भारतीय समाज में 50 वें दशक के बाद स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का संघर्ष
पिछले कुछ दशकों में हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत कई विचारधाराओं ने अपना स्थान बनाया है जिनमें से कुछ ने बड़े विमर्शों के रूप में अपना स्थान सुनिश्चित किया है जिनमें दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्ड जेंडर, स्त्री विमर्श आदि है। स्त्री विमर्श आज हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत एक बड़े विमर्श के रूप में उपस्थित हुआ है। होना भी लाज़मी है क्योंकि समाज के आधे हिस्से की पूरे अधिकार की बात है। ऐसे में एक बेहद जरुरी सवाल खड़ा हुआ (स्त्री पक्ष की ओर से) कि, स्त्री के अधिकार, उसकी वास्तविक स्थिति, उसके यथार्थ जीवन अनुभव आदि के विषय में पुरुष लेखकों द्वारा उसकी वास्तविक सच्चाई की अभिव्यक्ति संभव नहीं हो पाई। तब हिन्दी साहित्य में स्त्री लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श को लेकर अपने विचार प्रकट किए जब लेखिकाओं की नजर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिल परतों, परिवार संस्था की बारिकियों की ओर गई तो इन्होंने हमें मजबूत नायिकाएँ दी, साहित्य में सशक्त उपस्थिति दर्ज की, उनका साहित्यिक काम केवल नारीवादी स्पेक्ट्रम तक ही सीमित नहीं था उनके काम ने जीवन के दैनिक ऊहापोह में भारतीय नारियों के बड़े बदलावों को उजागर किया। ऐसी लेखिकाओं ने अपने जीवन के उथल पुथल को प्रतिबिंबित किया। जो एक नये स्वतन्त्र भारत का “सामना कर रहा था, वे खुद पढ़ी-लिखी थी, उनका खुद का कैरियर था। उन्होंने इस नए राष्ट्र के बारे में लिखा, जिसमें एक नया मध्यम वर्ग था, जिसमें कामकाजी महिलाएं थी, जो अपने फैसलें खुद करती थी और आर्थिक स्वतन्त्रता भी रखती थी।
साहित्य में बदलाव की स्थिति का अर्थ है- समाज का विकसित होना या विकृत होना। माना जाता है बदलाव की यह प्रक्रिया स्वतः होती रहती है, क्योंकि इसका कारण सामाजिक परिवेश के विभिन्न घटकों का समेंकित परिणाम होता है। सामान्यतः यह मालूम करना अत्यंत दुष्कर कार्य है कि बदलाव के, या परिवर्तन के मूल कारण क्या है? क्योंकि बदलाव के लक्षण या बिदु बड़े ही सूक्ष्म होते हैं। साहित्यकार का संवेदनशील मष्तिस्क ही समाज के बड़े बदलाव के इन सूक्ष्म सूत्रों को पकड़ सकता है और विश्लेषण कर उन निष्कर्षों पर पहुँचता है, कि अमुक बदलाव क्यों हुए अथवा इनके संभावित कारण या परिणाम क्या हो सकते हैं? इन बदलावों और उनके कारणों को जानना इसलिए भी आवश्यक होता है, कि व्यक्ति और सामाजिक जीवन उससे प्रभावित और परिचालित होता है। बदलाव की यही स्थिति साहित्य में भी चलती रहती है। बालकृष्ण भट्ट ने भी कहा है – प्रत्येक देश का साहित्य उस देश के मनुष्यों के ह्रदय का आदर्श रूप है जो जाति जिस समय जिस भाव से परिपूर्ण या परिलुप्त रहती है वे सब उसके भाव उस समय के साहित्य की समालोचना से अच्छी तरह प्रकट हो सकते हैं। स्वात्रंयोत्तर उपन्यासकारों ने सम्बन्धों के माध्यम से बदलाव और बादलावों के माध्यम से नये परिवेश में बदलते सम्बन्धों को जिया भी है, देखा और भोगा भी है।
आज़ादी के बाद भारतीय समाज में जो परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई वह दिन प्रतिदिन तेज होती चली गयी। कल्पना की दुनिया में खोयी स्वप्नों में जी रही भारतीय समाज को जब यथार्थ की खुरदरी जमीन पर पैर रखना पड़ा तो उसे गहरा धक्का लगा उसके सामने नई-नई समस्याएँ आई तो जनता हतप्रभ रह गयी। जैवकीय परिवर्तन,जीवन मूल्यों में पतन, संयुक्त परिवार का विघटन, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में बदलाव, सामाजिक मूल्यों का पतन, राजनितिक अस्थिरता आदि। भारतीय समाज के चरित्र में भी धीरे-धीरे बदलाव आया। सन साठ तक आते-आते परिवर्तन की रुपरेखा पूरी तरह स्पष्ट हो गयी। जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति का मोहभंग हुआ। सामाजिक परिवर्तन के उक्त कारकों के साथ जो सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन है और जिससे समाज अत्यधिक प्रभावित हुआ है वह है -पारिवारिक विघटन। आज परिवार की कल्पना केवल पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित है। इसके मूल में बढती हुई वैयक्तिकता है। स्वातन्त्रयोत्तर उपन्यासों में भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर बहुत कुछ लिखा गया सारे रिश्ते नाते यथा माँ-बाप, पत्नी-पुत्री, भाई-बहन आदि के साथ व्यक्ति के सम्बन्ध प्रायः समाप्त हो गए। परिवार का हर सदस्य असुरक्षा की भावना से ग्रस्त है, परिवार की परिभाषा ही बदल गयी है। नरेश मेहता ने इस स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है, पंडित श्रीनाथ ठाकुर का बड़ा बेटा श्री मोहन अपने बीवी बच्चों को लेकर अलग हो जाता है। जब मकान की बंटवारें की बात आती है, तो श्रीधर की माँ कहती है -एक बात तू भी सुन ले, घर के तीन हिस्से नहीं होंगें, चार हिस्से होंगें श्रीमोहन को आश्चर्य हुआ, श्रीधर की माँ फिर कहती है- हमलोग क्या सड़क पर रहेंगे? जैसे तुमलोग हमारे साथ नहीं हो, तब श्रीधर का परिवार भला क्यों हमारे साथ रहेगा? पुरानेपन का प्रतीक श्रीधर के माता-पिता, श्रीधर के परिवार को ढोने के लिए बाध्य है। पुत्र के लिए भी निकम्मे माँ-बाप बोझ बन गए हैं। इसके मूल में आर्थिक परिस्थितियां काम कर रही हैं। डॉ. बलराज पाण्डेय लिखते हैं –“माँ बाप को पुरानेपन का प्रतीक मानकर साठोत्तरी पीढ़ी चलती है, इसलिए उनके प्रति इस पीढ़ी के मन में एक आवश्यक नफरत है, कुछ आर्थिक परिस्थितियां भी हैं जिनके कारण सम्बन्धों में बिखराव उत्पन्न हुआ है।”1 साठ के दशक के बाद पुरे विश्व में आर्थिक स्तर पर मजबूत होने की कवायद शुरू हुई। जिससे लोग हर वस्तु को अर्थ के नजरिये से देखने लगे चाहे वो कैसा भी सम्बन्ध क्यों न हो? वहाँ भी अर्थ का दबदबा बरक़रार रहा। जिसका परिणाम हमें नये नये रूप में देखने को मिला। इस दौर में परिवार के बिखराव का मूल कारण आर्थिक परिस्थितियां हैं, वर्तमान जीवन अर्थ प्रधान हो गया है, यही कारण है कि भाई-बहन, पिता-पुत्र, और पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों में बिखराव आया है।
जब हम सामाजिक-पारिवारिक चिंतन करते हैं तो मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष सम्बन्ध हमारे सामने आ खड़ा होता है। इसे लेकर बड़े संवाद और बहसें होती हैं कि उनके सम्बन्ध कैसे हो? कोई पुरुष में अहंकार और समाज पर उसकी सत्ता दर्शाता है तो वही दूसरी तरफ एक ऐसा संसार है, जहाँ त्याग, लज्जा, शील, आदि का भान कराया जाता है। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध जरुरी, विचित्र और प्रकृति प्रदत है। समाज में कुछ बातों पर सामंजस्य है तो काफी पर विरोधाभाष भी है। कहीं पुरुषवाद समाज को हिलाता है तो स्त्री चेतना अब समझौता करने के बजाय टकराने की कोशिश करती है। ऐसी खनक के अजीबोगरीब स्वर चारों तरफ सुनाई देते हैं, जो कुछ को झकझोरती है और बहुतों को सामंजस्य के लिए विवश करती है, तो कहीं टकराने का रास्ता बनाती है। अतीत के समाज में जो बातें सहज रही आज उसमें बड़ा बदलाव आता दिख रहा है। आज पुरानी मान्यताएँ टूट रही हैं। स्त्रियाँ चारदीवारी से बाहर कदम रख रही है। हर क्षेत्र में उन्हें अपने कौशल आजमाने का अवसर प्रदान किया जा रहा है, जिसके बदौलत उनके जीवन स्तर में क्रन्तिकारी बदलाव संभव हो सका है।
मनुष्य के आपसी सम्बन्धों में सबसे नाजुक, निर्णायक स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध है, इसलिए संसार के सारे कथाकारों का केन्द्रीय विषय भी यही रहा है। लेकिन आज सम्बन्धों का पूर्वगत स्वरूप नष्ट हो गया है। डॉ. सुरेश सिन्हा का कथन है – मानव सम्बन्ध परिवर्तित हो गए हैं। मालिक और दास के, पति और पत्नी के, माता -पिता और संतानों के, दुसरे शब्दों में मानव सम्बन्ध निरंतर विघटित होते जा रहे हैं, और सब सारे सम्बन्ध स्वार्थ एवं सुविधा पर निर्भर रहने लगे हैं। स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी उपन्यास अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों से अलग एक नया प्रतिमान उपस्थित करता है। खासकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के मामले में एक नया बदलाव आया है, सम्बन्धों को देखने की एक नई दृष्टि मिलती है, मतलब साफ है की साठोत्तरी हिन्दी उपन्यास स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों का एक नया समाजशास्त्र तैयार करता है, यह समाजशास्त्र एक नये मनोविज्ञान पर आधारित होता है, जिसमें स्त्री की आर्थिक स्वतन्त्रता, पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्ध में नया बदलाव और देह की स्वतन्त्रता प्रमुख थी। स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी उपन्यासों की प्रमुख प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व कुछ उपन्यास करती है वो इस प्रकार हैं-नदी के द्वीप (1959), अपने अपने अजनबी (1965) -अज्ञेय, राजकमल चौधरी की मछली मरी हुई (1966 ), सोबती की सूरजमुखी अँधेरे की (1972), मोहन राकेश का अन्तराल (1972), मन्नू भंडारी का आपका बंटी (1971 )आदि।
प्रेमचंद युगीन साठ के पहले का उपन्यास और साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को देखते हैं तो बदलाव के रूप हमें साफ दिखने लगता है। साठ के पहले के उपन्यासों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में स्त्री की मुद्रा अधिक समर्पण की रही है। पुरुष और स्त्री के सम्बन्ध सेक्स के खुलेपन की दहलीज पार जाकर भी सामाजिक और आर्थिक सम्बन्धों में खुलापन नहीं आया था। इसे निर्मला उपन्यास में देखा जा सकता है। प्रेमचंद ने समाज चित्रण के अन्तर्गत स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का चित्रण का पूरा ध्यान रखा है। इस उपन्यास में अनमेल विवाह का पारस्परिक सम्बन्ध दिखाकर उन्होंने इस कुप्रथाओं को व्यापक सामाजिक दुष्प्रभाव के रूप में प्रकट किया है। उपन्यास की समस्या कथा में बड़ी कुशलता से पिरोई गयी है। निर्मला की माँ दहेज़ न दे सकने के कारण उसका विवाह तोताराम के साथ करती है, तोताराम आयु में निर्मला के पिता के समान है, इस अनमेल विवाह के मूल में दहेज़ की समस्या विद्यमान है। निर्मला भारतीय नारी की प्रतीक है, जो अनमेल विवाह की विभीषिकाओं की वेदी पर दुःख सहकर भी परंपरागत मान्यताओं को स्वीकार करती हुई कहती है – “ स्वामी जी (तोताराम) ने हमेंशा मुझे अविश्वास की दृष्टि से देखा है, लेकिन मैंने कभी मन में भी उनकी उपेक्षा नहीं की। जो होना था वह हो गया। अधर्म करके अपना परलोक क्यों बिगाड़ती? पूर्व जन्म में न जाने कौन से पाप किए थे, जिनका यह प्रायश्चित करना पड़ा, इस जन्म में कांटें बोती तो कौन गति होती?”2 निर्मला के इन शब्दों में उनकी मर्मव्यथा ही नहीं है, अपितु विकल जीवन नारी-समाज की अन्तर्वेदना परिव्याप्त है।
वही दूसरी ओर साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों की नायिका घर से बाहर निकलती है। पहली बार नायिकाएँ आर्थिक रूप से स्वतन्त्र होती है, सेक्स सम्बन्ध में भी यौन शुचिता का तिलिस्म टूटकर बिखरने लगता है। साठोत्तरी हिन्दी उपन्यास की जो सबसे बड़ी विशेषता दिखती है कि वह पुरुष नायक की जगह नायिका प्रधान उपन्यास लिखा जाने लगा। ऐसे उपन्यास बहुतायत में दिखने लगे, जिसमें अधिकतर महिला लेखक थी, पुरुष लेखकों ने भी इसमें शिरकत की। स्वातन्त्रयोत्तर उपन्यासों में ठीकरे की मंगनी (1989) उपन्यास भारतीय समाज के चेतना युक्त नारी का चित्रण करती है। नायिका पुरातनपंथी परिवार के दवाबों व संस्कारों, समाज की सवाली निगाहों सभी को धत्ता बताकर अपने चुने मार्ग पर दृढ़ बनी रहती है, और कहती है- अब मेरे पास समझ है अपना भला बुरा खुद समझ सकती हूँ। ठोस जमीन पर ठोस जिंदगी जीना चाहती हूँ। मेंरी जिन्दगी पर सिर्फ मेरा हक़ है। आज़ादी के बाद समाज में महिलाएं अपने हक़ को लेकर ज्यादा सतर्क हुई उन्हें रुढ़िवादी परंपरा बाधा जान पड़ती थी तभी वे कहती हैं-मान्यताओं, मर्यादाओं रस्मरिवाजों, की इतनी भारी बेड़ियाँ पैरों में पड़ी थी, जिनके साथ चलना तभी ही संभव था जब वे काट दी जाय।
मोहन राकेश का प्रिय विषय वस्तु है स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताओं को उजागर करना। उन्होंने तीन उपन्यासों की रचना की है जिसमें 1961 में अँधेरे बंद कमरे-जिसमें दिल्ली के अभिजात्य वर्गीय हरवंश और नीलिमा के दांपत्य जीवन का चित्त्रण है, 1968 में न आने वाला कल- इसमें एक पहाड़ी प्रदेश के मिशनरी स्कूल अध्यापक का चित्रण है, वही 1972 में प्रकाशित अन्तराल में स्त्री पुरुष सम्बन्धों की जटिलता का चित्रण है। मोहन राकेश ने तीनों उपन्यास में आधुनिक जीवन की विसंगतियों में संगती न खोज पाने की विवशता का चित्रण है। लेखक इस जीने की विवशता को उद्घाटित करते हुए कहता है-“ मेरी रचनाएँ सम्बन्धों की यंत्रणा को अपने अकेलेपन में झेलते लोगों की कहानियां हैं …उनकी परिणति किसी तरह के सिनिसिज्म में नहीं, झेलने की निष्ठा में है।”3 मोहन राकेश अपने उपन्यास में आधुनिक दौर की नई चुनौतियों को लेकर उपस्थित होते हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद जिस चीज ने पूरी सामाजिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन कर दिया है, वह है आदमी का व्यक्ति हो जाना। व्यक्ति वह है जिसे अपने अस्तित्व का तीव्र अहसास हो, वह किसी भी घटना या प्रक्रिया को अपने निजी अस्तित्व के सन्दर्भ में ही खोजना चाहता है। इन तत्वों की चरम अभिव्यक्ति ही अस्तित्ववाद है। इन तत्वों पर आधुनिक नारी ने चिंतन करना प्रारंभ किया है और अपने अस्मिता को पहचान कर अपने अस्तित्व के लिए कमर कस कर जुट गयी। यही कारण है कि स्त्री और पुरुष सभी अपने अस्तित्व की लड़ाई में जुटे हुए हैं, जिसके फलस्वरूप ही समकालीन जीवन बहुत जटिल हो गया है -ऊब, तनाव, द्वन्द, संत्रास, उलझन, अकेलापन, भटकाव आदि विसंगतियां उसी चेतना के फलस्वरूप उपजी है।
अँधेरे बंद कमरे उपन्यास में दांपत्य जीवन के दृष्टिकोण से हरबंस-नीलिमा के विषम दांपत्य जीवन का बड़ा ही सजीव चित्रण है आधुनिक सामाजिक परिवेश में बदलते हुए दांपत्य मूल्य पर मोहन राकेश ने सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण किया है वर्त्तमान समाज में बदलती हुई संस्कृति के प्रभाव से दांपत्य जीवन में पड़ने वाली उलझनें, परस्पर विरोध, घुटन का मोहन राकेश ने एक वृहद् सामाजिक केनवास पर सूक्ष्म चित्रण किया है। इस सम्बन्ध में डॉ. देवराज लिखते हैं-“ हरबंस और नीलिमा के दांपत्य प्रेम की कहानी में आधुनिक परिवेश के कारण दरारें पड़ गयी हैं।”4 हम ऐसे दौर की बात कर रहें हैं जब इन्सान बड़ी उलझन और चुनौतियों से घिरा हुआ था। परिस्थितियां और अस्थिरता मनुष्य के चित्त को गहरे स्तर तक प्रभावित करती था। मन का स्थिर न होना भी अपने साथी पर सन्देह पैदा करता है। ऐसी ही कुछ घटना हरबंस और नीलिमा के बीच घटित होता है। हरबंस नीलिमा को समझने में भूल करता है लेकिन नीलिमा हरबंस को अच्छे से समझती है। हरबंस के संदेहशील व्यक्तिव के कारण नीलिमा दुखी होते हुए कहती है-“ मैं जीवन में किसी भी परिस्थिति का सामना करने से नहीं डरती मगर झूठा संदेह मुझे एक ऐसे नश्वर की तरह लगता है जो घाव नहीं करता, मगर हर समय चुभता रहता है।” 5
इतना ही नहीं रिश्ते और बिगड़ते चले जाते हैं नीलिमा फिर कहती है “ मुझे लगता है जैसे हम पति-पत्नी न होकर एक-दुसरे के दुश्मन हो और साथ रहकर एक-दुसरे से किसी बात का बदला ले रहे हों। ” 6 नये समाज में दाम्पत्य में घुटन और बिखराव इन्हीं कारणों से आया है। ऊपर से हँसते चहरे अंदर से घुटन के कारण क्षीण होते जा रहे हैं। दिखावे की संस्कृति लोग तेजी से अपना रहे हैं इसी कारण अपने मूल जड़ से कटते चले जा रहे हैं जिसका नतीजा है स्त्री-पुरुष दोनों बेवजह परेशान तनावग्रस्त जीवन जीने को अभिशप्त है।
आधुनिक हिन्दी उपन्यास में नारी के कई रूप उभर कर सामने आते है जो जीवन के एक किनारे पर स्वयं को स्वतन्त्र घोषित करने में सफल भी होती है तो दूसरा किनारा उन्हें सीमा में बांधे बिना नहीं छोड़ता है। प्रेमचंद की सुमन (सेवासदन) ऐसा ही नारी पात्र है जो अपनी चारित्रिक दृढ़ता एवं आस्था के बल पर सामाजिक शोषण एवं पाखंड के विरुद्ध विद्रोह करने की धुन में स्वयं को खपा देती है। जैनेन्द्र की सुनीता और मृणाल भी नारी चरित्रों की दो छोर है एक अपने आप सुदृढ़ एवं तार्किक है जो तेजस्विता में पुरुष की चित्तवृतियों का परिष्कार करने की क्षमता रखती है। आधुनिक चेतना से युक्त नारी पुरुष के परम्परागत खींचें ढांचे से बाहर निकलकर खुद को नई पहचान दे रहीं हैं। अब पुरुष ज्यादा समय तक स्त्रियों को छल नहीं सकते। इलाचंद्र जोशी की मंजरी (प्रेत और छाया) में अपने छलने वाले पारसनाथ के प्रति घृणा व्यक्त करते हुए कहती हैं- “विश्व व्यापी इस क्रांति के युग में नारी ने अपनी शक्ति को पहचाना है और इस महाबीज को सुरक्षित रखे हुए हैं। अब उसके मानसिक विद्रोह को दबाने की शक्ति किसी मानव में तो क्या ब्रह्मा में भी नहीं रह गयी है।”7 स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि स्त्री के पूरे जीवन की यात्रा पुरुष के समक्ष एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में बेहतर सहयोगी का हो तो ज्यादा अच्छा है अन्यथा कठिनाईं दोनों पक्ष को उठाना पड़ेगा। जीवन में प्रगति तभी संभव है जब स्त्री-पुरुष आपस में मित्रवत व्यवहार करें, परस्पर सहयोग की भावना विकसित हो। नासिर शर्मा के शब्दों में कहें तो – “ इन्सान को इन्सान बने रहने के लिए प्रेरित करते रहना। अपमान, शोषण, अत्याचार, के विरोध में खड़े होने की प्रेरणा देना।”8
साहित्यकार किसी भी रचना का निर्माण करते समय किसी न किसी उद्देश्य को लेकर अवश्य चलता है। आज़ादी के बाद जितने भी साहित्य का सृजन हुआ उसमें स्त्री-पुरुष से जुड़े सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण थे। स्वातन्त्रयोत्तर उपन्यास समाज को नये सिरे से देखने का प्रयास करती है। सम्बन्धों की जटिलताओं को बारीकी से विश्लेषण करते हुए उसके जड़ तक जाती है। प्रेमचंद के बाद साहित्य में जो बदलाव आया उसी सूत्र को उनके बाद के लेखकों ने पिरोया है। जीवन के विविध क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों के बराबरी में खुद को खड़ा किया है। इस पूंजी प्रधान युग में जो नये किस्म का सम्बन्ध विकसित हो रहा है उसको भी रूपायित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। हालत जैसे जैसे बदल रहे हैं सम्बन्धों में भी उसी प्रकार का बदलावपन दिख रहा है। नये सम्बन्ध नई चुनौतियों और संभावनाओं को जन्म दे रही है। देखिये आगे-आगे होता है क्या?
सन्दर्भ ग्रंथ सूची –
- कहानी आन्दोलन की भूमिका, बलराज पाण्डेय, अनामिका प्रकाशन, पृष्ठ सं 56
- निर्मला, प्रेमचंद, अक्षर प्रकाशन, 1969, पृष्ठ सं 200
- मेंरी प्रिय कहानियां, मोहन राकेश, राजपाल एंड संस, 1998, पृष्ठ सं 11
- आधुनिक कथा साहित्य और मनोविज्ञान, डॉ देवराज उपाध्याय, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड इलाहाबाद, 1995, पृष्ठ सं 157
- अँधेरे बंद कमरे, मोहन राकेश, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ सं 138
- वहीँ,पृष्ठ सं 305
- प्रेत और छाया, इलाचंद्र जोशी, लोक भारती प्रकाशन, 2018, पृष्ठ सं 406
- गगनांचल, सं कन्हैया लाल नंदन, जनवरी-मार्च 1999, ( यतीन्द्र मोहन प्रताप मिश्र से नासिरा शर्मा की बातचीत ), पृष्ठ सं 106