लौटते हुए लोग : कौन हैं और कहाँ जा रहे हैं!
बहुत चिन्ताएँ सुनी जा रही है लोक डाउन के दौरान, लौटते हुए लोगों यानि माइग्रेंट वर्कर्स के बारे में। भाव विह्वल करने वाली तस्वीरें भी दिखाई पड़ी हैं, और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की ख़बरें भी लगातार आ रही हैं। ऐसे में एक साधारण सा लगने वाला प्रश्न बार बार कौंधता है, और असाधारण लगने लगता है। कौन हैं ये लोग, और कहाँ को लौट रहे हैं? कोई कहेगा, क्या सवाल है! जानते तो हैं कि माइग्रेंट वर्कर्स हैं, और गाँव को लौट रहे हैं। लेकिन अगर इतना ही मान कर बैठ जाएँ तो संभव है की मामले की समझ अधूरी रह जाए, और हम एक महानगरीय सोच के शिकार हो जाएँ।
सेवक बुद्धिजीवियों का भी हो गया। बड़े विश्वविद्यालयों और सरकारी नीतियों में इसी चश्मे का प्रयोग होता रहा। इसमें दो राय नहीं कि उस चश्में से गाँव और गाँव के लोगों को जैसे देखा गया उसके फायदे हुए। पंडित नेहरू से लेकर, राजनैतिक परिवर्तनों के उथल पुथल भरे दौर में भी, कमोबेश वही चश्मा चढ़ा रहा सबके नज़रिये पर। अब भी कुछ बदला नहीं है, इसीलिए महानगरीय नज़रिये से, लौटते हुए लोग सिर्फ दया या हंसी के पात्र बन जाते हैं। इस नज़रिये में गाँव, या तो एक खोया हुआ सुन्दर सपना था, या कृषि उत्पादन का विस्तृत लैंडस्केप, या समस्या ग्रसित प्रशासनिक यूनिट, या मूलभूत सुविधाओं से वंचित एक पिछड़ा भारत।
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मिला जुला कर गाँव एक ‘जगह’ था और वहाँ के लोग भी वैसे ही जैसे और जगहों के। शुरू के दशकों में कुछ एँथ्रोपोलॉजिस्ट विद्वानों ने आपत्ति जताई थी इस तरह के निर्णय पर। लेकिन कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, चश्में में या दृष्टिकोण में। गाँव, और उसके आस पास के छोटे शहरों में रहने वाले और वहाँ से निकल कर अलग अलग प्रदेशों में जाकर खटने वाले लोग महानगरीय दृष्टिकोण से समझ नहीं आएँगे। और हम समझ नहीं पाएँगे, ये कौन लोग हैं और कहाँ को लौट रहे हैं।
काम नहीं था तो वो लोग निकल लिए ‘परदेश’ को, कभी ‘पनिया के जहाज से’ तो कभी जनरल कम्पार्टमेंट का टिकट कटा कर, पिसते-पिसाते हुए रेलगाड़ी से। ढेला-ढेला जमा कर, लौटते रहे वो लोग। चाहे कितने ही चमक-दमक वाले महानगरों में वो थे, चाहे वो कितना भी कमा लेते थे, उनके मन में गाँव बसा रहता था। वो अपने छोटे शहरों को भी गाँव ही मानते रहे। गाँव में रिश्ते थे, नाते थे, बूढ़े माँ बाप थे, खेत थे खलिहान थे, और कुछ नहीं तो पुराने मालिक और खून चूसने वाले साहूकार थे। बुरा था, या भला था, गाँव ही उनका अपना था। वो लौटते रहे, कभी बच्चे की मुंडन के लिए, कभी किसी की शादी के लिए, कभी श्राद्ध कर्म करने के लिए, और कभी कभार आम की बढ़िया फसल होने पर, आम खाने के लिए भी। कितनो ने तो अपने बाल बच्चे गाओं में हीं रख छोड़े थे।
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इससे बचत ज़्यादा होती थी, और गाँव में खेती बारी पर, या फिर पारिवारिक सम्बन्ध पर पकड़ बनी रहती थी। वो जो पढ़ने-पढ़ाने के लिए निकले, उनके मन में भी गाँव बना रहा। चाहे वो पटना से हों, जहानाबाद से, दरभंगा से या मुजफ्फरपुर से–जब भी आपस में बातें करते तो यही कहते की गाँव जाना है। जब भी छुट्टी मांगते अपने बॉस से तो यही कहते की गाँव में फलाना काम है। ये ‘गाँव’ कोई जगह मात्र नहीं था, एक विचार, एक बोध था, एक अनुभूति, एक सोच था। कुल मिलकर ये की समाजशात्रियों और अर्थशास्त्रियों की दरिद्र दृश्टिकोण से परे, एक गाँव था, और वही गाँव उन्हें खींचता है लॉक डाउन की घड़ी में जब उन्हें काम-काज की अनुपस्थिति में, देख भाल के अभाव में, अचानक से महानगर बेकार और डरावने लगने लगते हैं।
इस विपत्ति के पहले भी, अगर कभी महानगरों में रेलवे स्टेशन पर आप देखते उस कभी ना ख़त्म होने वाली भीड़ को तो समझ में आता के वो लोग जिन्होंने टिकट कटाई थी जगहों के नाम पर, वो किसी जगह मात्र को नहीं जा रहे थे। वो उस अनुभूति की ओर बार बार लौटते थे। वैनिशिंग विलेज और डाईंग विलेज का दकियानूसी विचार देने वाले, बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में बैठे समाजशास्त्रियों को ये बात समझ में नहीं आती थी। और दुर्भाग्य कि अब भी नहीं आती है। वो वैसे हीं सोचते हैं जैसे दक्षिण दिल्ली के डीडीऐ कॉलोनियों में रहने वाले, बड़े शहरों पर इतराने वाले, तथाकथित नागरिक सोचते हैं। दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, या बंगलोर और चेन्नई जैसे जगह की ही तरह वो गाँव को भी एक जगह मात्र समझते हैं, और वहाँ से गये और लौटते लोगों को भी वो वैसे ही चश्मे से देखते हैं।
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एक महानगरीय रेशनलिटी का नज़रिया है ये। लौट रहे लोग दरअसल में एक भावना, एक सेंटीमेंट की ओर लौटना चाहते हैं। ये अलग बात है कि वो सेंटीमेंट, वो आभास, वो घर में होने का बोध, जिसकी उन्हें अपने गाँव या छोटे शहरों से उम्मीद है, शायद ही मिल पाए। बिहार के शहर और गाँव भी तो ‘रिस्क’ के शिकार हैं। आखिर वहाँ भी तो बायो-नॅशनलिज़्म चल रहा है। वहाँ भी थाली, घंटी बजा के, और दीप जला के उम्मीद किया गया कि वायरस भाग जायेगा। और वहाँ भी कोविद पॉजिटिव और नेगेटिव के आधार पर अपने और पराये का खेल है। जैसे महानगरों में ये नया छुआछूत चल रहा है, वैसे हीं छोटे शहरों और गाँवों में भी तो है।
तो ये देखने की बात है की लौट रहे लोग दरअसल में लौट के कहाँ पहुँचते हैं, उस सोच की ओर जिनसे उन्हें घर में होने की उम्मीद है या एक तार तार हुए समाज की ओर। वैसे भी उस समाज में इन लौटते लोगों को तभी भाव मिलता था जब वो अपनी जेब में वजन लेकर लौटते थे।
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