वारली चित्रकला
वारली चित्रकला की शैली भीमबेटका की शैल गुफाओं के चित्रकला के समान है। माना जाता है कि गुफाओं व शैलाश्रयों में पाये जाने वाले शैल चित्र आदिम चित्रकला के रूप हैं। उस समय इन चित्रकलाओं का प्रयोग कहानियों को कहने के लिए किया जाता रहा होगा। लिपि के अविष्कार से पहले चित्रों के माध्यम से भाव व्यक्त करने की परम्परा ने भित्तिचित्रों को जन्म दिया। इन चित्रों के केन्द्रीय विषय दैनिक जीवन की गतिविधियों जैसे शिकार, मछली पकड़ना, खेती करना, उत्सव, नृत्य, पेड़ और जानवरों आदि से जुड़े प्राकृतिक दृश्यों से सम्बन्धित होते थे।
शैलचित्र की तरह दिखने वाली वारली चित्रकला स्त्रियों द्वारा विशेष अवसरों पर घर को सजाने के लिए बनाई जाती थी। मुख्यतः महिलाओं द्वारा की जाने वाली इस चित्रकारी में वृत्त, चक्र, त्रिकोण एवं वर्ग के प्रयोगों से भावों का चित्रात्मक अंकन किया जाता है। नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार लोककचित्रों की अपनी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति होती है इसकी हर आकृति का कोई न कोई अर्थ होता है, जैसे वृत्त (o) का आशय सूर्य व चंद्रमा है, जबकि त्रिकोण (∆) का अर्थ पर्वत है। इन चित्रों में बिंदु (•) सृजन का प्रतीक है। वह सृष्टि का केंद्र भी है। बिंदु से बनती है रेखाएं सीधी खड़ी (|) रेखा गति और विकास की प्रतीक है जबकि आड़ी या पड़ी (_)रेखा प्रगति और स्थिरता की, तिरछी (/) रेखा आगे बढ़ने की दिशा दर्शाते हैं जबकि तरंगायित (~) रेखा प्रवाह की प्रतीक है।
एक दूसरे को काटती रेखाएं (×) विरोध, संघर्ष और युद्ध की सूचक है। तीर (<<—->>) की तरह दोनों दिशा में बढ़ती रेखाएं पूर्ण विकास को दर्शाती है। समकोण (T) पर मिलती रेखा उदासीनता की प्रतीक है। तीन बिंदुओं से बनाया जाता है त्रिकोण। तीन सीधी रेखाएं तीन बिंदुओं पर मिलकर त्रिकोण बनाते हैं और तीन बिंदुओं के एक बिंदु पर संगम का अर्थ देती हैं। यह तीन बिंदु ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीन देवियां- महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, तीन गुण -सत्व, रज, तम, तीन शक्ति -ज्ञान, इच्छा, क्रिया तीन काल- भूत, वर्तमान, भविष्य और तीन अनुभूतियां-सत, चित, आनंद आदि के प्रतीकार्थो को व्यक्त करते हैं।
पेड़, पौधों, बेल लताओं आदि को दो वर्गों में बांट कर लोक चित्रों में स्थान दिया जाता है एक तो सजावट के रूप में दूसरा व्रतों त्योहारों से जुड़े धार्मिक प्रतीकों के रूप में लोक चित्रों में अभिव्यक्त होते है। फूल, फल युक्त बेले संपन्नता और समृद्धि का प्रतीक है, वटवृक्ष चीरायु का, तुलसी पवित्रता के प्रतीक और वस्तुपरक प्रतीकों में कलश या कुंभ, त्रिशूल, शंख, चक्र आदि शुभ प्रतीको के रूप में प्रयोग किए जातें है। कलश मानव शरीर और उसमें भरा जल प्राण का प्रतीक है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लोक चित्रों की अपनी एक भाषा है जिसे हर लोककलाकार पीढ़ी दर पीढ़ी ग्रहण करता है। सिर्फ किसी चित्र की नकल करने मात्र से लोक कलाएं प्राणवान नहीं बनती। उनमें कलाकार की अनुभूति और संवेदनाओं के रंग घुले-मिले होतें है जिनको समझने के लिए गहरे उतरना पड़ता है।
वारली कला का सम्बन्ध वारली जनजाति से है जो महाराष्ट्र के मुंबई जिले के उत्तर सीमा क्षेत्र में पाई जाती है। वारली समाज श्रमरत कृषि प्रधान समाज है। इस जनजाति के लोग झोपड़ी नुमा घर बनाकर छोटी छोटी बस्तियों में, जिन्हें वे ‘पाडा’ कहते हैं, रहते हैं। इनके घर लकडी, बाँस और मिट्टी से बने होते हैं। घर की सजावट के लिए दीवारों को मिट्टी और गोबर से लीप कर गेरू से रंगने के बाद उनपर सफेद रंग से चित्र बनायें जाते हैं। चावल के आटे का घोल बनाकर सफेद रंग तैयार किया जाता है। ठोस बाँस की खपच्चियों एवं खजूर के काँटे का प्रयोग ब्रश के रूम में किया जाता है।
प्राकृतिक संसाधनों से तैयार किए गये सामग्री और कूची से जीवन एवं प्रकृति के सुंदर दृश्यों को घर की दीवारों पर उकेरा जाता है। ये चित्रकला मुख्यत:वारली समाज की संस्कृति, परम्परा एवं लोक संस्कृति पर आधारित है। इसमें वारली समाज के धार्मिक रीति-रिवाज, विवाह एवं लोकपर्वो का चित्रण किया जाता है। अपने आसपास पाये जाने वाले पेड़ पौधे पशु पक्षी, नदियाँ, पहाड़ों के साथ घर, खेत खलिहान, शिकार, शिकार के साधन, मेला, नृत्य आदि विषयों के चित्र बनायें जाते हैं। त्रिकोण, चौकोर, गोल, बिंदु, लकीरें आदि भूमितिय आकारों का प्रयोग करके सुंदर व जीवंत चित्रों को अंकित किया जाता है। अपने घरों व विशेष अवसरों पर इन चित्रों द्वारा सजावट करने के उद्देश्य से महिलाएं अपनी रचनात्मक कला के द्वारा इन चित्रों को दीवारों पर उकेरती है।
पुरातत्व वेत्ताओं का अनुमान है कि यह कला दसवीं शताब्दी से लोकप्रिय हुई। 1970 के दशक से इसकी लोकप्रियता का एक नया युग प्रारंभ हुआ जब लोककलाकार जीवा मशे के प्रयत्नों से इसको बाज़ार में लाया गया। जीवा मशे के कई उत्कृष्ट चित्रों में “लग्नाचा चौक”, “तारपाँ ” और “पालगुट देवी” चित्र बहुत प्रसिद्ध हुए। उनकी इस उत्कृष्ट लोककला को पं. जवाहर लाल नेहरू तथा श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सम्मानित किया गया। बाद में उनकी इस कला कौशल के लिए उन्हें अनेक पुरस्कार मिले। 2011 में वारली चित्रकला में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। उनके योगदान के कारण ही उन्हें वारली कला के आधुनिक पिता के रूप में जाना जाता है।
70 के दशक से, वारली पेंटिंग घर की दीवारों के अतिरिक्त पेपर और कैनवास पर की जाने लगी। इसका श्रेय जीवा मशे को जाता है उन्होंने अपने चित्रों में रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं के साथ-साथ मनुष्यों और पशुओं के चित्रों को आधुनिक कलेवर के साथ प्रस्तुत किया हैं। शैली की दृष्टि से देखें तो वारली की पहचान यही है कि ये साधारण सी मिट्टी के बेस पर मात्र सफेद रंग से की गयी चित्रकारी है जिसमें कभी कभी लाल और पीले बिन्दु बना दिए जाते हैं। ज्यादातर सफेद रंग का प्रयोग किया जाता है। सफेद रंग बनाने के लिए चावल को बारीक पीस कर घोल के रूप में चित्र बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इन चित्रों के विषय प्रतीकात्मक होते हैं। जिनमें पालघाट, शादी-विवाह को दर्शाने वाले बहुत से चित्रों में घोड़े का चित्र भी दिखाया जाता है जिस पर दूल्हा-दुल्हन सवार होते हैं। यह चित्र बहुत पवित्र माना जाता है और विवाह के अवसरों पर इसे अनिवार्य रूप से चित्रित किया जाता है।
परम्परागत वारली चित्रों में सीधी रेखा कम ही देखने को मिलती है। कई बिन्दुओं और छोटी-छोटी रेखाओं (—) को मिलाकर एक बड़ी रेखा बनाई जाती है। आजकल चित्रकारों ने अपने चित्रों में सीधी रेखाएं खींचनी शुरू कर दी है। अब इस कला में महिलाओं के साथ साथ पुरुषों की भी भागीदारी देखी जा सकती है। साधारण व सरल चित्रकला होने के बावजूद सुन्दर व आकर्षक लगने वाली परम्परागत वारली चित्रकारी काफी लोकप्रिय हो गयी है। कागज़ और कपड़े पर बने छोटी छोटी चित्रकारी से लेकर दीवार पर बने बड़े-बड़े भित्ति चित्र आकर्षक एवं सुंदर लगते है। महाराष्ट्र के वारली समाज की छवि को जीवंतता के साथ प्रस्तुत करने वाली यह लोककला परम्परा और आधुनिकता के संगम के साथ अपनी पहचान को आज वैश्विक स्तर पर स्थापित कर चुका है।