संस्कृति

भारिया जनजाति : एक विलुप्त होती संस्कृति

 

जनजाति शब्द के साथ ही हमारी कल्पना में एक ऐसी संस्कृति सामने आती है, जो वैज्ञानिक विकास से दूर वर्तमान काल की व्यवहारिक जीवन शैली से अपरिचित शांति और एकान्त में प्रकृति के मध्य अवस्थित है, और जो अपनी परम्पराओं तथा रूढ़ियों का दृढ़ता से पालन करती है। डॉ मजूमदार के अनुसार “एक जनजाति परिवार के समूह का संगठन है, जिनका एक सामान्य नाम होता है एक निश्चित भूभाग में रहते हैं और विवाह व्यवसाय तथा उद्योग के विषय में निषेधात्मक नियमों का पालन करते हैं”।

जनजाति का बोध कराने वाला अँग्रेजी शब्द tribe का उद्गम लैटिन भाषा के शब्द ट्राइब्स से माना जाता है, कई विद्वान लोगों ने इन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा प्रसिद्ध समाज शास्त्री घुरिये ने इन्हें पिछड़े हुए हिन्दू हट्टन ने आदिम जातियाँ तथा मार्टिन एवं रिज़ले ने आदिवासी जैसे शब्दों से पुकारा है, वनों में रहने के कारण गाँधीजी ने इन्हें गिरिजन के नाम से संबोधित किया उपर्युक्त वर्णित तथ्यों के आधार पर यह माना जा सकता है कि सीमित क्षेत्र, भाषा संस्कृति, राजनीतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता, विशिष्ट विश्वास पद्धति जनजातीय समाज की विशेषताएं होती है, वह अपने अधिकांश कार्य व्यापार जैसे झोपड़ी बनाना वनोपज संग्रहण या खेती का प्रारम्भ किसी ना किसी धार्मिक कर्मकांड से प्रारम्भ करते हैं।

जब हम प्राचीन साहित्य का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि आर्यों से इतर लोगों को अनार्य दास दस्यु तथा वनों में रहने वाले लोगों को निषाद किरात शबर आदि नामों से पुकारा गया, वे वैदिक विचारों का सुर में पाठ नहीं करते थे इसलिए असुर कहलाए। पश्चिमी भारत के आदिवासियों को महाकाव्यों में गुहा निषाद और शबर के रूप में व्यक्त किया गया, हड़प्पा सभ्यता को भी जनजातीय सभ्यता के अंतर्गत रखा जाता है। बनर्जी शास्त्री के अनुसार वैदिक साहित्य में वर्णित असुर यहाँ निवास करते थे।

मध्य प्रदेश को अनेक नामों से पुकारा जाता है। इसे भारत का हृदय प्रदेश भी कहा जाता है। साथ ही जनजातीय समूह की अधिकता के कारण इसे जनजातीय प्रदेश भी कहा जाता है, इसके करीब सभी जिलों में गोंड भील बेगा सहरिया भारिया आदि जनजातियाँ पाई जाती है। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में सतपुड़ा की सुरम्य वादियों में पातालकोट घाटी स्थित है, इसी पातालकोट घाटी में भारिया जनजाति पाई जाती है। यहाँ पर रहने वाली भारिया जनजाति अभी भी शिक्षा तथा संपन्नता से कोसों दूर है। उनके मन में शिक्षा का जो अंधकार है, वह बाहरी अंधकार से अधिक खतरनाक है। बाहरी अंधकार तो मिटाया जा सकता है लेकिन शिक्षा के कारण उपज ने वाली समस्याएं अनिवारित ही रह जाती है।

पातालकोट में 20 गांव हैं, जिनमें पचगोल, जीरन, चिमटीपुर काले आम रातेड, आदि प्रमुख हैं। पातालकोट का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत है, जो एक बार आंखों में समा गया तो भुलाए नहीं भूलता। सबसे अद्भुत स्मरणीय चीज है इस अद्भुत रचना में बसा मानवीय संसार जो आज भी आदिम संस्कृति को लिए जी रहा है। जिन की परम्परा रीति रिवाज, नृत्य, संगीत रहन-सहन सामान्य जनों से एकदम भिन्न है।

भारिया प्रमुख रूप से पातालकोट क्षेत्र में निवास करते हैं। इस दुर्गम क्षेत्र में बसे भारिया लोगों को भारत सरकार द्वारा प्रदेश की विशेष पिछड़ी जनजाति के रूप में मान्य किया गया। भारिया जनजाति का अस्तित्व मध्यप्रदेश में मुख्यतः जबलपुर और छिंदवाड़ा में है, पातालकोट में इनके आने का प्रमुख कारण दहिया खेती है। पातालकोट की विशाल भूमि और प्राकृतिक वन संपदा भारियाओं के आकर्षण का प्रमुख कारण रही है, भारिया द्रविडियन प्रजाति के आदि लोग हैं। पातालकोट की दुर्गम अवस्थिति, घना जंगल तथा अगम रास्तों के कारण कई वर्षों तक सरकार का ध्यान इनकी ओर केंद्रित नहीं हो पाया। अतः इनका भौतिक विकास नहीं हो पाया और अन्य जनजातियों की अपेक्षा विकास की दौड़ में पीछे हो गए, अब सरकार इन्हें विशेष पिछड़ी जनजाति का दर्जा देकर इनका विकास कर रही है लेकिन भारिया जनजाति का विकास आज भी दूर की कौड़ी है।

ये आज भी मुख्यधारा से मिलों दूर है अगर इसके कारणों को विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि राजनीतिक अक्षमता अधिकारी तथा व्यापारियों की सांठगांठ के परिणाम स्वरुप जनजाति उत्थान के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं का उचित क्रियान्वन न कर पाने के कारण भारिया जनजाति समाज आज भी निर्धन अवस्था में जीवन यापन कर रहा है, वहीं दूसरी ओर यह विचार भी आता है कि जिन अटूट परम्पराओं रीति-रिवाजों अंधविश्वासों की बीच यह समाज जीवन यापन कर रहा, कहीं यह तो उनके विकास मार्ग का रोड़ा नहीं है। परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि इनकी सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक परम्पराओं को इनके जीवन से हटा दिया जाए तो शायद इनका कोई अस्तित्व ही नहीं बचेगा। यह सहज सरल परम्परा ही इनके जीवन का स्रोत है, जिसके सहारे वे अत्यंत कष्ट पूर्ण तथा संघर्षपूर्ण जीवन को भी अत्यंत सहजता से व्यतीत कर पाते हैं।

भारिया अपने को रावण वंशी मानते हैं तथा मेघनाथ की पूजा करते है। भारिया जनजाति की परम्परागत बोली भरयारी या भरनोटी कहलाती है, इनके नामकरण के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि इनके पूर्वज मराठा शासक रघु जी भोसले के भार वाहक थे और भर ढोने के कारण इन्हें भारिया कहा गया, लेकिन यह मात्र दंतकथा ही लगती है। शायद भरियाओं को तिरस्कृत करने के लिए यह कथा चलाई गई है, जैसे तेलिया से तेली जोगिया से जोगी कोरियर से कोरि उसी प्रकार भार से भारिया। रसेल एवं हीरालाल ने भारिया जनजाति का मूल स्थान महोबा अथवा बांधवगढ़ माना है, यह स्थान भार क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं और दहल क्षेत्र की तत्कालीन राजा करण देव भी भर जाति के थे इसलिए इन्हें भारशिव राजपरिवार के नाम से भी जाना जाता है।

भारीयाओं के 51 गोत्र हैं। परन्तु इन सभी के बारे में भी नहीं जानते। अधिक से अधिक सोलह गोत्र ही ज्ञात है, भारिया जनजाति के गोत्र उनके आसपास की प्रकृति पर आधारित है, जैसे खमरिया, बघोरिया, अंगारिया आदि भारिया जनजाति में पुत्र तथा पुत्री के मध्य कोई भेदभाव नही किया जाता। पिता पुत्र की अपेक्षा पुत्री के प्रति अधिक संवेदनशील होता है, पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह, सती प्रथा भारिया जनजाति में नहीं पाई जाती।

जनजातीय समाज सरल होता है, उनमें विवाह साथी चुनने के सरल और सहज तरीके हैं। एक जनजातीय समाज में पैठु विवाह सेवा विवाह, आटा साटा शादी विवाह के प्रकार है। जनजातीय महिलाओं के श्रंगार में गोदना सर्व प्रमुख है जो जीवन भर का स्थाई श्रंगार कहलाता है। यह उनकी सौंदर्य वृद्धि के साथ ही उनकी पुरातन मान्यताओं लोक विश्वास को भी पुष्ट करता है।

भारिया आदिवासियों का स्पष्ट रूप से कोई धर्म नहीं है जिसे कोई नाम दिया जा सके बल्कि वे आदिम और सभ्य जातियों की धार्मिक आस्था के बीच फंसे असमंजस की स्थितियों में है। भारिया जनजाति देवताओं में बूढ़ादेव, बागेश्वर, नागदेव मेघनाथ है, जो स्पष्ट जंगल में पाए जाने वाले प्राणियों से सम्बन्धित है, जिनसे उत्पन्न भय के कारण उन्हें दिव्य स्वरुप में निरूपित किया गया है। भारिया जनजाति के धर्म को जादू से जोड़ा जा सकता है। जादू टोने पर इनको बहुत विश्वास है। उनके अनुसार पातालकोट के हर झाड़ पर भूत है और हर खाई में शैतान है।

वे टोटम वाद में विश्वास करते हैं और जिस भी पशु पक्षी या वृक्ष को टोटम के रूप में मानते हैं उसे वह मारते नहीं या काटते नहीं है। टोटमो की संख्या बहुत अधिक होती है, वह दर्पण से लेकर नमक पशु पक्षी पर्वत नदी आदि का भी नाम हो सकता है।


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भारिया जनजातियों के प्रमुख उत्सव में दशहरा, बिदरी उत्सव, बाघ पूजन, अखाड़ी, आखा तीज नाग पंचमी, पोला आदि प्रमुख है। भारिया जनजाति द्वारा मनौती मानकर पूरी होने पर सम्बन्धित देवता को मार्ग मुर्गा या बकरे की बलि दिया जाता है, तो उसे नवस कहा जाता है। भारिया जनजाति अपने धर्म से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है और उनका धार्मिक जीवन सभी धर्मों के समन्वय का सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है। वह जिस भी संस्कृति के साथ सम्पर्क में आए उनसे उन्होंने कई तत्वों को ग्रहण किया और इस प्रकार आत्मसात किया कि उन्हें अब अलग नहीं किया जा सकता, लेकिन वे अभी भी अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भूले नहीं है।

भारिया जनजातियों की अनेक समस्याएं हैं जिनमें गरीबी भुखमरी, चिकित्सीय सुविधाओं की कमी, मदिरापान का अत्यधिक होना और सभ्य कही जाने वाली उच्च संस्कृति का उन पर लगातार बढ़ता दबाव, जिस कारण से वे अपनी संस्कृति को लगातार भूलते जा रहे हैं। और आधुनिक परिवेश से प्रभावित होकर प्राकृतिक और मूलभूत संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। उनकी इस संस्कृति को बचाने की और मानव संस्कृति के साथ कदमताल करते हुए उन्हें विकास के पथ पर ले चलने की हमें उनके साथ चलने की जरूरत है।

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अमित सातनकर

लेखक डॉक्टर भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर में सहायक प्राध्यापक (इतिहास) हैं। सम्पर्क +918982842018, satankeramit@gmail.com
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