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लेखन यानी बाक़ायदा एक हलफ़िया बयान

 

आपत्ति में या संकट के समय लेखक की आस्था और विवेक की असली पहचान होती है। यही नहीं नागरिकों की स्वतन्त्रता की कीमत का खुलासा होता है। आस्था और विवेक कोई लुभावनी चीज़ नहीं हैं। इनकी हमेशा तलाश होती रहती है। लेखन का काम धुप्पल में नहीं हो सकता। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए कुर्सी में कब्ज़ा जमाए रखने के लिए तमाम महत्वपूर्ण हथकंडे अपनाए जाते हैं। कोई चौकीदार का चोला ओढ़ लेता है। कोई ग़रीबी हटाने लगता है। कोई अच्छे दिन की लीला रचता है। लेखक को हर जगह जवाबदेह होना पड़ता है। कोई लेखक अपने आप को कहाँ खोजेगा?

आज आलोचना की जगह प्रशंसा का खुला बाज़ार है। वह अपनी बातों के लिए राजनीतिज्ञों की तरह आयँ-बायँ-साँय नहीं कर सकता। वह अपने कहे हुए एक-एक शब्द के लिए उत्तरदायी है। लेखक का मूल्यांकन फुटकर-फुटकर सम्भव नहीं हो सकता। उसकी खोज, आस्था और विश्वास, निष्ठा का आकलन समग्रता में ही सम्भव है। लेखक यदि जनता के साथ नहीं है, उसके सुख-समृद्धि और दु:ख में सहभागी नहीं है तो उसकी स्वायत्तता मात्र ढकोसला है। जो लेखक अपने को छिपा रहा है या आनाकानी कर रहा है, दरअसल वह लेखक नहीं विदूषक और पाजी है। इसे विस्तार दें तो उसे आप ‘तड़ीपार भी कह सकते हैं।

निर्मल वर्मा का कहना है- ‘’लेखक की स्वतन्त्रता कभी अकेले एकांत में संजोकर नहीं रखी जा सकती, वह उसकी अन्य नागरिक स्वतन्त्रताओं के साथ अंतरंग रूप से जुड़ी होती है वैयक्तिक स्वतन्त्रता को वैचारिक स्वतन्त्रता से अलग रखना असंभव है।‘’ (लेखक की आस्था, पृष्ठ 146) लेखक को क्या करना है; उसकी अस्मिता क्या है? यह लेखक ही तय करेगा, कोई दूसरा नहीं? इस भयानक कट्टरता के दौर में लेखक का यह असमंजस विडम्बना भी एक नया संकेतक है। लेखन को जनता से अपने जुड़ाव को परिभाषित करना होगा,  अन्यथा एक क्विंटल लिखकर भी लेखक किसी काम का नहीं रहेगा। उसकी दुनिया में रचनाओं का प्रकाशन, बीस-पच्चीस किताबों को प्रकाशित करवा लेना और सभी मंचों में प्रमुखता से छा जाना ही रह जाएगा और अंततोगत्वा यही उसका विस्तार और उड़न-छू संसार बचेगा। सत्ता का प्रलोभन जाल उसे जिन्दगी से और जनजीवन से पूरी तरह काट देगा। बचेगा केवल हाई-प्रोफाइल पब्लिसिटी स्टंट का जलवा।

लेखक हमेशा कलम का सिपाही या मजदूर होता है और इससे जब वह अपने स्वार्थ की पतंगें उड़ाने लगता है या जनता से कट जाता है, तो सब शून्य बटा सन्नाटा हो जाता है। सबसे बड़ा मुद्दा लेखक का ज़मीर है। उसका पक्ष है। बड़े तर्क-वितर्क हैं हमारे बीच। लोग हरिशंकर परसाई को ठेल-ठाल कर व्यंग्य की दुनिया में ठप्पा जमाने के लिए उत्सुक हैं। न सच बचेगा न ज़मीर। स्वाधीन भारत में बहुत कुछ तेज़ी से बदलता जा रहा है। हम अपवादों के समय में हैं परंतु बावजूद इसके इस समय असहमतियों के लिए कोई जगह नहीं है। लेखक जब शर्मिंदा होना छोड़ दे तो आप किससे ऐसी उम्मीद कर सकते हैं। मुझे लगता है कि लेखक को बहुत सोच-विचार के बाद अपना पक्ष रखना चाहिए, किसी हड़बड़ी में नहीं।

यह दौर कोई निरापद दौर नहीं है, जाहिर है कि लेखक जनता का चारण होता है। पूर्व के समयों में ये मुद्दे रहे हैं; लेकिन आज के दौर में सब ‘हवा-हवाई’ मान लिये गये हैं और हम टुकड़ों-टुकड़ों में बंट चुके हैं। लेखक की अपनी राजनीति होती है लेकिन कृपया इसे खूंटों में बांधकर न देखा जाए। तटस्थता एक तरह का ढोंगशास्त्र है; उसी तरह फ्री-थिंकर्स नामक समूह या तत्व इस तरह की फिज़ा गढ़ते रहते हैं। वे परम ढोंग के ही सौदागर हैं और स्वतन्त्र सोच-विचार करने के किसी भी तरह पक्षधर नहीं हैं। लेखक के रूप में पहले यह तय करना होता है कि वह किसके साथ है। मुक्तिबोध के शब्द हैं- पार्टनर! तुम्हारी पॉलटिक्स क्या है?’

यह राजनीति सत्ता की तरह की राजनीति नहीं है। इसे बेहद विराट संदर्भों में देखना चाहिए। यहाँ क्षुद्रता के लिए कोई स्थान नहीं है। लोग-बाग कभी दलगत भावना से उठकर रहने की बात करते हैं तो कभी कुछ और। राष्ट्रहित क्या है? राष्ट्रभक्ति क्या है? क्या किसी पार्टी को चाहना या समर्थन करना ही राष्ट्रभक्ति है? जनता कुछ नहीं है। अपने देश से प्यार कुछ नहीं है। क्या कोई दूसरा हमें राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम सिखायेगा? जाहिर है देश कागज़ का कोई टुकड़ा भर तो नहीं है। राष्ट्रभक्ति को ठीक-ठीक परिभाषित नहीं किया जा सकता। आज़ादी के इतने वर्षों बाद किस-किस तरह की आशंकाएँ जताई जा रही हैं। नागरिकता की छानबीन चल रही है। देशभक्ति के सर्टिफिकेट बांटे जाने की मुहिम चलाई जा रही है। हमारा देश जनतन्त्र है, उसकी संवैधानिक मर्यादाएँ हैं।

 देश अनेक समस्याओं में फँसा है। किसी भी मुल्क की समस्याओं का समाधान दोहरे चरित्र और कुटिल तरीक़े से सम्भव नहीं है। देश कभी भी किसी आदमी या सत्ता प्रतिष्ठान की बपौती नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है। मुल्क में अनंत समस्याएँ और स्थितियाँ निरन्तर आती रहती हैं। उनका स्थायी हल खोजना या स्थायी समाधान तलाशना पड़ता है; पागलपन से नहीं, वायवीय तरीक़े से भी नहीं बल्कि अत्यंत ज़मीनी स्तर पर। जाहिर है कि किसी भी तरह के समाधान जादुई तरीक़े से सम्भव नहीं होते। लोक कल्याण के दायरे और दर्पण में तो हल निकल सकते हैं, स्वार्थ की चौसर बिछाकर नहीं। मुझे फ्रीडरिक शेलर के शब्द याद आ रहे हैं- ‘’सभ्यता का पहला कानून यह है कि दूसरों की स्वतन्त्रता भी कायम रखी जाए।‘’

जो साहित्य के मूल्य हैं; उसी से लेखक की संबद्धता है। इसे किसी तरह भरमाया नहीं जा सकता है और न ही इसे झुठलाया जाना चाहिए। शब्दों की अनावश्यक उठापटक या जो ग़लत है वह कोई पॉवरफुल विचारधारा नहीं बन सकता; यह एक भ्रम है। लेखक को केवल मानवीय संवेदना के खूंटे में न बांधा जाए तो बेहतर। उसका लक्ष्य उस विशाल जनता की पक्षधरता, उसके कल्याण और विकास का भी है,  जो जनता अव्यक्त है। कोई भी सत्ता उसे अपने लिए ग़लत इस्तेमाल नहीं कर सकती। लेखक किसी पार्टी का प्रवक्ता या दलाल नहीं हो सकता। वह भले किसी भी मूल्य के साथ हो। वह किसी भी ग़लत फ़ैसले या ग़लत चीज़ का प्रतिकार और प्रतिरोध करता है और उसे यह प्रतिरोध करना ही चाहिए। 

अनेक तरह की चीज़ें हमारे सामने हैं लेकिन चाहे हमारा लेखक समुदाय हो या भारतीय समाज,  उसे इतना बंटा हुआ कभी नहीं देखा गया है। सवाल बहुत हैं, क्योंकि वे कभी ख़त्म नहीं होते और न हो सकते। अब तो लोग या तो सवाल ही नहीं उठाते या उनके उत्तरों को लगातार अवहेलित किया जा रहा है। लेखक समाज के कारखाने से ही निकलता है। यूँ तो लेखक का पक्ष जनजीवन के कल्याण के लिए ही होता है। असली मसला देशभक्ति या देश विरोध का नहीं है। काबिज़ सत्ता तरह-तरह के जुमले फेंकती है और हर हाल में अपने पक्ष में सभी को रखना चाहती है। इसलिए जेनुइन और ईमानदार प्रश्नों से कन्नी काटने की मुहिम चल रही है। सत्ता की ग़लत बातों का विरोध करना या असहमति व्यक्त करना, देश विरोध के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। सरकार का कोई कानून न तो जनतन्त्र को ठेल सकता और न नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन कर सकता। वह मनुष्य की निजता को अपाहिज़ नहीं बना सकता। यह देश हम सभी का है और संकट काल में हर नागरिक उसके साथ है।

 कोरोनावायरस के दौर में भारतीय नागरिकों ने जो एक जुटता दिखाई वह एक उदाहरण है; जब विशाल पैमाने पर लोग मौत के मुंह में समा गये तो सवाल उठाए गये और उस पर ढक्कन बंद कर दिये गये। सुरक्षा किसकी जिम्मेदारी है? सवाल विपक्ष से नहीं सत्ता से पूछा गया; तो इसमें आपत्ति क्यों? व्यापक पैमाने पर महात्मा गाँधी और नेहरू को, स्वाधीनता आन्दोलन के संघर्ष को विलोपित करने की मुहिम चलाई जाती रही है; यह सब अचानक नहीं हुआ। ये हुआ बिल्कुल एक सोची समझी रणनीति की तरह। बिना उदारता के भारतीय जीवन मूल्यों और सांस्कृतिक फिज़ाओं और संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा सम्भव नहीं है।

संविधान विशेषज्ञ अम्बेडकर ने सच ही कहा था- ‘’संवैधानिक नैतिकता एक स्वाभाविक भावना नहीं है। इसका क्रमिक विकास किया जाता है। हमें यह सोचना चाहिए कि हम लोगों को अभी तक सीखना है। हिन्दुस्तान की ज़मीन पर लोकतन्त्र अभी भी ऊपरी सतह पर है, जो अपने आप में अलोकतांत्रिक बात है।” क्रूरता, कट्टरता, झूठ, अमानवीयता हमारे जीवन और देश के सांस्कृतिक मूल्य कतई नहीं है। क्या यह माना जाए कि ये अंधेरे समय की जद्दोजहद और मुश्किलें हैं। ज़मीर हमारे जीवन का आइना होता है। जो ख़राब घट रहा है उसे कोई कब तक छिपा सकता है या अनदेखा कर सकता है। यह समूची बहस कई तरह के प्रश्न भी उठाती है और हमारे भीतर के द्वंद्व को उजागर भी करती है। फ़ेक न्यूज का भयानक धंधा चल रहा है और किसी को भी चरित्र हनन के दायरे में खींच लिया जाता है? यह एक विराट स्वार्थ साधना पद्धति है।

क्या लेखक भी मुंह मूंदकर लिखेगा या स्थितियों को गंभीरता से न समझकर व्यवस्था का भोंपू बनेगा? जहाँ कई मित्रों ने इस समस्या को विभिन्न बहसों में रेखांकित भी किया है, वहीं कुछ मित्र इन्हीं ज़िम्मेदार बहसों के दौरान तरह-तरह की भड़ास निकालने में लगे रहे। लेखक किसी सत्ता का भाट नहीं हो सकता। लेखन बड़ी जिम्मेदारी का काम है। वह हमारी जनता का विश्वास भी है और पैरोकार भी। लेखन आग के साथ सतत यात्रा भी है। गंभीरता से जिन्होंने विचार किया, उनमें से एक मित्र भाई ब्रजेश कानूनगो का कहना याद दिला रहा हूँ- “हम राष्ट्रहित, देशप्रेम की बात तो करते हैं किन्तु उन नागरिकों, मतदाताओं के पक्ष में खड़े नहीं होना चाहते, जिनसे राष्ट्र बनता है।‘’

लेखक को अपने रास्ते स्वयं खोजने पड़ते हैं और नए रास्ते निर्मित भी करने पड़ते हैं। यह हम सभी को उद्विग्न और अशांत करने वाला वक़्त है। हम एक ऐसी दुनिया के लिए तड़प रहे हैं जिसमें भाईचारा कायम रखने वाला परिवेश हो। यह अमानवीयता के ख़िलाफ़ कार्रवाई और हस्तक्षेप का समय है। यह मनुष्यता की घुटन और उससे अपने आप को किसी तरह बचाने का भी समय है। फिलहाल भयानक लीपापोती चल रही है। हर चीज़ को तहस-नहस किए जाने की योजनाएँ हैं। रचना वह है जो हमारे भीतर हलचल मचा दे, हमें समूचे तौर पर झकझोर कर रख दे। वह एक वृहत्तर कल्पनाशीलता तो है ही और एक अनंत संभावना भी। काग़ज़ में गोदागोदी तो अनेक करते हैं लेकिन रचना वही महत्वपूर्ण होती है, जो हमें बेचैन कर दे और हमें रसवान बना दे; हिंसा, क्रूरता और नंगेपन के अंधेरे में हमें प्रकाशित कर दे।

सीरिया की कवयित्री मरम-अल-मसरी की सीरिया पर लिखी यह कविता हमें हिला देती है- ‘’सीरिया/ मेरे लिए एक बहता हुआ/ नासूर है/ ये मृत्यु शैया पर/ पड़ी हुई मेरी माँ है/ ये मेरी बिटिया है/ अपनी कटी हुई जुबान के साथ/ यही है मेरा दु:स्वप्न/ और मेरी उम्मीद/ यही मेरी अनिद्रा है/ और जाग भी यही है।‘’ रचनाकार कहीं ठहरा नहीं होता और न कही एक देश में केंद्रित होता है। रचना ठोस धरती भी है और एक खुला आकाश भी। रचना हमें रचती है, हर उत्पीड़न में सामना करना सिखाती है और इस तरह हम ऐसी रचना रच पाते हैं जो जिन्दगी की साक्षी भी होती है और एक बाक़ायदा एक हलफ़िया बयान भी।

 

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सेवाराम त्रिपाठी

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। सम्पर्क +919425185272, sevaramtripathi@gmail.com
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