गँवईं कलम का तेवर
रामपुर की रामकहानी-21
गँवईं मन ऐसे खेत की तरह होता है जिसमें मौसम के हिसाब से कोई भी फसल बो दीजिए, अंकुर निकल आएंगे। बाद में उसकी देख- रेख करते रहिए, फसल लहलहाती रहेगी। मेरे अपने गाँव में बीस-पचीस साल पहले तुलसी की कंठी पहनने वाले वैष्णवों की भरमार थी। आजकल बुद्ध के अनुयायी और कबीर-पंथी अधिक हैं। कुछ भक्त मौसमी होते हैं। दुर्गापूजा के समय शक्ति के पुजारियों की संख्या बढ़ जाती है और छठ पूजा के समय सूर्य के उपासकों की। जयगुरुदेव के अनुयायी रामवृंद भी आए दिन ‘सत्संग’ में शामिल होकर ‘ज्ञान’ के किसी नये पाठ के साथ लौटते हैं।
जीवन और जगत की नश्वरता का पाठ पढ़ते हुए ही मैं बड़ा हुआ था। भौतिक उपलब्धियों की आकाँक्षा वहीं तक थी जहाँ तक कबीर का सुझाव था, “साईं इतना दीजिए, जामें कुटुंब समाय।।।।” इधर जब गाँव में पुस्तकालय भवन के निर्माण का कार्य आरंभ हुआ तो एक दिन रामवृन्द ने मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा, “पैसा तो लगेगा किन्तु इस भवन से आपके यश में चार चाँद लग जाएगा।”
वे भी बहुतों की तरह शायद मेरी ‘बेवकूफी’ पर व्यंग्य कर रहे थे।
“लेकिन यश के लिए तो मैं यह कर नहीं रहा हूँ। मेरा उद्देश्य तो अपने उस गाँव का विकास है जिससे मैं प्रेम करता हूँ।”
“वह तो होगा ही, लेकिन यश भी बढ़ेगा। आप नहीं रहेंगे तब भी आप का नाम-यश कायम रहेगा।”
“लेकिन उस यश से मुझे क्या मिलेगा?”
“यश मिलेगा, नाम होगा, प्रतिष्ठा मिलेगी और क्या?”
“मुझे कैसे पता चलेगा कि मेरा यश फैल रहा है? मैं तो मर चुका होऊंगा। गाँधी जी को क्या पता है कि उनका यश खूब फैला हुआ है और उन्हें भुलाने की तमाम कोशिशें नाकाम हो रही हैं?”
रामवृन्द मेरा मुँह देखने लगे। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। थोड़ा ठहरकर उन्होंने कहा,
“आपकी आत्मा को शान्ति मिलेगी, सुकून मिलेगा।”
“किन्तु आप की मान्यता के अनुसार आत्मा तो परमात्मा में मिल चुकी होगी या उसका दूसरा जन्म हो चुका होगा या वह स्वर्ग या नरक में जा चुकी होगी और जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं तो आत्मा को मानता नहीं। मैं विज्ञान का कहा मानता हूँ और विज्ञान कहता है कि मरने के बाद मनुष्य का सब कुछ खत्म हो जाता है, जिसे आप आत्मा कहते हैं वह भी।” रामवृन्द गंभीर हो गए। मैंने अपनी बात जारी रखी।
“जैसे धन- दौलत सब यहीं छूट जाता है वैसे ही यश भी। यश भी धन- दौलत की तरह भौतिक संपत्ति है। जैसे धन के लोभी धन कमाने के लिए तरह- तरह के छल-प्रपंच, लूट-खसोट और बेईमानी का सहारा लेते हैं वैसे ही यश के लोभी भी यश के लिए वही सारे कुकर्म करते हैं।”
अब रामवृंद के पास कोई जवाब नहीं था। लेकिन जयगुरुदेव की जमात में मगन रहने वाले रामवृंद पाप-पुण्य और स्वर्ग-नरक में आस्था से भला कैसे मुक्त हो सकते थे? उन्हें भला कैसे हजम हो सकता था कि कोई व्यक्ति परलोक की चिन्ता किए बगैर परहित का काम कर सकता है? उन्होंने आश्वस्ति भाव से कहा, “अच्छा, इतने पुण्य का काम जो कर रहे हैं, वह तो मिलेगा ही।”
“पुण्य पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं? क्या अपने परिवार की देखभाल आप पुण्य- लाभ के लिए करते हैं? क्या अपने गाँव- जवार के हित की बात सोचने के पीछे भी पुण्य का स्वार्थ जुड़ा रहता है? ऐसा नहीं है। प्रेम करना, करुणा और दया करना मनुष्य का स्वभाव है। किसी दुर्घटना में घायल होकर छटपटाते हुए व्यक्ति को जब दौड़कर आप उठाते हैं, उसे सहलाते हैं, डॉक्टर तक पहुँचाते हैं तो क्या उस वक्त आप के मन में पुण्य- लाभ पाने की प्रेरणा काम करती है? बिल्कुल नहीं। आपकी मनुष्यता आप को यह सब करने के लिए विवश कर देती है। मनुष्य और जानवर में यही तो फर्क है। हमारे किसी काम से हमारे गाँव-जवार के लोगों को सुख मिलना क्या हमारे सुख के लिए काफी नहीं है?”
रामवृंद के गले कुछ नहीं उतरा। चलते- चलते हम उस गली की मोड़ तक पहुँच चुके थे जहाँ से उनके घर की ओर रास्ता फूटा था। मुझे भी देर हो रही थी। नाश्ता करने में जिस दिन विलंब हो जाता था उस दिन कुछ न कुछ व्यवधान भी जरूर आ जाता था। मैंने नमस्ते किया और अपने घर की राह ली।
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स्कूल के दिनों से ही कविता में हाथ आजमाने लगा था। ओजस्वी कविताएं लिखने और उसी अंदाज़ में पढ़ने के लिए मशहूर हो चुका था। महफिल जमने लगी थी। गजल, गीत और कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में खूब छप भी रही थीं। कविता लिखने का भ्रम तब टूटा जब चुनी हुई और ज्यादातर प्रकाशित हो चुकी अपनी पचास कविताओं का संग्रह छपवाने के लिए तैयार कर लिया और उसे प्रख्यात आलोचक शिवकुमार मिश्र को इस आग्रह के साथ भेज दिया कि वे निर्मम होकर अपनी प्रतिक्रिया हमें दें। शिवकुमार जी ने बड़े ध्यान से मेरी कविताएं पढ़ीं और लगभग चार पृष्ठों में अपनी लंबी प्रतिक्रिया 10 अक्टूबर 2001 को लिख भेजी। उनकी प्रतिक्रिया का अंतिम अंश इस तरह है,
“अमरनाथ के गीतों-गजलों-कविताओं से होकर गुजरते समय मुझे बराबर अहसास हुआ है कि उनके पास कहने को बहुत कुछ है और विविध प्रकार का है। गाँव-घर से लेकर उनकी दृष्टि ने विश्व परिदृश्य तक को समेटा है। अनुभव -संवेदन भी उनके बहुआयामी हैं, निजी भी और देश-दुनिया के भी। वे निजी प्यार पर भी लिखते हैं और साम्राज्यवादी युद्धों पर भी, सांप्रदायिक दंगों पर भी। उनके पास अनुभव-संवेदनों और बाहरी यथार्थ को देखे- सुने और अनुभव किए गए की एक अच्छी खासी पूँजी है, उन्नत विचार हैं, प्रशस्त संवेदना है और साफ-सुथरी सोच है। कुछ हड़बड़ी भी उनमें है- सबकुछ को एक बार में ही कहने, उड़ेल देने की। जिसे रचनात्मक धीरज कहा जा सकता है, उसके बिना इस हड़बड़ी को रोकना मुमकिन नहीं है। जरूरत आवश्यक और अनावश्यक में फर्क करने और आवश्यक को ही चुनने की है, जिसके लिए रचनाकार का अपना रचनात्मक विवेक भी खरा होना चाहिए। अनंतर इसके जरूरी है शब्द की साधना -सही शब्द, सही जगह पर सही शब्द रखने की समझ, अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों का उपयोग, भाषा की व्यंजकता और लाक्षणिकता तथा अनुभव को रूप में ढालने की क्षमता। बड़े से बड़े कवि भी कविता की इन सारी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते। वो जितना कर पाते हैं उतने ही बड़े कवि के रूप में हमें याद रहते हैं। अमरनाथ शर्मा की कविताएं पढ़ते समय यह सब लिखना इस नाते भी जरूरी लगा कि उनकी संभावनाओं में फलश्रुति तक जाने की क्षमता है- जरूरत रचनात्मक धैर्य और अभिव्यक्ति के माध्यमों को माँजने-निखारने की है। गीत है, गजल है तो उसमें लय और तरन्नुम बना रहना चाहिए। उन्हें टूटना-खंडित नहीं होना चाहिए। शब्द प्रयोग भी सावधानी से होना चाहिए- चुस्त दुरुस्त। छंद सधा होना चाहिए। अमरनाथ के गीतों और गजलों में सर्वत्र ऐसा नहीं है- उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए। कविताएं आवश्यक-अनावश्यक के निर्णय में दुविधा के नाते अधिकतर लंबी होती चली गई हैं, विवरण- प्रधान हो उठी
हैं। उन्हें प्रभाव-सघन कराने के लिए, रूप में अनुभव और विचारों को ढालने के लिए अमरनाथ के कवि को और भी गंभीर होने की जरूरत है।
यदि अमरनाथ के कवि में संभावनाएं न होतीं, अऩुभव -संवेदनों की विशद पूँजी न होती, सोच और समझ की पारदर्शिता और खुलापन न होता, हिन्दी -उर्दू दोनो भाषाओं पर एक जैसा अधिकार न होता और अपनी भाषा और उसकी सर्जकता के प्रति उनमें गहरी संशक्ति न होती, मैं उनकी सर्जना के बारे में गहन आशंसा ही व्यक्त करता, उन्हें उधेड़ता नहीं। मैंने उसे उधेड़ा है, इसलिए कि मुझे उनकी सर्जनात्मक निष्ठा ने, उनके पास जो कुछ है उसने प्रभावित भी किया है। इस ‘जो कुछ’ में गँवईं-गाँव के मन की पारदर्शिता है, जो उनके कुछ प्रकृति-चित्रों में दीख पड़ती है, उनकी निगाह का वह पैनापन है जिसके चलते कलकत्ते के संकुल जीवन और उस जीवन की आपाधापी और भागदौड़ के कुछ सजीव चित्र, इस जीवन में घिरे लोगों की मनोदशाएं, महानगरों की सतही भव्यता और आभिजात्य के भीतर पलती विकृतियाँ तथा छद्म उजागर हुआ है। अमरनाथ की कुछ कविताएं एकदम अनौपचारिक शैली में सीधे लोक को संबोधित करती हैं और उसे उसके अंतरंग जीवन और आस-पास के यथार्थ से परिचित कराती हैं। कुछ कुछ नजीर अकबराबादी की शैली में रची कविताएं बड़े श्रोता समाज में लोकप्रियता की कसौटी में खरी उतरेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
अपने समय की गतिविधियों के प्रति पूरी तरह से जागरूक अमरनाथ शर्मा के कवि से मेरी उम्मीद है कि आगे वह उन तमाम संभावनाओं की फलश्रुति के साथ हमसे मुखातिब होंगे, जो उनकी इन कविताओं में विद्यमान है।”
किन्तु मैं दोबारा अपनी कविताओं के साथ उनके समक्ष मुखातिब न हो सका। प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद मैंने अपने काव्य संग्रह के प्रकाशन का इरादा तो छोड़ा ही, कविता लिखना भी लगभग छोड़ दिया और हिन्दी-हित के साथ-साथ आलोचना के सरोवर में ऐसा डूबा कि उसी के जल में सुकून मिलने लगा। भूल गया कि मैं कभी कविताएं भी लिखा करता था।
धीरे- धीरे समझ में आया कि आलोचना लिखना आज सबसे चुनौती पूर्ण और अनुपादेय कार्य है। कविता, कहानी की तरह कहीं भी एकान्त में बैठकर आप नहीं लिख सकते आलोचना। आलोचना लिखने के लिए किताबें चाहिए, धैर्य चाहिए, अध्ययन की गहराई और व्यापकता चाहिए और रचनाकारों द्वारा नासमझी के आरोप झेलने की क्षमता चाहिए। हर रचनाकार अपने को महान समझता है और आलोचक से अपेक्षा करता है कि वह भी उसे प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन की श्रेणी में शामिल कर ले। लोग आलोचक को अपना प्रचारक समझते हैं। अकारण नहीं है कि इतना श्रमसाध्य होने के बावजूद आलोचक के खाते में कोई ढंग का पुरस्कार तक नहीं है।
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“हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली” धुआँधार बिक रही थी। ई-बुक के अलावा उसके पेपरबैक और हार्डबाउंड के छ: संस्करण आ चुके थे। इधर भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों पर थी। रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह, अली अनवर अंसारी, संजय निरूपम, जगदंबिका पाल, अर्जुनराम मेघवाल, मनोज तिवारी, शत्रुघ्न सिन्हा, रवि किशन जैसे सांसद बार- बार संसद में इसकी माँग कर चुके थे। गृहमंत्री राजनाथ सिंह आने वाले संसद के सत्र में भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का आश्वासन दे चुके थे। बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कई सांस्कृतिक संगठन भी इस माँग के साथ सुर में सुर मिला रहे थे।
अपनी मातृभाषा हिन्दी को अपनी आँखों के सामने विखरते देखना सहा नहीं गया। मैथिली के अलग होने का दंश अभी कम नहीं हुआ था। मैंने खुद अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर हिन्दी को विखरने से बचाने के लिए इन लोगों की माँग के विरोध में उतर पड़ा और हिन्दी- परिवार को संगठित रखने के उद्देश्य से देश भर में घूम- घूम कर विश्वविद्यालयों के शिक्षकों, छात्रों और जिम्मेदार नागरिकों को सचेत और संगठित करने लगा। कलकत्ता के ‘अपनी भाषा’ के सदस्यों को साथ लेकर हमने ‘हिन्दी बचाओ मंच’ का गठन किया और उसके बैनर के नीचे देश -विदेश में घूमकर पर्चे बाँटे, हस्ताक्षर अभियान चलाया, प्रेस कांफ्रेंस किया, दिल्ली के जंतर मंतर तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय के गेट पर धरना- प्रदर्शन किया, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, संयुक्त सचिव, भारत सरकार तथा पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी से मिलकर बातें कीं, अनुरोध किया और पत्र दिए। 18 दिसंबर 2016 को मैंने अपने फेसबुक पर लिखा, “हिन्दी हमारी माँ है। हम जीते जी अपनी माँ के अंग कटने नहीं देंगे। आइए, हम सभी संकल्प लें कि जबतक यह प्रस्ताव वापस नहीं होता, हम हर मोर्चे पर लड़ेंगे, जो जहाँ भी हों, जिस रूप में हों, अपनी भाषा रूपी माँ से प्रेम है तो आगे बढ़िए, लिखिए, नारे लगाइए, जुलूस निकालिए, बहस कीजिए, हर तरह से अपनी क्षमतानुसार संघर्ष कीजिए। बंगलादेशी जनता की तरह अपनी भाषा बचाने के लिए हर कुर्बानी देने के लिए तैयार हो जाइए। समय की यही माँग है। अब चुप बैठकर प्रतीक्षा करने का वक्त नहीं है। ये स्वार्थान्ध लोग इतना भी नहीं समझते कि छोटी- छोटी नदियों के जल से गंगा में प्रवाह बनता है। यदि इन सबका जल रोक देंगे तो गंगा सूख जाएगी चाहे उसकी जितनी भी सफाई कर लो।”
सुधी जनों ने हमारी बातें सुनीं। लगभग डेढ़ वर्ष तक चले हमारे उस आन्दोलन का ही परिणाम था कि यह मुद्दा ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। इस आन्दोलन का लेखा- जोखा “हिन्दी बचाओ मंच का एक साल” नामक पुस्तक में संकलित है जिसका संपादन, आन्दोलन की एक योद्धा शची मिश्र ने किया है। इस आन्दोलन के कारण उन दिनों मेरी प्रतिष्ठा एक सच्चे हिन्दी- हितैषी के रूप में हो चुकी थी।
इन्हीं दिनों केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने पुरस्कार देने के लिए विज्ञापन प्रकाशित किया और लेखकों से आवेदन पत्र मांगे। संयोग से उन दिनों केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक प्रो। नंदकिशोर पाण्डेय थे और उपाध्यक्ष थे प्रो। कमलकिशोर गोयनका। इन्हीं दिनों मेरे सहपाठी मित्र प्रो। सुरेन्द्र दुबे भी बुन्देलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति बने। ‘हिन्दी बचाओ मंच’ के आन्दोलन में इन तीनों विद्वानों का भरपूर समर्थन मिला था।
अवसर अनुकूल देखकर मेरे जैसे निर्लिप्त व्यक्ति के मन में भी पुरस्कृत होने की कामना कुलबुलाने लगी। मैंने मित्रों से राय ली और केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के सुब्रह्मण्य भारती पुरस्कार के लिए आवेदन भेज दिया।
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4 मार्च 2017। मार्निंग वाक से लौटा तो पुरस्कार-निर्णायक समिति के एक विशिष्ट सदस्य का मिस काल था। बैक कॉल किया तो उधर से बड़े उमंग के साथ उन्होंने कहा, “बधाई डॉक्टर साहब। बड़ी खुशी की खबर है। सबेरे- सबेरे आप को बताने का लोभ संवरण नहीं कर सका। सुब्रह्मण्य भारती पुरस्कार आपको देने का निर्णय हुआ है। सिर्फ मंत्री जी का हस्ताक्षर होना बाकी है।”
मैंने हृदय से उनके प्रति आभार जताया। कुछ देर बाद ही मेरे एक अन्य मित्र का भी फोन आया। उन्होंने भी गर्मजोशी से बधाई दी और मेरे झाँसी जाने के कार्यक्रम की जानकारी चाही। इसी हफ्ते मुझे राष्ट्रीय संगोष्ठी में हिस्सा लेने झाँसी जाना था।
पुरस्कार की औपचारिक घोषणा मंत्री जी के हस्ताक्षर के बाद होनी थी इसलिए सार्वजनिक घोषणा होने तक इसकी गोपनीयता बरकरार रखनी थी।
उसी दिन शाम को फेसबुक पर बनारस के प्रो। सदानंद शाही ने पोस्ट डाली जो शची मिश्र को संबोधित थी। उन्होंने लिखा,
“शुची मिश्रा जी, खबर है भोजपुरी विरोध के लिए आपके मित्र बड़ी राशि से पुरस्कृत हो रहे हैं।”
“इस सुखद खबर में मेरा गलत नाम भी चलेगा सदानंद जी, कृपया इन्बॉक्स में ही सही, उनका नाम बता दें जिससे मैं उन्हें बधाई दे सकूँ।” शची मिश्र की प्रतिक्रिया थी।
किन्तु प्रो। सदानंद शाही ने इसके आगे कुछ नहीं लिखा। मैं भी अगले तीन दिन तक पुरस्कृत होने के आनंद-सागर में डुबकी लगाता रहा।
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बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति और अपने सहपाठी मित्र प्रो। सुरेन्द्र दुबे के आवास पर उनके साथ जब मैं सायंकाल भोजन कर रहा था तभी मुझे यह भी सूचना मिली कि वह पुरस्कार मुझे नहीं मिल पायेगा क्योंकि मंत्री जी को मेरे नाम पर आपत्ति है और उन्होंने उस फाईल पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है।
संतोष के लिए मुझे यह भी बताया गया कि वास्तव में यह पुरस्कार अहिन्दी क्षेत्र में हिन्दी का प्रचार करने वाले किसी अहिन्दी भाषी लेखक को ही दिया जाता है, हिन्दी भाषी को नहीं। तर्क सुनकर मैं हँसने लगा। क्या ब्रजेश्वर वर्मा, देवेन्द्रनाथ शर्मा, शिवमंगलसिंह सुमन, कल्याणमल लोढ़ा, कमला प्रसाद, विजेन्द्र नारायण सिंह, निर्मला जैन, अजित कुमार, सुधीश पचौरी, नंदकिशोर नवल, नित्यानंद तिवारी, दिलीप सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, कृष्णदत्त पालीवाल आदि हिन्दी भाषी नहीं है जिन्हें यह पुरस्कार मिल चुका हैं? किन्तु कहा कुछ नहीं।
पुरस्कार मिलने की बधाईयाँ मुझे मिल चुकी थीं इसलिए थोड़ा मायूस जरूर हुआ। इस पुरस्कार को लेकर मैं पूरा आश्वस्त था। परिस्थितियाँ भी पूरी तरह मेरे अनुकूल थीं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रो। नंदकिशोर पाण्डेय मेरा बहुत सम्मान करते थे। मैं राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, ईंटानगर की उस चयन समिति में विषय विशेषज्ञ रह चुका था जिसके द्वारा प्रोफेसर पद पर डॉ। पाण्डेय की नियुक्ति हुई थी। पुरस्कार हेतु मेरे नाम का प्रस्ताव भी पद्मश्री डॉ। कृष्णबिहारी मिश्र ने किया था। अनुशंसा करते हुए उन्होंने लिखा था,
“कलकत्ता विश्वविद्यालय के आचार्य डॉ। अमरनाथ हिन्दी के प्रख्यात पंडित एवं लेखक आचार्य रामचंद्र तिवारी के कृती छात्र हैं। उन्हीं के विचक्षण निर्देशन में डॉ। अमरनाथ जी ने अनुशीलन कर्म का अनुशासन अर्जित किया और अपने कार्य से हिन्दी को समृद्धि दी। अपनी पीढ़ी के अध्येताओं में विशिष्ट पहचान बनायी। ‘अपनी भाषा’ नामक प्रसिद्ध संस्था और लगभग एक दर्जन पुस्तकों की रचना कर वे बंगाल में प्रवास करते हुए पूरे देश में प्रतिष्ठित विद्वान के रूप में सम्मानित हैं। मेरे विवेक का आग्रह है कि डॉ। अमरनाथ जी के उल्लेख्य अवदान के आधार पर सुब्रह्मण्य भारती पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए।”
मैंने गीता का स्मरण किया, “सुख दुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जया जयौ।।” और अपने कमरे में आकर लेट गया। याद करने लगा उस दिन को जब पुरस्कार के लिए प्रस्तावक-पत्रक भर रहा था और उसे लेकर स्वयं कृष्णबिहारी मिश्र के पास गया था। कितना अपमानजनक लगता है पुरस्कार के लिए स्वयं अपने को ही प्रस्तुत करना। मैंने उसी रात प्रतिज्ञा कर ली कि भविष्य में कभी किसी पुरस्कार या सम्मान के लिए प्रयास नहीं करूँगा।
अपने पर मुझे तरस आने लगी। पुरस्कार की लालसा कहाँ से जग गई थी मेरे भीतर? मिल गया होता तो क्या आज मैं अपनी कलम के प्रति इतना ईमानदार रह पाता? क्या किसी अगले अधिक बड़े पुरस्कार के लिए समझौते नहीं करता? अपने कई आदरणीयों को पुरस्कार की लालच में कदम-दर कदम समझौते करते हुए मैंने देखा है, उनपर तरस खायी है और उन्हें सारा पुरस्कार यहीं छोड़कर खाली हाथ दिवंगत होते हुए भी देखा है।
बाद में मुझे यह भी पता चला कि बंगाल के ही एक हिन्दी प्रोफेसर ने मंत्री महोदय तक संदेश पहुँचाया था कि, “अमरनाथ तो वामपंथी विचारधारा के हैं उन्हें यह पुरस्कार कैसे दिया जा रहा है?”
उस दिन झाँसी में काफी रात तक मुझे नींद नहीं आयी थी। किन्तु आज यह लिखते समय परम सुख और संतुष्टि का अनुभव कर रहा हूँ। आज लगता है कि उस पुरस्कार का न मिलना ही मेरे लेखन का सच्चा पुरस्कार है।
पुरस्कारों से किसी का कद नहीं बढ़ता। हाँ, उसकी थोड़ी चर्चा जरूर हो जाती है। गाँधी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला तो उनका महत्व घट गय़ा क्या? निराला, मुक्तिबोध, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव जैसे साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला और ऐसे बहुतों को मिला है जिन्हें जनता याद भी नहीं करती। अपने लिखे और किये पर मेरी अपनी संतुष्टि क्या पर्याप्त नहीं? हिन्दी के हित में किये गये मेरे कार्य क्या यूँ ही भुला दिये जायेंगे? हिन्दी आलोचना के इतिहास में मेरे योगदान को क्या रेखांकित नहीं किया जाएगा? रेखांकित न करने वाले अपना ही नुकसान करेंगे। मेरा क्या? मेरा तो सबकुछ जिन्दगी के साथ है, जिन्दगी के बाद कुछ भी नहीं।
कट्टर हिन्दुत्व के आग्रही मेरे एक मित्र को एक प्रतिष्ठित संस्थान का मुखिया मनोनीत किया गया। संस्थान की ओर से हर साल दर्जनों लेखक पुरस्कृत किये जाते थे। हमारे मित्र ने बताया कि उन्होंने पुरस्कारों की संख्या और धनराशि भी दोगुनी करने के लिए एक प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था जो स्वीकृत हो गया। सुनकर पहले तो मुझे खुशी हुई कि अब हिन्दी के कुछ अधिक लेखक पुरस्कृत हो सकेंगे। उन्हें कुछ आर्थिक लाभ भी हो जाएगा। किन्तु बाद में जब उस वर्ष के पुरस्कृत लेखकों की लिस्ट जारी हुई तो माथा ठनका। यह ‘अपनों’ को पुरस्कृत करने के लिये जनता के धन का सीधे- सीधे दुरुपयोग था। मेरी मान्यता इस सिद्धांत के प्रति दृढ़ हो गई कि लेखकों को सरकारी पुरस्कार मिलने ही नहीं चाहिए। एक ईमानदार और सच्चे लेखक की नजर प्रेमचंद और निराला की तरह हमेशा जन सामान्य के साथ दबे- कुचले लोगों के प्रति हमदर्द की होती है और वह शासक वर्ग के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखता है। सरकार से मिलने वाले पुरस्कार, साहित्यकार को जनता के प्रति नहीं, व्यवस्था के प्रति निष्ठावान बनाते हैं।
दुनिया में लेखकों को अपने लेखन के लिए क्या- क्या नहीं झेलना पड़ा है? जेल, देश- निकाला, नजरबंदी और मौत की सजा तक। हिटलर के जमाने में न जाने कितने लेखकों को जान गँवानी पड़ी थी, कितनों को देश छोड़कर भागना पड़ा था। लगातार दो वर्ष तक एक ही मकान में छिपकर रहते हुए तेरह-चौदह वर्ष की लड़की ऐनी फ्रैंक की डायरी पढ़कर मुझे लगा कि यदि वह लड़की जिन्दा बच पाती और उसे लिखने का अवसर मिल पाता तो दुनिया का कोई भी पुरस्कार उसके लिए छोटा पड़ जाता। इतनी कम उम्र में उस लड़की ने जीवन के प्रति अपने जिस दृष्टिकोण, समझ, अध्ययन और कल्पनाशीलता का परिचय दिया है, वह अद्भुत है। महान रूसी साहित्यकार सोल्झेनिस्तिन के जेल अनुभव तानाशाह स्तालिन के दमन के गवाह हैं।
लिखने के कारण ही कार्ल मार्क्स को अपना वतन छोड़कर पराये देशों में शरण लेनी पड़ी थी। ओ हेनरी, आस्कर वाइल्ड, क्रिस्टोफर मार्लो, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, दोस्तोयेव्स्की जैसे न जाने कितने लेखकों को अपने जीवन के अनमोल दिन जेल की सलाखों के भीतर गुजारने पड़े। भारत में भी ‘पयामे आजादी’ के संपादक अजीमुल्ला खाँ को अंतिम दिन जान बचाने के लिए नेपाल के जंगलों में दर- दर की ठोकरें खानी पड़ी और उन्हीं जंगलों में प्राण गँवाने पड़े। बहादुर शाह जफर को रंगून में दफन होना पड़ा। ‘देहली उर्दू अखबार’ के संपादक मौलवी मुहम्मद बाकर को 1857 में देहली दरवाजे के सामने हडसन के आदेश से गोली मार दी गई। पं। नेहरू ने “डिस्कवरी ऑफ इंडिया”, राहुल सांकृत्यायन ने “दर्शन दिग्दर्शन” और माखनलाल चतुर्वेदी ने प्रसिद्ध कविता “पुष्प की अभिलाषा” जेल की सलाखों में रहकर लिखी। सुभद्राकुमारी चौहान 17 साल की उम्र में अपने नाटककार पति लक्ष्मण सिंह के साथ जेल गई थीं। प्रख्यात कथाकार यशपाल की तो शादी ही जेल में हुई थी। प्रेमचंद को लिखने के लिए अपना नाम बदलना पड़ा और सरकारी नौकरी छोड़नी पड़ी। आज भी एम।एम। कलबुर्गी, नरेन्द्र दाभोलकर और गौरी लंकेश को लिखने के बदले गोलियाँ खानी पड़ी, वरवर राव के जीवन का बड़ा हिस्सा जेल में ही कटा और बंगलादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन आज भी अज्ञातवास में जीवन गुजार रही हैं।
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कलकत्ता विश्वविद्यालय में ज्वायन करने से पहले मेरी तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं और मैं जनवादी लेखक संघ की राष्ट्रीय समिति का सदस्य मनोनीत हो चुका था। कलकत्ता आने के बाद जलेस की राज्य इकाई में विभिन्न पदों पर रहकर सक्रिय योगदान देने लगा। देश की सबसे समृद्ध इकाई पश्चिम बंगाल की ही थी।
पटना में 12-14 सितंबर 2003 को आयोजित होने वाले छठें राष्ट्रीय सम्मेलन की तैयारी चल रही थी। “जनवादी लेखक संघ” का उर्दू नाम “अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्नफीन” रखने का प्रस्ताव हुआ था। तर्क था कि जब जनवादी लेखक संघ हिन्दी और उर्दू दोनो भाषाओं के साहित्यकारों का संगठन है तो नाम भी दोनो भाषाओं में होना चाहिए। मैंने प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि ऐसा कौन सा उर्दू लेखक है जो “जनवादी लेखक संघ” का अर्थ नहीं समझ सकता कि उसके लिए इस तरह का फारसी निष्ठ नाम रखना जरूरी है? यदि उर्दू में लिखना जरूरी है तो जनवादी लेखक संघ को फारसी लिपि में लिख लीजिए जिसमें उर्दू के लिखे जाने का चलन है।
मैंने देखा कि मेरे तर्कसंगत विरोध को वहाँ नजरंदाज किया गया और पटना के राष्ट्रीय अधिवेशन में पास कराने के लिए उक्त प्रस्ताव भी सदस्यों के बीच रखा गया। वहाँ प्रस्तावों का समर्थन हाथ उठाकर करने की परंपरा थी। जब प्रस्ताव रखा गया तो मैं अपने स्थान पर खड़ा हो गया और प्रस्ताव पर एक मिनट बोलने की अनुमति माँगी। अनुमति मिल गई। मैने कहा कि, “जनवादी लेखक संघ एक संस्था का नाम है, संज्ञा है। संज्ञाएं नहीं बदलतीं। इसका नाम बदलना वैसे ही है जैसे ‘प्रेंमचंद’ को हम ‘मोहब्बतचंद’ कहें या ‘लालकृष्ण अडवाणी’ को ‘सुर्खस्याह अडवाणी’ जनवादी लेखक संघ को फारसी लिपि में लिखकर काम चलाया जा सकता है। नाम बदलना किसी भी तरह उचित नहीं है।”
तालियाँ खूब बजीं किन्तु निर्णय नहीं बदला और दूसरे दिन जब जलेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की घोषणा हुई तो उसमें से मेरा नाम गायब था। मुझे आभास हो गया कि जलेस का संचालन जलेस के पदाधिकारी नहीं, पार्टी के पदाधिकारी करते हैं। उसके बाद मैंने जलेस के कार्यक्रमों में हिस्सा लेना हमेशा के लिए छोड़ दिया और प्राथमिक सदस्यता से भी मुक्ति पा ली।
इसी तरह हिन्दी के शिक्षकों और लेखकों के सबसे बड़े और पुराने संगठन भारतीय हिन्दी परिषद् से तो मैं 1991 में ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आयोजित प्रथम पुनश्चर्या कार्यक्रम में हिस्सा लेने के दौरान ही जुड़ गया था। बाद में 2002 तथा 2014 में दो कार्यकाल के लिए परिषद् का उपसभापति भी निर्वाचित हुआ किन्तु जयपुर में आयोजित अधिवेशन के बाद जब परिषद् पर राजनीतिक दल विशेष के वर्चस्व का अनुभव हुआ तो धीरे- धीरे परिषद् की गतिविधियों से अपने को दूर कर लिया, यद्यपि परिषद् का आजीवन सदस्य आज भी हूँ।
मुझे एक दूसरी रोचक घटना भी याद आ रही है। उन दिनों मैं प। बंग हिन्दी अकादमी की कार्यकारिणी का सदस्य था और उसकी गतिविधियों से संतुष्ट नहीं था। अकादमी के अध्यक्ष मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे और उपाध्यक्ष तत्कालीन शिक्षा मंत्री सत्यसाधन चक्रवर्ती। बैठकों का नियमित न हो पाना भी एक समस्या थी। उपाध्यक्ष महोदय बैठक के लिए समय ही नहीं निकाल पाते थे।
अकादमी में रहते हुए अकादमी की गतिविधियों का विरोध एक सीमा तक ही किया जा सकता था। मैं छटपटाकर रह जाता। मैंने अकादमी की गतिविधियों पर अपना असंतोष व्यक्त करने का एक रास्ता निकाला। ‘विवेकानंद भट्टाचार्य’ के छद्म नाम से पश्चिम बंग सरकार की हिन्दी नीति और अकादमी की गतिविधियों की आलोचना करते हुए समाचार पत्रों में लिखना शुरू किया। सरकार के लिए तिलमिला देने वाले सत्य आधारित लेख आए दिन अखबारों में छपने लगे। मैं चकित था यह देखकर कि किसी भी समाचार पत्र ने विवेकानंद भट्टाचार्य के अस्तित्व के बारे में पता करने की जहमत नहीं उठाई। एक-दो वर्ष में ही विवेकानंद भट्टाचार्य की ख्याति हिन्दी के लिए लड़ने वाले योद्धा की हो गई। परिणाम यह हुआ कि 1998 में जब प। बंग हिन्दी अकादमी का पुनर्गठन हुआ तो उसकी कमेटी में विवेकानंद भट्टाचार्य भी शामिल कर लिए गए। सरकार की ओर से जो अधिसूचना जारी हुई उसमें अंतिम नाम विवेकानंद भट्टाचार्य का था।
विवेकानंद भट्टाचार्य कभी किसी बैठक में उपस्थित नहीं हुए किन्तु अकादमी के पूरे कार्यकाल में सम्मानित सदस्य के रूप में वे एक छाया की तरह मौजूद रहे। “निंदक नियरे राखिए” की नीति का सरकार द्वारा समर्थन करता देखकर जहाँ मुझे संतोष का अनुभव हुआ, वहीं अकादमी जैसी प्रतिष्ठित सरकारी संस्था का सम्मानित सदस्य बनाते वक्त भी सरकार द्वारा उस व्यक्ति के अधिवास आदि के बारे में पता न करना चकित करने वाली घटना थी। इस रहस्य को सार्वजनिक इसलिए भी कर रहा हूँ क्योंकि इसका एकमात्र साक्षी मैं हूँ।