
बैसाख पूर्णिमा अर्थात् बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्मावलम्बियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। इस पावन दिवस पर भगवान बुद्ध का जन्म ही नही हुआ था बल्कि उन्हें इसी दिवस पर बोधित्व की प्राप्ति हुई थी और इनका परिनिर्वाण भी इसी दिन हुआ था। हमारे देश में बौद्ध धर्म का अपना महत्व रहा है। एक समय ऐसा था कि पूरे देश में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार था। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था और इतिहास बताता है कि प्राचीन भारत गांधार, अफगानिस्तान से परे भी भारत की सीमायें थीं। चीनी यात्रियों के यात्रा वृतांत इसके साक्षी हैं कि भारत में बौद्ध धर्म के कारण सामाजिक समानता थी, शिक्षा के लिये वृहद एवं प्रसिद्ध विश्वविद्यालय थे जहाँ देश-विदेश से छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे। आर्थिक समृद्धि चारों तरफ थी। लेकिन यह बौद्ध धर्म अपने ही देश में लुप्तप्राय हो गया। बौद्ध धर्म के अनुयायी तो रहे नहीं, यहाँ तक इस धर्म की जानकारी देने वाला भी कोई नहीं रहा। ऐसी परिस्थिति में डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और अपने समुदाय में प्रचार-प्रसार किया। यह बताया कि यह वही धर्म है जिसका आधार ही समानता है, कहीं भी वर्ग भेद न तो जन्म के आधार पर, न तो लिंग के आधार पर है।
किसी भी धर्म का अध्ययन करना बहुत आसान नहीं होता क्योंकि उसमें उपदेश, शिक्षा और दर्शन होते हैं जिसका स्तर बहुत ही उॅंचा होता है। जिसे विद्वान, बुद्धिमान एवं प्रज्ञावान मनुष्य ही समझ सकता है। लेकिन बाबा साहेब ने समय-समय पर अपने व्याख्यान में बौद्ध दर्शन को बहुत ही सामान्य भाषा शैली में समझाया जिससे बौद्ध धर्म के दर्शन, उपदेश और शिक्षा को आमजन आसानी से समक्ष सकें। बाबा साहेब ने अपने ज्ञान/अध्ययन को सन् 1916 से 1956 तक लगातार आलेख, लेख, व्यक्तव्य, व्याख्यान, पुस्तक इत्यादि द्वारा समाज में प्रचार-प्रसार किया। इस आलेख में डॉ. अम्बेडकर के द्वारा सन् 1946 से 1956 तक दिये गये व्याख्यानों के आधार पर बौद्ध धर्म के महत्व और दर्शन को समझाने का प्रयास किया गया है। डॉ. अम्बेडकर के इन व्याख्यानों का सार भारत सरकार द्वारा प्रकाशित “बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्मपूर्ण वाड्.मय, खण्ड-40” से लिया गया है।
02 मई 1950 का दिन भारत के इतिहास ही नहीं बल्कि बौद्ध धर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण था। क्योंकि इस दिन दिल्ली में भगवान बुद्ध की 2494 वीं जयंती डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में अस्पृश्य समाज द्वारा पहली बार सार्वजनिक रूप से मनायी गयी थी। इस दिन का डॉ. अम्बेडकर का व्याख्यान बहुत ही महत्वपूर्ण था। वे कहते हैं कि धर्मशास्त्रों का मैं कोई बहुत बड़ा पंडित नहीं हूँ, हालांकि जो साहित्य मैंने पढ़ा है उसके आधार पर मैं कहना चाहता हूँ कि भगवान के पद पर आसीन व्यक्ति के विचारों का पवित्र होना जरूरी होता है। ऐसे व्यक्ति के मन में किसी और के प्रति द्वेष भावना नहीं होनी चाहिये। उसके कारण किसी का नुकसान नहीं होना चाहिये और किसी के प्रति बैर भावना नहीं होनी चाहिये। इस कसौटी पर बुद्ध खरे उतरते हैं। बौद्ध धर्म जातिविहिन, एक-समान समाज की रचना को मानता है। भगवान बुद्ध के धर्म का मुख्य उद्देश्य मानवों की समता है। अपनी बुद्धि की कसौटी पर कसकर हर बात स्वीकार करना अथवा उसे अस्वीकृत करने की आजादी इस धर्म में हर एक को है। हिंसा को हटाना और अहिंसा को स्वीकार करना यह उसका प्रमुख अंग है।
दिनांक 06 जून 1950, कोलंबो में विश्व बौद्ध भातृत्व सम्मेलन में व्याख्यान देते हुए डॉ. अम्बेडकर कहते हैं – किसी विषय की परम्परा के बारे में पूरी जानकारी मिलने के बाद ही उसके बारे में यथार्थ ज्ञान होता है। इसलिये जिन परिस्थितियों में बौद्ध धर्म को जन्म दिया उसे अगर हम जान लें तो बौद्ध धर्म के वास्तविक महत्व को जान पायेंगें। वे कहते हैं कि ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार बौद्ध धर्म के पूर्व सनातन या ब्राह्मण धर्म समाज में था। इस समय समाज में चातुर्वण्य था जो विषमता का पर्याय था। बौद्ध धर्म ने इस चातुर्वण्य व्यवस्था का विरोध किया क्योंकि इसकी आत्मा समानता का समर्थन करती थी। समाज के विभिन्न वर्गों में विभाजन को बौद्ध धर्म का विरोध था। आगे डॉ. अम्बेडकर कहते हैं कि भारत में बौद्ध धर्म का उदय और फ्रांस की राज्यक्रांति ये दो युगांतरकारी घटनायें हैं, ऐसा मुझे लगता है। बौद्ध धर्म से सामाजिक समता की स्थिति निर्माण हुई। जनतांत्रिक राज्य पद्धति बौद्धकालीन देन है। अर्थात् हम कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म का उदय सामाजिक विषमता को समाप्त करने के लिये हुआ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
डॉ. अम्बेडकर ने अपने व्याख्यान में बताया कि उनका बौद्ध धर्म के प्रति लगाव बहुत पुराना है। वे कहते हैं कि चौदह साल की उम्र में ही बौद्ध धर्म से मेरा परिचय हुआ। दादा केलुस्कर ने मुझे गौतम बुद्ध का चरित्र नामक पुस्तक उपहार स्वरूप दिया था। मैने इसके पहले रामायण, महाभारत जैसे कई ग्रन्थ पढ़े थे। उसी प्रकार मैंने यह किताब भी पढ़ी। लेकिन मेरे ध्यान में आया कि इस पुस्तक से मिली सीख अन्य पुस्तक से मिली सीख में बहुत अन्तर है। आगे चलकर इस किताब की ही तरह मैं अन्य किताबें पढ़ता रहा और धीरे-धीरे मेरे दिमाग में बातें साफ होती गयी। बौद्ध धर्म कैसा है, हिन्दु धर्म कैसा है, इसका मुझे पता चलने लगा।
डॉ. अम्बेडकर ने बताया कि उन्होंने बौद्ध धर्म क्यों स्वीकारा, इस धर्म में क्या विशेषता है? वे कहते हैं कि गौतम बुद्ध को पहले पाँच शिष्य मिले। उन्हें पंचवर्गीय भिक्षु कहते हैं। कुल चालीस शिष्य बनने के बाद बुद्ध को लगा कि अब शिष्यों को सम्मति देनी चाहिये। उस व्यक्त बौद्ध धर्म की व्याख्या गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों को इस प्रकार बतायी – बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकंपाय हिताय, सुखाय, देव मनुस्सानं, धम्म आपी कलयाणं, अती कल्याणं, अर्थात् बौद्ध धर्म बहुजनों के हित के लिये, सुख के लिये, उनसे प्रेम करने के लिये है। बौद्ध धर्म आरम्भ में कल्याणकारी है, मध्य में कल्याणकारी है और अन्त में भी कल्याणकारी है। इस धर्म में आदि, मध्य और अन्त सभी हितकारी और कल्याणकारी है।
डॉ. अम्बेडकर ने आर्थिक मसलों पर भी बौद्ध धर्म के दर्शन को बताया – वे कहते हैं कि एक बार अनाथपिंडक ने भगवान बुद्ध से आर्थिक मसलों के बारे में सवाल पूछा था। तब भगवान ने जवाब दिया था, संपत्ति मानव जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। संपत्ति एकत्र करें लेकिन उसका उपयोग दूसरों को परेशान करने के लिये, दूसरों को गुलामी में जकड़ने के लिये कभी न करें संपत्ति शुद्ध साधनों से कमाई जाये और उसका उपयोग अच्छा हो। धर्म और अर्थ यह दोनों बातें मनुष्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है जीवनोपयोगी वस्तुओं के लिये धर्म और अर्थ दोनों की आवश्कता होती है।
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बौद्ध धर्म में आत्मा के लिये कोई स्थान नहीं है और न ही ईश्वरीय सत्ता की कोई कल्पना है। डॉ. अम्बेडकर बताते हैं कि बुद्ध यथार्थवादी थे, उन्होंने दुख के कारण ढूंढे। जो तीन प्रकार के हैं – आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। आध्यात्मिक अर्थात् निजी। व्यक्ति द्वारा अपने कर्मों के कारण जो दुख अपनी तरफ खींच लिये है वह कर्मों से निर्मित दुख है। शराबी व्यक्ति शराब पीकर अपने शरीर को हानि पहुँचाता है, अपने परिवार को नष्ट कर देता है उसे आध्यात्मिक दुख कहा जा सकता है। आधिभौतिक अर्थात् सामुदायिक दुख। असमान बर्ताव और अन्याय के कारण जो संकट आते हैं, जैसे कि अस्पृश्यों के हिस्से मे आने वाले दुख, समान मौके न मिलना आदि शामिल हो सकते हैं। आधिदैविक अर्थात् प्राकृतिक दुख। जहाज, मोटर इत्यादि से होने वाली दुर्घटनायें, तूफान, महामारी, बाढ़ आदि विपत्तियों के कारण निर्मित होने वाले दुख।
बौद्ध धर्म में इन दुखों को दूर करने के लिये साधन बताया है – पंचशील। किसी की जान न लें, चीजें आदि ना चुराएँ, झूठ ना बोलें, व्याभिचार न करें और शराब या तत्सम अन्य किसी नशीली चीजों का सेवन ना करें। इन पाँच चीजों के पालन से दुखों का निर्माण नहीं होगा। आधिभौतिक दुखों से छुटकारा पाने के लिये श्रेष्ठ अष्टांग मार्ग का अवलंबन करें – 1. सम्यक दृष्टि 2. सम्यक संकल्प, 3. सम्यक वाचा 4. सम्यक कर्म 5. सम्यक जीवन, बुरे कर्मों से पैसा कमाकर उपजीविका न चलाना 6. व्यायाम 7. सम्यक स्मृति 8. सम्यक समाधि, किसी दुष्ट मानसिकता से मन को अलग रखकर मन को हमेशा प्रसन्न और शांत रखना। इसमें सम्यक दृष्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। हम जो काम करते हैं उससे केवल अपना ही लाभ हो इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय अपना हित साधन करते हुए किसी की हानि तो नहीं हो इस बात का ख्याल रखा जाये तो दुनिया में आधिभौतिक दुख समाप्त होगें। इन्हीं के साथ दस पारमिता (दान पारमिता, शील पारमिता, नैष्क्रम्य पारमिता, प्रज्ञा पारमिता, वीर्य पारमिता, क्षान्ति पारमिता, सत्य पारमिता, अधिष्टान पारमिता, मैत्री पारमिता एवं उपेक्षा पारमिता,) भी बतायी गयी है। पारमिता अर्थात् जितना हम कर पाते हैं उतना। इन पारमिताओं में प्रज्ञा श्रेष्ठ है। पंचशील, अष्टांगिक मार्ग और ये दस पारमिता दुख निरोध कर दुख का नाश करने में समर्थ है। दुनिया के दुख का निवारण हो यही बुद्ध धर्म का सार है।
बौद्ध धर्म में निर्वाण क्या है, इसको डॉ. अम्बेडकर समझाते हुए कहते हैं कि भगवान बुद्ध कहते हैं, मानव जलती हुई आग है। इसी आग के कारण विकार पानी की तरह उबलते रहते हैं। इस अग्नि को शांत कर विकारों को नष्ट किया जा सकता है। भगवान आगे कहते हैं, इस अग्नि का उपयोग करने के लिये उसे मंद रखकर अनाज उस पर पकाना पड़ता है। उसी प्रकार मानव का उपयोग समाज के लिए हो इसके लिये बीच की स्थिति है, निर्वाण। इससे मनुष्य दस विकारों के अधीन न जाकर तर्कशुद्ध विचारों के साथ समाज के लिये उपयोगी कार्य कर सकता है।
बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म माना जाता है, ऐसा कहा जाता है। इस दर्शन को अम्बेडकर ने बहुत ही सरल शब्दों में समझाया। वे कहते हैं, बौद्ध पुनर्जन्म सिद्धांत अर्थात् पुनःनिर्माण, प्रकृति की पुनरावृत्ति है। जैसे माता-पिता से संतति पुनर्निमार्ण है, एक आम के वृक्ष से दूसरा आम का वृक्ष बनना भी पुनर्निर्माण है। बौद्ध धर्म मे इस पुनर्निर्माण को ही पुनर्जन्म कहा गया है। लेकिन पुनर्जन्म का सहारा लेकर कहा जाता है कि आत्मा को बौद्ध धर्म ने मान्यता दी, वह गलतफहमी है।
डॉ. अम्बेडकर अपने व्याख्यान में बताते हैं कि बौद्ध धर्म ईश्वरी सत्ता को नहीं मानता। यह धर्म कहता है कि दुनिया हरेक के कर्म के अनुसार चलती है। इसलिये बौद्ध धर्म ने मनुष्यों पर जिम्मेदारी डाली है। जैसा करोगे वैसा ही पाओगे, ऐसी चेतावनी दी है। इसे कर्म विपाक कहते हैं। कर्म विपाक यानि हमारे कर्मों से निर्माण होने वाला फल। यहाँ कर्म का मतलब पिछले जन्मों में किये गये पाप-पुण्यों की गठरी, ऐसा नहीं लगाया जाता। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिसके परिणाम तुरन्त नहीं भोगने पड़ते। उस कर्म का प्रभाव कुछ समय बाद होता है। लेकिन जन्म-जन्मांतर से नहीं, क्योंकि बौद्ध धर्म पुनर्जन्म को नहीं मानता। इसलिये कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म ने मनुष्य के अच्छे गुणों को बढ़ाने के लिये अवसर रखे हुए हैं। मनुष्य को अपनी प्रगति के लिये, अपनी उन्नति के लिये स्वंय ही प्रयास करना पड़ेगा, ऐसा कहा गया है।
डॉ. अम्बेडकर अपने व्याख्यानों में बताते हैं कि गौतम बुद्ध ने पहली बार उद्घोषित किया कि विद्या सभी मनुष्यों के लिये उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार अनाज आवश्यक है। विद्या एक प्रकार की दुधारी तलवार है। उससे दुष्टों का संहार किया जा सकता है और दुष्टों से अपनी रक्षा भी की जा सकती है। इसी प्रकार वे क्रोध को भी समझाते हुए कहते हैं कि क्रोध दो प्रकार के होते हैं, द्वेषमूलक एवं प्रेममूलक। कसाई कुल्हाड़ी लेकर जाता है तो उसका क्रोध द्वेषमूलक है जबकि बच्चा सदाचारी हो इसलिये माता बच्चे को मारती है तो उसका गुस्सा प्रेममूलक होता है।
अहिंसा बौद्ध धर्म का प्रमुख तत्व है। डॉ. अम्बेडकर इस विषय पर व्याख्यान देते समय कहते हैं कि नैतिकता पर आधारित अहिंसा का उपदेश बौद्ध धर्म में दिया गया है। अहिंसा दो बातों पर आधारित है- आवश्यकता के लिये हत्या और हत्या करने की इच्छा हुई इसलिये हत्या। राष्ट्र पर अगर हमला हुआ या देश संकटों में घिरा तो तलवार हाथ में लेकर देश की रक्षा के लिये दुश्मनों का सफाया करना, हत्या करना हर नागरिक का कर्त्तव्य है। इसका मतलब है यह हिंसा आवश्यक थी, उसे बौद्ध दर्शन में उच्च स्तर की अहिंसा कहा जाता है। दूसरी मारने की इच्छा मन पैदा होना अर्थात् अपने संतोष के लिये पशुबलि देना, पशुहत्या करना, इसे हिंसा कहा गया है।
धर्म में ग्लानि क्यों होती है? इसको बाबा साहेब ने मिलिंद प्रश्न के माध्यम से बहुत अच्छे से अपने व्याख्यान में समझाया। मिलिंद, शास्त्रार्थ के समय भिक्षु नागसेन से प्रश्न करते हैं कि धर्म में ग्लानि क्यों होती है। इसका नागसेन द्वारा तार्किक उत्तर दिया जाता है कि धर्म में ग्लानि के तीन कारण होते हैं, पहला – कोई धर्म कच्चा होता है और उस धर्म के मूल दर्शन में गंभीरता नहीं होती। वह कालिक धर्म बनता है। कुछ काल के लिये टिका रहता है। दूसरा – अगर धर्म का प्रसार करने वाले विद्वान न हो तो धर्म को ग्लानि आती है। ज्ञानी व्यक्तियों द्वारा धर्म का ज्ञान दिया जाना चाहिये। विरोधीयों से तर्क-वितर्क करने में धर्म के प्रचारक सिद्ध न हो तो धर्म को ग्लानी होती है। तीसरा – धर्म और धर्म का दर्शन केवल विद्वानों के लिये होते हैं। प्राकृत और सामान्य लोगों के लिये मंदिर होते हैं। वे वहाँ जाकर अपने श्रेष्ठ विभूतियों की पूजा करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन और चिंतन किया और समय-समय पर अपने व्याख्यानों के माध्यम से इस धर्म के दर्शन, शिक्षा, ज्ञान का प्रचार प्रसार जन साधारण के लिये किया। जिससे आमजनों में बौद्ध धर्म की समझ विकसीत हो और वे इस समतामूलक धर्म को ग्रहण करें। लोगों ने इनके व्याख्यानों के माध्यम से ही जाना कि यह धर्म समाज की विषमताओं को समाप्त करने के लिये ही अंकुरित हुआ और छोटे-से पौधे से विशाल वृक्ष बन न केवल अपने मूल देश को बल्कि पूरे विश्व को समता, करूणा, और प्रज्ञा की छत्र-छाया प्रदान कर रहा है। इस पावन बैसाख पूर्णिमा अर्थात् बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर भगवान बुद्ध को नमन। जिन्होंने समतामूलक धर्म की स्थापना की और समाज की विषमताओं का अन्त किया।
डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते समय जिन शब्दों से भगवान बुद्ध की स्तुति की थी उन शब्दों के साथ इस आलेख का समापन करते हैं – नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासबुद्धस अर्थात् जीवन्मुक्त, सम्मपूर्ण और जागृत भगवान बुद्ध को मेरा नमन।
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