साहित्य

लोककथा और बाल साहित्य

 

लोककथा और बाल साहित्य दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि लोककथा का उद्भव बाल जीवन से ही आरम्भ हो जाता हैं। लोककथा लोगों द्वारा किए गए कार्यों को शब्द साहित्य द्वारा रेखांकित कर कहानी रूप में व्यक्त करना जैसें मानों कोई सदाबहार वृक्ष। जिसका अर्थ कभी समाप्त ही नहीं होता और इसके साथ नयी-नयी संभावनाएँ निकलती ही रहती हैं| यही लोककथा का मूल स्वरूप हैं और यहीं परिष्कृत रूप भी जो कि व्यावहारिक दृष्टि से बाल साहित्य न होकर भी बाल साहित्य का स्थान निरन्तर अविरल गति से पा रहा हैं क्योंकि यह साहित्य बालकों के लिए अलिखित, कल्पनाशील साहित्य हैं जिसका परित्याग करना सम्भव नहीं क्योंकि यह लोककथा बाल मन के साथ-साथ स्वातः प्रवाहित होती हैं।

यहीं मूल कारण हैं कि आज के पत्र, पत्रिकाओं , में लोककथा का निश्चित स्थान निर्धारित होता है। किन्तु लोककथा को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना अब कठिन सा हो गया हैं जैसें– ‘एक राजा, एक रानी गीत गा रहे थे कहीं–कहीं मन्द-मन्द गति से मुस्कुरा रहे थे।’ जबकि ऐसी ही कहानियाँ बच्चों के अन्दर जिज्ञासा, कल्पना आदि को जन्म देने वाली होती हैं जो बच्चों को मानव जीवन के प्रति जागरूक, आस्थावान बनाती हैं। किन्तु वर्तमान समय के इस भौतिकतावादी युग ने बच्चों को मानों निष्क्रिय सा बना दिया हैं क्योंकि आज का चलचित्र इन्हीं लोककथाओं पर आधारित होते हुए भी बच्चों को जिज्ञासु व कल्पनाशील बनाने में नाकामयाब हो रहा हैं।

साथ ही यह वर्चस्ववादी, प्रभूत्ववादी अतिवाद जैसें महत्वाकांक्षा को जन्म दे रहा हैं। जो कि बच्चों के बाल मन को आहत करती हैं जिसके कारण बच्चों में एकाकीपन की भावना निहित हो जाती हैं जो कि सर्वथा अनुचित हैं। अतः बच्चों को जिज्ञासु प्रवृत्ति की भावना, कल्पनाशीलता की भावना का विकास करने के लिए उन्हें सहज, सरल, पारिवारिक वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए न कि भौतिकता से लिप्त वातावरण। यहीं कारण हैं कि वर्तमान समय के बच्चों में साहस और धैर्य की कमी देखने को मिलती हैं अतः इसके लिए बच्चों को श्रव्य दृश्य सामग्री के माध्यम से, खेल के माध्यम से भिन्न-भिन्न लोककथाओं के माध्यम से जैसे – ऐतिहासिक कहानियों को आधार बनाकर कर राजा, रानी, सैनिक आदि का परिचय दिया जाना चाहिए।

क्योंकि ऐतिहासिक कहानियाँ बालकों के मानवीय संवेदना का विस्तार करती हैं। वहीं पौराणिक कथाएँ त्याग, देशप्रेम, समाज और व्यक्ति के जीवन को समुन्नत बनाने वाली अनेक घटनाओं के दृश्य से अवगत कराती हैं। साथ ही साहस और बलिदान की कथाएँ बच्चों और बड़ों दोनों के लिए बहुत ही आवश्यक हैं जैसे कि महाराणा प्रताप की जीवनी, रानी लक्ष्मीबाई की शौर्य गाथा, शिवाजी महाराज की कहानी आदि अत्याधिक उत्तेजित करती हैं। जैसा कि सुभद्राकुमारी चौहान ने लिखा– रण बीच चौकड़ी भर-भर कर/ चेतक बन गया निराला था।

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आदि ऐसी कविताएँ बालकों के मन में नयी ऊर्जा का संचार करती हैं साथ ही कल्पना और जिज्ञासा को जन्म देती हैं इसलिए लोककथाएँ भ्रामक होकर भी भ्रामक न हो तो बच्चों को शिक्षित करने के साथ–साथ उन्हें मार्गदर्शित भी करती हैं साथ ही उनके अन्दर जिज्ञासा, कल्पना, संवेदना, वेदना, देशप्रेम, प्रेम आदि की भावना उत्पन्न करती हैं अतः इसलिए बच्चों को उनके आयुवर्ग‌ के अनुसार उन्हें लोककथाओं से अवगत कराना चाहिए जो कि वर्तमान समय में धीरे –धीरे विलुप्त हो रहा हैं। बच्चें भ्रामक चलचित्र के साथ उलझे हुए हैं इसलिए इस विषय पर गहनता से विचार विमर्श किया जाना चाहिए। क्योंकि आज के बच्चें ही कल के देश का भविष्य हैं।

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रेशमा त्रिपाठी

लेखिका अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा, मध्य प्रदेश में शोध छात्रा हैं। सम्पर्क +919415606173, reshmatripathi005@gmail.com
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