मातृभाषा को बचाने की जरूरत
उच्च शिक्षा के लिए जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मानवशास्त्र विभाग गया तो झारखण्ड राज्य से हम मात्र दो विद्यार्थी थे। एक अनुभवी शिक्षक ने एक दिन अपने कार्यालय बुलाया और ‘द हिन्दू’ नामक अख़बार में छपे एक चित्र दिखाकर पूछा, “ क्या आप इन्हें आदिवासी मानेंगे?” मैंने गहन अवलोकन के बाद कहा, जी महाशय ये आदिवासी ही हैं जो किसी दो दिवसीय कार्यक्रम में दिल्ली हाट में अपना सांस्कृतिक प्रस्तुति दे रहे हैं। उनके वेश भूषा और साजों सामान को देख कर मैंने अपना निष्कर्ष उनसे साझा किया। शिक्षक मेरे उत्तर से सन्तुष्ट नहीं थे। उन्होंने बड़े प्यार से समझाया कि मात्र आपकी वेशभूषा आपकी पहचान सुनिश्चित नहीं करती है। आपकी भाषा सबसे अहम है। भाषा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो आपको और आपके विशिष्ट संस्कृति को जीवित रखेगी। यह इसलिए भी सही है क्योंकि आदिकाल से अलिखित आदिवासी भाषा ही उनकी संस्कृति को जीवित रखे हुए है। जिस प्रकार से आज आधुनिकीकरण के बयार में आदिवासी समाज है वह अपनी विशिष्ट पहचान भीड़ में खो देंगे।
एक बड़े ही नामी विद्यालाय में मेरी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा हुई थी किन्तु प्रोफ़ेसर पिता ने हमेशा ज़मीन से जुड़े रहना सिखाया। स्कूल की हर छुट्टी में गाँव जाना अनिवार्य था। और यहीं से मैंने कुड़ख, अपनी मातृभाषा सीखी। मातृभाषा के कारण ही बचपन के ग्रामीण मित्रों से आज भी जुड़ा हुआ हूँ और अपनी आदिवासी संस्कृति से भी। अनेक प्रकार की व्यस्तता के कारण गाँव जाना गत वर्ष से कम हो गया था। हाल ही में जब मैं अपने गाँव की यात्रा पर था तो पाया कि कुडुख भाषा में वार्तालाप के दौरान मैं कुडुख शब्दों को ढूँढने और सुचारु वार्तालाप के लिए संघर्ष कर रहा था। मैं असमंजस में पड़ गया और सतर्क भी। अचानक से लगा कि मेरी मातृभाषा का क्षरण शुरू हो गया है और मैं उनसे दूर हो रहा हूँ। वार्तालाप के दौरान मैंने यह महसूस किया कि कुड़ुख शब्दों का स्थान ग्रामीण क्षेत्रों की सम्पर्क भाषा सादरी ने ले लिया है। मन में बड़ी हलचल उठी और दुःख और गहरा तब हो गया जब शाम के वक्त मैं गाँव के बच्चों के साथ क्रीड़ा संचालन में लगा था। बच्चों की आयु तीन वर्ष से 10 वर्ष के लगभग थी। जब जब मैं उनसे कुड़ुख भाषा में संवाद का प्रयास करता, तब तब वे उसका उत्तर सादरी भाषा में देते। यहाँ तक कि जब उनकी माताएँ उन्हें बुलाने आयीं तो उन्होंने मुझसे तो कुड़ुख में संवाद किया पर फिर बच्चों से पुनः सादरी में करने लगीं। यह एक बड़े ख़तरे की घण्टी थी।
मातृभाषा का महत्त्व मुझे अच्छे से मालूम था। और इसलिए घर का माहौल इसी प्रकार से तैयार किया गया था कि मेरे अपने बच्चे कुड़ुख सीख सकें। मुझे लगा कि मैं अपनी सामाजिक दायित्व को अच्छे से निभा रहा हूँ और मेरे दोनों बच्चे अपनी मातृभाषा बोल सकेंगे। इस अनुभव के बाद लगा कि यदि मेरे बच्चे अपनी मातृभाषा सीख भी लेते हैं तो वे इसका प्रयोग किसके साथ करेंगे। यह भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह था।एक और उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा कि किस तरह से भाषा संस्कृति एक दूसरे को प्रभावित करती है। हिन्दी और अँग्रेजी से रूपान्तरित संस्कृति और शब्दावली अब कुड़ुख भाषा में प्रयोग होने लगी है। अलविदा या सुप्रभात अथवा शुभ रात्रि के लिए कुड़ुख भाषा में कोई शब्द नहीं हैं। अब वृहद् संस्कृति के सम्पर्क में आने से नये नये शब्द सम्मिलित होते जा रहे हैं। मैं इसका विरोध कदापि नहीं कर रहा। किन्तु इस प्रकार के पर-संस्कृति व्यवहारों से स्वयं की भाषा संस्कृति का यदि क्षरण हो तो प्रश्न उठना ही चाहिए। यहाँ यह चर्चा इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह मातृभाषा ही संस्कृति की वाहक है और जब मूल संस्कृति के तत्त्व भाषा से विलुप्त हो जाएँगे तो संस्कृति भी विलुप्त होगी या किसी भीड़ में गुम हो जाएगी।
मेरे गाँव के बच्चे अब कुड़ुख नहीं या कम बोलते हैं। कुड़ुख बोलने वालों की संख्या हालाँकि अभी भी बहुत बुरी नहीं है। किन्तु यह अब जिस रफ्तार से आनेवाली पीढ़ी के पास हस्तान्तरित हो रही है वह निश्चय ही चिन्ताजनक है। कई बार जब शिक्षाविद या आदिवासी समुदाय से बातें होती हैं तो ये हमेशा से एक बात पर ज़ोर देते हैं। झारखण्ड के सन्दर्भ में मुझे अनेक बार संचार माध्यम से बोला जाता है कि फ़लाँ भाषा पर आपको अवश्य कार्य करना चाहिए। वह बहुत ही अधिक ख़तरे में है। चाहे वह सन्थाली हो या कुड़ुख या नागपुरी। जब हम इसकी चर्चा किसी भाषाविद् या मानव शास्त्री से करते हैं तो यह इतना सरल नहीं होता है। प्रत्येक भाषा को हम विभिन्न मापदण्डों में रखते हैं और उसके पश्चात ही उनका क्रम निर्धारित होता है और वहीं से हम समझ पाते हैं कि कौन सी भाषा कितने ख़तरे में हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि कोई भी भाषा जिसके बोलने वालों की संख्या निरन्तर घट रही है, और उस समाज के बच्चे उसका उपयोग कम करते जा रहे हैं, और पीढ़ी दर पीढ़ी यह दर तीव्र गति से कम होती जा रही है तब वह भाषा लुप्तप्राय की श्रेणी में सबसे अहम स्थान ग्रहण करती है।
किसी भी भाषाविद् के लिए यह एक सामान्य ज्ञान की बात है कि आप किसी भाषा या समाज को भावनात्मक और स्वजातीय उत्कृष्टता से ऊपर उठकर सही विलुप्तप्राय भाषा का चयन करें। किसी भी समाज की जनसंख्या का अनुपात भाषा के बोलने वालों की संख्या के द्वारा भी भाषा की चिन्तनीय स्थिति का आकलन किया जा सकता है। एक और महत्त्वपूर्ण बात है जो किसी भी समाज की मातृभाषा के संरक्षण और उसके सफल प्रयास के लिए अति आवश्यक है। और वह है उस समाज की भाषा के प्रति मानसिकता या कहें मनोभाव या मनोवृति। यह देखा गया है कि झारखण्ड के सन्दर्भ में ही जहाँ 32 जनजाति निवास करते हैं और अनेक भाषाएँ बोलीं जाती हैं, उनमें भी हमें मातृभाषा को लेकर अलग अलग प्रकार के मनोभाव देखने को मिलते हैं। अगर तुलनात्मक अध्ययन हो तो हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि मुण्डा और सन्थाली समाज में मातृभाषा को लेकर एक संगठित और दृढ़ मनोभाव है जबकि यह उराँव और खाड़िया भाषी में यह इतनी प्रगाढ़ता में सामाजिक स्तर पर देखने को नहीं मिलता है। इस कारक को भी हम भाषा की स्थिति के आकलन में एक कारक के रूप में देख सकते हैं।
महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इन चुनौतियों के बीच भाषा के संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता क्यों है? संरक्षण की क्या क्या सम्भावनाएँ हैं और इसके क्या आयाम हो सकते हैं? मातृभाषा का संरक्षण क्यों और भाषा को कब हम लुप्तप्राय की श्रेणी में रख सकते हैं? विगत वर्ष अप्रैल 2019 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय ने एक बड़ी पहल की थी और एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कार्यशाला का आयोजन किया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय ने लंदन विश्वविद्यालय, कील विश्वविद्यालय, जर्मनी और डॉक्टर राम दयाल मुण्डा जनजातीय शोध संस्थान, राँची के साथ संयुक्त प्रयास से अन्तर्राष्ट्रीय लुप्तप्रायः भाषाओं और संस्कृतियों के प्रलेखन कार्यशाला को अभूतपूर्व बनाया था। अन्तर्राष्ट्रीय लुप्तप्रायः देशज भाषाओं और संस्कृतियों के प्रलेखन केन्द्र की स्थापना इसी अथक प्रयास का परिणाम है। वर्ष 2019 को संयुक्त राष्ट्र ने “ अन्तर्राष्ट्रीय देशज भाषा का वर्ष” घोषित किया था, इसलिए इस प्रकार का प्रयास निश्चित ही गर्व का विषय था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अभी हाल ही में “अन्तर्राष्ट्रीय देशज भाषा दशक” घोषित किया जो 2022 से 2032 तक रहेगा। आज विश्व के अनेक संगठन भी यह मानते हैं कि कहीं ना कहीं देशज भाषा और ज्ञान के संरक्षण में ही पृथ्वी का भविष्य निहित है और देशज भाषा का दशक इसका प्रमाण है।
आँकड़े बताते हैं कि पिछली शताब्दी में, लगभग 400 भाषाएँ, विलुप्त हो गयी हैं, और अधिकांश भाषाविदों का अनुमान है कि दुनिया की शेष 6,500 भाषाओं में से 50% इस सदी के अन्त तक विलुप्त हो जाएँगी I आज, दुनिया की दस शीर्ष भाषाएँ दुनिया की आधी आबादी पर अपना आधिपत्य स्थापित कर चुकी हैं। क्या भाषा की विविधता को संरक्षित किया जा सकता है, या हमें संरक्षित करना चाहिए ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। भाषा और संस्कृति एक दूसरे के समपूरक हैं। किसी एक का अस्तित्व दूसरे के बिना सम्भव नहीं है। मानवशास्त्र के अनुसार यदि भाषा नहीं हो तो एक समाज का अस्तित्व ही नहीं होगा। भाषा किसी भी समाज और संस्कृति का संवाहक होता है जिसके द्वारा हमारे समाज की सांस्कृतिक धरोहर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होती है।भाषा का संरक्षण और संवर्धन आदिवासी समाज में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इसलिए हो जाता है क्योंकि हमारा आदिवासी समाज आज भी मौखिक परम्परा पर जीवित है। इनका समय रहते प्रलेखन नितान्त आवश्यक है क्योंकि भाषा ने ही हमारी समृद्ध संस्कृति को अतीत में जीवित रखा। यह प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं होगी और यही भाषा हमारी पहचान को वर्तमान और आने वाले भविष्य में भी जीवित रखेगी।
भाषाविद बतलाते हैं कि भाषाएँ आम तौर पर सामाजिक रूप से कमज़ोर तब होतीं हैं जब एक समाज या समूह अपनी मातृभाषा को छोड़ कर अन्य भाषा की ओर विस्थापित होता है। इस परिदृश्य में, यह समाज अब दूसरी भाषा बोलता है और इसका प्रमुख कारण भी है। प्रचलित और मुख्य धारा की भाषाएँ नौकरियों, शिक्षा और अन्य अवसरों तक पहुँचने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं और कभी कभी ये अनिवार्य भी बन जाती हैं। कभी-कभी, विशेष रूप से आप्रवासी समुदायों में, माता-पिता अपने बच्चों को उनकी मातृभाषा को छोड़ कर अन्य भाषा सीखने के लिए प्रेरित और बाध्य करते हैं। इसे जीवन में उनकी सफलता के लिए अनिवार्य मानते हैं।हमारे प्रदेश में भी ऐसे अनेक बड़े स्कूल हैं जहाँ फ़्रेंच और जर्मन भाषा सिखाए जाते हैं पर दुर्भाग्य है कि हमारी मातृभाषा को आज भी दरकिनार कर दिया जाता है।आज के युग में जहाँ चारों तरफ़ भीषण प्रतिस्पर्धा है वहाँ लोग व्यावसायिक भाषा को निःसन्देह अधिक महत्त्व देते हैं और बोल चाल में हिन्दी अँग्रेजी का प्रयोग अत्यधिक करते हैं। मैं यह नहीं कहता कि यह ग़लत है। किन्तु मेरा और एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है – इन सब के बीच अपनी मातृभाषा का त्याग क्यों ? बहुभाषी होना बहुत कठिन नहीं है।
लुप्तप्रायः भाषाएँ बोलने वालों को उत्पीड़न का लम्बा इतिहास भी झेलना पड़ा है। हमारे आदिवासी बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अक्सर उन्हें अपनी मूल भाषा को इस्तेमाल करने के लिए अवसर नहीं मिलता है। हमारी अध्ययन व्यवस्था इसे और कठिन बनाती है। दूसरी एक और बात है जो हमारे लोगों के बीच है। अनेक लोग अपनी मातृभाषा के प्रयोग को हीन दृष्टि से देखते हैं। और आप को मैं बता दूँ कि भाषा मात्र लिखने या संजोये रखने से नहीं बचेगी, इसे बचाए रखने के लिए इसका अभ्यास और निरन्तर उपयोग करना होगा। संस्कृतियाँ एक विशेष पर्यावरणीय सन्दर्भ में विकसित हुई हैं।इसलिए जब भाषा मर जाती है, तो उस ज्ञान का अधिकांश हिस्सा उनके साथ चला जाता है। और फिर बच्चे भाषा सीखना बन्द कर देते हैं, वे भी उस पारम्परिक ज्ञान को प्राप्त करना बन्द कर देते हैं।
भाषा पिछले कुछ दशकों से अधिक ख़तरे में है। और अनेक विद्वान मानते हैं कि यूरोप से उपनिवेशन ने उन स्थानीय भाषा को लगभग मार ही दिया या अपना आधिपत्य वहाँ स्थापित कर लिया जहाँ जहाँ वे गये। पश्चिम की ओर उन्मुख होकर हमने उनकी भाषा को ही हमारी बौधिक क्षमता का मानक मान लिया और आज तो यह तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है। इसका सबसे वीभत्स उदाहरण ऑस्ट्रेलिया है जहाँ अंग्रेजों ने वहाँ के दो सौ से भी अधिक भाषा को मृत कर दिया। भाषा आज भी ख़तरे में है किन्तु अब और अनेक कारक इस से जुड़ गये हैं। राजनीति और आर्थिक क्षेत्र में भी अब प्रभुत्व वाली भाषा उपयोग हो रही है। शिक्षा भी ग़ैर देशज़ भाषा में है और यदि देशज़ भाषा उपलब्ध भी है तब भी स्थानीय समाज के विद्यार्थियों को लगता है कि ग़ैर देशज़ भाषा को बोलना या उसका उपयोग अधिक सम्मान जनक है।
इन कारणों से दुनिया भर में अनेक भाषाएँ लुप्त हो रहीं हैं। यूनेस्को की मानचित्र ने दुनिया की 576 लुप्तप्रायः भाषाओं को गम्भीर रूप से लुप्तप्रायः के रूप में सूचीबद्ध किया है और जिसमें हज़ारों भाषाएँ अत्यधिक ख़तरे या विशेष संरक्षित वाले श्रेणी में वर्गीकृत किए गये हैं। हालाँकि, जनसंख्या के अनुपात में मापा जाए, तो ऑस्ट्रेलिया लुप्तप्रायः भाषाओं का विश्व रिकॉर्ड रखता है। जब यूरोपीय पहली बार वहाँपहुँचे, तो देश भर में 300 आदिवासी भाषाएँ बोली जाती थीं। तब से, 100 भाषाएँ तो विलुप्त हो गयी हैं और भाषाविदों ने शेष 95% को अपने आखिरी पड़ाव पर होने का आकलन किया है।
ऑस्ट्रेलिया के अनेक सरकारी कार्यक्रमों की शुरुआत पारम्परिक उद्घोषणा के साथ होती है। “हम इस भूमि के पारम्परिक स्वामी, यहाँ के आदिवासियों का आभार व्यक्त करते हैं। हम उन सभी अतीत के आदिवासी पुरखों, वर्तमान आदिवासी समुदाय और आने वाली इस पवित्र भूमि की पीढ़ी का भी आभार और सम्मान व्यक्त करते हैं”। ऑस्ट्रेलिया में भाषा संरक्षण की एक कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में इस प्रकार की उदघोषणा इस बात की परिचायक है की आदिवासी संस्कृति भले ही अलिखित है किन्तु अपने आप में अत्यन्त समृद्ध है। आज जब सारा विश्व अनेक प्रकार के संकट से गुजर रहा है तब विश्व के बड़े से बड़ा देश और वैज्ञानिक आदिवासी जीवन शैली में निदान ढूंढ रहा है। ऐसे में आदिवासियों की पारम्परिक जीवन पद्धिति को समझना निहायत आवश्यक हो जाता है। इस ज्ञान को समझना थोड़ा जटिल होता है और इसलिए ऐसे ज्ञान के खजाने को प्रलेखन के माध्यम से संरक्षित करना ही होगा। अनेक अनसुलझे तथ्य आने वाले समय में सुलझेंगे।
इन सभी कारणों से, भाषाविद तेज़ी से लुप्त हो रही भाषाओं की विविधता को दस्तावेज और संग्रह करने के लिए प्रयासरत हैं। उनके प्रयासों में शब्दकोश बनाना, इतिहास और परम्पराओं को रिकॉर्ड करना और मौखिक कहानियों का अनुवाद करना शामिल है। अगर वास्तव में अच्छा प्रलेखन है, तो एक मौका है कि इन भाषाओं को भविष्य में पुनर्जीवित किया जा सकता है।ऐसे समय में यह अति आवश्यक है कि हम अपने घरों से मातृभाषा को बोलने-चालने में प्रयोग आज से ही करें और इसे अनिवार्य रूप से प्राथमिक और उच्च शिक्षा में पुनर्जीवित करने के प्रयासों को एक नयी गति दें। एक प्रायोगिक उदाहरण से हम देख सकते हैं कि कुड़ुख भाषा संरक्षण के लिए 2006 से ही प्रयास हो रहा है। ‘कुड़ुख लिटरेरी सॉसायटी ओफ़ इंडिया’, ने अथक प्रयास किया है। अनेक प्रकार के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए गये हैं और अनेक लेख पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ है। ये सभी प्रयास अत्यन्त सराहनीय हैं। किन्तु इसका व्यापक परिणाम देखने को नहीं मिला है। इसका कारण स्पष्ट है। भाषा को जीवित रखना है तो घर के अन्दर से शुरूआत करनी होगी और जो सतत फिर आस पास सम्प्रेषित हो।हमारे संकल्प और हमारी बातें मात्र किसी सम्मेलन तक ही सीमित रह जाती हैं। आज भी कुड़ुख भाषा का प्रयोग करने वालों की संख्या में बहुत बढ़ोतरी नहीं हुई है। इसका निदान ढूँढना अनिवार्य है।
भाषाएँ वैज्ञानिक रूप से दिलचस्प हैं। कई भाषाविद उन्नत तकनीक और प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहे हैं और वास्तव में एक बहुत गहन और वृहद कार्य भाषा प्रकलन और संरक्षण के क्षेत्र में हो रहा है। इस प्रकार के प्रलेखन केन्द्र के द्वारा हम पूरे भारत ही नहीं किन्तु विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों से जुड़ेंगे और एक संयुक्त प्रयास के द्वारा ज्ञान का आदान प्रदान होगा। यहीं पर भाषाविद् और प्रलेखन केन्द्र अपना कार्य करेंगी। यह केन्द्र सभी देशज़ भाषाओं की संरक्षित करेगी और यह आने वाले सदियों तक इसे सहेजकर रखेगी। दूसरा यह प्रलेखन केन्द्र इन मृत होती भाषाओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेगी। कुछ उदाहरण हैं जहाँ मृत भाषाओं कोपुनर्जीवित किया गया है। ऑस्ट्रेल्या का कौरना भाषा एक शताब्दी तक लगभग उपयोग में नहीं था पर आज भाषा विज्ञान का ही यह देन है कि यह पुनः उपयोग में वापस हो रहा है। यह कैसे हुआ यह भी एक दिलचस्प प्रक्रिया है। कौरना भाषा उपयोग गीतों, लोक कथाओं, धार्मिक क्रियाओं और सामाजिक भाषण में किया जाने लगा। और तो और समाज ने भी यह ठान लिया कि रोज़मर्रा का दैनिक अभिवादन भी वे देशज़ भाषा में ही करेंगे। यह समझना अनिवार्य है कि मात्र संरक्षण या प्रलेखन से भाषा नहीं बचेगी। इसका निरन्तर उपयोग भी अति आवश्यक है। आज यह धीरे धीरे जीवित हो रही है।
दूसरा उदाहरण हीब्रू भाषा का है। एक समय इसे लगभग मृत भाषा मान लिया गया था। किन्तु आज इसे लगभग पचास लाख लोग बोलते हैं। यह बड़ा प्रेरणादायक उदाहरण है और हमारा मनोबल ऊँचा करता है और यह एहसास भी दिलाता है कि प्रलेखन का प्रयास निश्चित ही आने वाले समय में सार्थक होगा। और यह सम्भव भी है।
हीब्रू के संरक्षण में अनेक बातें महत्त्वपूर्ण हैं। पहला, यह उनके धार्मिक ग्रन्थों में आदि काल से उपयोग में था। सोलह शताब्दी से भी अधिक पुराना इनका एक मज़बूत साहित्य रहा है। किन्तु यहाँ भी हमें देखने को मिलता है कि समाज भी सजग होना होगा तभी सकारात्मक परिणाम आएँगे।
न्यूजीलैंड के माओरी आदिवासियों के बीच स्कूल में आदिवासी भाषा प्री स्कूल से ही अनिवार्य कर दिया गया और इसका बड़ा जबर्दस्तसाकारात्मक परिणाम आया है। अमेरिका के हवाई द्वीप में भी यह महत्त्वपूर्ण परिणाम देखने को मिला है। उसकी तरह कनाडा के मोहॉक आदिवासियों के बीच अनिवार्य द्विभाषीय शिक्षा बहुत प्रभावी रहा है। यूनेस्को ने भी प्रयास किया है लेकिन उनका दृष्टिकोण अलग है। उनका मानना है कि माता पिता को पहले देशज़ भाषा सिखायी जाए उसके बाद वह स्वतः बच्चों तक पहुँच जाएगी।
अपने विश्वविद्यालय में एक लुप्तप्रायः देशज भाषा प्रलेखन केन्द्र को स्थापित करने का एक बड़ा उद्देश्य मातृभाषा के संरक्षण, अनुसन्धान, समाजिक सम्प्रेषण के माध्यम, समाज के बीच मातृभाषा का महत्त्व और किस प्रकार से मातृभाषा को लेकर समाजिक मनोवृति को सुदृढ़ किया जा सकता है। भाषा संरक्षण का और एक आयाम यह भी है कि अनेक ऐसे सांस्कृतिक तथ्य हैं जिनका प्रकलन आवश्यक है। आदिवासियों के अलिखित भाषा संस्कृति के ज्ञान, उनके पारम्परिक वातावरण में निहित विज्ञान या उनके सामूहिक सामाजिक मूल्यों का संरक्षण और संवर्धन अनिवार्य है क्योंकि आने वाले काल में यह एक बहुमूल्य निधि साबित होगा। लुप्तप्रायः देशज भाषा प्रलेखन केन्द्र में हमारा ये वृहद् प्रयास होगा कि देशज भाषाओं के अलिखित धरोहर को अविलम्ब संजोने का प्रयास शुरू हो। इस केन्द्र में प्रस्तावित प्रयास होंगे- देशज भाषा और देशज ज्ञान का प्रलेखन, देशज औषधि विधि, पारम्परिक गीत संगीत, समाजिक व्यवस्था, प्रलेखन केन्द्र में निश्चित अन्तराल में ग्रामीण क्षेत्रों के देशज विशेषज्ञ का व्याख्यान, भाषविद तथा मानव विज्ञान के संयुक्त प्रयास से इन देशज भाषाओं और ज्ञान का एक समग्र अध्ययन का आवश्यक प्रयास होगा।
हाल ही जब मेल्बर्न विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक से अपने इस प्रयास के बारे में साझा किया तो उन्होंने प्रशंसा करते हुए एक अहम बात रखी। उन्होंने कहा कि हमारे पास मेल्बर्न में निश्चय ही उन्नत तकनीक उपलब्ध है, किन्तु “रॉ मटेरीयल” तो आपके झारखण्ड में है। इसलिए आपके पास अभी अनेक सम्भावनाएँ हैं और आपको अपने समाज के लिए और विज्ञान के लिए आगे ठोस प्रयास निश्चय ही करना चाहिए। ये आपका सामाजिक दायित्व भी है। यह एक अत्यन्त प्रेरणादायक घटना थी।
झारखण्ड जैसे क्षेत्र में जहाँ अनेक विदेशी विद्वान यहाँ की भाषा को पढ़ने आते हैं। अब यह हमारी बारी होनी चाहिए की अब गाथा हम लिखें। झारखण्ड की अनेक स्थानीय भाषा पर दशकों से कार्य होते आए हैं और जिनके लिए ये अथक प्रयास हो रहे हैं वे चिर निद्रा में पड़े हैं। किसी भाषा की मृत्यु के बारे में हमें जो दुख होता है, वह जटिल है। क्योंकि जब एक भाषा की मृत्यु होती है तब एक संस्कृति की मृत्यु होती है।आज आदिवासी समाज के लिए एक दुःखद परिस्थिति है। आज जो अनेक आदिवासी स्वयं को एक अभिजात वर्ग में रख कर अपने ही मातृभाषा और संस्कृति से दूरी बना रहे हैं वे निकट भविष्य में स्वयं को इस भीड़ में ढूँढ नहीं पाएँगे। हम उस दहलीज़ में पहले ही पहुँच गये हैं जहाँ से वापस आना अत्यन्त कठिन हो गया है। और देर करना ठीक नहीं।
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