विशेष

सबलोग के पंद्रह वर्ष

 

( सबलोग के प्रकाशन के पंद्रह वर्ष पूरे होने पर 13 जनवरी 2024 को रांची में एक आयोजन किया गया। इस अवसर पर देश के विभिन्न हिस्सों से लेखक-विचारक इकट्ठे हुए।)

‘हौसला हो तो सूरत बदल सकती है’ यह आशुतोष के एक लेख का शीर्षक है । हताशा के समय में यह हौसला देने वाली राह है । आशुतोष का मिजाज कुछ ऐसा ही था । वह सदैव उम्मीदों से लबालब था। आज इसकी सर्वाधिक जरूरत है ।

आशुतोष का यह शीर्षक किशन कालजयी पर खरा उतरता है । किशन का वैशिष्ट्य उनके पहल करने की प्राथमिकता में है । यह गुण कुछ लोगों में ही होता है जो अपनी पहल को वह निरंतरता में बदल देते हैं । इन्होंने न केवल निरंतरता बनायी , तकनीकी विकास के साथ ताल भी मिलाया है। किशन ने दो पहल की है — ‘संवेद’ और ‘सबलोग’ । इन दोनों का वेब संस्करण भी शुरू किया । यह उल्लेख करना बनता है कि इन दोनों प्रिंट पत्रिकाओं के पहले अंक में आशुतोष ने रचनात्मक सहयोग किया था । इसलिए उन्हें याद करने का अपना महत्व है ।

‘सबलोग’ के पंद्रह वर्ष पूरे हो गए हैं। लगभग सवा सौ अंक निकले हैं । इस पत्रिका का पहला महत्व यह है कि इसकी शुरुआत तब हुई जब समाज से विचार को बेदखल करने की वैश्विक अभियान की हवा तेज थी , जो आज दूनी रफ्तार से चल रही है । ‘सबलोग’ का जन्म उस दौर में हुआ जब वैमनस्य बढ़ाने वाली और समरसता को भंग करने वाली राजनीति अपना विस्तार करने लगी थी । धर्म को राजनीति का टूल बना बनाया जा चुका था । लोकवृत्त को समाप्त करके लोकतंत्र को विकलांग बनाने के लिए उसके सभी खंभों को हिलाया जाने लगा था ।

‘सबलोग’ का पहला अंक 2009 में निकला । इसकी शुरुआत ‘आजादी के बाद के मूल्यांकन’ से हुई । पहले अंक का फोकस था : आजादी के 61 साल । शुरू से यह हिंदी के उन लेखकों की पसंद बनी हुई है , जो सीधे विचारपरक लेखन से वैकल्पिक और बेहतर दुनिया बनाने का मोर्चा संभालते हैं ।

एक सच अगर यह है तो समानांतर सच यह भी है कि हिंदी में ‘सबलोग’ की फिलहाल हमसफर पत्रिका नहीं है । यह सुखद स्थिति नहीं है । एक अभाव है । यह अभाव विचारणीय है । अकेला चना जबड़ा हिलाने का काम एक सीमा तक ही कर सकता है । जबड़े से छूटने की व्यापक पहल हमारे समय की पहचान बननी चाहिए ।

किशन कालजयी ने अपनी पहली मुनादी में लिखा था ,” भारतीय राजनीति और भारतीय समाज की परवाह करने वाली और बाजार के बजाय विचार का पक्ष लेने वाली पत्रिकाएं हिंदी में कितनी हैं और कहां हैं ? ” आज पंद्रह साल बाद भी स्थिति नहीं बदली है । इसका अफसोस हिंदी को है !

क्या हिंदी समाज में विचार का आग्रह नहीं है ? जहां विचार की कद्र नहीं होती , भावावेग का सौदा आसानी से कर लिया जाता है । आवेग मूल्य को बहा कर ले जाता है । मूल्य , तर्क और विवेक का आंतरिक संबंध टूट जाता है । हमारा समय ऐसा ही टूटा-फूटा है।

इन पंक्तियों का लेखक जब यह सब लिख रहा है उसे किशन पटनायक और उनकी पत्रिका ‘सामयिक वार्ता’ की याद आ रही है । सामयिक वार्ता सम्मान और समानता की आवाज थी । किशन पटनायक समाजवादी चिंतक और कार्यकर्ता थे । वे भुला दिए गए हैं ।

किशन कालजयी ने अपनी पहली मुनादी में ही हिंदी समाजों में बड़ी संख्या में पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं , जिनका प्रकाशन बंद हो चुका था , की चर्चा करते हुए सवाल किया था कि उन पत्रिकाओं के पाठक आज ‘खाली’ हैं , उनकी बौद्धिक भूख कहां से मिटेगी ? पाठकों की चिंता करना समाजों की चिंता करना है । किशन की चिंता समाजों में बौद्धिक विरासत को सुरक्षित रखने की थी । ‘समाजों’ को खाली होने से बचाने की थी , तभी ‘सबल़ोग’ का निकलना शुरू हुआ था । किशन ने कहा था ‘सबलोग’ वैकल्पिक मीडिया के रूप में ‘कारगर हस्तक्षेप’ करना चाहती है । इस संकल्प के पीछे एक छोटी टीम की ‘जुनूनी ताकत’ थी । उस जुनूनी ताकत से ही यह संभव हुआ कि ‘सबलोग’ लंबी दौड़ का घोड़ा साबित हुआ है ।

आगे भी इसका प्रकाशन जारी रहे , इसकी कामना करता हूं ।

Show More

मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x