सामयिक

संसार के पहले पत्रकार देवर्षि नारद

 
नारद जी का प्राकट्य

नारद मुनि ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से हैं। ऐसा माना जाता है कि वे ब्रह्मा जी के छठे पुत्र थे। शास्त्रों में मिले उल्लेखों के अनुसार ‘नार’ शब्द का अर्थ है जल। ज्ञानदान, जलदान करने एवं तर्पण करने में निपुण होने की वजह से ही उन्हें नारद कहा जाने लगा। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार नारद ब्रह्मा जी के कंठ से उत्पन्न हुए। इन्हें वेदांग, संगीत, श्रुति-स्मृति, व्याकरण, खगोल-भूगोल, इतिहास, पुराण, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत माना जाता है। नारद मुनि को अजर-अमर माना गया है।

नारद जी की एक और जन्म कथा

पौराणिक मान्यताओं और धर्म ग्रंथों में मिले वर्णन के मुताबिक पूर्व कल्प में नारद ‘उपबर्हण’ नाम के गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी ने उपबर्हण को उनके गलत व्यवहार की वजह से शूद्र योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। श्राप की वजह से वह ‘शूद्रादासी’ के पुत्र हुए। बचपन से ही साधु-संतों के साथ रहने और उनकी संगति प्राप्त करने की वजह से इस बालक के चित्त में रजोगुण और तमोगुण को नाश करने वाली भक्ति का प्रादुर्भाव हो गया। श्री नारायण अनवरत भक्ति करते हुए एक दिन उन्हें भगवान की झलक दिखाई दी। ये बालक नारायण के उस स्वरुप को ह्रदय में समाहित करके बार-बार दर्शन करने की अभिलाषा के साथ यत्न करने लगा, लेकिन भगवान की झलक उस बालक को नहीं दिखाई दी।

भक्ति तो भक्ति है। प्रभु की झलक के लिए लगनशील बालक की तन्मयता देखकर उन्हें अचानक अदृश्य शक्ति की आवाज सुनाई दी- ”हे दासीपुत्र ! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा, लेकिन अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद हो जाओगे”। एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर ब्रह्मा जागे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मानस पुत्र के रूप में नारद जी अवतीर्ण हुए और ब्रह्माजी के मानस पुत्र कहलाए। इससे ये स्पष्ट हो जाता है कि नारद जी भगवान ब्रह्मा जी के ही मानस पुत्र थे।

श्री नारायण के वरदान से ही नारद मुनि वैकुण्ठ सहित तीनों लोकों में बेरोकटोक विचरण करने लगे। पलक झपकते ही वे कहीं भी, किसी के भी सामने प्रकट हो सकते हैं। नारद मुनि को अजर-अमर माना गया है। माना जाता है कि वीणा पर तान छेड़कर प्रभु की लीलाओं का गान करते हुए ये ब्रह्ममुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं।

ब्रह्मांड के पहले पत्रकार

तीनों लोकों में जिसकी आसान पहुंच हो, जो पलक झपकते ही कहीं भी पहुंचने का सामर्थ्य रखता हो, उससे किसी की भी कोई बात कैसे छुपी हो सकती है। वो भी तब जबकि ब्रह्ममुहूर्त में सभी जीवों की गति देखने की शक्ति प्राप्त हो। तो जब नारद जी किसी के पास पहुंचते तो उसकी जरूरत की सूचनाएं उस तक प्रेषित करते। ऐसा कहा जाता है कि नारद मुनि पृथ्वी, आकाश और पाताल में यात्रा कर देवी-देवताओं और असुरों तक संदेश संप्रेषण करते थे। सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। सुर और असुरों की लड़ाई की कई कहानियां पौराणिक कथाओं में वर्णित हैं। समुद्र मंथन का उदाहरण हर विद्यार्थी जरूर जानता है। पृथ्वी, आकाश और पाताल में जहां भी वे जाते, वहां के निवासियों के लिए सूचनाएं लेकर जाते और वहां से जो सूचना प्राप्त होती उसे संबंधित लोक तक निर्बाध पहुंचा देते थे। इसी वजह से उन्हें सृष्टि का पहला पत्रकार माना जाता है। नारद जी एक ऐसे पौराणिक चरित्र हैं, जो तत्वज्ञान में परिपूर्ण हैं। कई शास्त्र इन्हें विष्णु का अवतार भी मानते हैं।

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नारद मुनि के हाथ में हमेशा वीणा होती है। संदेश देने या पहुंचाने के लिए वे गायन शैली का प्रयोग करते और गायन के लिए वीणा का। कहा जाता है कि नारद मुनि सच्चे सहायक के रूप में हमेशा सच्चे और निर्दोष लोगों की पुकार श्री हरि तक पहुंचाने का काम भी करते थे, जैसे आज के पत्रकार भी जनजागरण का काम करते हैं याकि जनता की समस्याओं को सरकार या संबंधित अधिकारियों तक समाचार पत्रों, टेलीविजन या सोशल मीडिया के माध्यम से पहुंचाते हैं।

नारद कैसे बने देवर्षि ?

देवर्षीणाम् च नारद:। यानी मैं देवर्षियों में नारद हूं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय के 26वें श्लोक में नारदजी के लिए ये बात कही है।
पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के अनुसार नारद जी ने देवताओं और असुरों का समान भाव से सही मार्गदर्शन किया। इसी वजह है कि सभी लोकों में नारद जी का सम्मान किया जाता था। सुर हों या असुर उन्हें आदर भाव से देखते थे। माना जाता है कि देवर्षि नारद ऋषि वेदव्यास, वाल्मीकि, शुकदेव के गुरु थे। भक्त प्रह्लाद, ध्रुव के साथ साथ राजा अम्बरीष जैसे महान भक्तों को नारद जी ने ज्ञान देकर भक्ति मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनकी प्रेरणा से ही इन भक्तों ने प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त किया और इन्हीं कारणों से नारद जी को देवर्षि नारद कहा जाने लगा।

श्रीमद्भागवत महापुराण का कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के देवता थे और इस प्रकार, उन्हें ऋषिराज के नाम से भी जाना जाता था। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप – इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्य के पुत्र कुबेर, प्रत्यूष के पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए। परंतु आम जनमानस में देवर्षि के रूप में सिर्फ नारद जी की ही ख्याति है। उनके जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिल सकी।

हिंदू कैलेंडर के अनुसार, नारद जयंती हर साल कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि पर मनाई जाती है। इस साल ये तिथि 6 मई की रात 9।52 बजे से लेकर 7 मई की रात 8।15 बजे तक है।

भगवान विष्णु को देवर्षि ने क्यों दिया श्राप?

नारद जी विष्णु भगवान के परम भक्तों में से एक माने जाते हैं। लेकिन एक प्रसंग ऐसा भी आता है जब देवर्षि नारद नाराज हो गये और भगवान विष्णु को ही श्राप दे दिया।
दरअसल, रामायण का ही एक प्रसंग है। जिसके अनुसार कहा और माना जाता है कि नारद मुनि के श्राप के कारण ही त्रेता युग में प्रभु श्रीराम को सीता माता से वियोग सहना पड़ा। प्रसंग कुछ ऐसा है कि एक बार नारद मुनि को अहंकार हो गया। अहंकार इस बात का कि उनकी नारायण भक्ति और ब्रह्मचर्य को कामदेव भंग नहीं कर सके। तब विष्णु भगवान ने देवर्षि का अहंकार तोड़ने के लिए माया से एक सुन्दर शहर का निर्माण किया। इस शहर में राजकुमारी के स्वयंवर का आयोजन हो रहा था। तभी देवर्षि नारद भी वहां पहुंचे और राजकुमारी की सुंदरता देख कर मोहित हो गए। सुंदरता में अद्वितीय राजकुमारी के प्रेम में पड़ कर देवर्षि ने विवाह करने की इच्छा जताई और इसके लिए उन्होंने भगवान विष्णु से सुन्दर रूप मांगा।

भगवान विष्णु से सुन्दर रूप लेकर नारद राजकुमारी के स्वयंवर में पहुंचे। और वहां पहुंचते ही उनका चेहरा बन्दर जैसा हो गया। पानी में अपनी छाया देखकर राजकुमारी नारद मुनि पर क्रोधित हो गई। इसके बाद भगवान विष्णु राजा रूप में स्वयंवर में पहुंचे और राजकुमारी को लेकर प्रस्थान कर गये। क्रोधित राजकुमारी की फटकार और बदसूरत चेहरे की वजह से लज्जित नारद क्षुब्ध हुए और विष्णु भगवान के पास पहुंचे। अपमान से व्याकुल नारद मुनि ने विष्णु भगवान को श्राप दे दिया कि जिस तरह आज मैं स्त्री के लिए व्याकुल हो रहा हूं, उसी प्रकार मनुष्य जन्म लेकर आपको भी स्त्री वियोग सहना पड़ेगा। इसी प्रसंग की वजह से भगवान विष्णु के अवतार प्रभु श्रीराम को माता सीता से वियोग सहना पड़ा था। हालांकि जब माया का प्रभाव हटा तब प्रभु को शापित करने पर देवर्षि नारद को अपार कष्ट हुआ। देवर्षि ने श्री नारायण से क्षमा-याचना की लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था। ऐसे में भगवान विष्णु ने उन्हें समझाया कि ये सब माया का प्रभाव था। इसमें आपका कोई दोष नहीं है।

पौराणिक ग्रंथों में देवर्षि

कई बार कुछ लोग देवर्षि नारद के होने पर सवाल भी उठाते हैं। हंसी उड़ाते हैं। जबकि देवर्षि नारद के बारे में अनेकानेक जानकारियां पौराणिक ग्रंथों में वर्णित हैं। अथर्ववेद के अनुसार नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के कथन के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के शिक्षक तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले भी नारद थे। मैत्रायणी संहिता में नारद नाम के एक आचार्य का वर्णन मिलता है। वहीं सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य के रूप में नारद की चर्चा देखने को मिलती है।

आज भी प्रासंगिक है देवर्षि का कार्य

खंगालने पर देवर्षि नारद के बारे में विस्तृत और विशाल जानकारी प्राप्त की जा सकती है। आज के संदर्भ में भी देवर्षि नारद उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पौराणिक काल में रहे होंगे। संदेश और सूचनाएं मानव मात्र की अनिवार्य आवश्कयता बन चुकी हैं। ऐसे में सही संदेश सही माध्यम से सही लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा आज के पत्रकार साथियों पर है। और उन्हें समाज के प्रति अपनी भूमिका का निर्वाह वैसे ही करना चाहिए जैसे देवर्षि नारद किया करते थे
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नीरू रानी

लेखिका हिंदी पढ़ाती हैं। सम्पर्क +917011867796, agrawalneeru4@gmail.com
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