सामयिक

जरा याद करो कुर्बानी……!

 

      जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।

      वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।।

कविवर माखनलाल चतुर्वेदी की ‘आत्माभिमान’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ स्वतन्त्रता और राष्ट्रीयता की भावना की नींव हैं। ‘स्वतन्त्रता’ एक शब्द नहीं तन-मन में बिजली की सी कौंध पैदा करने वाला भाव है। यह मनुष्य ही नहीं जीव मात्र की चाह होती है। इसी तरह किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी आकांक्षा, सबसे बड़ा सपना, सबसे बड़ी ताकत भी स्वतन्त्रता ही होती है। पराधीनता मनुष्य ही नहीं, बल्कि राष्ट्र की भी संभावनाओं को कुचल डालती है। देश और देशवासियों का स्वाभाविक और सहज विकास स्वतंत्र वातावरण में ही हो सकता है। किसी भी राष्ट्र के लिए पराधीनता से बढ़कर कोई अभिशाप नहीं होता है। इसीलिए सचेत आत्मा वाले राष्ट्र पराधीनता को सरलता से नहीं स्वीकारते। भारत एक सजग आत्मा वाला राष्ट्र रहा है। भारत ने विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा उसे गुलाम बनाने की कोशिशों के खिलाफ सतत संघर्ष किया है। स्वतंत्र रहने की इसी भावना के कारण ही भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष का इतना लम्बा और गौरवशाली इतिहास है। बीच में अपनी कुछ भूलों-गलतियों और विदेशी आक्रान्ताओं की धूर्तता और कुटिल चालों के कारण सबसे प्राचीन और समृद्ध संस्कृति वाले इस राष्ट्र के ऊपर पराधीनता के बादल छा गये थे। लेकिन इन बादलों को छाँट कर अपनी स्वतन्त्रता, अपनी अस्मिता, अपनी पहचान और अपनी सनातन संस्कृति को बचाने की लड़ाई भी भारतवासियों द्वारा बहुत मजबूती और अदम्य साहस के साथ लगातार लड़ी गयी।

हजारों-लाखों वर्ष पुरानी सनातन संस्कृति वाले भारतवर्ष को लगभग एक हजार साल की पराधीनता के कालखंड में नष्ट-भ्रष्ट करने की असंख्य कोशिशें और साजिशें हुईं। अनेक बार आक्रमण करके विदेशी आक्रान्ताओं ने लूटपाट करके, डर और लालच से मतान्तरण कराके ‘सोने की चिड़िया’ और ‘विश्वगुरू’ के रूप में सम्मानित भारतवर्ष की गौरवशाली संस्कृति को मिटाने की अनवरत कोशिशें की। परन्तु उनकी वे साजिशें असफल ही साबित हुईं। भारत माँ के करोड़ों वीरों और वीरांगनाओं के बलिदानों के परिणामस्वरूप पराधीनता की लम्बी अँधेरी रात का अंत हुआ और 15 अगस्त, 1947 को भारत देश आज़ाद हुआ। इस दिन देश स्वाधीन तो हो गया, लेकिन उसे औनिवेशिक (गुलाम) व्यवस्था और चेतना से स्वतंत्र करने का काम अधूरा ही रहा। वह काम अब जारी है। आज़ादी के अमृत महोत्सव की शुभ बेला में इस दिन को संभव करने वाले वीरों और वीरांगनाओं को याद करना राष्ट्रीय कर्तव्य है। मंगल पांडे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, तात्या टोपे, अजीमुल्ला खान, बिरसा मुंडा, वीर कुंवरसिंह, सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, उधम सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, दुर्गा भाभी, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह, नेताजी सुभासचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल, सरदार वल्लभभाई पटेल, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, वीर सावरकर, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, श्रीमती एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडू, कैप्टन लक्ष्मी सहगल आदि असंख्य क्रांतिकारियों और स्वतन्त्रता सेनानियों की यह सूची है। करोड़ों अनाम बलिदानी भी हैं जिनका नाम जाने-अनजाने इतिहास में अंकित न हो सका, लेकिन उनका त्याग, समर्पण और देशप्रेम किसी से भी कमतर नहीं था।

आजादी की लड़ाई

भारत की स्वतन्त्रता, एकता, अखंडता और संप्रभुता की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने वाले देश के लाखों जांबाजों का स्मरण करना और उन्हें श्रद्धान्जलि देना समस्त देशवासियों का सामूहिक कर्तव्य है। उनके आश्रितों और परिवार के सदस्यों का मान-सम्मान करना और उन्हें हरसंभव सुविधा और सहूलियत देना भी समाज का कर्तव्य है। हमें सदैव याद रखना चाहिए कि जो समाज अपने वीरों और बलिदानियों को सम्मान देना भूल जाता है, वह विनाश की ओर बढ़ जाता है।

हमें स्वतन्त्रता मिले 75 वर्ष हो गए हैं। स्वतन्त्रता के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत लम्बा संघर्ष किया था। इस संघर्ष में असंख्य स्वतन्त्रता सेनानियों के तप, त्याग और बलिदान की गाथायें छुपी हैं। स्वतन्त्रता के बाद जन्मी वर्तमान पीढ़ी को उनके निःस्वार्थ बलिदान, शौर्य और साहस का ज्ञान होना आवश्यक है। हमारे पूर्वजों ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए क्या किया है, इसे केवल जानना ही नहीं चाहिए बल्कि इससे प्रेरणा भी लेनी चाहिए, ताकि अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा की जा सके। अपने इन स्वतन्त्रता सेनानियों के अलावा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए कुर्बानी देने वाले सेना और अन्य सुरक्षा बलों के जाँबाज सिपाहियों को भी निरन्तर याद रखना चाहिए। आज भारतवर्ष को और आगे ले जाने की आवश्यकता है। उसके लिए वर्तमान पीढ़ी के आत्मविश्वास को बढ़ाना और उसे राष्ट्रभाव के लिए समर्पित और संगठित करना जरूरी है। ऐसा करके ही भारत को विश्व का सिरमौर बनाया जा सकता है। अपने पूर्वजों की वीरता और बलिदानों से प्रेरणा लेने वाला समाज ही सुरक्षित, संगठित, स्वतंत्र, संप्रभु और समृद्ध रह सकता है।

पीओजेके पर अक्टूबर 1947 में हुए पाकिस्तानी आक्रमण के समय मीरपुर, मुज़फ़्फ़राबाद, भिम्बर, कोटली आदि स्थानों पर हिन्दू और सिखों का क्रूरतम नरसंहार हुआ, माँ-बहनों पर अनेक अत्याचार हुए। उनमें से हजारों को अपना घर-द्वार, रोजी-रोटी, धन-संपत्ति; यहाँ तक कि प्राण भी गंवाने पड़े। लाखों निर्दोष लोग विस्थापित हुए। वे न्याय और अपने अधिकारों और घर वापसी की उम्मीद लगाये बैठे हैं। इसीप्रकार पीओजेके में रहने वाले भारतीय भी आज तक उपेक्षित और उत्पीड़ित हैं। वे अभी तक स्वतंत्र नहीं हैं, और भारत की ओर आशाभरी नज़र से देख रहे हैं। पाक अधिक्रांत जम्मू कश्मीर और चीन अधिक्रांत जम्मू कश्मीर में रह रहे भारतीयों को न्याय, सम्मान, सुरक्षा, स्वतन्त्रता और भारत की नागरिकता दिलाना प्रत्येक भारतीय का उत्तरदायित्व है। इसके लिए संकल्पबद्ध और संगठित होकर काम करने की आवश्यकता है। देश और दुनिया में इस प्रताड़ित और अधिकार-वंचित समाज के दुःख-दर्द के प्रति जन-जागरण किया जाना चाहिए। उनकी परतन्त्रता और उनपर होने वाले अत्याचारों की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करना चाहिए ताकि उनको उनका हक़ मिल सके और उनसे जबर्दस्ती छीन ली गयी भारत की नागरिकता उनको वापस मिल सके। कश्मीर घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं के साथ जो अत्याचार किए गए हैं उनसे भी हम सब परिचित हैं। ‘कश्मीर फाइल्स’ नामक फिल्म में उसके झकझोरने वाले विवरण दिखाए गए हैं। अविश्वसनीय और असीम यातनाएं सहने वाले कश्मीरी हिन्दुओं को भी न्याय मिलना चाहिए और उनकी घर वापसी के लिए सम्पूर्ण भारतवर्ष को एकस्वर में हुँकार भरनी चाहिए।

आज देश में सकारात्मक परिवर्तन की लहर है। दुनिया के सामने भारत को फिर खड़ा करने का सुनहरा अवसर आ गया है। भारत को खड़ा करने के लिए भारतीय समाज को खड़ा होना होगा। कंधे-से-कन्धा और कदम-से-कदम मिलाकर चलना होगा। हम सब बढ़ेंगे, मिलकर आगे बढ़ेंगे तभी भारत आगे बढ़ेगा। अकेले-अकेले और आपस में बँटकर कुछ हासिल नहीं होगा। ईर्ष्या, द्वेष और कटुता की जगह समता, समरसता और बंधुता हमारा स्वभाव बनें। बांटने वाली और विध्वंसकारी बातों की जगह हमारी ध्यान जोड़ने वाले और समन्वयकारी विषयों की ओर हो। भारत बोध और भारत भाव का जागरण आवश्यक है। अपने देश की मिट्टी, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदियों-पहाड़ों, साधनों-संसाधनों, परम्पराओं-रीति-रिवाजों, भाषाओं-बोलियों, सभ्यता-संस्कृति के साथ-साथ अपने देशवासियों से प्रेम करना और उनके दुःख-सुख में साथ खड़ा होना ही सच्ची देशभक्ति है। सम्पूर्ण समाज पूरी प्रतिबद्धता और एकजुटता के साथ वीर सैनिकों और बलिदानियों के परिवारों के साथ खड़ा रहे। बलिदानियों के परिवारों की ज़िम्मेदारी सरकार के साथ-साथ समाज भी ले। इन परिवारों को कभी भी अकेला महसूस न होने दे। उनके बलिदान की सार्थकता सिद्ध करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है। शहीदों के बलिदान को व्यर्थ न जाने देने की जिम्मेदारी सम्पूर्ण समाज की है। हमें एकजुट और एकस्वर होकर इस जिम्मेदारी को स्वीकार करना चाहिए।

अलग-अलग संस्थानों, मार्गों, भवनों विकास योजनाओं, पुरस्कारों और अपने बच्चों आदि का नामकरण देशभक्तों के नाम पर करें। अमर बलिदानियों के स्मारक बनाये जाएं। जम्मू कश्मीर के स्वतन्त्रता संघर्ष के ऐतिहासिक स्थलों/केन्द्रों का संरक्षण और जीर्णोद्धार किया जाये। इन बलिदानियों के जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि सामूहिक उत्सव की तरह मनायी जायें। 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय उत्सवों में बलिदानियों को अवश्य याद करें। राष्ट्र गान, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय संविधान और अन्याय राष्ट्रीय चिह्नों के प्रति ह्रदय में श्रध्दा और समर्पण भाव रखें। व्यक्ति मात्र के रूप में नहीं भारतीय के रूप में सोचने की आदत बनायें। अपने और अड़ोस-पड़ोस के गाँवों-मोहल्लों के शहीदों के बारे में पता करें और उनका नाम और उनकी वीरता की कहानी देश-समाज के सामने लायें। साहित्य, कहानी, लोकगीत, नाटक, फिल्मों, मीडिया और सोशल मीडिया आदि के माध्यम से इन अमर बलिदानियों की वीरगाथाओं को समाज के बीच लेकर जाएं ताकि वे हमारे आदर्श और प्रेरणापुंज बन सकें। विदेशी आक्रान्ताओं की क्रूरता, मतान्धता और धन-लोलुपता के बारे में भी भावी पीढ़ियों को बताएं। विभाजन की विभीषिका को भी भुलाया नहीं जा सकता। स्वतन्त्रता-प्राप्ति का मूल्य समझकर और स्वतन्त्रता का मूल्य चुकाकर ही हम अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित और संरक्षित कर सकते हैं। ऐसा करके ही सशक्त भारत और अखंड भारत के स्वप्न को भी साकार किया जा सकता है

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रसाल सिंह

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +918800886847, rasal_singh@yahoo.co.in
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