संस्कृति

लोक-कथा की कथा

 

हमारे समाज में लोक-कथाओं का अस्तित्व सदियों से रहा है। गाँव-देहात के अशिक्षित लोगों-किसानों, मजदूरों, स्त्रियों के द्वारा बनी-बनाई इन लोक-कथाओं ने समाज का मनोरंजन तो किया ही है, ज्ञानवर्धन भी किया है। जब मनोरंजन के आधुनिक संसाधन अनुपलब्ध थे, ग्रामीण खेल-कूद और लोक-कथाओं के द्वारा ही लोगों का मनोरंजन होता था। जब शिक्षा-व्यवस्था सीमित लोगों के लिए थी तब व्यापक जनमानस को शिक्षित करने का काम भी लोक-कथाओं ने ही किया था। कथा की यह खासियत होती है कि बिना रटे, बिना दिमागी बोझ सहे उससे अनायास बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जीवन जीने के छोटे-छोटे गुर, लोक-व्यवहार, विपरीत परिस्थितियों से जूझने की कला, चतुराई, मनुष्यता, दूसरे की मानसिकता-ऐसी अनेक बातों को सिखाने का काम लोक-कथाएँ करती आयी हैं। खेत-खलिहान से थककर आने के बाद चौपाल या अलाव के चारों ओर बैठे लोग हों या दादी-नानी की गोद में लेटे बालक-इन कथाओं को सुनकर थोड़ी देर के लिए सही, अपने भाव-अभावों को जरूर भूल जाते होंगे, नई ऊर्जा से भर जाते होंगे। बच्चों को कल्पना की ऊँची उड़ान भरने और साथ-साथ जीवन की कठोर सच्चाई से रू-ब-रू कराने में भी लोक-कथाओं की अहम भूमिका रही है।

आधुनिक काल में मनोरंजन के इतने साधन उपलब्ध हो गये हैं, फिर भी लोक-कथाओं का आकर्षण कम नहीं हुआ है। बल्कि दादी-नानी की कहानियों के रूप में पुस्तकाकार बच्चों के पास बनी हुई हैं। पत्र-पत्रिकाओं में लोक-कथाएँ छपती हैं, चित्र-कथाओं के माध्यम से वे बच्चों के बीच जाती हैं। टीवी और मोबाइल के जरिए भी अब वे बच्चों के पास रहती हैं।

लोक-कथाओं का तो यह आकर्षण है कि बच्चों के साथ-साथ उनके दादा-दादी, नाना-नानी भी लोक-कथाओं का लुत्फ उठाते देखे जा सकते हैं।

संसार का कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं होगा जहाँ लोक-कथाएँ सुनी-सुनाई नहीं जाती होंगी। सदियों से मौखिक रूप में चली आ रहीं लोक-कथाएँ अब बहुत अधिक मात्रा में मुद्रित रूप में भी उपलब्ध हैं। अब ये पढ़ी जा रही हैं और पढ़कर बच्चों को सुनाई जा रही हैं। इस तरह बच्चे लोक-कथा की परम्परा  से आज भी जुड़े दिखाई देते हैं। इससे यह आश्वस्ति मिलती है कि लोक-कथाएँ सदा बनी रहेंगी, इनका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होगा।

विभिन्न देशों, विभिन्न भू-भागों, विभिन्न भाषा-बोलियों की लोक-कथाओं को पढ़ने से कई दिलचस्प बातें सामने आती हैं। लोक-कथाएँ वैसे तो निश्चित भू-भागों की पहचान से जुड़ी होती हैं-उनमें वहाँ की मिट्टी, हवा, पानी, बोली-बानी के अक्स दिखाई देते हैं लेकिन कई बार दूसरी जगह जाकर वही लोक-कथाएँ अपना चोला बदल लेती हैं और दूसरी जगह की बोली-बानी, मिट्टी-पानी को अपनाकर वहाँ की बन जाती हैं। इसके बावजूद वे मानवता की अवधारणा से कभी विमुख नहीं होतीं। उनमें अच्छाई की जीत, बुराई की हार हर हाल में होती है। भटका हुआ आदमी जरूर लौटता है। कोई राक्षस कितना भी क्रूर क्यों न हो, एक सामान्य मनुष्य उसका नाश करके रहता है। इसके अलावा दुनिया भर की लोक-कथाओं में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-नाले, झरने, पर्वत, धरती-आकाश, सूर्य-चंद्रमा, सितारे, ईश्वर-सभी मनुष्य के सहयात्री नजर आते हैं, एक-दूसरे से बोलते-बतियाते-झगड़ते नजर आते हैं। यानी मनुष्येतर प्राणियों और वस्तुओं का मानवीकरण यहाँ दिखाई देता है। इस तरह क्या पूरे ब्रह्माण्ड की एकसूत्रता का भाव इन लोक-कथाओं में नहीं दिखाई देता है?

लोक-कथा

भारत ही नहीं, पूरे विश्व में लोक-कथाओं का संचरण होता रहा है। व्यापार-विनिमय के लिए एक जगह से दूसरी जगह या एक देश से दूसरे देश लोग आते-जाते रहे हैं। उनके साथ ही लोक-कथाएँ एक जगह से दूसरी जगह गयीं, आईं। भारत के विभिन्न राज्यों की लोक-कथाओं में यह संचरण कुछ अधिक ही दिखाई देता है। कारण भी वही है कि एक राष्ट्र होने के कारण यहाँ लोग बड़ी सुगमता से एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते रहे हैं। लोगों के स्थान-परिवर्तन में शादी-ब्याह और नौकरी-चाकरी की भूमिका भी रही है। यही वजह है कि कई लोक-कथाएँ बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड में थोड़े-थोड़े बदले रूप में पढ़ने को मिलती हैं। इसके अलावा रामायण, महाभारत, पंचतन्त्र, कथा सरित्सागर, अलिफ लैला, अकबर-बीरबल, तेनालीराम, गोनू झा आदि की कई कहानियाँ भी लोक-कथा का रूप धारण कर लोक-कथाओं में विराजमान रही हैं। इससे लोक-कथाओं और पंचतन्त्र आदि की कथाओं में घालमेल तो हुआ ही, लोक-कथाओं की स्थानीयता भी प्रभावित हुई। अब यह पता लगाना लगभग मुश्किल हो जाता है कि कौन सी लोककथा मूलतः कहाँ की है? कौन कहाँ से निकली और कहाँ पहुँच गयी? दो भाइयों के आपसी प्रेम को दर्शाने वाली उस लोक-कथा को ही देखिए जिसमें गेहूँ की फसल तैयार होने पर रखवाली करते हुए बड़ा भाई अपने ढेर से गेहूँ निकालकर छोटे भाई के गेहूँ के ढेर में मिला देता है और उसी तरह जब छोटा भाई रखवाली कर रहा होता है तो वह अपने ढेर से गेहूँ निकालकर बड़े भाई के ढेर में मिला देता है। इन पंक्तियों के लेखक को यह अत्यन्त संवेदनशील लोक-कथा मोल्दाविया देश की लोक-कथा के रूप में पढ़ने को मिली थी। बाद में यही लोक-कथा भारत की लोक-कथा के रूप में भी दिखाई दी। और इसके बाद गेहूँ की जगह धान का बोझा एक-दूसरे के ढेर में मिला देने के परिवर्तन के साथ मिथिला की लोक-कथा के रूप में भी। कहाँ यूरोप का एक छोटा-सा देश मोल्दाविया और कहाँ बिहार का एक छोटा-सा भू-भाग मिथिला! दोनों जगह यह लोक-कथा कैसे विद्यमान है-यह पता लगाना कोई आसान काम नहीं है।

एक देश या राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में थोड़े परिवर्तन के साथ एक ही लोक-कथा का देखा जाना बहुत आम बात है। भारत के सन्दर्भ में बात करें तो बंगाल, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में यह समानता बहुत अधिक देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए सात भाई और एक बहन वाली लोक-कथा को लें। हालाँकि इस कथा के कई प्रारूप मिलते हैं लेकिन मोटे तौर पर समानता के साथ यह लोक-कथा बिहार, बंगाल और छत्तीसगढ़ में सुनने-पढ़ने को मिलती है। भारतीय लोक-कथाओं का अध्ययन करते हुए ऐसी अनेक कथाओं को रेखांकित किया जा सकता है जिसका संचरण एक जगह से दूसरी जगह हुआ है।

अपने अध्ययन को एक राज्य पर सीमित करें तो कई लोक-कथाएँ एक राज्य के अनेक हिस्सों में सुनने-पढ़ने को मिल जाती हैं। बिहार को उदाहरण के रूप में सामने रखें तो हम देख सकते हैं कि अंगिका की ‘ठगनी बुढ़िया’ वाली कहानी मैथिली में भी है तो भोजपुरी में भी। वहाँ कुछ-कुछ सन्दर्भ भले बदल गये हैं। इसी तरह ‘अझोला’ वाली कहानी मैथिली और अंगिका में तो है ही, मगही में भी है। खूँटे में दाल का दाना फँस जाने से परेशान चिड़िया वाली कहानी मैथिली, अंगिका, भोजपुरी और मगही में तो है ही, खूँटे की जगह जाँता को रखकर यह कहानी छत्तीसगढ़ तक पहुँच गयी है। बाघ और बकरी वाली कहानी मैथिली और मगही के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में भी मौजूद है। इसी तरह ‘डेढ़ बितना’ की कहानी के दो-तीन रूप भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका में देखे जा सकते हैं। ‘टिपटिपवा’ जैसी कई कहानियों का उदाहरण देते हुए यह बात और मजबूती से कही जा सकती है।

पंचतन्त्र, हितोपदेश, कथा सरित्सागर, रामायण, महाभारत की बहुत-सी कहानियाँ भी लोक-कथाओं के रूप में पढ़ी-सुनी जाती हैं। पंचतन्त्र की बन्दर और मगरमच्छ वाली कहानी तो प्रायः हर जगह लोक-कथा के रूप में सुनी ही जाती है, यह कहानी अपने देश से बाहर अफ्रीकी लोक-कथा के रूप में भी पढ़ी-सुनी जाती है। इस कहानी के बारे में यह कहा जा सकता है कि यह भारत से अफ्रीका गयी है। भारत के लोग जो अँग्रेजों के द्वारा जहाज पर लादकर अफ्रीका भेजे गये थे, वे ही अपने साथ ऐसी कहानियाँ अफ्रीका ले गये होंगे। यह अलग बात है कि आगे चलकर इनमें कुछ-कुछ परिवर्तन आते गये। जैसे कि बन्दर-मगरमच्छ वाली कहानी में मगरमच्छ की जगह सार्क आ गया है, नदी की जगह समुद्र और जामुन के पेड़ की जगह मीठे फल का पेड़! पंचतन्त्र की ही एक और कहानी है-शेर और खरगोश वाली जिसमें शेर के पास रोज एक जानवर भेजा जाता था। एक दिन खरगोश की बारी थी। खरगोश ने चालाकी से काम लिया और शेर को कुएँ में कूदने को मजबूर कर दिया। यह कहानी भी भारत के विभिन्न भागों में लोक-कथा के रूप में सुनी-सुनाई जाती ही है, अफ्रीका में भी सुनी-सुनाई जाती है।

पंचतन्त्र की कहानियों के लोक-कथाओं में परिवर्तित हो जाने के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। यहीं यह सवाल भी उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि ये कहानियाँ लोक-कथाओं के रूप में ही प्रचलित रही हों और विष्णु शर्मा ने राजा के बिगड़ैल बेटों को सुधारने के लिए पंचतन्त्र रचते हुए उनका इस्तेमाल कर लिया हो? विष्णु शर्मा की मौलिकता पर सन्देह न करते हुए यह सम्भावना तो व्यक्त की ही जा सकती है? वैसे ज्यादा सम्भावना इसी बात की दिखाई देती है कि पंचतन्त्र की कहानियाँ सुनते-सुनाते भारत में वे लोक-कथाओं की तरह प्रचलित हो गयी हैं। अफ्रीकी लोक-कथाओं के रूप में उनका पढ़ा-सुना जाना तो निश्चय ही तभी सम्भव हुआ जब भारत के लोग अफ्रीका गये, वहाँ सुनते-सुनाते वे कहानियाँ अफ्रीकी जनमानस का हिस्सा बन गयीं और अब वे वहाँ की लोक-कथाएँ बनकर जीवित हैं।

लोककथा

देश-विदेश में अपनी बुद्धिमत्ता की वजह से प्रचलित हो गये व्यक्तियों की कहानियाँ भी लोक-कथाओं का हिस्सा बनकर जनमानस में जीवित हैं। चाहे वे कहानियाँ अकबर-बीरबल की हों, गोपाल भाँड की हों, गोनू झा की हों, तेनालीराम की हों, मुल्ला नसीरुद्दीन की हों-लोक- कथाओं के रूप में खूब सुनी-सुनाई-पढ़ी गयी हैं। यह अलग बात है कि ये कहानियाँ अब एक-दूसरे में इस तरह घुल-मिल गयी हैं कि कई बार बताना आसान नहीं होता कि मूल रूप में किसकी हैं? कुछ गड़बड़ी पत्र-पत्रिकाओं के कॉलमों की वजह से भी हुई है। तेनालीराम जैसे कॉलम चलाने वाली पत्र-पत्रिकाओं ने बीरबल, मुल्ला नसीरुद्दीन आदि की कहानियों को भी तेनालीराम के नाम से पेश कर दिया तो गोपाल भाँड की कहानियों को लिखने-छापने वाले लोगों ने गोनू झा की कहानियों को उसमें घुसा देने से कोई परहेज नहीं किया। यही वजह है कि निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि कौन कहानी मूल रूप से शेखचिल्ली की है? कौन मुल्ला नसीरुद्दीन की? कौन तेनालीराम की? कौन अकबर-बीरबल की? कौन गोनू झा की? कुछ कहानियाँ तो अकबर-बीरबल के नाम से भी प्रचलित हैं और गोपाल भाँड के नाम से भी। गोनू झा के नाम से भी प्रचलित हैं और तेनालीराम के नाम से भी! लेकिन जो भी हो, इन कहानियों में बात मनुष्यता की ही होती है अच्छाई की ही होती है, भलाई की ही होती है। चतुराई से किसी भी विकट परिस्थिति से निकलने का ज्ञान भी इन कहानियों से पाया जा सकता है।

लोक-कथाएँ उस्ताद लेखकों की लिखी हुई कथाएँ नहीं होती हैं, वे सामान्य, प्रायः अनपढ़ लोगों के द्वारा रची-गढ़ी गयी कथाएँ होती हैं। यही वजह है कि उनमें काल्पनिकता अधिक होती है, यथार्थ कम। तकनीकी पक्ष कमजोर होता है। कई बार घटनाओं में तारतम्यता की कमी होती है, तार्किकता नहीं होती है, असम्भव बातों का बोलबाला होता है। लेकिन इसके बावजूद उनमें सामान्य लोगों के जीवन, उनकी आशाओं-आकाँक्षाओं, हर्ष-विषाद, हास्य-बोध आदि अनेक बातों को देखा जा सकता है। पूरी दुनिया के लोगों के करीब-करीब एक ही ढंग से सोचने, एक ही ढंग की आकाँक्षा-अपेक्षा रखने, एक ही तरह के सपने देखने के कारण पूरी दुनिया की लोक-कथाओं में बहुत सी समानताएँ भी होती हैं। इन समानताओं के जरिए मानव-मन की एकता के सूत्र आसानी से तलाशे जा सकते हैं।

लोक-कथाएँ आधुनिक कथाएँ नहीं होतीं इसलिए उनमें अलग-अलग ढंग से कथा शुरू करने, कथा-विस्तार देने और कथा को समाप्त करने की प्रविधि नहीं अपनाई जाती। संसार भर की लोक-कथाएँ प्रायः ‘एक समय की बात है’ से शुरू होती हैं और ‘सभी हँसी-खुशी या सुखपूर्वक रहने लगे’ से खत्म होती हैं। लोक-कथाओं के एक रूप दन्तकथाओं का अन्त थोड़े अलग ढंग से होता है। दन्तकथाओं को आज से जोड़कर खत्म किया जाता है-“आज भी लोग जब पहाड़ से बादल को उठते देखते हैं तो कहते हैं-‘देखो, देखो, बुढ़िया कड़ाही में सूप उबाल रही है।’ (एक अफ्रीकी दन्तकथा का अन्त)

लोक-कथाओं के पात्रों पर गौर करें तो राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी, मन्त्री, सिपाही, जमींदार, धनी आदमी, गरीब आदमी, गरीब ब्राह्मण, बनिया, नाई, किसान, गड़ेरिया, लकड़हारा, बूढ़ा, बुढ़िया, बाघ, शेर, सियार, साँप, पक्षी, बकरी, राक्षस, ड्रैगन, मछली, हिरण, घोड़ा, पेड़, परी, भूत, चुड़ैल, डायन, साधु, जादूगर जैसे सैकड़ों पात्र लोक-कथाओं में दिखाई देते हैं। वे अपनी-अपनी भूमिका में होते हैं और कथा के अनुरूप व्यवहार करते हैं। अच्छा-बुरा कर्म करते हैं और उसी के अनुरूप पुरस्कार या दण्ड पाते हैं, जीवन या मृत्यु पाते हैं। इन अच्छे या बुरे पात्रों के द्वारा कही गयी लोक-कथाओं से श्रोता/पाठक अच्छाई, बुराई, चालाकी, बुद्धिमानी, दुष्टता, मूर्खता, शत्रुता, मित्रता जैसी चीजों से अनायास परिचय प्राप्त करते जाते हैं। जैसा कि पहले भी कहा गया, इस तरह श्रोता-चाहे अनपढ़ हों या अबोध बालक-बिना शिक्षा पाए ही शिक्षित होते जाते हैं, जीवन जीने की कला सीखते जाते हैं। ऐसे में लोक-कथाएँ बहुत बड़ी भूमिका में नजर आने लगती हैं-मनोरंजन के साथ-साथ समाज को शिक्षित करने की भूमिका में, जीने की कला सिखाने की भूमिका में!

यह भी पढ़ें- यह भी पढ़ें- लोककथा और बाल साहित्य

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संजीव ठाकुर

लेखक कथाकार, कवि एवं बाल साहित्याकार हैं तथा महाविद्यालय में अध्यापन के बाद स्वतन्त्र लेखन करते हैं। सम्पर्क +919891105048, skthakur67@gmail.com
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