ममहर का मोह
रामपुर की रामकहानी-11
अँजोरिया रात थी। सुकवा उगने से पहले ही मामा के साथ मैं ममहर की ओर चल दिया। माई की आँखों से आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बाऊजी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा। अगले कम से कम बीस दिन तक मेरी कोई खबर उन्हें मिलने वाली नहीं थी। पोस्ट कार्ड आने में पंद्रह दिन तो लग ही जाते थे। कार्ड बहुत बार नहीं भी मिलता था। हाँ, बैरन भेजने पर उसका मिलना तय था किन्तु चिट्ठी का खर्च चिट्ठी पाने वाले को ही देना पड़ता था और इसे अच्छा नहीं माना जाता था।
मामा ने पुचकारते हुए मुझसे कहा, “घबड़इहे नS, सिसवा ले पैदर चलेके परी। गाँव से सिसवा मिले खातिर ( सुगर फैक्ट्री के लिए) गन्ना लेके रोज टायर आवेला आ खाली लौटेला। सिसवा से हमनीके टायर से चलल जाई।” उन दिनों मेरे मामा के गाँव का गन्ना भी सिसवा सुगर मिल पर ही गिरता था। शायद मामा ने माई को सुनाकर ही ऐसा कहा होगा ताकि उनकी बहन अपने दिल के टुकड़े को लेकर थोड़ी आश्वस्त हो सके। उन दिनों बैलगाड़ी को टायर ही कहा जाता था।
मामा के यहाँ जाने को मैं उतावला था। उन दिनों छुट्टियों में ममहर जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। दर्जा पाँच की परीक्षा कल ही खत्म हुई थी। आगे दो महीने की छुट्टी। अब तो स्कूल जुलाई में खुलेगा और दस-पंद्रह दिन तो नाम लिखाने में ही चला जाएगा। राम औतार मामा सबसे छोटे थे। मँझले चंद्रबली मामा भी उन्हीं के साथ रहते थे। चारो लोगों में वही एक अविवाहित थे। मुँह पर गहरे चेचक के दाग वाले चंद्रबली मामा भैंस चराते, दूध दही खाते और पहलवानी करते। अपनी छोटी बहन का मोह उन्हें साल में कम से कम दो बार यहाँ ले आता। जब इच्छा होती गले में गमछा डालते, अपनी मोटी लाठी में एक ओर दही की मोटरी और दूसरी ओर झोला लटकाये चले आते। आलस तो उन्हे छू तक नहीं पाया था।
मामा के यहाँ मुझे बहुत अच्छा लगता था। खास तौर पर छोटकी मामी की मीठी बोली और उनका मोहक प्यार। मेरा ज्यादातर समय उन्हीं के यहाँ गुजरता था। मामा के यहाँ का आकर्षण इसलिए भी था कि मुझे अपने ममेरे भाइयों और उनके दोस्तों के साथ गुल्ली- डंडा, ओल्हा-पाँती, छुपउवल और गुच्ची खेलने में बड़ा मजा आता था। आम खाने को तो उनके यहाँ भी मिलता ही था क्योंकि उनके यहाँ भी बीजू आम का बड़ा बाग था और खूब फलता भी था।
मामा को मेरे यहाँ आये दस दिन हो गए थे। मेरे लिए उन्हें तीन दिन और रुकना पड़ा था।
मेरा ममहर कुशीनगर जिले में पडरौना-खट्टा मार्ग पर नेबुआ के पास धरमपुर गाँव में है। उन दिनों वहाँ जाने का रास्ता बड़ा टेढ़ा था। पहले गोरखपुर जाना पड़ता था। फिर वहाँ से पडरौना के लिए ट्रेन थी। फडरौना से फिर प्राइवेट बस हर दो घंटे पर मिलती थी। हर वक्त बस लगी रहती थी। सवारी भी बैठाती रहती थी। आधे घंटे पहले स्टार्ट भी हो जाती थी, हिलने डुलने भी लगती थी, सवारियों के मन में चलने का भ्रम भी बनाये रखती थी किन्तु जाती थी सवारी भर जाने के बाद ही। पूरा दिन लग जाता था। किराया अलग से।
मामा के यहाँ जाने का एक रास्ता और था। किसी साधन से घुघली जाइए। वहाँ से ट्रेन पकड़कर खड्डा और खड्डा से फिर पडरौना वाली बस से नेबुआ उतर जाइए। वहाँ से पैदल। ट्रेन दिनभर में सिर्फ दो बार जाती थी सुबह-शाम। सुबह ट्रेन छूट गई तो सब बेकार। घुघली -खड्डा होकर जाने से दूरी कुछ कम हो जाती थी फिर भी अस्सी किलोमीटर से कम तो पड़ेगा नहीं। उन दिनों ज्यादातर लोग पैदल ही आते-जाते थे।
मामा के साथ चलनें में मुझे बीच- बीच में दौड़ना पड़ता था। वे चाहे जितना भी धीरे चलें कुछ ही मिनटों में आगे बढ़ जाते थे। मुझे दौड़कर उनके पास पहुँचना पड़ता था। सूरज उगते- उगते हम मोहनापुर पहुँच गए। मामा ने पूछा, “कुछ खइब S”
मुझे भूख तो लगी ही थी थोड़ा सुस्ताना भी चाहता था। मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। उन्होंने झोले में से भूजा निकाला। माई ने भूजा के साथ भेली भी दिया था और नमक- मिर्च- लहसुन की चटनी तथा लाल मरचे का अँचार भी। एक छोटा सा शिव मंदिर था जिसके पास इनार था। हम वहीं बैठ गए। भूजा- भेली खाने के बाद इनार के जगत पर रखे ताँबे के गगरे में उगहन फँसाकर मामा ने पानी भरा। शीतल जल। मैं तृप्त हो गया। खुद मामा ने भी छककर पानी पिया और हम चल दिये। लगभग दो घंटे लगातार चलने के बाद मेरे पैर जवाब देने लगे। मैं बार- बार मामा से पूछता, “सिसवा कबले आई ?” “थोरे दूर अउर बा। मिल के चिमनी दूरे से देखाई देई।” कहकर मामा मुझे पुचकारते और तेजी से आगे बढ़ जाते। इसी बीच भोंपू की क्षींण ध्वनि कानों में पड़ी। मामा ठहर गए। मुझसे कहा, “कान पारि के सुन। भोंपू बाजता S। सिसवा अब बेसी दूर नइखे।” और हम दिन के नौ बजते- बजते सिसवा पहुँच गये।
मैं बुरी तरह थक चुका था किन्तु सिसवा से टायर मिल जाने की उम्मीद में थकान का अहसास जाता रहा।
सिसवा पहुँचने के साथ ही मामा से मैं बार- बार पूछने लगा।, “मामा, टायर कहाँ बा ?” “आगे थोड़े दूर पर बा।” कहते हुए वे हर बार हाथ से आगे की ओर संकेत करते और आगे बढ़ जाते। चलने की मेरी हिम्मत नहीं रह गयी थी। मैंने उनसे कई बार पूछा और उन्होंने हर बार यही जवाब दिया, “आगे थोडे दूर पर बा S। मिल जाई।” इसी तरह चलते चलते जब शहर पार हो गया और टायर नहीं मिला तो मेरी आँखों में आँसू आ गये। मामा का हृदय भी थोडा द्रवित हुआ। ठहर गए, “चल कुछ खा लिहल जाय आ बैठ के अगोरल जाय।” एक इनार देखकर हम वहाँ बैठ गए। मामा ने सत्तू निकाला। सिलवर की छोटी सी थाली में उसे गूँथा, नमक मिलाया और कच्चे प्याज के साथ हम खाने लगे। सत्तू खाने के बाद शरीर में थोड़ी स्फूर्ति आयी। “बुझाता कि आजु गन्ना लेके टायर आइल नइखे।” मामा ने जैसे मेरे ऊपर बज्र से प्रहार कर दिया हो। “अब त पैदरे जाएके परी।”
मामा मेरे प्रति इतने निर्दयी कैसे हो गये ? मैं तो मामा से बेइन्तहां प्यार करता हूँ। मेरे मन में सवाल उठने लगे। मामा जबतक रहते हैं, उनका पाँव दबाने के बाद ही बाऊजी का पाँव दबाता हूँ। बाऊजी अमूमन मना भी कर देते हैं किन्तु मामा कभी मना नहीं करते। मामा का पाँव दबाने के लिये मुझे लाठी का सहारा लेना पड़ता था। लॉठी के सहारे खड़े होकर दोनो पैर से मुझे उनका पूरा शरीर दबाना पड़ता था। किन्तु उनका शरीर दबाने में मुझे भी आनंद आता था। इसका कारण था उनका स्नेह। वे जब भी आते लाठी में टांगकर दही जरूर लाते जो मुझे बेहद प्रिय था। वे तीन-चार रजिया का सजाव दही साफ मारकीन के कपड़े में कसकर बाँध लेते और अपनी लाठी में पीछे की ओर लटका लेते। मेरे घर आने में उन्हें आठ से दस घंटे लगते। इस दौरान दही की मोटरी से सारा पानी निथर कर चू गया होता। घर आने के बाद माई जब दही की मोटरी खोलती तो उसे देखकर ही मैं उछल पड़ता। मैं उसे बिना पानी डाले ही खाने लगता। मामा के साथ ही मोटरी वाली दही मेरी स्मृतियों का विषय बनकर रह गयी।
बच्चों द्वारा बड़ों का शरीर दबाना जिसे ‘चाँतना’ कहा जाता था, अब हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं रह गया है। इससे बड़ों की थकान तो मिटती ही थी, परिवार में स्नेह और अपनापन का भाव गहराता रहता था। बचपन का यह लगाव लम्बे समय तक परिवार को जोड़े रखता था। अभावों में भी संयुक्त परिवार, सदस्यों में सुरक्षा की गारंटी तो होता ही था उससे परिवार में बड़े- बुजुर्गों का आदर- सम्मान भी बना रहता था। बुढ़ौती तब इतनी तकलीफदेह नहीं होती थी। अब तो गाँवों में भी बड़ों के पाँव दबाने की परंपरा तेजी से खत्म हो रही है।
दिन के एक बजते- बजते हम मामा के घर पहुँच गये। देखते ही छोटकी मामी ने मुझे अँकवार में भर लिया और मामा को खरी- खोटी सुनाने लगीं। उन्होंने खटिया पर मुझे बैठाया। परात में पानी भरकर ले आयीं और उसमें रखकर मेरे दोनो पैर मल- मल कर धोने लगीं। मेरे पाँव सूज गये थे। एक ओर वे मेरे पाँव धो रही थीं और दूसरी ओर मामा को इस बात के लिए खरी- खोटी सुना रही थीं कि वे मुझे पैदल लेकर क्यों आये।
मामा शान्त थे। उन्होंने झोला खूँटी में टांगा, गमछा उतारा और खटिया पर बैठ गये। बासदेव भैया उनके लिए एक लोटा पानी और भेली लेकर आये। सभी लोग भोजन कर चुके थे किन्तु जरूरत भर की सब्जी बची थी। मामी ने रोटी बनाया और हम लोग रोटी- सब्जी और दही खाये साथ में भेली भी।
परात में पाँव रखकर धोने और भोजन करने के बाद मेरी थकावट तत्काल कुछ कम जरूर हो गयी किन्तु रात में मुझे बुखार आ गया। दूसरे दिन शाम तक मैं सामान्य हो सका। मैंने देखा है कि जब भी कोई मामा या ममेरे भाई मेरे घर आते तो माई भी परात या बड़े थाल में जल लेकर सबसे पहले उनके पाँव धोती। हालांकि इससे भी पहले उनके पाँव पकड़ कर वह रोती। इसे भेंटना कहा जाता। मैके से किसी के आने पर उनका पाँव पकड़कर भेंटने की परंपरा तो हमारे गाँव का आम रिवाज था। महिलाएं महिलाओं से मिलने पर एक दूसरी के गले में बाँहें डालकर और पुरुषों से मिलने पर उनके पाँव पकड़ कर जोर-जोर से रोतीं थीं। गाँव में कहीं से किसी स्त्री के रोने की आवाज आती तो पहला संकेत यही समझा जाता कि किसी के घर मैके से कोई पाहुन आया हैं। हाँ, भेंटने की इस रुलाई में मैंके के लोगों, उनके साथ बितायी स्मृतियों और उनके द्वारा बेटी की सुधि न लेने की शिकायत जरूर रहती। इसे कारन करके रोना कहा जाता। बाद में जब मैं अपनी दीदी के यहाँ जाता तो वह भी मेरा पाँव पकड़ कर और कारन करके रोती। ऐसी दशा में मेरी आँखों से भी आँसू टप- टप चूने लगते। भेंट करने के बाद दीदी भी परात में पानी लेकर आती और एक- एक करके मेरे पाँव धोती। वह पहले एक पाँव परात में रखकर उसे मल- मल कर धोती फिर उसे अपनी साड़ी के पल्लू से ही पोँछती और उसके बाद दूसरा पाँव। इस बीच वह घर का सारा समाचार एक- एक कर पूछती रहती। इसके बाद जलपान आता। सोचता हूँ, हमारी पीढ़ी ही वह कमबख्त अन्तिम पीढ़ी है जिसने सदियों से चली आने वाली प्रेम प्रदर्शित करने की इस उदात्त परंपरा को अलविदा कह दिया। मिलने पर भेंटने की परंपरा तो मुझे कभी अच्छी नहीं लगी किन्तु मिलने पर आतिथेय द्वारा अपने अतिथि के पाँव धोने की परंपरा में एक ऐसा जादुई सम्मोहन था जो रिश्तों में तनिक भी ढील नहीं आने देता था। पुराना सबकुछ त्याज्य नहीं होता और नया सबकुछ ग्राह्य नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी का केवट भगवान राम के चरण पखारने की जिद करता है तो यह उसके पिछड़ेपन की निशानी नहीं है। क्या कृष्ण पिछड़े थे जो अपने मित्र सुदामा के पाँव धोते हुए रो रहे थे,
“पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।”
हाँ, सिर्फ स्त्रियों द्वारा ही पाँव धोने की परंपरा स्त्रियों की दयनीय दशा का अवश्य संकेत करती हैं और इस दृष्टि से यह परंपरा छूट गयी तो अच्छा ही हुआ। वैसे भी पहले लोग पैदल ही आते थे और इसीलिए थके रहते थे। अब तो थकावट पाँव में नहीं, मन में होती है। लोग न तो किसी के यहाँ जाना चाहते हैं और न चाहते है कि कोई उनके यहाँ आये। पहुनई करने की परंपरा अब बीते दिनों का विषय बन चुकी है।
फिलहाल, थकावट दूर करने के इस अमोघ अस्त्र का प्रयोग मैं आज भी नियमित रूप से करता हूँ और कहीं से आने पर सबसे पहले मल- मल कर अपने पाँव धोता हूँ।
मामा के यहाँ पैदल जाने की मेरी वह पहली और अंतिम घटना थी। मेरे मामा के घर से लगभग दस किलोमीर दूर पडरौना- खड्डा मार्ग पर ही पिपरा बाजार के पास चितहा में मेरे बाऊजी का ममहर है। वहाँ से भी मुझे उतना ही प्यार मिलता था। रामदास काका मेरे बाऊजी के ममेरे भाई थे। खेतिहार भी थे और खुद सरकारी विद्यालय में अध्यापक भी। उनके यहाँ भी बारहो मास दूधारू पशु रहते थे। आम का बड़ा सा बाग भी था। मुझे इन्ही दो चीजों की जरूरत थी। काकी भी मुझे बहुत मानती थीं। भोजन के साथ कँहतरी वाली सजाव दही साढ़ी सहित देने में संकोच नहीं करती थीं। रामदास काका जब भी स्कूल से आते तो सबसे पहले मुझे ढूँढते, “अमरवा कहाँ है?” मुझे वे ‘अमरवा’ कहकर ही पुकारते। उन्हें डर लगा रहता था कि कहीं मैं उनके किसी पेंड़ से गिर तो नहीं गया हूँ। पेंड़ पर मैं कम चढ़ता था किन्तु उनके बगीचे के लगभग सभी आम के पेड़ों पर चढ़ जाता था। ज्यादातर पेड़ छोटे आकार के थे। इसी क्रम में एक बार मैं उनके एक पेड़ से गिर चुका था।
धरमपुर से चितहा मैं हमेशा पैदल ही आता- जाता था, यद्यपि उस रोड पर प्राइवेट बसें नियमित रूप से चलती थीं। किन्तु उन दिनों सबसे मूल्यवान जो वस्तु थी वह था पैसा। मैं स्वयं चार पैसा बचाने की फिराक मे रहता था ताकि पढ़ाई के लिए किताब -कॉपी खरीद सकूँ।
धरमपुर और चितहा मिलाकर पूरे दो महीने रहा। जून के अन्तिम सप्ताह में लौटने की योजना बनी। रामदरस भैया ने साइकिल से खड्डा पहुँचाया, ट्रेन का टिकट खरीदकर दिया और ट्रेन पर बैठाकर वापस लौटे। अकेले ट्रेन से यह मेरी पहली यात्रा थी। इसके पहले माई के साथ ट्रेन से यात्रा कर चुका था किन्तु उन यात्राओं की कोई स्मृति नहीं थी। ट्रेन में बैठाकर राम दरस भैया ने जब मुझे अकेले विदा किया तो मैं रो रहा था। रुलाई विछोह के कारण कम थी भय और आशंका के कारण अधिक। किन्तु कोयले के भाप से चलने वाले इंजन ने जब सीटी दिया और छुक छुक करके आगे बढ़ा तो शरीर में अजीब सी सिहरन हुई। राम दरस भैया ने भली- भाँति समझा दिया था, “तुम्हें घुघुली स्टेशन पर उतरना है। बीच में तीन स्टेशन और पड़ेंगे। घुघुली स्टेशन से उतरकर पूछ लेना। महाराजगंज के लिए सीधी सड़क है और वहाँ से गाँव का रास्ता जानते ही हो। जरूरत पड़ने पर दूकानदारों से या पुलिस वालों से पूछना।”
रामदरस भैया को पुलिस वालों पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था। बाद में वे भी उत्तर प्रदेश पुलिस में सिपाही हो गये थे और दरोगा होकर रिटायर हुए।
इसके बाद मामा के यहाँ हमेशा मैं ट्रेन से ही जाता था। अमूमन अकेले। घुघुली तक पैदल, वहाँ से खड्डा तक ट्रेन से और खड्डा से नेबुआ तक बस द्वारा। नेबुआ पहुँचने से पहले ही कहने पर कंडक्टर हमें सड़क के किनारे उतार देता था। दरअसल मामा के गाँव से मुख्य सड़क को एक कच्ची सड़क जोड़ती थी। हम वहीं उतर जाते थे और वहाँ से पैदल मामा के गाँव।
गाँव में जबतक रहा, हर साल गर्मी की छुट्टियाँ मामा के यहाँ ही बीतती थीं। किन्तु एक बार गाँव जो छूटा तो छूटता ही चला गया। पढ़ने के लिए गोरखपुर, नौकरी के लिए बड़हलगंज और फिर कलकत्ता। लगभग चार दशक हो गए। इस बीच एक- एक करके चारो मामा चले गए, छोटकी मामी भी चली गईं मगर एक बार ममहर जाने की अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी। आज भी एक बार मामा के यहाँ जाकर उस गाँव की धूल माथे से लगाना चाहता हूँ। मेरी दशा आलम की गोपियों जैसी हो गई है।
“जा थल कीन्हें बिहार अनेकन ता थल काँकरी बैठी चुन्यों करैं
नैनन में जो सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यों करैं।”
किन्तु मेरी इच्छा तो वहाँ बैठकर कांकरी चुनने की ही है। क्या पूरी होगी ?