बाजार के रहमोकरम पर है संहिता और संविधान
एक समाचार चैनल पर टीआरपी घोटाला का मामला दर्ज किया गया है। चैनल चलाना व्यवसाय है। व्यवसाय युद्ध है। युद्ध में मौत स्वाभाविक है। युद्ध का लक्ष्य ही अधिक से अधिक की हत्या करना होता है। इसके लिए वार प्रतिवार स्वभाविक क्रिया है। युद्ध में केवल जान माल का ही नुकसान नहीं होता।
युद्ध वर्चस्व की जरूरत है। टीआरपी भी बाजार पर वर्चस्व का मामला है। वर्चस्व को व्यावहारिक स्तर पर बुरा नहीं माना जाता है। बल्कि वर्चस्व को उन्नति और विकास का साथी माना जाता है। वर्चस्व की निन्दा या चिन्ता तब की जाती है, जब वर्चस्व अपने हाथ से निकल रहा हो। इसे ही मूल्य बोध कहते हैं।
लेकिन मजेदार बात यह है कि जिनके हाथ से वर्चस्व खिसका उसने टीआरपी घोटाले का भंडा नहीं भोड़ा। टीआरपी रहस्य को खोज निकाला पुलिस ने। मुम्बई पुलिस ने। मुम्बई पुलिस विभाग ने खोजी पत्रकारिता में हाथ आजमाया। लेकिन वह टीआरपी का भूखा नहीं है। उसे नहीं चाहिए होती है टीआरपी।
वह टीआरपी युद्ध का शिकार अवश्य है। कानूनी भाषा में वह पीड़ित है। अब वह उस चैनल को सबक सिखाना चाहता है जिसने अपनी टीआरपी के लिए उसकी भद कर दी। यह उसका हक बनता है और दायित्व भी कि वह उसे पाठ पढ़ाए। पुलिस विभाग पाठ पढ़ाने का काम करता है।
लेकिन उसने ऐसा न अपने हक की रक्षा के लिए किया है और न ही दायित्व के निर्वाह के लिए। मुम्बई पुलिस ऐसा कर रही है तो केवल और केवल भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए। भारतीय संस्कृति बदले की भूमि पर टिकी है। बदले की आग ज्वाला बनकर सदैव भारतीय संस्कृति में दहकती रहती है। वीर रस की कविताएँ इसके लिए वातावरण बनाने का काम करती हैं। बॉलीवुड इसी संस्कृति की वजह से दबंग है।
हालाँकि तजुर्बा यह कहता है कि पीड़ित या पीड़िता जब बदले की आग की लपटों को हवा देते हैं, उसमें वे स्वयं झुलसते हैं। हां, मुबंई पुलिस एक बार फिर चैनलों की टीआरपी बढ़ाने के काम आई। हाथरस हत्या – बलात्कार मामले में भी पुलिस ने ही टीआरपी बढ़ाई थी चैनलों की। सुशान्त के मामले में पुलिस विभाग की बड़ी भूमिका थी टीआरपी बढ़ाने में। लगता है कि पुलिस विभाग का मूल काम चैनलों की टीआरपी बढ़ाना है। इसके लिए जो करना चाहिए, वह हमेशा करता है।
एक फलसफा है, जिससे पूरी दुनिया चल रही है। वह फलसफा यह है कि युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है। इस नाजायज फलसफे का ही परिणाम है कि प्रेम में हत्या, बलात्कार या चेहरे पर ऐसिड डालना पराक्रम का काम लगता है। इसका चलन पूरी दुनिया में है। भारत ग्लोबल दुनिया का एक सम्भावनाशील देश है।
व्यवसाय किसी युद्ध से कम नहीं। कम नहीं, बल्कि असली युद्ध यही है। इसलिए व्यवसाय में भी कुछ भी करना जायज है। इसे हम वैश्विक स्तर पर भी देख सकते हैं। चैनल चलाना तो निरा युद्ध है। उसे चलाते रहने के लिए कुछ भी करना बनता है। वैसे ही जैसे चुनाव जीतने के लिए कुछ भी, कुछ भी करना सही है। नई परिस्थिति में यह कहना ही उचित रहेगा कि युद्ध, प्रेम, चुनाव और चैनल चलाने में सब कुछ जायज है।
चुनाव जीतने के लिए क्या नहीं किया जाता है? समझौता और सन्धि की बात नहीं कर रहा हूं। वह तो मिल बैठने की बात है। कभी इनके साथ कभी उनके साथ। व्यावसायिक भाषा में इसे पॉवर टीम बनाना कहते हैं। हर राजनीतिक दल अपनी सुविधा से पॉवर टीम बनाता और तोड़ता रहता है।
चुनाव जीतने के लिए मतदाता को सीधे लाभ पहुँचाया जाता है। मसलन सायकिल बाँट देना। लैपटॉप वितरण करना। यहाँ अच्छी बात यह होती है कि सायकिल और लैपटॉप सरकारी खजाने से बँट जाते हैं।
कभी घर घर टीवी पहुचाने की खबर आई थी। खबर यह भी है कि नकद भी दे देते हैं। कहते हैं कि शराब खैरात बँटती ही है। ऐसा करने से लोकतन्त्र का सशक्तिकरण होता है। लोगों का भी चुनाव में भरोसा बढ़ता है। चुनाव से सीधा लाभ मिलता है।
टीआरपी बढाने की ललक में चैनल ने क्या किया? उसने भी कुछ ऐसा ही किया। अपने राजनीतिक आकाओं से कुछ सीखा। ये ही इनके रोल मॉडल भी हैं और हमसफर भी।
बताया जा रहा है कि चैनल वाले ने टीवी सेट बाँटे। महीने महीने पैसा भी दिया। यह भी आरोप है कि अपना अँग्रेजी चैनल ऐसे घर में चलवाया, जिस घर में कोई अँग्रेजी समझता ही नहीं। गोया शिकायत यह है कि लगाया तो अँग्रेजी जानकार लोगों के घर लगाया होता! चिन्ता इस बात पर की गयी कि अँग्रेजी जानने वालों का हक मारा। यह अपराध संगीन है।
लेकिन ऐसा कोई भी अपराध अपराध की श्रेणी में नहीं आता, जिससे व्यापार का सशक्तिकरण होता हो। जिससे बाजार मजबूत होता हो, वह आचरण संहिता के विरुद्ध नहीं हो सकता। अगर किसी कोण से वह संहिता विरुद्ध दिखता हो तो संहिता को दुरुस्त करना है। संहिता और संविधान बाजार के रहमोकरम पर हैं। हमने देखा है जब जब बाजार खराब होता है, लोकतन्त्र कमजोर पड़ने लगता है। कहने वाले ऐसा भी कहते हैं कि लोकतन्त्र को कमजोर करने से बाजार मजबूत होता है।
जब मामला बाजार और लोकतन्त्र का हो तो कानून और जिन्दगी ताक पर रखने योग्य है। बिहार में चुनाव है। चुनाव की रैलियों का नजारा देखिए। कोरोना से बचने की सारी सतर्कताएं हवा में फू। बुतरू से लेकर बुढ़ऊ तक देह घस घस के खड़े हैं। चुनाव में हेलीकॉप्टर का करतब देखने के लिए। न नेता मास्क पहन रहे हैं न जनता को अगाह कर रहे हैं। बल्कि घोषणा कर रहे हैं कि परेशान होने की बात नहीं, वैक्सीन मुफ्त मिलेगा। गोया अब डर काहे का, खूब घसो देह। केवल कोरोना के मामले में ही नहीं, देश में कहीं भी चुनाव होते हैं, लोकतन्त्र के सिपाही हर तरह की संहिताओं से बेफिक्र होते हैं। देखिए न यह है लोकतन्त्र के बाजारीकरण का एक दृश्य।
अपना बाजार बनाने के लिए कई बार चालू बाजार को बिगाड़ना पड़ता है। यह बाजार व्यवस्था का अघोषित आन्तरिक कायदा है। ऐसी घटनाओं का बाजार के स्टेकहोल्डर्स को अनुभव होता है। इसलिए वह ऐसी घटनाओं से विचलित नहीं होता। झटका लगता है, मगर जल्दी ही सैटल भी हो जाता है। जिस चैनल पर टीआरपी घोटाले का आरोप लगा है, उसकी हरकतों का परिणाम यह हुआ कि जो एक नम्बर था वह एक नम्बर नहीं रहा। आरोपी चैनल ने अपने को गेम चेंजर साबित किया। गेम चेंजर हमेशा अपने को दबंग साबित करता है। लेकिन इससे नम्बर वन होने का गेम खत्म नहीं हो जाता, वह चलता रहता है अनवरत।
यानी जो कुछ भी हुआ वह बाजार का आन्तरिक दंगल था। लेकिन परमवीर ने न आव देखा न ताव, कूद पड़े। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। जो होना था वही हुआ। टाँय टाँय फिस्स। चैनलों को भी टाँय टाँय करने का मौका मिला। एक दो दिन इसकी उसकी बजाते रहे,जिसकी लगी थी।
आखिर होना भी क्या था? पुलिस की हैसियत ही क्या है? पुलिस प्रशासन का एक अंग है। प्रशासन बाजार का दास है। दासत्व का युग दस्तक दे रहा है। नहीं, परवान चढ़ रहा है।
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