दुनिया को अपने विचारों से नया रास्ता दिखाने वाले भगवान बुद्ध भारत के महान दार्शनिक, एक महान समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। राजपरिवार में पैदा हुए महात्मा बुद्ध दुनिया भर में फैली दुख और पीड़ा ने उनकों इतना व्यतीत किया कि राजपाट, ऐशोआराम की जिन्दगी को त्याग कर उन्होंने एक तपस्वी का जीवन धारण कर लिया। महात्मा बुद्ध ने सत्य और अहिंसा को अपने जीवन का आधार बनाया और दुनिया को मानवता, दया और करुणा का ऐसा संदेश दिया कि हजारों साल बाद आज भी ये अनवरत चलता आ रहा हैं।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में नेपाल की तराई में शाक्य क्षत्रियों का एक छोटा सा गणराज्य था, जिसकी राजधानी कपिलवस्तु थी। इस गणराज्य के राजा शुद्धोधन थे। जिनकी दो पत्नियां माया देवी और प्रजापति गौतमी थी। माया देवी जब अपने पुत्र प्रसव के लिए मायके देवदह जा रही थी। तभी कपिलवस्तु से चौदह मिल दूर लुम्बिनी वन में ईसा पूर्व 563 में शाल वृक्ष के नीचे बालक सिद्धार्थ का जन्म हुआ। गौतम गौत्र में जन्म लेने के चलते बचपन में इनका नाम सिद्धार्थ गौतम पड़ा। लेकिन बालक के जन्म देने के सात दिन के बाद ही माया देवी की मौत हो गई। उसके बाद बालक सिद्धार्थ का लालन – पालन मौसी प्रजापति गौतमी ने किया। सिद्धार्थ के जन्म के समय ही एक तपस्वी ने भविष्यवाणी की थी कि ये बालक आगे चलकर चक्रवर्ती बनेगा। और, अगर प्रवार्जित हुआ तो धर्म चक्रवर्ती होगा।
सिद्धार्थ बचपन से ही दयालु और कोमलशील थे। वों शुरू से ही वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न होकर चिंतन और मनन किया करते थे। पिता ने कई तरह से कोशिशें की सिद्धार्थ का मन राजपाट और भोग विलास में लगाया जाए। लेकिन सिद्धार्थ इन सबसे ओर दूर होते चले गये। पिता ने 16 साल की उम्र में उनकी शादी यशोधरा नामक कन्या से करवा दी। जिनसे उन्हें राहुल नमाक पुत्र पैदा हुआ। बचपन से सिद्धार्थ को कुछ जीवन के कठोर सत्य जैसे जन्म, रोग, दुख और मृत्यु ने काफी प्रभावित किया।
29 साल की उम्र में एक रात उन्होंने इस संसार को दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए अपने सोये हुए पुत्र और पत्नी को छोड़कर ग्रह त्याग दिया और तपस्वी का जीवन अपना लिया। सिद्धार्थ के घर छोड़ने की घटना को महाभिनिष्क्रमण के नाम से जाना जाता है। घर छोड़ने के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में साधु- संतों और संन्यासीयों से मिलने लगे। कुछ दिनों तक वों आलारकालाम नामक आचार्य से दर्शन सिद्धांत पढ़ते रहे। लेकिन उनकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई और उन्होंने आलारकालाम का साथ छोड़ दिया।
ज्ञान की खोज में भटकते – भटकते सिद्धार्थ बोधगया के समीप उरुवेला के जंगलों में पहुंच गये। उरुवेला के जंगलों में उन्होंने तपस्या की। कठोर तपस्या और भूख के कारण उनका शरीर जर्जर हो गया और वो इतने कमजोर हो गये कि दो पग चलने की शक्ति नहीं बची। इसके भी बावजूद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। इसके बाद उन्होंने मध्यम मार्ग को अपनाया और ज्ञान प्राप्ति का संकल्प लिया। सुजाता नामक महिला के हाथों से खीर खाकर सिद्धार्थ उरुवेला में ही एक वट वृक्ष के बीच यानी पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति के लिए बैठ गये और प्रतिज्ञा ली की सत्य जाने बिना अब वह यहां से नहीं उठेंगे।
इसके बाद सात दिन और सात रात तक वों वज्रासन की अवस्था में रहे। आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और लम्बे समय से चली आ रही उनकी साधना सफल हुई। इस घटना को बौद्ध साहित्य में सम्बोधि कहा गया है। ज्ञान प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ, बुद्ध और तथागत कहे जाने लगे। महात्मा बुद्ध को 35 वर्ष की आयु में ज्ञान प्राप्त हो गया था। ज्ञान प्राप्ति के बाद करीब पैतालीस वर्षों तक उन्होंने उपदेश दिए।
यह भी पढ़ें – महात्मा बुद्ध और उनका जीवन संदेश
महात्मा बुद्ध ने अप्प दीपो भवः यानी अपना प्रकाश खुद बनिए का संदेश समस्त मानव जाति को दिया। इस सन्देश के माध्यम से महात्मा बुद्ध ने कहा “किसी बात को सिर्फ इसलिए मत मानो कि ऐसा सदियों से होता आया है, परम्परा है, या सुनने में आई है। इसलिए मत मानो कि किसी धर्म शास्त्र, ग्रंथ में लिखा हुआ है या ज्यादातर लोग मानते है। किसी धर्मगुरु, आचार्य, साधु-संत, ज्योतिषी की बात को आंख मूंद कर मत मान लेना। किसी बात को सिर्फ इसलिए भी मत मान लेना कि वह तुमसे कोई बड़ा या आदरणीय व्यक्ति कह रहा है बल्कि हर बात को पहले बुद्दी, तर्क, विवेक, चिंतन व अनुभूति की कसौटी पर तौलना, कसना, परखना और यदि वह बात स्वयं के लिए, समाज व संपूर्ण मानव जगत के कल्याण के हित लगे, तो ही मानना।“
बौद्ध धर्म कर्म प्रधान है। बुद्ध ने ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया है। कर्मवादी होने के चलते उन्होंने मानव के कल्याण के लिए ईश्वर से जुड़े सवालों को अनावश्यक माना। बौद्ध धर्म का एकमात्र लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति है। बुद्ध आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे। उनका मानना था कि जगत नश्वर है। इसके साथ ही बुद्ध ने मानव के कल्याण के लिए केवल अंत: शुद्धि पर जोर दिया। अहिंसा बुद्ध के व्यावहारिक और क्रियात्मक नैतिकता के सिद्धांत का अभिन्न अंग है। वे प्राणी मात्र के लिए अहिंसा, दया और प्रेम का उपदेश देते रहे है।
महात्मा बुद्ध ने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव कल्याण और विकास में लगा दिया। उनके विचार, उनके संदेश, उनका जीवन आज भी प्रासंगिक हैं। आज के समय में जब इंसान विकास की नई इमारत बनाने में जुटा हैं। उसके साथ ही समाज में नफरत और घ्रणा की प्रवृत्ति भी बड़ी है। सही मायनों में हम अगर गौतम बुद्ध के दिखाए रास्तों पर चलें तो हम इन तमाम तरह के दुखों को पलक झपकते ही मिटा सकते हैं। ये महात्मा बुद्ध के विचारों की ताकत ही की भारत से शुरू हुए बौद्ध धर्म का अनुयायी आज विश्व में जगह – जगह पर फैले हुए हैं। महात्मा बुद्ध के विचारों को अपनाकर एक बेहतर समाज की कल्पना की जा सकती हैं।