हृदय में बड़े सम्मान का भाव था।
गाँव में कान्हे आली के मरणासन्न अवस्था की सूचना कलकत्ता में सबसे पहले मुझे फोन से लल्लन ने दी। मैंने महाराजगंज के एक प्रतिष्ठित अखबार अमर उजाला के ब्यूरोचीफ संजय पाण्डेय को फोन किया। मैं उनसे पहले मिल चुका था और उनके सद्व्यवहार से प्रभावित भी था। मैं कलकत्ता में रहते हुए भला क्या कर सकता था? मैंने सोचा कि यदि अखबार में एक अकेली वृद्धा और असहाय बीमार महिला की खबर छपेगी तो स्थानीय सरकारी अधिकारी जरूर खबर लेंगे। संभव हो सरकार के निर्देश पर उन्हें सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती भी करा दिया जाय। किन्तु मेरा प्रयास तत्काल कारगर नहीं हो सका। अखबार में कान्हें आली की बीमारी की खबर कई दिन बाद छपी। एक जिम्मेदार पत्रकार के दायित्व का निर्वाह करते हुए संजय पाण्डेय ने अपने एक रिपोर्टर को गाँव में भेजा, सच्चाई का पता किया और तब उन्होंने चित्र सहित खबर प्रकाशित की। शीर्षक दिया, ‘पूस की ठंढ से लोहा लेती हैं बूड़ी हड्डियाँ’। किन्तु तबतक कान्हे आली मौत के ज्यादा करीब पहुँच चुकी थीं। एम्बुलेंस आयी किन्तु तबतक बहुत विलंब हो चुका था।
मेरे ही दरवाजे पर कान्हे आली ने अन्तिम साँस लिया। गाँव के कुछ शातिर लोग, मेरी अनुपस्थिति में मेरे दरवाजे पर ही उन्हें समाधि देने की भी योजना बना रहे थे। भला हो, उपेन्द्र का कि उसने इस दुरभिसंधि की सूचना मुझे तो दी ही, खुद भी कूटनीति से काम लिया और कान्हे आली की शव यात्रा का नेतृत्व किया। रेहाव नदी के किनारे शवदाह के लिए निर्धारित स्थान पर उनका अंतिम संस्कार किया गया। गाँव वालों ने ग्राम प्रधान की देख रेख में पूरे विधि- विधान से उनका अन्तिम संस्कार किया। इस जीवन में कान्हे आली को बहुत दुख मिला। भागवत सुनने की उनकी इच्छा भी पूरी नहीं हो सकी। किन्तु मरने के बाद वे स्वर्ग जरूर गईं होंगी क्योंकि ससुराल में मरने की उनकी अभिलाषा अवश्य पूरी हुई।